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नज़्म
जिधर से चल के तुम पहुँचे हो इन ज़र्रीं मनाज़िल तक
दिखाई है तुम्हें वो राह हम नाकाम लोगों ने
सलाम मछली शहरी
नज़्म
जमाल-ए-ज़ाहिरी की मंज़िलों का ज़िक्र ही क्या है
मनाज़िल हुस्न-ए-बातिन की भी पीछे छोड़ आया हूँ
अख़तर बस्तवी
नज़्म
मुझे भी लोग कहते हैं कि ये जल्वे पराए हैं
मिरे हमराह भी रुस्वाइयाँ हैं मेरे माज़ी की