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नज़्म
शहपर-ए-बुलबुल पे खींची जाए तस्वीर-ए-शिग़ाल!
मोतियों पर सब्त हो तूफ़ान की मोहर-ए-जलाल
जोश मलीहाबादी
नज़्म
बड़ी तहज़ीब और शफ़क़त से लाशों को उठाते हैं
उन्हें मालूम है ये अपने मोहरे कब बदलने हैं
तसनीम आबिदी
नज़्म
और कुछ सियासी मोहरे बिक जाएँ थोड़े धन से
दुश्मन से मिल के तोड़ें ख़ुद अपने ही वतन को