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नज़्म
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मुद्दआ तेरा अगर दुनिया में है ता'लीम-ए-दीं
तर्क-ए-दुनिया क़ौम को अपनी न सिखलाना कहीं
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
यहीं की थी मोहब्बत के सबक़ की इब्तिदा मैं ने
यहीं की जुरअत-ए-इज़हार-ए-हर्फ़-ए-मुद्दआ मैं ने
मख़दूम मुहिउद्दीन
नज़्म
उसे क्या इल्म इन रंगीं लिफ़ाफ़ों में छुपा क्या है
किसी महवश का इन के भेजने से मुद्दआ क्या है
अख़्तर शीरानी
नज़्म
जो बयाँ इज़हार-ए-हर्फ़-ए-मुद्दआ पर ख़त्म हो
उस की बिल्कुल मुख़्तसर तम्हीद होनी चाहिए
मयकश अकबराबादी
नज़्म
ये ख़ाना-जंगियाँ जितनी हैं सब का मुद्दआ' ये है
न हरगिज़ रूनुमा हो जान बल की जान को ख़तरा