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आदमी

MORE BYसय्यद मोहम्मद अशरफ़

    खिड़की के नीचे उन्हें गुज़रता हुआ देखता रहा। फिर यकायक खिड़की ज़ोर से बंद की। मुड़कर पंखे का बटन ऑन किया। फिर पंखे का बटन ऑफ़ किया। मेज़ के पास कुर्सी पे टिक कर धीमे से बोला, “आज तवक्कुल से भी ज़ियादा हैं। रोज़ बढ़ते ही जा रहे हैं।”

    सरफ़राज़ ने हथेलियों पर से सर उठाया और अनवार को देखा, “तुमने तो दो ही दिन देखा है ना। मैं बहुत दिन से देख रहा हूँ। खिड़की बंद रखूँ तो घुटन होती है, खोल दूँ तो दिल और ज़ियादा घबराता है। लगता है जैसे सब इधर ही रहे हों।”

    सरफ़राज़ चुप हो गया। फिर एक लम्हे के बा’द बोला, “आज तुमसे इतने बरसों के बा’द मुलाक़ात हुई थी तो दिल कितना ख़ुश था कि फिर ये लोग...”

    “मैंने तुम्हें सफ़र का वाक़ि’आ भी तो बता दिया था। मैं भी सिर्फ़ दो ही दिन से थोड़े ही देख रहा हूँ। उधर गाँव में भी आजकल यही ‘आलम है। कुछ अंदाज़ा ही नहीं हो पाता क्या होगा।”

    सरफ़राज़ ने चाहत भरी नज़रों से अपने बचपन के साथी अनवार को देखा जिससे आज पंद्रह साल बा’द मुलाक़ात हुई थी। दोनों की बहुत सारी यादें एक सी थीं। जब वो बहुत छोटा सा था तभी अपने ख़ालू के घर पढ़ने भेज दिया गया था। ख़ालू का घर एक बड़े देहात में था जहाँ से दो मील के फ़ासले पर बसे क़स्बे में इंटर कॉलेज था। वहीं पहले ही दिन एक हम-‘उ’म्‍र लड़के ने बहुत बे-तकल्लुफ़ी के साथ उसकी रबड़ ले कर अपनी आर्ट की कापी पर ग़ुब्बारे-नुमा फूल मिटा कर एक लैम्प-नुमा बत्तख़ बनाकर उसकी रबड़ वापस कर दी थी। हाज़िरी के वक़्त उसका नाम पुकारा गया था।

    “सय्यद अनवार अली।”

    “हाज़िर जनाब...”, सरफ़राज़ धीरे से बोला।

    “सय्यद अनवार अली!”

    “हाज़िर जनाब, तुम्हें स्कूल याद रहा होगा।”

    “हाँ, तुम्हें कैसे मा’लूम?”

    “यार तुम अब भी पहले की तरह घामड़ बातें करते हो। मेरा पूरा नाम हाज़िरी के वक़्त ड्राइंग मास्साब के ‘अलावा और कौन पुकारता था।”

    सरफ़राज़ ये सुनकर मुस्कुराया, हालाँकि घामड़ वाला जुमला उसे बुरा लगा था लेकिन वो सोच कर मुतमइन हो गया कि आज मैं अफ़सर की ऊँची कुर्सी पे बैठा हूँ। मेरा बचपन का ये दोस्त प्राइमरी स्कूल में उर्दू टीचर है। अपने एहसास-ए-कमतरी पे क़ाबू पाने के लिए उसे ऐसे ही जुमले बोलने चाहिए। फिर उसने सोचा अनवार ही तो उसे स्कूल से वापसी पर हौसला देता था वर्ना क़स्बे से देहात तक फैले जंगल, सुनसान बाग़ों और ख़ामोश खेतों में हो कर गुज़रने में उसकी रूह आधी रह जाती थी। सरफ़राज़ ने सर कुर्सी की पुश्त से लगाया और आँखें बंद कर लीं और बचपन की उस दहशत को याद किया और उस याद में मज़ा महसूस किया।

    जाड़ों के शुरू’ में चार बजे स्कूल की आख़िरी घंटी बजती। सब के सब ग़ुल-गपाड़ा करते तेज़ी से निकलते वक़्त और मस्त चाल से, बस्ते कंधे पे डाले अपने अपने घरों को रवाना हो जाते। सरफ़राज़ के देहात का कोई भी लड़का कॉलेज पढ़ने नहीं आता था। वो रास्ते की दहशत के ख़याल से सहमा-सहमा, धीरे-धीरे क़दमों से कॉलेज के गेट से बाहर निकलता। अनवार कभी उसके साथ होता, कभी नहीं होता। जब होता था तो तालाब तक छोड़ने ज़रूर आता था। तालाब से आगे वो भी नहीं बढ़ता था क्योंकि तालाब के बा’द सड़क मुड़ गई थी और मोड़ के बा’द पीछे देखने पे क़स्बा ग़ाइब हो जाता था। रुख़्सत होते वक़्त वो उसकी हिम्मत बढ़ाता था।

    “तुम डरना मत सरफ़राज़, नहर की पटरी पार करोगे तो बाग़ में दाख़िल होने पर कोई कोई आदमी मिल ही जाएगा।”

    सरफ़राज़ उसकी तरफ़ बेबस नज़रों से देखता और इस ख़याल से कि अनवार पर उसका डर ज़ाहिर हो, चेहरे पे बहादुरी के तेवर सजा कर जवाब देता, “नहीं डरने की क्या बात है। बाग़ में कभी-कभी आदमी मिल जाता है तो ज़रा इत्मीनान रहता है और नहीं मिलता है तब भी मैं घबराता नहीं हूँ।”

    ये कह कर देहात की तरफ़ चल पड़ता। दोनों पीछे मुड़कर एक दूसरे को देखते रहते। सरफ़राज़ अनवार के ओझल होते ही गर्दन के ता’वीज़ को छूकर महसूस करता और जल्दी-जल्दी आयतुल-कुर्सी पढ़ने लगता। नहर की पटरी पर मुड़ने से पहले वो चारों क़ुल पढ़ कर अपने सीने पर फूँकता और फूँक-फूँक कर क़दम रखता हुआ बाग़ की तरफ़ बढ़ने लगता। ये ग़ुरूब का वक़्त होता था।

    सर्दियों में शामें जल्द जाती थीं। नहर की पटरी पर मुड़ने से पहले कच्ची सड़क पर इक्का-दुक्का आदमी साइकिल पे आते-जाते मिल जाते या घंटियाँ बजाती बैलगाड़ियाँ गुज़रतीं तो उसे तक़वियत का एहसास रहता लेकिन पटरी पे मुड़ते ही बिल्कुल सन्नाटा हो जाता था। ऊपर शीशम के दरख़्त पे बैठा कोई गिद्ध शाख़ बदलता, पर खोल कर बराबर करता तो वो आवाज़ उस सन्नाटे को और डरावना बना देती। और यही वो वक़्त होता था जब वो आयतुल-कुर्सी भूल जाता था। वो क़ुल-हुवल्लाह पढ़ना शुरू’ कर देता। इसी दर्मियान तेज़ी से अव्वल कलिमा-ए-तय्यब भी पढ़ लेता।

    और अब सामने बाग़ आता, आमों का बूढ़ा बाग़। डूबते सूरज की ज़र्द रौशनी में कोहरे में लिपटा बाग़ जिसके अंदर दोपहर के वक़्त भी सूरज डूबने वाले वक़्त जैसा अँधेरा होता था क्योंकि एक दिन इतवार को उसने दोपहर के वक़्त भी ये बाग़ देखा था। शाम के वक़्त ये बाग़ बिल्कुल बदल जाता। लगता जैसे सारे दरख़्तों की चोटियाँ आपस में गुँध गई हैं। फ़ज्री के दरख़्त के नीचे से हो कर गुज़रते हुए उसे अपने दिल की तेज़-तेज़ धड़कन साफ़ सुनाई देती। उसे लगता जैसे जिन्नात बाबा दरख़्त से अब उतरे।

    बाग़ से निकल कर ईख के खेतों के पास मेंढ पर गुज़रते हुए उसे महसूस होता कि अभी ईख के खेत से निकल कर भेड़िया उसकी टाँग पकड़ लेगा। वो पसीने-पसीने हो जाता। फिर गेहूँ के खेत आते, फिर पलखन के दरख़्त के ऊपर गाँव की मस्जिद के मीनारे और मंदिर के कलस नज़र आते। तब आहिस्ता-आहिस्ता उसके बदन का खिंचाव दूर होता। टाँगों में ताक़त का एहसास पैदा होता, फिर वो बुलन्द आवाज़ में कोई फ़िल्मी गाना गाने लगता।

    महीने में दो-चार बार ऐसा भी होता कि बाग़ में दाख़िल होते ही उसे आदमी नज़र जाता जो ‘उमूमन फावड़ा लिये झोंपड़ी की तरफ़ जा रहा होता था। उसे देखकर सरफ़राज़ बाग़ में ही फ़िल्मी गाना शुरू’ कर देता। गाना बीच में रोक कर वो बहुत अपनाइयत के साथ आदमी को सलाम करता। आदमी उसका सलाम सुनकर फावड़ा ज़मीन पर रख कर आँखें मिचमिचा कर उसे देखता।

    “राम-राम बेटा, पटवारी साहब के भांजे हो। उन्हें हमारा राम-राम बोलना।”, वो रोज़ाना इसी भरोसे पे कॉलेज से घर आने की हिम्मत कर पाता था कि शायद आज भी आदमी मिल जाए। अगर ये आसरा होता तो वो रो-पीट कर कॉलेज से नाम कटा कर अपने गाँव वापस जा चुका होता।

    लेकिन आदमी रोज़ाना नहीं मिलता था। एक दिन कॉलेज से निकलते-निकलते देर हो गई। वो ग्रांऊड पर वालीबाल का मैच देखने में ऐसा मह्‌व हुआ कि वक़्त का एहसास ही नहीं हुआ। जब देर का एहसास हुआ तो उसने सूरज की तरफ़ देखा जो आज क़स्बे में ही ज़र्द हो गया था। वो तेज़ी से कॉलेज के गेट से निकला और देहात की तरफ़ चल पड़ा। नहर की पटरी पर मुड़ते ही उसने अपने बदन में ये सोच कर सनसनी महसूस की कि अब तो बाग़ से आदमी भी चला गया होगा। उसने माथे का पसीना पोंछा और शीशम के दरख़्त के नीचे से गुज़रा। दरख़्त के नीचे से निकलते ही उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे कोई दरख़्त से उतर कर उसके पीछे चल पड़ा हो। उसे महसूस हुआ जैसे उसका हल्क़ बंद हो रहा है। वो सहमा-सहमा धीमे-धीमे क़दमों से आगे बढ़ा। पीछे की आहट अचानक थम गई। उसे लगा जैसे जिन्नात बाबा पीछे से उसकी कमर का निशाना लेकर जादू की गेंद मारने ही वाले हैं। उसने तेज़ी से कलिमा पढ़ा और कनखियों से पीछे देखा।

    वो एक बड़ा बंदर था जो चलते चलते अचानक रुक कर ज़मीन पर दोनों हथेलियाँ टेके उसकी तरफ़ देखकर ख़र-ख़र कर रहा था। उसे बंदर से भी डर लगता था लेकिन जिन्नात बाबा के मुक़ाबले में कम। उसने अपना बस्ता बहुत कस के पकड़ा और बाग़ के सामने जाकर खड़ा हो गया। आज आगे का रास्ता भी बंद था और पीछे का भी। आगे सुनसान बाग़ जिसमें अब आदमी होने की उसे कोई उम्मीद नहीं थी और पीछे बंदर। सूरज डूबे देर हो चुकी थी और बाग़ के दरख़्त धीमी आवाज़ में शाम की सरगोशियाँ शुरू’ कर चुके थे। वो बाग़ में दाख़िल हुआ। आगे बूढ़े फ़ज्री के पास से गुज़रते हुए उसका दिल ज़ोर से धड़का। यही जिन्नात बाबा का अस्ली घर है। दाहिनी सम्त से आवाज़ आई, “आज बहुत देर की बेटा।”

    अरे... आदमी मौजूद है। उसे इतनी ख़ुशी उस दिन भी नहीं हुई थी जिस दिन इंग्लिश वाले मास्साब ने “माई काओ” लिखने पर उसे “वेरी गुड” दिया था। उसने आदमी की तरफ़ निगाहें उठाईं। वो झोंपड़ी के क़रीब दरख़्तों के पास कोहरे में खड़ा था। उसने ग़ौर से देखा, उसका फावड़ा उसके एक हाथ में था जिसे वो ज़मीन पर टिकाए हुए था। दूसरे हाथ से वो अंगोछे को कानों पे बराबर कर रहा था। कोहरे में लिपटा, धोती-कुर्ता, अंगोछे पहने ये आदमी उसे हज़रत-ए-ख़िज़्‍र ’अलैहिस्सलाम का नौकर लगा।

    “आदमी सलाम”, वो चहक कर बोला।

    “जीते रहो बेटा, पटवारी साब को हमारा राम-राम कहना। अँधेरा मत किया करो।”

    उसने कोई जवाब नहीं दिया। घर आकर खाना खा के दालान में बैठी ख़ाला के कलेजे से लग कर उसने उन्हें पूरा वाक़ि’आ सुनाया। वो चाहता था ख़ालू और ख़ाला को ‘इल्म हो जाए कि स्कूल की पढ़ाई के ‘अलावा रास्ते में वापसी के लिए उसे कैसी जोखम उठाना पड़ती है। मगर ख़ाला को जब ये मा’लूम हुआ कि वालीबाल के मैच के चक्कर में उसे देर हुई तो वो हमदर्दी के बजाए उल्टा उसे डाँटने लगीं। रात को दालान में रज़ाई से बदन अच्छी तरह लपेट कर उसने सोचा अगर वो आदमी मर गया तो मैं स्कूल से कैसे वापस आया करूँगा। फिर ये सोच कर मुतमइन हुआ कि वो आदमी देखने में तो ख़ालू से भी छोटा लगता है, अभी नहीं मरेगा।

    “सरफ़राज़ तुम्हारी ख़ाला की बेटी की शादी है। ख़ाला ने मुझे बुला कर कहा कि सरफ़राज़ तू हमें बिल्कुल भूल गया। तुम उससे जाकर कहो कि ख़ाला और ख़ालू उसे देखने को बहुत बेताब हैं। उसे शादी में ज़रूर आना है।”

    सरफ़राज़ को यह सुन कर बहुत नदामत हुई। वो नदामत के इस एहसास को छुपाना चाहता था। उसने सन्जीदा लहजे लेकिन खोखली आवाज़ में अनवार को बताया कि सरकारी मुलाज़िमत ख़ुसूसन ज़िम्मेदारी के ‘ओह्दे पर काम करने में बिल्कुल फ़ुर्सत नहीं मिलती। फिर उसे आइशा की याद आई जिसे उसने अपनी गोद में खिलाया था। वो कितनी जल्दी इतनी बड़ी हो गई।

    “शादी कब है?”

    “परसों बारात आएगी।”

    “अरे, इन हालात में तारीख़ क्यों रख दी ख़ाला ने। तुमने देखा नहीं, कैसे दीवाने हो रहे हैं सब, लाल भभूका चेहरे लिए ट्रकों और ट्रैक्टरों पर जुलूस निकाल रहे हैं। हाथों में हथियार और कैसे नफ़रत-अंगेज़ ना’रे...”

    अनवार उसे देखता रहा। फिर बोला, “मैंने भी ख़ाला से कहा था कि आजकल तक़रीब करने वाला वक़्त नहीं है। गाँव-गाँव में वो बात फैल गई है। ख़ुद उन्हीं के गाँव में लोगों के लहजे बदल गए हैं। मगर ख़ाला की भी मजबूरी है। ख़ालू के भाई के बेटे से रिश्ता तय हुआ है जो तीन दिन बा’द जद्दा वापस चला जाएगा। ख़ालू भी अब बहुत कमज़ोर हो गए हैं। अपने सामने आइशा के फ़र्ज़ से सुबुक-दोश होना चाहते हैं। तुम्हें आज ही चलना होगा सरफ़राज़। भाभी को फ़ोन करके तय्यार रहने को कह दो।”

    “क्या तुमने अख़बार नहीं पढ़ा अनवार? परसों रेलगाड़ी से उतारकर...”, वो चुप हो गया। अनवार भी ख़ामोश हो गया। फिर बोला, “अच्छा तो भाभी और बच्चों को यहीं रहने दो।”

    “हाँ, उन लोगों को नहीं ले जा पाऊँगा।”

    “ग्यारह बजे हैं... अगर बारह बजे भी कार से चलें तो शाम छः सात बजे तक ख़ाला के हाँ पहुँच जाएँगे।”

    “हाँ, तक़रीबन ढाई तीन सौ किलोमीटर का सफ़र है।”

    रास्ते में नहर के पुल पर अचानक कुछ लोगों ने गाड़ी के सामने कर गाड़ी रोकने का इशारा किया। दोनों के दिल बैठ गए क्योंकि बचाव के लिए उनके पास कोई हथियार भी नहीं था। सामने पुल पर ट्रक और ट्रैक्टरों का जुलूस रहा था। लोग दीवाना-वार ना’रे लगा रहे थे और एक ‘अजीब जज़्बे के साथ आगे बढ़ते चले रहे थे। दोनों के ज़ेह्‌नों ने काम करना बंद कर दिया। दोनों गाड़ी में बैठे रहे। जुलूस बराबर से गुज़रता रहा। गाड़ी रुकवाने वाले वहीं खड़े खड़े ना’रों का जवाब देते रहे। सरफ़राज़ ने आयतुल-कुर्सी याद की।

    जुलूस गुज़र गया तो वो लोग भी ज़ोर-ज़ोर से कुछ बातें करते जुलूस के साथ बढ़ गए। सरफ़राज़ सख़्त ज़ेह्‌नी दबाव में था इसलिए गाड़ी फ़ौरन स्टार्ट नहीं कर सका। दोनों बैठे एक दूसरे का डर महसूस करते रहे। सरफ़राज़ ने गाड़ी स्टार्ट की तो अनवार बोला, “खुले ‘आम सड़क पर इक्का-दुक्का आदमियों से कुछ नहीं कहते। इक्का-दुक्का आदमियों से निपटने के लिए शहर-शहर गाँव-गाँव लोगों को तय्यार किया गया है। पिछले जुमा’ को जब अहमद शहर की पटरी से बाग़ की तरफ़ मुड़ा तो अचानक किसी ने पीछे से...”

    सरफ़राज़ के बदन में सर से पाँव तक सनसनी दौड़ गई, वो ख़ाली ज़ेह्‌न के साथ गाड़ी चलाता रहा। अनवार बताता रहा, “अगर पूरा जुलूस इक्का-दुक्का आदमियों पर हमला करे तो बदनामी भी तो बहुत होगी। वैसे अपनी तरफ़ से भी तय्यारियाँ ठीक-ठीक हैं। उसने ये बात राज़दारी के लहजे में बताई। जब वो नहर की पटरी पर मुड़े तो सूरज डूब रहा था। सरफ़राज़ को अपना बचपन याद गया। तब उसे ये ख़ामोश नहर, सुनसान पटरी और साँय-साँय करते बाग़ कितने भयानक लगते थे। उसने अचानक गाड़ी के ब्रेक लगाए। हैडलाइट की रोशनी में एक बड़ा सा बंदर हथेलियाँ ज़मीन पर टेके उनकी तरफ़ देख कर ख़र-ख़र कर रहा था। दोनों मुस्कुराए। बंदर भाग कर दरख़्त पर चढ़ गया। ऊपर किसी गिद्ध ने पहलू बदला तो फड़फड़ाहट की आवाज़ हुई। सरफ़राज़ ने सोचा पहले इस फड़फड़ाहट से कितना डर लगता था।

    “तो ये अहमद दुकानदार वाला मु’आमला कब हुआ था?”

    “आज चार दिन हो गए।”

    “अरे...”, सरफ़राज़ की हथेलियाँ स्टीयरिंग व्हील पर नम हो गईं।

    “क्या हुआ?”, अनवार ने पूछा। हालाँकि उसे मा’लूम था कि क्या हुआ।

    “नहीं कुछ नहीं, या’नी अभी बिल्कुल ताज़ा वाक़ि’आ है। कुछ पता लगा?”

    “पता क्या लगता, उल्टे थानेदार ने दफ़्न के बा’द ही सबको डाँटा कि जब ऐसे हालात चल रहे हैं तो सूरज मुंदे घर से बाहर निकलने ही क्यों दिया। अँधेरे में हमला करने वालों को मारकर भागने में सहूलत रहती है।”

    “गाड़ी यहीं रोक कर बैक करके लगा दो, आगे रास्ता नहीं है।”, अनवार बोला।

    पटरी से उतरते ही बाग़ सामने गया। सरफ़राज़ ने गाड़ी बैक करके लगा दी और बाग़ के सामने जाकर खड़ा हो गया। कोहरे में लिपटा बाग़ बहुत दिन बा’द देखा था। आज उसे बाग़ से कोई ख़ौफ़ महसूस नहीं हुआ लेकिन एक अ’जीब सा सन्नाटा दोनों के अंदर ख़ामोशी से उतर आया था जो बातें करने के बावुजूद टूट नहीं रहा था।

    दोनों जब जिन्नात बाबा वाले पुराने दरख़्त के पास से गुज़र रहे थे तो सरफ़राज़ ने अचानक रुक कर अनवार का हाथ इतने ज़ोर से दबाया कि दुखन हड्डियों तक पहुँच गई।

    अनवार ने सरफ़राज़ की तरफ़ देखा। सरफ़राज़ ने आँख के इशारे से बाग़ की बड़ी मेंढ़ की तरफ़ इशारा किया। अनवार को कुछ नज़र नहीं आया। अँधेरे में वो उस जगह का त’अय्युन भी नहीं कर पाया जहाँ सरफ़राज़ ने इशारा किया था। सरफ़राज़ ने इस बार और भी ज़ियादा ज़ोर से हाथ दबाया और उसका हाथ मज़बूती से पकड़े--पकड़े वापस मुड़ा और खींचने वाले अंदाज़ में दौड़ता, गिरता, सँभलता बाग़ से बाहर निकला। गाड़ी में अनवार को धकेल कर गाड़ी स्टार्ट की और फ़ुल स्पीड पर नहर की पटरी पर चढ़ाकर पुल पार करके कच्ची सड़क पर गया। सरफ़राज़ शदीद खिंचाव के ‘आलम में गाड़ी चला रहा था। उसका चेहरा हौले-हौले काँप रहा था और पूरा बदन पसीने से शराबोर हो चुका था।

    “अब दूर निकल आए हैं, बताओ तो सही क्या बात थी?”, सरफ़राज़ ने गाड़ी रोक दी।

    “बाग़ की मेंढ पर दरख़्तों के दर्मियान एक आदमी झुका खड़ा था। उसके हाथ में कोई हथियार था जिसे वो ज़मीन पर टिकाए हुए था।”

    स्रोत:

    Daar Se Bichhde (Pg. 10)

    • लेखक: सय्यद मोहम्मद अशरफ़
      • प्रकाशक: सय्यद मोहम्मद अशरफ़
      • प्रकाशन वर्ष: 1994

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