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नज़्म
मुझे उस वक़्त 'अरशद' क्यों मिरी माँ याद आती है
किसी कुटिया में देखूँ जब किसी लाचार औरत को
अरशद महमूद अरशद
नज़्म
सिर्फ़ अदब के ग़म में ग़लताँ चलने फिरने से लाचार
चेहरों से ज़ाहिर होता है जैसे बरसों के बीमार
हबीब जालिब
नज़्म
तेरी हो शोख़ी लचर है तेरा हर अंदाज़ पोच
सख़्त-तर है संग-ओ-आहन से तिरी बाहोँ का लोच