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नज़्म
और इक जाम-ए-मय-ए-तल्ख़ चढ़ा लूँ तो चलूँ
अभी चलता हूँ ज़रा ख़ुद को सँभालूँ तो चलूँ
मुईन अहसन जज़्बी
नज़्म
हम ने इस इश्क़ में क्या खोया है क्या सीखा है
जुज़ तिरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
रात में जिन के बच्चे बिलकते हैं और
नींद की मार खाए हुए बाज़ुओं में सँभलते नहीं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
कहा ये सुन के गिलहरी ने मुँह सँभाल ज़रा
ये कच्ची बातें हैं दिल से इन्हें निकाल ज़रा!
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
तेरा ग़म्माज़ बना ख़ुद तिरा अंदाज़-ए-ख़िराम
दिल न सँभला था तो क़दमों को सँभाला होता