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नज़्म
इक तरफ़ उज़्लत में है नक़्क़ाद-ए-मा'नी मू-शिगाफ़
ये मआ'नी हैं मुआफ़िक़ वो मतालिब हैं ख़िलाफ़
जगत मोहन लाल रवाँ
नज़्म
नज़र में फिरते होंगे कुल नताएज भी 'अवाक़िब भी
समझ में आ गए होंगे र’ऊनत के मतालिब भी
बिसमिल देहलवी
नज़्म
रूह क्या होती है इस से उन्हें मतलब ही नहीं
वो तो बस तन के तक़ाज़ों का कहा मानते हैं
साहिर लुधियानवी
नज़्म
तिब्ब-ए-मग़रिब में मज़े मीठे असर ख़्वाब-आवरी
गर्मी-ए-गुफ़्तार आज़ा-ए-मजालिस अल-अमाँ
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
इक दफ़्तर-ए-मज़ालिम-ए-चर्ख़-ए-कुहन खुला
वा था दहान-ए-ज़ख़्म कि बाब-ए-सुख़न खुला