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नज़्म
इसी से अंग्रेज़ हुक्मरानों ने ख़ुद-सरी का जवाब पाया
इसी से मेरी जवाँ तमन्ना ने शायरी का रबाब पाया
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
कितने सीनों में शिकस्ता हैं अभी दिल के रबाब
लब-ए-ख़ामोश पे हैं नग़्मा-ए-मातम कितने
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
रबाब छेड़ ग़ज़ल-ख़्वाँ हो रक़्स-फ़रमा हो
कि जश्न-ए-नुसरत-ए-मेहनत है जश्न-ए-नुसरत-ए-फ़न
साहिर लुधियानवी
नज़्म
तू और शुग़्ल-ए-रामिश-ओ-रक़्स-ओ-रबाब-ओ-रंग
क्या तेरे साज़ में भी दहकती है कोई आग
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
इक गूँज नए अंदाज़ की है कत्थक के धमकते तोड़े में
मुरली की सुहानी संगत को ताऊस-ओ-रबाब आ जाते हैं
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
वो गीत जिस से बहारों की रूह जाग उठे
रबाब-ए-ज़ीस्त के तारों पे गाएँगे हम लोग