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नज़्म
इब्न-ए-मरयम भी उठे मूसी-ए-इमराँ भी उठे
राम ओ गौतम भी उठे फ़िरऔन ओ हामाँ भी उठे
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
काटती है सेहर-ए-सुल्तानी को जब मूसा की ज़र्ब
सतवत-ए-फ़िरऔन हो जाती है अज़ ख़ुद ग़र्क़-ए-आब
वामिक़ जौनपुरी
नज़्म
मुसिर है मोहतसिब राज़-ए-शहीदान-ए-वफ़ा कहिए
लगी है हर्फ़-ए-ना-गुफ़्ता पे अब ताज़ीर अल्लाह
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
ज़मीं पर किसी दिन की पहली घड़ी है
ज़मीं घूम कर अपने बाबा की जानिब मुड़ी है