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नज़्म
کبھي اے نوجواں مسلم! تدبر بھي کيا تو نے
وہ کيا گردوں تھا تو جس کا ہے اک ٹوٹا ہوا تارا
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
बाग़-ए-इंसानी में चलने ही पे है बाद-ए-ख़िज़ाँ
आदमिय्यत ले रही है हिचकियों पर हिचकियाँ
जोश मलीहाबादी
नज़्म
चाहने वालों का उस की ज़िक्र ही क्या कीजिए
उस के दुश्मन भी सिरहाने रखते हैं उस की किताब
वामिक़ जौनपुरी
नज़्म
लेकिन ऐ इल्म-ओ-जसारत के दरख़्शाँ आफ़्ताब
कुछ ब-अल्फ़ाज़-ए-दिगर भी तुझ से करना है ख़िताब
जोश मलीहाबादी
नज़्म
आह पत्थर की लकीरें हैं कि यादों के नुक़ूश
कौन लिख सकता है फिर उम्र-ए-गुज़िश्ता की किताब
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
ज़िंदगी में मिल गए कितनों को सरकारी ख़िताब
मुफ़्त में इन को ख़रीदा मुफ़्त में बेचा गया
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
नज़्म
तैश में आकर फ़रिश्तों से किया तब यूँ ख़िताब
ज़िंदगी भर की रियाज़त का सिला ये है जनाब
सय्यद हशमत सुहैल
नज़्म
दिमाग़ बर-सर-ए-हफ़्त-आसमाँ था देहली का
ख़िताब-ए-ख़ित्ता-ए-हिन्दोस्ताँ था देहली का