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नज़्म
तिरे ज़ेर-ए-नगीं घर हो महल हो क़स्र हो कुछ हो
मैं ये कहता हूँ तू अर्ज़-ओ-समा लेती तो अच्छा था
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
इस से बद-तर लत नहीं है कोई ये लत छोड़िए
रोज़ अख़बारों में छपता है कि रिश्वत छोड़िए
जोश मलीहाबादी
नज़्म
गो सुकूँ मुमकिन नहीं आलम में अख़्तर के लिए
फ़ातिहा-ख़्वानी को ये ठहरा है दम भर के लिए
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
तूल दे कर तिरी ज़ुल्फ़ों को शब-ए-ग़म की तरह
फ़न के ए'जाज़ से नागिन सी बना देंगे तुझे