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नज़्म
कितने दरख़्त तेरी तलब की मन्नत के धागों से भर गए
और ज़मीं ने उन्हें अपनी आग़ोश में ले लिया
मंज़र लतीफ़
नज़्म
सुकून-ए-दीदा-ए-तिश्ना हैं मौजा-हा-ए-सराब
ख़ुदा करे कि न टूटे तिलिस्म-ए-लात-ओ-मनात
अफ़सर सीमाबी अहमद नगरी
नज़्म
कितने दरख़्त तेरी तलब की मन्नत के धागों से भर गए
और ज़मीं ने उन्हें अपनी आग़ोश में ले लिया
मंज़र लतीफ़
नज़्म
कि जब बाज़ार-ए-ताक़त में मनात-ओ-लात और 'उज़्ज़ा
बदल कर माहियत उ’लु हुबल का विर्द करते हैं