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नज़्म
भीगी भीगी खाल की अंधी रौनक़ से वाक़िफ़ हूँ मैं भी
जिस्मों से सैलाबी पेच-ओ-ख़म से घिस कर
रियाज़ लतीफ़
नज़्म
मुसलमाँ को मुसलमाँ कर दिया तूफ़ान-ए-मग़रिब ने
तलातुम-हा-ए-दरिया ही से है गौहर की सैराबी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मस्ताना हाथ में हाथ दिए ये एक कगर पर बैठे थे
यूँ शाम हुई फिर रात हुई जब सैलानी घर लौट गए
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
मुझे इक लड़का आवारा-मनुश आज़ाद सैलानी
मुझे इक लड़का जैसे तुंद चश्मों का रवाँ पानी
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
फूट निकला दर-ओ-दीवार से सैलाब-ए-नशात
अल्लाह अल्लाह मिरा कैफ़-ए-नज़र आज की रात
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
मगर ये मय-कश कभी किसी के लहू से सैराब कब हुआ है
हमेशा आँसू पिए हैं उस ने हमेशा अपना लहू पिया है
तारिक़ क़मर
नज़्म
है दश्त अब भी दश्त मगर ख़ून-ए-पा से 'फ़ैज़'
सैराब चंद ख़ार-ए-मुग़ीलाँ हुए तो हैं