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नज़्म
अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
रग-ए-जहाँ में थिरक रही है शराब बन कर तिरी जवानी
दिमाग़-ए-परवर-दिगार में जो अज़ल के दिन से मचल रहा था
मजीद अमजद
नज़्म
दरिया थिरक रहा है तो बन दे रहा है ताल
मैं अफ़्रीक़ा हूँ धार लिया मैं ने तेरा रूप
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
कुछ उछलीं सुन्नतें नाज़ भरीं कुछ गोदें आईं थिरक थिरक
ये रूप दिखा कर होली के जब मैन रसीले टुक मटके
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
ज़िया जालंधरी
नज़्म
ज़िया जालंधरी
नज़्म
पलीद चमगादड़ों का चेहरा नहीं तका था
अगरचे कैंसर के ज़र्द कीड़े रजज़ की लय पर थिरक रहे थे