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ऐ मुहब्बत ज़िंदाबाद

ज़मीरउद्दीन अहमद

ऐ मुहब्बत ज़िंदाबाद

ज़मीरउद्दीन अहमद

MORE BYज़मीरउद्दीन अहमद

    स्टोरीलाइन

    "युवावस्था में होने वाली शदीद क़िस्म की मुहब्बत की कहानी है जिसमें सभ्यता और सांस्कृतिक मूल्यों के ज़वाल का नौहा भी है। हवेली के माहौल में पला एक शख़्स जब शहर में रहता है तो अपने अख़लाक़ के बिना पर छोटे बड़े का "भाई जान" बन जाता है। नसी नाम की एक लड़की के वालिद जब उसकी पसंद की शादी करने पर रज़ामंद नहीं होते तो दोनों लोग भाई जान से एक दूसरे को समझाने की दरख़्वास्त करते हैं। भाई जान नसी से अपना मेहनताना माँगते हैं। कुछ कारणों से जब भाईजान नसी के बाप से बात नहीं कर पाते तो नसी समझती है कि मेहनताना न मिलने की वजह से वो टाल रहे हैं और एक दिन वो आकर अज़ारबंद की तरफ़ हाथ बढ़ाते हुए कहती है कि मेरे पास मेहनताना देने के लिए सिवाए इसके कुछ नहीं है।"

    क्यों किरदारों का तआरुफ़ कराने से पहले रावी का तआरुफ़ करा दूँ। रावी मैं हूँ। मैं एक पुराने शरीफ़ खाते-पीते घराने का चश्म-ओ-चिराग़ हूँ। मगर अब इस आँख की बीनाई कम हो गई है और इस दिए की रौशनी मद्धम। यानी मैं जो फ़ारसी का एम. ए. हूँ, एक तेल के कारख़ाने में चार सौ रूपया माहवार पर मुलाज़िम हूँ। मेरी शरीक-ए-हयात कपड़े धोती है, घर की सफ़ाई करती है और खाना पकाती है। और मैं नौकरी करने के अलावा बाज़ार से सौदा-सुलफ़ लाता हूँ। ये सब बातें... ये नौकरी करना, कपड़े धोना, झाड़ू देना, खाना पकाना और सौदा-सुलफ़ लाना मेरी अज़ीम ख़ानदानी रिवायात के बर-ख़िलाफ़ हैं। इस ख़ानदान में आज तक किसी ने... मेरा मतलब है मुझसे क़ब्ल... नौकरी नहीं की और इस ख़ानदान की किसी ख़ातून ने आज तक कपड़े धोए, झाड़ू लगाई और खाना पकाया।

    मेरा बचपन और लड़कपन एक बहुत बड़ी हवेली में गुज़रा। जहाँ ख़ानदान के अफ़राद से ज़्यादा नौकर-चाकर हुआ करते थे। लड़के-लड़कियाँ, मर्द-औरतें, बड़े-बूढ़ियाँ, पुश्त-हा-पुश्त से ये लोग हमारे घराने की ख़िदमत करते आए थे। शायद इसी लिए उनके साथ नौकरों का सा सुलूक नहीं किया जाता था बल्कि उन्हें ख़ानदान के ग़रीब अफ़राद का रुतबा हासिल था। बड़ी बी थीं जिनका पोपला मुँह हर वक़्त चलता रहता था और जो बैठे-बैठे सो जाने की आदी थीं। मैं उन्हें दादी अम्माँ कहा करता था क्योंकि उन्होंने मेरे वालिद साहब को पाला था। वो उन्हें बेटा कहा करती थीं और वालिद साहब हमेशा उन्हें बुआ कहा करते थे। घर के हर अहम मामले में मेरी वालिदा उनसे मश्वरा लिया करती थीं।

    बड़ा रौब था उनका सारे ख़िदमत-गारों पर। एक दफ़ा डाँट देतीं तो डाँट खाने वाला नौकर कई-कई दिन उनके सामने आने से कतराता था। सत्तर के पीटे में थीं मगर नज़रें अभी तक उक़ाब की सी थीं। क्या मजाल थी कि कोई नौकर या नौकरानी कोई ऐसी-वैसी हरकत कर जाए और उन्हें पता चले। दफ़ा ऐसा हुआ कि एक नौजवान नौकरानी की कोठरी के सामने से पिछले पहर एक साया सा लहरा कर गुज़र गया। मेरा मतलब है कि ब-क़ौल उनके उन्होंने एक साए को नौकरानी की कोठरी के सामने लहरा कर गुज़रते देख लिया। ख़ुदा बेहतर जानता है कि बड़ी बी की आँखों या उनके ज़ह्न का क़ुसूर था, या वाक़ई कोई साया कोठरी के सामने लहराया था। मगर उसका नतीजा ये निकला कि नौकरानी को खड़े-खड़े निकाल दिया गया और घर के बुज़ुर्ग बहुत अरसे तक एक क़ुबूल-सूरत नौकर को मशकूक नज़रों से देखते रहे। मेरी वालिदा कहा करती थीं कि शादी के बाद जब तक मैं पैदा नहीं हुआ था उनकी इतनी हिम्मत पड़ती थी कि बग़ैर लंबा सा घूँघट निकाले बड़ी बी की मौजूदगी में अपने शौहर यानी मेरे वालिद साहब के सामने जाएँ।

    मगर ये सब तो अब भूली-बिसरी बातें हो गईं। अब वो हवेली है, वो नौकर चाकर और वो बड़ी बी की उक़ाबी नज़रें। अब मैं इस इतने बड़े शह्र में एक गुनजान आबाद इलाक़े में, एक दो कमरे के फ़्लैट में अपनी शरीक-ए-हयात और तीन बच्चों के साथ रहता हूँ। सबसे बड़ी लड़की है जो जवानी की तरफ़ बहुत तेज़ी से बढ़ रही है और जिसको देख कर हम अक्सर ख़ामोशी से एक दूसरे की नज़रों में झाँकने लगते हैं... मेरा मतलब है मैं और मेरी नेक-बख़्त।

    जिस बिल्डिंग में हम रहते हैं उसमें बीस फ़्लैट हैं और तीन मंज़िलें। मैं बीच वाली मंज़िल में सड़क के रुख़ रहता हूँ। जो फ़्लैट हमारे फ़्लैट के नीचे है, उसमें एक बम्बई के ताजिर रहते हैं। जिनके घर से हमा- वक़्त रेडियो की आवाज़ आती रहती है। इतनी बुलंद कि मुझे अपने घर में रेडियो की कमी कभी महसूस नहीं हुई। जो फ़्लैट मेरे फ़्लैट के ऊपर है उसमें एक अंग्रेज़ी दवा फ़रोश रहते हैं। उनके दो बच्चे हैं। एक लड़का और एक लड़की। लड़की बड़ी है और लड़का छोटा। लड़की जवान है। सोलह सत्रह, हद से अठारह बरस की होगी। मेरे हाँ आती-जाती है। मेरी लड़की से उसकी दोस्ती है। गहरी या सतही। ये मैं नहीं कह सकता। क्योंकि मेरी लड़की मुझसे शर्माती है और कभी खुल कर मेरे सामने बात नहीं करती... बस, अच्छा अब्बा जी...

    बहुत बेहतर अबा जी...

    नहीं अब्बा जी... मैं उसकी शर्म-ओ-हया का लिहाज़ करता हूँ और कभी उससे ज़्यादा बातें नहीं करता।

    मेरी बिल्डिंग के सामने यानी सड़क के उस पार एक और रिहायशी बिल्डिंग है। ये बिल्डिंग भी सह-मंज़िला है। इस बिल्डिंग में जो फ़्लैट दवा-फ़रोश के फ़्लैट के बिल्कुल सामने है, उसमें एक दफ़्तरी सुप्रिटेंडेन्ट रहते हैं। उनके कई बच्चे हैं। सबसे बड़ा लड़का है। बाईस-तेइस बरस का होगा। कॉलेज में पढ़ता है। अक्सर काली, तंग पतलून, चौख़ाने वाली क़मीस और काला नोक-दार जूता पहनता है, उसके बाल लम्बे हैं जिनमें वो काफ़ी तेल लगाता है। सामने से बाल कुछ इस तरह बनाता है कि चढ़ती हुई मौज याद जाए।

    ये सबके सब शरीफ़ और नेक लोग हैं। मेरी मुराद है इन लोगों से जो मेरी बिल्डिंग में, सामने वाली बिल्डिंग में और आस-पास की बिल्डिंगों में रहते हैं। जाने क्यों, ये सब लोग मेरी बहुत इज़्ज़त करते हैं। या यूँ कहिए कि मेरा उन्हें बहुत लिहाज़ है। उनमें से अक्सर उम्र में मुझसे बड़े हैं और कई तो इतने मुअम्मर हैं कि उनकी भवें तक सपीद हो गई हैं। मगर ये सब मुझे भाई जान कहते हैं। हालांकि मेरी उम्र सिर्फ़ पैंतालीस बरस की है और ये ख़िताब अब इतना रिवाज पा गया है कि मैं सारे महल्ले का भाई जान बन गया हूँ। यानी छोटे से ले कर बड़े तक सब मुझे भाई जान कहते हैं। हद तो ये है कि एक हज़रत जिन्होंने अभी चंद हफ़्ते हुए अपनी ज़बान का इस्तेमाल बराय गुफ़्तगू सीखा है। वो भी मुझे बायदान कह कर पुकारते हैं।

    आप सोच रहे होंगे कि कैसा रावी है जो अपनी तारीफ़ों का पिटारा खोल कर बैठ गया है। मैं आपको यक़ीन दिलाता हूँ कि मेरा मक़सद ख़ुद-सताई हरगिज़ नहीं। हमारी हवेली में ख़ुद-सताई को बहुत बुरी चीज़ समझा जाता था। इस लिये ख़ुद सताई की मुझे बिल्कुल आदत नहीं। हाँ, ये मुमकिन है कि ना-तजुर्बा-कार होने की वजह से मैं ऐसी बातें कह गया हूँ जिनका कहानी से कोई ख़ास ताल्लुक़ नहीं, या जिनसे ख़ुद-सताई की बू आती हो। अगर ऐसा हुआ है तो मैं माफ़ी का ख़्वास्त- गार हूँ और उम्मीद है कि आप ये मद्द-ए-नज़र रखते हुए कि मैं अफ़साना निगार नहीं, मेरी इन बातों को नज़र-अंदाज़ कर देंगे।

    अगर आपने मुझे माफ़ कर दिया हो तो एक बात और कह दूँ, वो ये है कि महल्ले वाले सिर्फ़ मुझे भाई जान कहते हैं, बल्कि अक्सर मुआमलात में मुझसे मश्वरा भी करते हैं। अक्सर ये भी होता है कि ख़ालिस निजी क़िस्म के मुआमलात में भी मुझसे राय लेने से ये लोग नहीं झिजकते। मेरे और उनके दरमियान एक रिश्ता-ए-एतिमाद क़ायम हो गया है। इसका उम्र और बुज़ुर्गी से कोई ताल्लुक़ नहीं। क्योंकि नई पौद भी अक्सर बिला झिजक मुझसे इस तरह सलाह मश्वरा करती है गोया मैं भी उसी पौद का एक फ़र्द हूँ। हद तो ये है कि मुआमलात- ए-क़ल्ब ओ-नज़र में भी ये लोग, मेरा मतलब है नई पौद के लोग मेरी राय लेने से नहीं झिजकते। ये दूसरी बात है कि मैं उनकी इस ज़ेल की मुश्किलों का हल ढूँढने से क़ासिर रहता हूँ। क्योंकि इन मुआमलात में मेरा तजुर्बा होने के बराबर है। यानी सिफ़्र।

    एक दिन का ज़िक्र है, मेरी तबियत ख़राब थी इसलिये दफ़्तर नहीं गया था। मेरी शरीक-ए-हयात ग़ुस्ल ख़ाने में कपड़े धो रही थीं। बच्चे स्कूल जा चुके थे। महल्ले में निसबतन अम्न था। काम पर जाने वाले काम पर और स्कूल और कॉलेज जाने वाले स्कूल और कॉलेज जा चुके थे। सुबह का वक़्त था। मैं बालकोनी में एक आराम कुर्सी पर नीम दराज़ अख़बार पढ़ रहा था कि एक पत्थर कर मेरे सर पर लगा और इतनी ज़ोर से लगा कि अख़बार मेरे हाथ से छूट कर गिर पड़ा। पत्थर अगर नंगा होता तो यक़ीनन मेरे सख़्त चोट आती। आप कहेंगे नंगा पत्थर और मलबूस पत्थर क्या बात हुई। मगर बात कुछ ऐसी ही थी। मेरा मतलब है कि पत्थर एक काग़ज़ में लिपटा हुआ था। पत्थर पर, बल्कि यूँ कहना चाहिए कि उस काग़ज़ पर जिसमें पत्थर मलबूस था, एक नज़र डाल कर मैंने फ़ौरन सड़क के उस पार देखा, क्योंकि पत्थर उसी सम्त से सकता था। मगर वहाँ पत्थर फेंकने वाले का नाम-ओ-निशान तक था।

    मैंने पत्थर उठा लिया और वो काग़ज़ खोल कर जिसमें वो लिपटा हुआ था, पढ़ने लगा। अलक़ाब- ओ-आदाब कुछ इस क़िस्म के थे, मेरी जेन मिस फ़ील्ड, मेरी मेरलिन मुनरो, जियो। अलक़ाब- ओ-आदाब पर नज़र पड़ते ही अंदाज़ा हो गया कि मकतूब-अलय मैं नहीं हूँ, बल्कि नामा रास्ता भूल गया है। मगर फ़ौरन ही ख़्याल आया ख़ुदा-न-ख़्वास्ता ये ख़त मेरी बेटी को तो नहीं लिखा गया है। इस ख़्याल का आना था कि मैं दूसरों का ख़त पढ़ने वाली नसीहत, जो मुझे बार-बार हवेली में की गई थी यकसर भूल गया और जल्दी-जल्दी ख़त पढ़ने लगा।

    मुझे तुम्हारे भाई ने बता दिया था कि आज तुम स्कूल नहीं जाओगी, इस लिए मैं भी आज कॉलेज नहीं गया, दर्द-ए-सर का बहाना कर दिया। वैसे ये सच भी है, मेरे सर में सच-मुच दर्द हो रहा है। पूछो क्यों? मेरे सरकार इस लिए कि मैं रात भर नहीं सो पाया। फिर पूछो क्यों? मेरी जान इसलिये कि रात भर तुम... पूछो किस-किस तरह से याद आती रहीं। और मैं करवटें बदलता रहा। नींद नहीं आई। आँखों में काँटे उग आए थे। हाय क्या आलम हो जाता है जब अपनी डोर्स डे से दो-तीन दिन तक नहीं मिल पाता...

    ख़त के उस हिस्से पर पहुँच कर मैं ठहर गया। मैं फ़िल्म नहीं देखता। इसलिये नहीं कि मैं फ़िल्मों के ख़िलाफ़ हूँ, बल्कि इसलिये कि घर के बजट में इस ख़्वाहिश को पूरी करने की गुंजाइश या तो निकलती नहीं या बहुत कम निकलती है। लेकिन फिर भी मैं मेरलिन मुनरो के नाम से वाक़िफ़ हूँ और मुझे ये भी पता है कि जेन मिस फ़ील्ड भी मेरलिन मुनरो क़िस्म की कोई शख़्सियत है। यहाँ तक तो ठीक है, या था, लेकिन जब मुसम्मात डोरिस डे का ज़िक्र आया तो मैं ठिटक गया क्योंकि ये नाम मैंने इससे क़ब्ल कभी नहीं सुना था। लेकिन ये ठिटकना मुझे बहुत महंगा पड़ा, क्योंकि फिर मैं आगे नहीं पढ़ सका। उस एक लम्हा तवक़्क़ुफ़ में अंग्रेज़ी दवा फ़रोश की साहब-ज़ादी जिनका नाम नसीमा अंजुम जावेद है और जिन्हें उनके घर वाले और मेरे घर वाले मा मेरे सिर्फ़ निसी कह कर पुकारते हैं, आन धमकीं।

    अगर में कहानी को इस मुक़ाम पर छोड़ कर आपसे या किसी अफ़साना निगार से कहूँ कि मेरे भाई अब तुम उसे आगे बढ़ाओ तो मुझे यक़ीन है कि आप या और अफ़साना निगार साहब सिलसिला यूँ जा री रखेंगे कि निसी बेटी को देखते ही मैंने ख़त को छिपा लिया। उस पर बैठ कर या उसकी पुड़िया बना कर उसे अपनी जेब में रख कर, या मुँह में डाल कर। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हुआ ये कि निसी बेटी बस एक लम्हा भर के लिये झिजकीं, यानी उन्होंने दो-एक बार पलकें झपकाईं। गर्दन को एक बहुत ही ख़फ़ीफ़ सा ख़म दिया। झुक जाने की बहुत ही इब्तिदाई शक्ल थी। एक हाथ को ज़रा सा ऊपर उठाया। इस अंदाज़ से कि देखने वाला अगर ज़हीन होने के साथ-साथ तजुर्बा-कार भी हो तो वो अंदाज़ा लगा ले कि अगर ये हरकत दर्जा-ए-तकमील को पहुँच जाए तो दांतों से बिला-वजह नाख़ुन काटने की हरकत बन सकती है। और फिर बोलीं, हाय अल्लाह! भाई जान आप मेरा ख़त पढ़ रहे हैं।

    सच तो ये है कि अगर निसी बेटी ख़त पर अपना हक़ जतातीं तो मुझे हरगिज़ पता चलता। कम-अज़ कम अंदाज़ तो होता कि मकतूब-अलय वो हैं। सिर्फ़ ये बल्कि ये भी मालूम होता कि लिखने वाला कौन है? क्योंकि ख़त के इख़्तिताम पर लिखने वाले का नाम दर्ज नहीं था। जी हाँ! आपका क़यास दुरुस्त है। मैंने अलक़ाब- ओ-आदाब के बाद सबसे पहले ख़त के इख़्तिताम पर नज़र डाली थी। लेकिन इससे आप ये समझ बैठें कि मुझे उसी वक़्त लिखने वाले का नाम मालूम हो गया। नहीं। ये तो बाद की बात है। मैंने कहा, तुम्हारा ख़त! मेरे लहजे में हैरत का शायबा था।

    कह जो दिया मेरा ख़त है। वो इठलाईं। और क़ब्ल इसके कि मैं ये सोचते हुए कि हक़-ब-हक़दार-रसीद, ख़त उनकी तरफ़ बढ़ाऊँ, उन्होंने झपट कर ख़त मेरे हाथ से ले लिया, बल्कि छीन लिया और ये जा वो जा। मगर ये जा वो जा का फ़े'ल मुकम्मल करने से क़ब्ल उन्होंने रुक कर मेरी तरफ़ देखा और बोलीं, किसी से कहिएगा नहीं मेरे अच्छे भाई जान! मैंने किसी से नहीं कहा। मगर इस वाक़ए के कई माह बाद एक दिन मुझे मालूम हुआ कि मेरी ख़ामोशी बे-सूद साबित हुई।

    एक रात जब कि महल्ले का शोर-ओ-ग़ुल क़रीब-क़रीब ख़त्म हो चुका था, यानी सब बिस्तरों में घुसने वाले थे या घुस चुके थे। अचानक कुछ ऐसी आवाज़ें मेरे कान में आईं जिन पर किसी रेडियो प्रोग्राम का शुबा हो सकता था, सौदा बेचने वालों के नारों का, मियाँ-बीवी के झगड़े का, पड़ोसियों की लड़ाई का और आवारा लड़कों की तफ़रीह का। कई आवाज़ें थीं। एक मर्द की, एक औरत की, एक लड़की की। आहिस्ता-आहिस्ता मेरे ज़ह्न ने सिर्फ़ उन आवाज़ों की सम्त का तअय्युन कर लिया, बल्कि ये अंदाज़ भी लगा लिया कि उनके ख़ालिक़ कौन हैं। आवाज़ें निसी के फ़्लैट से रही थीं और ये आवाज़ें निकल रही थीं उसके वालिद साहब, उसकी वालिदा और उसके छोटे भाई के हल्क़ से।

    मेरे फ़्लैट की बालकोनी के सिरे पर खड़े हो कर अगर ऊपर की तरफ़ देखा जाए तो निसी के फ़्लैट की बालकोनी का मंज़र ब-ख़ूबी नज़र जाता है। मेरा मतलब है, अगर वहाँ कोई मंज़र हो तो। इसलिये मैं दौड़ कर अपनी बालकोनी में गया और ऊपर की तरफ़ देखने लगा। उस ख़ानदान के तीन फ़र्द, निसी, उसके वालिद साहब और उसकी वालिदा बालकोनी में थे। निसी को दवा-फ़रोश साहब और उनकी अहलिया पकड़े हुए थीं। और वो चिल्ला-चिल्ला कर कह रही थी, मुझे छोड़ दो, मुझे छोड़ दो...जहाँ मैं आसमानी बलाओं के ख़िलाफ़ सदा-ए-एहतिजाज बुलंद करने वाले कुत्ते की तरह मुँह ऊपर किये खड़ा था, वहाँ से निसी का भाई नज़र नहीं रहा था, मगर उसकी आवाज़ साफ़ रही थी। वो रो रहा था ज़ोर-ज़ोर से, जैसे डर गया हो। सहम गया हो। आस-पास और दूसरी बिल्डिंग के फ़्लैटों में से भी लोग इस मंज़र को खिड़कियों में से झाँक कर या खुले आम बालकनियों में खड़े हो कर देख रहे थे।

    एक बार जो निसी ने ज़ोर लगाया तो तक़रीबन अपने वालिद और वालिदा की गिरफ़्त से आज़ाद हो गई और मेरे पैरों तले से बालकोनी का फ़र्श खिसक गया। क्योंकि मुझे ऐसा लगा कि गोया बालकोनी में से छलाँग लगा कर नीचे सड़क पर गिरना चाहती है। मगर फ़ौरन ही दवा-फ़रोश साहब और उनकी अहलिया ने दोबारा उसे अपनी गिरफ़्त में ले लिया और उसके मुँह पर एक ज़ोरदार तमाँचा लगा कर... ये मैं ठीक से नहीं देख पाया कि तमाँचा माँ ने मारा था या बाप ने... उसे घसीटते हुए फ़्लैट में ले गए। थोड़ी देर तक निसी के चीख़ने और चिल्लाने की और उसके भाई के रोने की आवाज़ें आती रहें। फिर ये भी बंद हो गईं और फ़्लैटों की खिड़कियाँ एक-एक करके बंद होने लगीं। मैं भी आकर बिस्तर पर लेट गया और अपनी शरीक-ए-हयात से इस मसअले पर तबादला-ए-ख़्याल करने लगा कि ख़्याल आया कि मुझे इस वक़्त निसी के फ़्लैट का दरवाज़ा खटखटाना चाहिये या नहीं। फ़ैसला ये हुआ कि मुनासिब वक़्त नहीं है। इसलिये मैं तुझको पराई क्या पड़ी अपनी नबीड़ तू। के ज़र्रीं मक़ूले पर अमल पैरा हुआ और लंबी तान कर सो गया।

    मगर दूसरे दिन बम्बई वाले साहब मुझे ज़ीने पर मिल गए। सलाम-ओ-दुआ के बाद यूँ गोया हुए, रात का तमाशा देखा आपने भाई जान?

    कैसा तमाशा? मैंने उनके सवाल का मफ़हूम समझते हुए और कुछ समझते हुए इज़हार-ए-ला-इल्मी किया।

    वही जो ऊपर वाले माले में हुआ था। उनके ताल्लुक़ात अंग्रेज़ी दवा फ़रोश साहब से कशीदा थे, इसलिये वो उनका नाम लेने से हत्तल- मक़दूर गुरेज़ करते थे और अगर उनका ज़िक्र ही जाता तो ऊपर वाला माला क़िस्म के इशारों से काम चलाते थे।

    जी हाँ। मैंने कहा, कुछ शोर-ओ-ग़ुल हो रहा था।

    आप शोर-ओ-ग़ुल बोलते हैं। उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, सारी बिल्डिंग नहीं सारा महल्ला जाग पड़ा था।

    जी हाँ। जी हाँ। आवाज़ तो हमने भी सुनी थी।

    ज़रूर सुनी होगी। उन्होंने मुस्कुराहट को चेहरे के बक़ीया हिस्सों पर फैलाते हुए कहा, बाई बच गई।उनकी मुराद निसी से थी। मैंने पहली मर्तबा उनकी गुफ़्तगू में दिलचस्पी का इज़हार किया।

    क्यों। उसे क्या हो गया था?

    खुदकुशी कर रही थी।

    सच!

    और क्या। बालकनी पर से कूद रही थी। मैंने खुद देखा था। आधी से ज्यास्ती लटक गई थी।

    मगर क्यों?

    ये अपन को ठीक से नहीं मालूम। सुना है आसकी वाली बात है।

    मैंने उन्हें ज़्यादा नहीं कुरेदा, क्योंकि अव्वल तो ये मेरी फ़ितरत नहीं और दूसरे मुझे दफ़्तर जाने की जल्दी थी। लेकिन सूरज ढले निसी के वालिद साहब ने मेरे फ़्लैट का दरवाज़ा खटखटाया। परेशान और मुतफ़क्किर नज़र रहे थे। कहने लगे, आपसे एक मुआमले में मश्वरा करना है। मैंने कहा, फ़रमाइए। बोले, कल रात निसी ख़ुदकुशी का इक़दाम कर बैठी थी। मैं चुप रहा।

    ये जो सामने मामा बिल्डिंग है ना। उन्होंने बिल्डिंग की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, इसमें जो सुप्रिटेंडेन्ट साहब रहते हैं। उनके साहब ज़ादे ने उसे... यहाँ पहुँच कर वो ठिटक से गए। इसलिए मैंने कहा, जी मैं समझ गया। मेरी बात ने वो मरहला तय करा दिया जिस पर वो ठिटक गए थे। बोले, भाई जान आप ही बताइए। ये रिश्ता किस तरह मुमकिन हो सकता है? जब तक मैं इस रिश्ते के ना-मुमकिन होने की तौजीह सुन लेता, क्या कहता। इसलिये चुप रहा।

    वो लोग पठान हैं, और अगर सय्यद भी होते तब भी हमें उनके तौर-तरीक़े पसंद आते और भाई जान सबसे बड़ी बात तो ये है कि लड़का हमें बिल्कुल पसंद नहीं। आवारा है।मैं हूँ करके थोड़ी देर चुप रहा। फिर बोला, मगर ज़ाहिर है कि निसी बेटी को उससे बहुत गहरा और मुख़लिसाना लगाव है। वर्ना वो इतना बड़ा क़दम कैसे उठाती।

    यही तो मुश्किल है। अभी कम उम्र है, बुरे-भले की तमीज़ नहीं। जज़्बात से मग़्लूब हो गई है। अगर आप उसे समझाएँ तो।

    आपने समझाया?

    हम लोग तो कई दिन से समझा रहे थे। उसी दिन से जिस दिन इसने बिला झिजक अपनी वालिदा से कह दिया था कि उसकी शादी इस लड़के से कर दी जाए। हमारे वह्म- ओ-गुमान में भी सकता था कि वो इतनी जुरअत करेगी और वो भी इस उम्र में। कल रात यही सिलसिला जारी था कि ये इक़दाम कर बैठी। अब आप ही बताइए हम क्या कर सकते हैं। जाने क्या जादू कर दिया है उस लौंडे ने मेरी मासूम बेटी पर। शायद आपके समझाने से मान जाए। मैं हामी भरता तो करता क्या।

    आप उस पर ज़्यादती करें। मैं मौक़ा देख कर उससे गुफ़्तगू करूँगा। ज़्यादती करने की बात मैंने इसलिये की थी कि वो दौरान-ए-गुफ़्तगू बता चुके थे कि कल रात से उन्होंने निसी को एक कमरे में बंद कर रखा है। निसी से गुफ़्तगू करने का मौक़ा मुझे तीन-चार दिन बाद ही मिल गया। मौक़ा ख़ुद उसी ने फ़राहम किया। यानी इस बार वो मुझसे सलाह-ओ-मश्वरा करने धमकी। तरशे हुए बाल, तंग शलवार, तंग क़मीस, आँखों में सुरमा, होंटों पर हल्की सी लिपस्टिक, पहले तो ज़रा झिजकी। फिर बोली, भाई जान आप हमारा एक काम कर दें तो हम आपकी ग़ुलामी लिख दें।

    फ़रमाइए। मैं उसे छेड़ने के लिये हमेशा उससे नीम संजीदा लहजे में गुफ़्तगू करता हूँ। आख़िर मेरी बेटी से सिर्फ़ चंद साल ही तो बड़ी है।

    मैं आपकी क्या ख़िदमत कर सकता हूँ।

    हटाइए भी भाई जान। आपको तो हर वक़्त मज़ाक़ सूझता है।

    अरे भई। इसमें मज़ाक़ की क्या बात है। मैं ख़िदमत के लिये हाज़िर हूँ।

    जाइए, हम आपसे नहीं बोलते। और उसने सचमुच मुँह फुला लिया।

    अरे पगली... नाराज़ हो गईं। मैंने उसके रुख़सार पर हल्के से थप्पड़ लगाते हुए कहा। वो मुस्कुरा दी, आप बाबा से बात कीजिये। वो अपने बाप को बाबा कहती है।

    मैं तुम्हारे बाबा से अक्सर बात करता हूँ। उसका मुँह फिर फूलने लगा तो मैंने फ़ौरन लहजा बदल कर कहा, अच्छा भई मज़ाक़ बंद। कहो क्या कहना चाहती हो।

    उसकी फ़रमाइश सिर्फ़ इतनी थी कि मैं उसके बाप पर अपना असर डाल कर उनसे इस रिश्ते की मंज़ूरी हासिल कर लूँ। उसकी आँखों में आँसू गए थे और उसका दिल-कश चेहरा बे-हद संजीदा हो गया था। मुझे अचानक एहसास हुआ कि मेरे सामने एक रस भरी लचकीली शाख़ नहीं, बल्कि एक ख़ुश्क टहनी है, जिसे अगर ज़्यादा झुकाने की कोशिश की गई तो टूट जाएगी, झुकेगी नहीं। उसकी आवाज़ में इरादे की पुख़्तगी थी और उसके लहजे में लगन का कर्ब था। उस लड़की को सच्ची मोहब्बत है। मैंने सोचा और यक-लख़्त उस वा'दे को भूल गया जो मैंने उसके बाप से किया था। उसने मुझे जीत लिया था और मैं सोच रहा था कि किस तरह इसके बाप से बात करूँ कि वो मान जाएँ। मैंने उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा, तुम फ़िक्र करो निसी। में ज़रूर तुम्हारे वालिद से बात करूँगा।

    वा'दा? वो अभी तक संजीदा थी।

    पक्का वा'दा। मैं भी संजीदा हो गया। वो मुस्कुराई। फिर हँसने लगी, मेरे अच्छे भाई जान!

    मेरे अच्छे भाई जान। मैंने उसकी नक़्ल की। वो खिलखिला कर हँस पड़ी और मटक कर चल दी।

    मगर...

    वो रुक गई और मुझे सवालिया नज़रों से देखने लगी।

    मुझे क्या दोगी?

    क्या दूँगी!

    हाँ भई। हक़-ए-मेहनत।

    उसने लम्हे भर रुक कर सोच कर कहा, मुँह माँगा इनआम। और ये जा वो जा।

    इत्तिफ़ाक़ ऐसा हुआ कि निसी से वा'दा करने के बाद कई दिन तक मैं उसके बाप से बात कर सका। किसी दिन मुझे दफ़्तर से आने में देर हो गई, किसी दिन उन्हें। किसी दिन उनके हाँ मेहमान गए, किसी दिन मेरे हाँ। किसी दिन वो बाहर चले गए किसी दिन मैं। इस अरसे में कई मर्तबा निसी से मुड़भेड़ हुई और हर दफ़ा उसने मुझे मेरा वा'दा याद दिलाया। शुरू-शुरू में वो तो शायद मेरे वा'दा पूरा कर सकने के असबाब क़ुबूल करती रही। मगर बाद में मुझे कई बार शुबह हुआ कि वो मुझे झूटा समझ रही है। या ये समझ रही है कि मैं उसे टाल रहा हूँ।

    देखिए भाई जान! आप वा'दा-ख़िलाफ़ी कर रहे हैं। उसने एक दिन मुँह फुला कर कहा।

    नहीं निसी। मौक़ा नहीं मिला। बस कुछ दिन और इंतज़ार करो। उसका मुँह बदस्तूर फूला रहा और उसके माथे पर फ़िक्र की शिकनें बदस्तूर पड़ी रहीं तो मैंने उसे छेड़ा, और मेरा इनआम?

    फिर एक दिन जब कि मेरी शरीक-ए-हयात मअ मेरे बच्चों के अपनी बहन के घर गई हुई थी... मुझे अच्छी तरह याद है छुट्टी का दिन था... निसी मेरे फ़्लैट में आन धमकी। मैं लेटा हुआ था। कर मेरे सामने खड़ी हो गई। मैंने कहा, बैठ जाओ। वो पलंग पर मेरे पास बैठ गई। चुप थी और मुझे अजीब नज़रों से देख रही थी।

    क्या बात है? मैंने उसकी तरफ़ करवट बदलते हुए कहा, मुझे ऐसे क्यों घूर रही हो। वो फिर भी चुप रही।

    क्या चुप का रोज़ा रखा है। उसका सुकूत फिर भी नहीं टूटा।

    मुझ पर रौब डाल रही हो क्या? वो उठ कर खड़ी हो गई।

    आपने इनआम माँगा है। हक़-ए-मेहनत!

    माँगा तो है।

    और जब तक आपको इनआम नहीं मिल जाएगा आप मेरा काम नहीं करेंगे? ज़ाहिर है कि उसका ख़्याल बिल्कुल ग़लत था। मगर मैंने उसे छेड़ने के लिये कहा, बिल्कुल दुरुस्त!

    इसीलिए आप टाल-मटोल कर रहे हैं?

    बिल्कुल इसीलिए।

    हूँ।

    इस तवील हूँ के बाद लम्हे भर ख़ामोशी रही और फिर निसी बेटी बोली, मेरे पास आपको देने के लिये और तो कुछ नहीं सिवाय... वो रुकी, और उस लम्हा-ए-तवक़्क़ुफ़ में उसका दायाँ हाथ उसकी पोशाक की एक गिरह-दार बंद की तरफ़ बढ़ा और फिर उसने जुमला मुकम्मल किया, सिवाय इस के... और बम्बई वाले साहब के फ़्लैट से किसी नये फ़िल्मी गाने की फ़लक- शिगाफ़ आवाज़ रही थी, मोहब्बत ज़िंदाबाद!

    स्रोत:

    तिशना-ए-फ़रियाद (Pg. 94)

    • लेखक: ज़मीरउद्दीन अहमद
      • प्रकाशक: मॉडर्न पब्लिशिंग हाउस, दरियागंज, नई दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1998

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