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नज़्म
दफ़अ'तन सोच के इक अजनबी झोंके ने मुझे छेड़ दिया
जाने कब से ये मुसाफ़िर है जज़ीरे में मुक़य्यद तन्हा
वज़ीर आग़ा
नज़्म
न बद-ज़नी की हो कुल्फ़त न डर सज़ा का हो
न इल्तिजा-ए-करम से करूँ मैं ख़ुद को हक़ीर