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नज़्म
क्या मसनद तकिया मुल्क मकाँ क्या चौकी कुर्सी तख़्त छतर
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
आप हैं फ़ज़्ल-ए-ख़ुदा-ए-पाक से कुर्सी-नशीं
इंतिज़ाम-ए-सल्तनत है आप के ज़ेर-ए-नगीं
जोश मलीहाबादी
नज़्म
हर वक़्त मगर पढ़ते रहना कम-उम्रों का तो काम नहीं
सब अपनी अपनी कुर्सी पर सुध-बुध बिसराए बैठे हैं
शौकत परदेसी
नज़्म
लगा कर जो वतन को दाव पर कुर्सी बचाते हैं
भुना कर खोटे सिक्के धर्म के जो पुन कमाते हैं
कैफ़ी आज़मी
नज़्म
फिर से ये बताई जाने लगी बदलाव की बातें
फिर से कुर्सी क़ब्ज़ाने को होने लगीं हैं घातें