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नज़्म
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
तारिक़ क़मर
नज़्म
क्या तुझे भी इंतिज़ार-ए-आमद-ए-महबूब है
क्यों परेशाँ इस क़दर है क्या तुझे मतलूब है
साक़िब कानपुरी
नज़्म
इम्तियाज़-ए-तालिब-ओ-मतलूब तक बाक़ी नहीं
गर्दिश-ए-दौराँ से ये लम्हा जुदा है आज-कल
नख़्शब जार्चवि
नज़्म
तुझ से खेली हैं वो महबूब हवाएँ जिन में
उस के मल्बूस की अफ़्सुर्दा महक बाक़ी है