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नज़्म
बासित अली राजा
नज़्म
रात हँस हँस कर ये कहती है कि मय-ख़ाने में चल
फिर किसी शहनाज़-ए-लाला-रुख़ के काशाने में चल
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
जिन की आँखों को रुख़-ए-सुब्ह का यारा भी नहीं
उन की रातों में कोई शम्अ मुनव्वर कर दे