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नज़्म
जाने उन मरमरीं जिस्मों को ये मरियल दहक़ाँ
कैसे इन तीरा घरोंदों में जनम देते हैं
साहिर लुधियानवी
नज़्म
मस्जिदें मर्सियाँ-ख़्वाँ हैं कि नमाज़ी न रहे
यानी वो साहिब-ए-औसाफ़-ए-हिजाज़ी न रहे
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
है मेरी ज़िंदगी अब रोज़-ओ-शब यक-मज्लिस-ए-ग़म-हा
अज़ा-हा मर्सिया-हा गिर्या-हा आशोब-ए-मातम-हा
जौन एलिया
नज़्म
सर्द शाख़ों में हवा चीख़ रही है ऐसे
रूह-ए-तक़्दीस-ओ-वफ़ा मर्सियाँ-ख़्वाँ हो जैसे
साहिर लुधियानवी
नज़्म
वो महव-ए-ख़्वाब जब होती थी अपने नर्म बिस्तर पर
तो उस के सर पे मर्यम का मुक़द्दस हाथ होता था
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
मुझ को है फ़ख़्र कि उस क़ौम से निस्बत है मिरी
फ़ातिमा मरियम-ओ-सीता सी हैं रहबर जिस की