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नज़्म
वादी-ए-मग़रिब में गुम है तेरे दिल की हर उमंग
वलवलों में तेरे शायद अर्सा-ए-मशरिक़ है तंग
जोश मलीहाबादी
नज़्म
मशरिक़ी पतलूँ में थी ख़िदमत-गुज़ारी की उमंग
मग़रिबी शक्लों से शान-ए-ख़ुद-पसंदी आश्कार
अकबर इलाहाबादी
नज़्म
नस्ल क़ौमिय्यत कलीसा सल्तनत तहज़ीब-ओ-रंग
रौंद चुकती है जब इन सब को जवानी की उमंग
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
सालहा-साल की अफ़्सुर्दा ओ मजबूर जवानी की उमंग
तौक़ ओ ज़ंजीर से लिपटी हुई सो जाती है