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नज़्म
अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
उसी का रूप धारे फिर रही हैं कुछ चुड़ैलें भी
मैं औरत ही नहीं कहता किसी मक्कार औरत को
अरशद महमूद अरशद
नज़्म
जिसे तुम्हारी हँसी तुम्हारे मक्कार दिल
और तुम्हारी धोके-बाज़ नाफ़ में उंडेल सकूँ!
ज़ाहिद इमरोज़
नज़्म
मगर कुछ कर नहीं पाता कि राहत रोके रखती है
कोई अफ़्साना पढ़ना हो किसी की शाइ'री पे बात करनी हो
अबु बक्र अब्बाद
नज़्म
लालची कितने ख़ुशामद-ख़ोर दौलत के ग़ुलाम
ख़ुद-ग़रज़ मक्कार इब्न-उल-वक़्त झूटों के इमाम
शातिर हकीमी
नज़्म
अब आगे सैकड़ों शाख़ा कोई छितनार है
जिस की सभी शाख़ों से ऊँची शाख़ पर मक्कार दुश्मन है
साइमा इसमा
नज़्म
मगर गुज़ारने वालों के दिन गुज़रते हैं
तिरे फ़िराक़ में यूँ सुब्ह ओ शाम करते हैं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मेरे सीने पर मगर रखी हुई शमशीर सी
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ