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नज़्म
इन्हीं फ़ज़ाओं में बचपन पला था 'ख़ुसरव' का
इसी ज़मीं से उठे 'तानसेन' और 'अकबर'
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
क़ुरआँ से धुआँ सा उठता है ईमान का सर झुक जाता है
तस्बीह से उठते हैं शो'ले सज्दों को पसीना आता है
नुशूर वाहिदी
नज़्म
याँ हर-दम झगड़े उठते हैं हर-आन अदालत बस्ती है
गर मस्त करे तो मस्ती है और पस्त करे तो पस्ती है
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
झूम उठते हैं फ़रिश्ते तक तिरे नग़्मात पर
हाँ ये सच है ज़मज़मे तेरे मचाते हैं वो धूम
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
इब्न-ए-मरयम भी उठे मूसी-ए-इमराँ भी उठे
राम ओ गौतम भी उठे फ़िरऔन ओ हामाँ भी उठे
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
क्या अच्छा ख़ुश-बाश जवाँ था जाने क्यूँ बीमार हुआ
उठते बैठते मीर की बैतें पढ़ना उस का शिआर हुआ
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
अदा से हाथ उठते हैं गुल-ए-राखी जो हिलते हैं
कलेजे देखने वालों के क्या क्या आह छिलते हैं