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नज़्म
अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मगर कुछ कर नहीं पाता कि राहत रोके रखती है
कोई अफ़्साना पढ़ना हो किसी की शाइ'री पे बात करनी हो
अबु बक्र अब्बाद
नज़्म
बहर-ए-तवाफ़ जाना पीर-ए-मुग़ाँ के दर पर
और उस की इक निगह से सरमस्त हो के आना
ख़ुशी मोहम्मद नाज़िर
नज़्म
मिरी क़िस्मत में इस मय-ख़ाने का साग़र नहीं यारब
एवज़ में इस के मुझ को मशरब-ए-पीर-ए-मुग़ाँ दे दे
मोहम्मद सादिक़ ज़िया
नज़्म
यहाँ परहेज़ कैसा आओ रिंदान-ए-वतन आओ
कि जाम अपना है अपना मै-कदा पीर-ए-मुग़ाँ अपना