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नज़्म
फ़िदा-ए-मुल्क होना हासिल-ए-क़िस्मत समझते हैं
वतन पर जान देने ही को हम जन्नत समझते हैं
आनंद नारायण मुल्ला
नज़्म
कुछ देर को नब्ज़-ए-आलम भी चलते चलते रुक जाती है
हर मुल्क का परचम गिरता है हर क़ौम को हिचकी आती है