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नज़्म
वसूल होते हैं पहले ये नामा-ओ-पैग़ाम
कि ऐ शहंशह-ए-अक़्लीम-ए-'हाफ़िज़'-ओ-'ख़य्याम'
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
यूँ गुमाँ होता है गरचे है अभी सुब्ह-ए-फ़िराक़
ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
आलम-ए-सोज़-ओ-साज़ में वस्ल से बढ़ के है फ़िराक़
वस्ल में मर्ग-ए-आरज़ू! हिज्र में ल़ज़्जत-ए-तलब!
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
लिखा गया है बहुत लुतफ़-ए-वस्ल ओ दर्द-ए-फ़िराक़
मगर ये कैफ़ियत अपनी रक़म नहीं है कहीं