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नज़्म
करेगी कमरे का रुख़ जब कनीज़-ए-ख़ास हमराह हो
सियाह हो चाहे गोरी हो मगर वो साथ में जाए
इब्न-ए-मुफ़्ती
नज़्म
कि इक जुनूँ सा है मुझ पे तारी
मनाज़िर-ए-कोह-ओ-कुंज जश्न-ए-शब-ए-मुनव्वर मना रहे हैं
अब्दुल अज़ीज़ फ़ितरत
नज़्म
क्या शय है क्या कहूँ रुख़-ए-ख़ंदान-ए-सुब्ह-ए-ईद
गोया बहार पर है गुलिस्तान-ए-सुब्ह-ए-ईद
मास्टर बासित बिस्वानी
नज़्म
भड़के इक आह कहा चाँद ने यूँ ज़ोहरा से
ऐ निगार-ए-रुख़-ए-ज़ेबा-ए-बहार-ए-अफ़्लाक
तसद्द्क़ हुसैन ख़ालिद
नज़्म
तेरी उल्फ़त के है क़ाबिल रुख़-ए-ज़ेबा-ए-बहार
जिस के अनमोल जवाहर का नहीं कोई शुमार