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नज़्म
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मिरी बिगड़ी हुई तक़दीर को रोती है गोयाई
मैं हर्फ़-ए-ज़ेर-ए-लब शर्मिंदा-ए-गोश-ए-समाअत हूँ
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
तारिक़ क़मर
नज़्म
धनक गीत बन के समाअ'त को छूने लगी हो
शफ़क़ नर्म कोमल सुरों में कोई प्यार की बात कहने चली हो
परवीन शाकिर
नज़्म
हद-ए-समाअत से आगे जाने वाली आवाज़ों के रेशम से
अपनी रू-ए-सियाह पे तारे काढ़ते रहते हैं
परवीन शाकिर
नज़्म
निगाहें धुंद के पर्दों में उन को ढूँडती हैं
और समाअत उन की मीठी नर्म आहट के लिए
अमजद इस्लाम अमजद
नज़्म
वही इक अजनबी वारफ़्तगी और रक़्स का लम्हा
कहीं पर दौर-ए-आइंदा के मौसम की समाअ'त में