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नज़्म
उरूक़-मुर्दा-ए-मशरिक़ में ख़ून-ए-ज़िंदगी दौड़ा
समझ सकते नहीं इस राज़ को सीना ओ फ़ाराबी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
तब-ए-मशरिक़ के लिए मौज़ूँ यही अफ़यून थी
वर्ना क़व्वाली से कुछ कम-तर नहीं इल्म-ए-कलाम
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
पर्दा-ए-मशरिक़ से जिस दम जल्वा-गर होती है सुब्ह
दाग़ शब का दामन-ए-आफ़ाक़ से धोती है सुब्ह
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मग़रिब के चेहरे पर यारो अपने ख़ून की लाली है
लेकिन अब उस के सूरज की नाव डूबने वाली है
हबीब जालिब
नज़्म
अकबर इलाहाबादी
नज़्म
मुस्कुरा कर ख़ालिक़-ए-अर्ज़-ओ-समा ने दी निदा
ऐ ग़ज़ाल-ए-मशरिक़ी आ तख़्त के नज़दीक आ
जोश मलीहाबादी
नज़्म
वादी-ए-मग़रिब में गुम है तेरे दिल की हर उमंग
वलवलों में तेरे शायद अर्सा-ए-मशरिक़ है तंग
जोश मलीहाबादी
नज़्म
मुश्तइल, बे-बाक मज़दूरों का सैलाब-ए-अज़ीम!
अर्ज़-ए-मश्रिक, एक मुबहम ख़ौफ़ से लर्ज़ां हूँ मैं
नून मीम राशिद
नज़्म
मशरिक़ का दिया गुल होता है मग़रिब पे सियाही छाती है
हर दिल सन सा हो जाता है हर साँस की लौ थर्राती है