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नज़्म
हमारा बाहमी रिश्ता जो हासिल-तर था रिश्तों का
हमारा तौर-ए-बे-ज़ारी भी कितना वालिहाना है
जौन एलिया
नज़्म
वो हिकमत नाज़ था जिस पर ख़िरद-मंदान-ए-मग़रिब को
हवस के पंजा-ए-ख़ूनीं में तेग़-ए-कार-ज़ारी है
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
दफ़्तर-ए-हस्ती में थी ज़र्रीं वरक़ तेरी हयात
थी सरापा दीन ओ दुनिया का सबक़ तेरी हयात
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ये तिरी आँखों की बे-ज़ारी ये लहजे की थकन
कितने अंदेशों की हामिल हैं ये दिल की धड़कनें
अहमद फ़राज़
नज़्म
कभी मोहब्बत ने ये कहा था मैं एक महबूब आदमी हूँ
मगर वो ज़र्ब-ए-जफ़ा पड़ी है कि एक मज़रूब आदमी हूँ
तारिक़ क़मर
नज़्म
रिश्वतों की ज़िंदगी है चोर-बाज़ारी के साथ
चल रही है बे-ज़री अहकाम-ए-ज़रदारी के साथ
जोश मलीहाबादी
नज़्म
काटती है सेहर-ए-सुल्तानी को जब मूसा की ज़र्ब
सतवत-ए-फ़िरऔन हो जाती है अज़ ख़ुद ग़र्क़-ए-आब
वामिक़ जौनपुरी
नज़्म
देख तुझ पर इल्म की भरपूर पड़ जाए न ज़र्ब
भाग इस पर्दे में हैं शैतान के आलात-ए-हर्ब
जोश मलीहाबादी
नज़्म
उठाना हाथ प्यारे वाह-वा टुक देख लें हम भी
तुम्हारी मोतियों की और ज़री के तार की राखी