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नज़्म
तेरा ज़ाहिर ख़ुशनुमा है तेरा बातिन है सियाह
हर अदा तेरी मुकम्मल दावत-ए-जुर्म-ओ-गुनाह
माहिर-उल क़ादरी
नज़्म
गर मुकर्रर अर्ज़ करते हैं तो कहते हैं वो शोख़
हम से लेते हो मियाँ तकरार-ओ-हुज्जत ता-ब-कै
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
जो अपने नादीदा पिदर की हिर्स ओ गुनह के पछतावे को
अपने अपने कंधे पर लादे फिरते हैं