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नज़्म
यही वो मंज़िल-ए-मक़्सूद है कि जिस के लिए
बड़े ही अज़्म से अपने सफ़र पे निकले थे
सय्यदा शान-ए-मेराज
नज़्म
सीटियाँ बजने लगीं ख़िदमत-ए-सरकार बजा लाना है
और सरकार ही ख़ुद संग-ए-रह-ए-मंज़िल है
मोहम्मद दीन तासीर
नज़्म
फ़रेब-ए-आरज़ू ने कर दिया गुम-गश्ता-ए-मंज़िल
कि गर्द-ए-राह भी संग-ए-निशाँ मालूम होती है