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नज़्म
जौन एलिया
नज़्म
अब उस के वास्ते ख़ुद को न यूँ तबाह करो
अब इम्तिहाँ की तमन्ना से फ़ाएदा क्या है
कफ़ील आज़र अमरोहवी
नज़्म
याँ तक नज़र से उस को गिराती है मुफ़्लिसी
जिस वक़्त मुफ़्लिसी से ये आ कर हुआ तबाह
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
सरज़द हुए थे मुझ से ख़ुदा जाने क्या गुनाह
मंजधार में जो यूँ मिरी कश्ती हुई तबाह
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
साज़-ए-दौलत को अता करती है नग़्मे जिस की आह
माँगता है भीक ताबानी की जिस से रू-ए-शाह
जोश मलीहाबादी
नज़्म
हो लब पे नग़मा-ए-महर-ओ-वफा की ताबानी
किताब-ए-दिल पे फ़क़त हर्फ़-ए-इश्क़ हो तहरीर
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
घर से लाया था जो कुछ तब्-ए-रवाँ ज़ेहन-ए-रसा
साथ उस के रहे असबाब-ए-तबाही बन कर
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
नज़्म
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
यही वादी है वो हमदम जहाँ 'रेहाना' रहती थी
तबाही की हवा इस ख़ाक-ए-रंगीं तक न आई थी
अख़्तर शीरानी
नज़्म
तबाही के फ़रिश्ते जब्र के शैतान हाएल हैं
मगर मैं अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ता ही जाता हूँ