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नज़्म
अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
तमाम रानाइयों के मज़हर, तमाम रंगीनियों के मंज़र
सँभल सँभल कर सिमट सिमट कर सब एक मरकज़ पर आ रहे हैं
जिगर मुरादाबादी
नज़्म
कहीं है इब्तिदा इस की कहीं है इंतिहा मज़हर
कहीं आग़ाज़ है उर्दू कहीं अंजाम है उर्दू
माजिद-अल-बाक़री
नज़्म
रह-ए-तारीक-ए-ज़लालत में पए ख़ल्क़-ए-ख़ुदा
शम्अ-सा मज़हर-ए-अनवार गुरु-नानक थे