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अफ़लास की आग़ोश

रहमान मुज़्निब

अफ़लास की आग़ोश

रहमान मुज़्निब

MORE BYरहमान मुज़्निब

    एक ही रात में तीन क़त्ल! शह्र में सनसनी फैल गई। एक आदमी ख़बर पढ़ते-पढ़ते ग़श खा गया। कोठियाँ, कोठी ख़ाने, खिड़कियाँ, बालकनियाँ, बाम-ओ-दर एक साथ बोलने लगे। मुफ़्त-ख़ोरे अख़बार ख़रीद कर पढ़ने वालों पर टूट पड़े और घर-घर अख़बार ले गए। कुछ पलट कर आए और कुछ पलट कर आए तो चकना-चूर हुए।

    दिन-भर घर घाट, बाज़ार हाट हर जगह क़त्ल के मौज़ू पर गुफ़्तगू रही। वारदात का उस्लूब दिलचस्प और आम डगर से हट कर था। चाँदनी रात क़त्ल हुई। बहार की रात क़त्ल हुई। तीन ग़ैर-मा'रूफ़ शख़्सियतें रातों रात ग़ैर-फ़ानी हो गईं और मुल्क-गीर शोहरत पा गईं। एक रक़्क़ासा, एक मुअल्लिमा, एक रईस। तीनों एक ही वक़्त एक ही आला-ए-क़त्ल से मौत के घाट उतारे गए। आख़िर इन तीनों में क्या रिश्ता था, क्या क़द्र-ए-मुश्तरक थी कि एक सी गोलियाँ तीनों के नसीब में उतर गईं? कहानी गोल्डन जुबली फ़िल्म से ज़ियादा दिलचस्प थी, तस्वीरें बड़े एहतिमाम से छापी गईं। रक़्क़ासा और मुअल्लिमा की तस्वीरें बड़े-बड़े सक़्क़ा हज़रात के तसव्वुर में ठहर गईं। अगरचे फ़ौरन हक़ीक़त के चेहरे से पूरी तरह नक़ाब उठा लेकिन रक़्क़ासा और मुअल्लिमा के नंगे चेहरों ने पारसाओं के चेहरे बे-नक़ाब कर दिए। तस्वीरों की बदौलत अख़बारों ने कई दिन तक अपनी सज-धज क़ायम रखी और बिक्री के रिकॉर्ड तोड़े।

    औरतों की शक्ल-ओ-सूरत एक सी देख कर लोग परेशान हुए। दोनों बहनें लगती थीं। उनकी मोटी आँखें शोख़, तीखे उजालों से सजी थीं। मुखड़े चौधवीं के चाँद से तरशे थे। पेशानियाँ जवानी की शह सुर्ख़ियाँ थीं। खुले गिरेबानों में से साफ़ बे-दाग़ बिलौरीं जिल्द नज़र रही थी और उससे मुत्तसिल जवानी का पिघला हुआ सोना मुग़ल अंदाज़ की तर्शी हुई गोलाइयों में सिमटा पड़ा था। उनमें पॉम्पई को तबाह करने वाला दिसूदियस सो रहा था। अंग-अंग में मस्ती भरी थी। क़त्ल होने वालियों से हमदर्दी जताने के बजाय लोग ख़ुद क़त्ल हुए। जिनके हाथों में प्यार की लकीरें ज़ियादा जली थीं उन्होंने उन तस्वीरों से अपना तसव्वुर हसीन कर लिया।

    कहानी मुरत्तब करने में कई महीने लगे। ख़ुर्शीद बाई, रईस-ए-शह्र की बेगम, बग्गा ब्लड़ और ज़मुर्रद की रुकावटें दूर करने और बयानात लेने में जो मुश्किलें पेश आईं, वो अलैहदा बाब का मौज़ू है। ज़ुबैदा की डायरी ने कहानी की कई कड़ियाँ मुहय्या कीं। बेगम परवीन ज़मीर की आवाज़ सुन कर शरीक-ए-तफ़तीश हुई। बेगम परवीन की शहादत मिलती तो ज़ुबैदा और क़ैसरी की असलियत इतनी सेहत से मालूम होती और कहानी अधूरी रह जाती।

    निज़ाम दीन की एक लड़की थी, जिसके इर्द-गिर्द उसने अपनी ढेर सारी आरज़ूएँ लपेट दीं। सूरत के एतबार से ज़ुबैदा कम रौशन थी लेकिन उसके मुस्तक़बिल को रौशन बनाने की क़सम निज़ाम दीन ने खाई। लड़की क्या थी चमकता-दमकता फूल थी, जिसके बदन की लकीरों से देखने वालों की निगाहों में कटारें खिंच जातीं। निज़ाम दीन दो-दो जगह काम करता और हर मुसीबत झेलता ताकि ज़ुबैदा हर मुसीबत से महफ़ूज़ रहे। वैसे वो बड़ी महरूमी का शिकार था। उसे तरके में इल्म की एक किरण, एक अख्खर, एक कौड़ी मिली। इस दाग़ को उसने ज़ुबैदा के मुस्तक़बिल की रौशनी से धोने का अहद किया। ज़ुबैदा उसके रूपये से इंसाफ़ करती। नफ़ीस कपड़े पहनती, बन-ठन के रहती, हँसती-खेलती। उसे देख-देख कर निज़ाम दीन की आँखों में मसर्रतें नाचतीं। निज़ाम दीन लाख अनपढ़ सही लेकिन बे-अक़्ल था। जानता था कि लड़की अनपढ़ रही तो दौ कौड़ी की होती है लेकिन लिखना-पढ़ना कौन-सा सस्ता धंधा था? महंगाई के इस अह्द-ए-ज़र्रीं में एक अल्लाह का नाम सस्ता था। चुनाँचे बेशतर लोग इसी पर गुज़ारा करते थे।

    ज़ुबैदा की माँ सिद्क़ दिल से मियाँ के मंसूबे में शामिल हुई बीमार रहती थी लेकिन उसने अपने ग़म को ग़म-ए-जानाँ बना लिया और बीमारी समेत ज़ुबैदा के रौशन मुस्तक़बिल में मर खप गई। घर में ज़ुबैदा और उसके मुस्तक़बिल के सिवा कुछ रहा। निज़ाम दीन ने घर का जो बोझ उठा रखा था उसमें जवान लड़की का बोझ सबसे ज़ियादा था लेकिन गर्दिश-ए-फ़लक को ये अदा भाई। देखते-देखते वो ख़ुद अपने लिए, घर-भर के लिए बोझ बन गया। नतीजा ये निकला कि उस समेत घर-भर का बोझ बीस साल की ता'लीम-याफ़्ता लड़की के नाज़ुक शानों पर आन पड़ा। बेचारी का दिल टूट गया लेकिन किसी को कानों-कान ख़बर हुई। क़ुसूर उसका नहीं, इस दौर का था जिसमें कारख़ाना-ए-हयात बर्क़-रफ़्तारी से चलने लगा। कलें थमना भूल गईं। कभी-कभी उन्हें चलाने वाले उनमें गाजर-मूली की तरह कट जाते। निज़ाम दीन का एक बाज़ू और एक टाँग गाजर-मूली हो गई। आँखों के दिए भी मंद पड़ गए।

    निज़ाम दीनअपाहिज हुआ, ज़ुबैदा की ता'लीम छोटी। निज़ाम दीन को उसकी मर्ज़ी से वहाँ पहुँचा दिया गया जहाँ आँखों के दिए रौशन हो जाते हैं। इस फ़रार में उसके लिए क़रार था। आली शाह की ख़ानक़ाह के दियों की चिरांद और फूलों की बास उसे भली लगती। लंगर से खाना मिल जाता। ब्लैक और स्मगलिंग को जितना फ़रोग़ मिला, लंगर की रसद उतनी ही बढ़ी। उतनी देगें चढ़तीं कि मुंतज़मीन और लुटेरों की पूरी खेप ठिकाना लगा सकती। जब बाज़ार में पुलाव-ज़र्दा बेचने वालों से मुआहिदा हो गया तो मुश्किल आसान हो गई।

    ज़ुबैदा बाप से मिलने जाती और तरबत को सलाम करती। जुमेरात जिसे दुआओं का दिन माना जाता, ख़ास तौर पर उसके दिल पर असर करता और वो ख़ानक़ाह में लंबी-लंबी दुआएं माँगती। निज़ाम दीन और उसकी आरज़ुएँ सराब हुईं। इल्म की ख़रीद में चौदह साल तक जो कमाई सर्फ़ होती रही, वो पानी की तरह रेगिस्तान में बह गई। उससे ज़ियादा बेकार सरमाया-कारी कोई थी। बिल-आख़िर लुटा हुआ सरमाया बटोरने के लिए ज़ुबैदा ने तरकीब लड़ाई। ब्लैक और महंगाई की सहूलतों के बावुजूद वो इंतिहाई सस्ते दामों इल्म बेचने लगी। दर-अस्ल इल्म-ओ-इरफ़ान और जिस्म-ओ-जाँ अब भी अर्ज़ां थे।

    उसने मास्टर चिराग़ दीन के राइल कोचिंग कालेज में नौकरी कर ली। उसे मास्टर चिराग़ दीन का नाम पसंद आया, जिसके अज्ज़ा-ए-तरकीबी में चिराग़ ऐसी बा-बरकत शय शामिल थी। वैसे एक चिराग़ असली की बजाय नक़्ली था यानी एक आँख का दिया गुल था।

    मास्टर चिराग़ दीन को ख़ूबसूरत लड़कियाँ अच्छी लगतीं। वो अपनी इंद्र सभा से तवानाई हासिल करता और अपनी उम्र का बोझ हल्का करता। ज़ुबैदा को तनख़्वाह के अलावा पचास रूपल्ली मिलते। उसका सबब मुअल्लिमी का कमाल नहीं बल्कि चिराग़ दीन का ज़ौक़-ए-जमाल था। राइल कोचिंग कालेज उसकी टकसाल था और वो मुख़य्यर तबा वाक़े हुआ था लेकिन उसकी मुख़य्यर तबई से क्या होता? यहाँ तो मुफ़लिसी और महंगाई में ठनी थी। महंगाई बराबर बढ़ती जा रही थी। उसी तनासुब से मुफ़लिसी में इज़ाफ़ा हो रहा था और नीम मुफ़लिस ज़ुबैदा ने मास्टर चिराग़ दीन के घर में इंक़लाब बरपा कर दिया। मास्टर चिराग़ दीन ने ग़ुस्ल-ख़ाने से दारुल्लिबास तक ऊधम मचा दिया। वो दम-ब-दम लिबास बदलने, साफ़-सुथरा रहने और स्मार्ट नज़र आने लगा। स्कूटर पर होता या इंद्र सभा में, ब-हर-हाल तन कर अकड़ कर रहता और उसी वस्फ़ के बाइस ज़ुबैदा उसे बाँका मुर्ग़ा कहने लगी।

    बाँका मुर्ग़ डेढ़ सौ रूपये में से सौ को भूल जाता और पचास को याद रखता। इस हिसाब से पचास की रक़म सौ से बड़ी थी और इसी के बल पर ज़ुबैदा को इंद्र सभा की अफ़सर परी बना कर अपनी कमज़ोरी बनाने के दरपे हुआ लेकिन दूसरी दो परियाँ नजमा और नूरी ज़रा-ज़रा सी हरकत, ज़रा-ज़रा सी बातचीत की ख़बर रखतीं और इंतिहाई जानिब-दारी से बेगम चिराग़ को डायरी देतीं। बेगम चिराग़ दीन भारी-भरकम औरत थी और हर तरह मास्टर चिराग़ दीन पर भारी थी। एक मर्तबा ज़ुबैदा की माँ को निमोनिया हुआ और मास्टर चिराग़ दीन ने उसे रवादारी में सौ रूपये दिए तो बेगम चिराग़ दीन को ये रिपोर्ट मिल गई। उसने ज़ुबैदा की तनख़्वाह से पाई-पाई वसूल कर ली। उसके बाद मास्टर चिराग़ दीन की रग-ए-हमीयत बहुत कम फड़की। मास्टर चिराग़ दीन के ज़ौक़-ए-जमाल को ठिकाने लगाने वाली उस्तानियाँ बेगम चिराग़ के बावर्ची ख़ाने में जा कर बहुत कुछ ठिकाने लगातीं।

    ज़ुबैदा अच्छी मुअल्लिमा होती और लड़कियाँ उसे दिल-ओ-जान से चाहतीं तो बेगम चिराग़ तनख़्वाह के अलावा महज़ दिल-फ़रेब शक्ल-सूरत के पचास रूपये कब वसूल करने देतीं? निमोनिये के बाद ज़ुबैदा की माँ की सेहत और भी बिगड़ गई और वो उज़्व मुअत्तल हो कर रह गई। उस उज़्व मुअत्तल की चारपाई छत पर डाल दी गई ताकि मुर्ग़ियों से जी बहला सके। उसके बाद घर का निज़ाम तलपट हो गया।

    ज़ुबैदा को तवक़्क़ो थी कि बाँके मुर्ग़ का ज़ौक़-ए-जमाल तरक़्क़ी करेगा लेकिन बेगम चिराग़ ने नजमा और नूरी की मदद से उसका तरक़्क़ीयाती मन्सूबा ख़ाक में मिला दिया, नतीजा ये निकला कि ज़ुबैदा ने आली शाह से मेल-जोल बढ़ाया। आख़िर-ए-कार दिए और फूल की परस्तिश आड़े आई। बग्गा ब्लड़ जो ज़मुर्रद की ख़ातिर जगह-जगह औरतों की बू सूँघता फिरता था, राइल कोचिंग कॉलेज के भी गिर्द हो गया। इस तक ज़ुबैदा के खरे बदन की ख़ुशबू पहुँच गई। माई की मदद से काम बन गया। ज़ुबैदा को ज़मुर्रद की ट्यूशन मिल गई। मीठे चावल पकाए और निज़ाम दीन की मौजूदगी में ख़ानक़ाह पर बाँटे गए। बाप ने सआदत मंद बेटी के रौशन मुस्तक़बिल, दराज़ी-ए-उम्र और आबरू मंदी के लिए दुआ माँगी। ज़ुबैदा ने दिए फूल से नया पैमान बाँधा। तुरबत वाले से नज़र-ए-करम की यूँ भीक माँगी जैसे वो पेशावर भिखारन हो। जागीरदारिनी ऐसी रीझी कि उसने ज़मुर्रद की बाग-डोर ज़ुबैदा को सौंप दी। ज़ुबैदा घर की बाजी बन गई। जागीरदार की शराफ़त, सख़ावत और वजाहत मशहूर ज़माना थी। हवेली का फाटक चौबीस घंटे बंद रहता और सारी नेक नामियाँ उसमें बंद रहतीं। ज़ुबैदा की नंग-ओ-नामूस भी उसी में महफ़ूज़ हो गई।

    ज़ुबैदा उम्र के ऐसे हिस्से में थी जहाँ लड़कियाँ क़यामत बन कर अहल-ए-नज़र के जज़्बा-ए-सब्र-ओ-इस्तिक़लाल और क़रार-ए-दिल को ललकारती हैं। वो सच-मुच चलती-फिरती क़यामत थी। उसका घर से निकलना रंग लाया। राइल कोचिंग कॉलेज से रही थी। एक नक़ाब अठारखा था, दूसरे में चेहरे का मरमरीं जमाल बहार दिखा रहा था। रेशमीं रुख़सार, बड़ी-बड़ी आँखें, उन पर संगीनों का पहरा, तीखी-तीखी भंवें और गुलाब की पत्तियों के से होंट देखने वालों के दिल में तलने लगते। ऐसे में दिल तवाज़ुन बरक़रार रख सकता।

    सुबुक सैंडल में से उजले-उजले पाँव यूँ नज़र आते जैसे माहताब पा-बा-ज़ंज़ीर हों। नटखट पनवाड़ी ने कुछ दूर से उसके पाँव देखे और दिल पर आहट महसूस की। कई रोज़ से तिलमिला रहा था। क्या सितम था कि एक फ़ित्ना-ए-क़यामत उस जैसी नामी गिरामी हस्ती का नोटिस लिए बग़ैर बे-परवायाना अंदाज़ में सामने से गुज़रे और उसके जज़्बात को झिंजोड़ कर चला जाए। हर बात की हद होती है। उस दिन तो वो रह सका। ज़ुबैदा की गोरी कलाई पर चमकती हुई घड़ी देख कर बोला, सोहन्यो! के टेम होया ए?

    इस जुमले ने तो उसकी नब्ज़ों में तैर कर क़दम तेज़ कर दिए। पुरानी हवेली में आकर आबदीदा हुई और उसने ज़मुर्रद को सारी कहानी सुनाई। अगले लम्हे ये बात नमक-मिर्च लग कर जागीरदारनी और जागीरदार तक पहुँची। हवेली की शराफ़त को शरारत ने ललकारा। बग्गा ब्लड़ ने नटखट पनवाड़ी को ललकारा। बग्गा ब्लड़ ख़ौफ़नाक क़िस्म का हट्टा-कट्टा जानवर था। बुलडॉग को ले कर बाज़ार में निकलता तो वो बुलडॉग लगता, बुलडॉग इंसान लगता। फ़राग़त का वक़्त निकोशाह के तकिये में गुज़ारता जो बदमाशी का राइल कोचिंग कॉलेज था।

    यहाँ से ऐसे-ऐसे बे-नज़ीर लोग फ़ारिग़-उत-तहसील हो कर निकलते कि उन्होंने पुलिस के बीसियों छोटे-बड़े ओहदे-दारों को तमग़े और इनाम दिलाए, तरक़्क़ियाँ दिलाएँ, मुअत्तल और बर-तरफ़ कराया। बग्गा ब्लड़ उसी टेक्निकल ट्रेनिंग सेंटर का सनद-याफ़ता था। बग्गे ब्लड़ ने तकिये के दो जीदार ज़ेर-ए-तरबियत पट्ठे हमराह लिए और नटखट पनवाड़ी को इस बुरी तरह पीटा कि ग़ुंडा लाइन में उसकी तरक़्क़ी के सारे इमकानात मा'दूम हो गए। उसके बाद ज़ुबैदा नाज़-ओ-अंदाज़ और ग़ुरूर-ओ-तमकेनत से बाज़ार में से गुज़रती। क्या मजाल जो कोई उसके हुज़ूर गुस्ताख़ी करता। उसने ख़ानक़ाह पर जा कर दिए जलाए, फूल चढ़ाए और जागीरदार के हक़ में दुआ-ए-ख़ैर माँगी।

    जागीरदार बिल-ख़ुसूस उसके कमरे से वो मुत'आरिफ़ थी। उसके रौशन और ख़ुशबूदार कमरे के दरवाज़ों और दरीचों पर पर्दे पड़े रहते और उसके मकीन की आँखों पर भी। उसने ये अजायब ख़ाना नहीं देखा था। एक दिन अजायब ख़ाने में चली गई। क़ालीन के मुलायम-मुलायम रेशों से उसके नंगे रेशमीं पाँव गुदगुदाए। उसके बदन के निचले नर्म हिस्से सोफ़े में धँस गए। ख़ाकदान सिगरेट के अध-जले टुकड़ों से भरा पड़ा था। एक चमकती-दमकती बोतल से अनोखी बदबू रही थी। बोतल दो गिलासों के दरमियान रखी थी। तबाक़ में चचोड़ी हुई हड्डियों का अंबार था। उसने बोतल उठाई और तह में पड़े हुए चंद सुनहरे क़तरे हलक़ में टपकाए। मुँह बनाया और बोतल अपनी जगह पर रख दी। एक जगह रंगीन रिसाले देखे तो बोतल की बदबू और कड़वाहट जाती रही। एक रिसाले को उथल-पुथल किया तो तस्वीरें देखते ही आँखें अपने आप मुंद गईं, नबज़ें तेज़ हो गईं। उसने रिसाले को बे-इरादा छाती से लगा कर भींच लिया और बाहर गई।

    आँगन में आई तो जागीरदार की आँखों का भरपूर जलाल सामने आया। घबराहट के आलम में दुपट्टा सर से ढुलक कर शानों पर गया और तरशे हुए गिरेबान में से कंवल कटोरों का सरहदी इलाक़ा अयाँ हो गया। क़हर-नाक, ना-मानूस शरारत आमेज़ नज़रें उसकी पूरी क़ामत पर से गुज़र कर कमरे में चली गईं। उधर से जागीरदारनी गई जिसने अपने कमरे में से आउट डोर शूटिंग देख कर ओके कर दिया था। ज़ुबैदा का गुमान ग़लत साबित हुआ। जागीरदारनी यूँ मुस्कुराई जैसे कुछ हुआ ही नहीं। वो ज़ुबैदा को कमरे में ले गई। उसने चाँदी का पानदान खोला और कलिया में चमची चला कर चूना घोला। फिर हँस कर बोली, बावली घबराई क्यों थी?

    वो सँभल कर बोली, वाह अपनों के सामने घबराहट कैसी?

    कुछ भी हो बाजी! मुझ पर तो घबराहट का दौरा पड़ ही जाता है।

    जागीरदारनी भाँप गई कि लड़की को कुंवारापन के ख़दशे लाहक़ हैं। लड़की किताबी इल्म तो रखती है, दुनिया-दारी का इल्म नहीं रखती। इतने में ज़मर्रुद गई। जैसा नाम था वैसी ही सूरत थी। लपकती-दमकती, माहताबी, उठती जवानी पर उठती हुई क़ामत, गदरे बदन से छूटती हुई महक, चलते में अनार छूटते। बहुत कुछ बन बनने को थी। तमाशा बनती। ज़मर्रुद उसे वहाँ से ले आई। ज़ुबैदा को परेशानी में देखते हुए पूछा, बाजी! कहाँ गई थीं?

    तुम्हारे डैडी के कमरे में। ज़ुबैदा झेंप कर बोली।

    तुम वहाँ क्यों गई थीं बाजी? ज़मर्रुद घबरा कर बोली।

    यूँ ही।

    बाजी! वहाँ मत जाया करो।

    क्यों?

    कोई ख़ास बात तो नहीं... बस, बस यूँ ही।

    कुछ तो बात है।

    बाजी। तुम... तुम नहीं समझतीं... फ़र्ज़ कर लो, कोई चीज़ इधर-उधर हो जाए और तुम्हारा नाम लग जाए?

    हूँ, हूँ, हुई बात।

    जागीरदार की शरारत आमेज़ हँसी, जागीरदारनी की दर-गुज़र और ज़मर्रुद की गोल-मोल बातों ने उसे वहम के जाल में जकड़ लिया। शाम को घर गई तो सोच में पड़ गई। अन-देखे, अनजाने ख़दशे उसे कहीं से कहीं ले गए। उसने सोच-सोच कर चंद बिखरी हुई कड़ियाँ समेटीं और कहानी बना ली। उसे बिल्लो का ख़्याल आया जो हवेली में आते ही जागीरदारनी से पान तलब करती, गिलौरी मुँह में दबा के, होंट लाल कर के इस ठस्से से निकलती जैसे आशिक़ों का ख़ून करने चली हो। कमरे साफ़ करती, बाथ रूम में जा कर बदन सैक़ल करती, सिंघार मेज़ पर जा कर बैठती और कटार बन कर उठती। बावर्ची ख़ाने में जाती और पेट भर के आती। सारा सामान, हर कमरे की एक-एक शय हिफ़्ज़ थी उसे। हवेली की इन्साईक्लोपीडिया थी।

    ज़ुबैदा को याद आया कि एक दिन आँगन में से गुज़री तो जागीरदार के कमरे में से बिल्लो के क़हक़हे सुनाई दिए। फिर उसे ये कहते सुना, ए, हटो आज तबियत ख़राब है। फिर किसी ने तबियत ठीक करने के लिए उसके मुँह पर हाथ रख दिया। धम्म से गिरने की आवाज़ आई, उस पर ऐसी ही एक और आवाज़ आन गिरी। उस रोज़ बिल्लो कमरे में से निकली तो हवेली साफ़ किए बग़ैर चली गई। आँखें झुकाए हुए थी।

    नन्ही धोबिन का भी दिमाग़ ख़राब था। कहने को नन्ही कहलाती लेकिन बड़ी-बड़ी औरतों को मात करती। कपड़े धो कर साफ़ करती लेकिन साथ कपड़े वालों की तबीअतें भी साफ़ करती और जेबें भी। फिर भी नन्ही की नन्ही रहती। क़द छोटा, काम खोटा। हवेली में बे-रोक-टोक घूमती। जहाँ मैला कपड़ा देखती, उठा ले आती, दिखाती लिखाती और चलती बनती। धोबिन पर जोबन था, रईसाना ठाट थे।

    गड़वी बजाने वाली भी गाहे-गाहे आती और जागीरदार का जी बहलाती, साँवले सलोने रंग की पतली पतंग थी जिसके सुनहरे बाल कमर पर झूलते तो दिल झूलने लगता। गले में नूर था। गाती तो क़यामत ढाती। आदमियों को ढाती और जेबों में सेंध लगाती। जागीरदारनी को भी गीत सुनाती।

    बिल्लो और नन्ही उसे कुछ कहतीं, अलबत्ता आपस में उलझती रहतीं। दोनों को बे-बाकी दिखाने और एक-दूसरे पर सबक़त ले जाने पर एतराज़ था। ब-हर-हाल जागीरदार को किसी की बे-बाकी पर एतराज़ था। हर एक यही समझती थी कि हवेली उसके बाप की है। दोनों हर रोज़ हलवाई की दुकान पर दादा जी की फ़ातिहा देतीं। दोनों अस्ल मालिकों से बढ़ कर हवेली पर हक़-ए-तसर्रुफ़ जतातीं। दोनों में पेशा-वराना रक़ाबत की वजह से एक दफ़ा फ़्री-स्टाइल लड़ाई भी हुई। बाल नोचे गए। फ़्लाइंग किकें लगाई गईं। दाँत गाड़े गए। धक्कम पैल हुई और फिर जागीर-दार ऊपर से आया तो दोनों को घसीट कर कमरे में ले गया। यहाँ उसने अमलन दोनों से मुसावात बरती और उन्हें बरतने के बाद इत्तफ़ाक़-ओ-इत्तिहाद का सबक़ दिया। लेकिन ये सब कुछ अरिज़ी साबित हुआ। मैल काटने और सफ़ाई करने वाली दोनों औरतों के दिल में मैल रहा।

    ज़ुबैदा को पुरानी हवेली में कितनी ही गिरी पड़ी कड़ियाँ मिलीं, जिन्हें उसने उठाकर ब-एहतियात हाफ़िज़े में रख लिया। उन गिरी पड़ी कड़ियों और कमज़ोरियों के बावजूद पुरानी हवेली मज़बूती से अपनी बुनियादों पर क़ायम थी। एक दिन एक और कड़ी मिली। वो ज़मर्रुद के कमरे में अकेली बैठी इस्लामी तारीख़ी नॉवल पढ़ रही थी कि तीसरे कमरे में झड़प हुई। उसने कान उधर किए। बिना-ए-फ़साद कसबी थी। जागीरदार चोरी-छिपे अख़्तरी बाई के यहाँ जाने लगा। ये चोरी पास बुक के ज़रिए पकड़ी गई, जिसके इंदिराजात तेज़ी से रू-बा-ज़वाल थे। जागीरदारनी की सी आई डी हरकत में आई तो भांडा फूटा। यूँ तो डेरा दारनी की शक्ल-सूरत अच्छी थी लेकिन जागीरदारनी की गर्द को पहुँचती। कहाँ जागीरदारनी का सँभाला हुआ भरपूर बदन और बाँकपन और वो फ़्री लांसर जो दस साल से मुसलसल अनाड़ियों, खिलाड़ियों, बदतमीज़ों और जानवरों का तख़्ता-ए-मश्क़ थी। जागीरदारनी का पैकर चुग़्ताई के मू-क़लम पर ठहरा हुआ ख़्याल था। खड़ी होती तो राग दरबारी के सारे सुर छिड़ जाते, आफ़ताब जगमगाने लगते। तंग पाजामे पर चुन्नटों वाली क़मीज़ पहन कर मुग़ल रानी बन जाती। ख़ामी ये थी कि वो औरत थी, घर वाली थी।

    औरत परी हो, अप्सरा हो, एक की बन कर रहेगी तो एक दिन मर्द की तबियत उससे भर जाएगी। यही हुआ। जागीरदार को घर की मुर्ग़ी दाल बराबर और बाहर की दाल, मुर्ग़ी बराबर लगी। ज़बान की हवा में पली हुई अख़्तरी बाई कुछ और ही चीज़ थी। वो कंजरी थी। सौ औरतें मिल जाएँ तब भी एक कंजरी बने। यहाँ मर्दों को ज़ेर करने वाले दाओ बड़ी सेहत से मौक़ा देख कर बरते जाते। हर्राफ़ा कभी क़रीब कर दिल की धड़कन बन जाती और कभी कोसों दूर चली जाती। अपने-अपने चलन में ज़ेर-ओ-बम रखती। जागीरदार को कभी बरक़रार और कभी बे-क़रार रखती। उसकी सोच में घर कर लेती और फिर बाहर निकल आती। उसे आपे से बाहर करती और आप आपे में रहती। अपने दिल के साथ पासबान-ए-अक़्ल रखती और उसके पासबान-ए-अक़्ल को पिटवा देती, मरवा देती। धारा बन कर नाव को नशेब की तरह ले गई। नाइका रहनुमा थी। दाओ-पेच में नोची को ताक़ रखती।

    तकरार ही में भेद खुला कि कसबी जागीरदार को अपने थान पर मुस्तक़िलन बाँधना चाहती है। जागीरदारनी जिसे उम्र क़ैद की सज़ा मिली थी और वो भी बा-मशक़्क़त, जानती थी कि रंडियाँ घर बरबाद और चकले आबाद करती हैं, घबरा कर बोली, अल्लाह के वास्ते घर बरबाद करो। घर बसाना बच्चों का खेल नहीं। जिस घर को पन्द्रह बरस में जा कर आबाद किया है वो पन्द्रह दिन तो क्या पन्द्रह मिनट में बरबाद हो सकता है, यूँ मत करो। कोई क्या कहेगा।

    क्या कहेगा?

    शह्र में इज़्ज़त-आबरू बनी है। दुनिया-जहान पर हवेली की शराफ़त का सिक्का बैठा है।

    शराफ़त मुझे नहीं चाहिये। इसने तो नाक में दम कर रखा है। मेरा तो इससे दम घुटने लगा है।

    ख़ुदा का ख़ौफ़ करो। साहिब-ए-औलाद हो। हम सबकी मिट्टी पलीद करो। लेकिन जागीरदार मिट्टी पलीद करने पर तुला हुआ था। जागीरदारनी बोलती रही। बीच-बीच में औरत का मुसल्लम हथियार भी आज़माती यानी आँसू बहाती रही। एक-बार जलाल में कर गरजी लेकिन तलाक़ की धमकी मिलते ही अधमुई हो गई। भर्राई हुई आवाज़ में बोली, तुम्हें घर में किस बात की रोक-टोक है। ये घर भी तो चकला बना है। तलाक़ दी तो दिवार से टक्कर मार-मार कर जान हलकान कर लूँगी। फिर आवाज़ धीमी पड़ गई। शायद वो अपना रिवायती मुक़ाम पहचान गई और मर्द के पाँव की जूती बन गई। हौले-हौले बातें होती रहीं। एक-बार ज़ुबैदा ने जागीरदार की ज़बान से अपना नाम सुना लेकिन मतलब समझ सकी।

    ज़ुबैदा घर आई और पिछले पहर सोई। ख़्वाब देखा। एक औरत उसके रू-ब-रू आकर अध-नंगी हुई और नाचने लगी। गुलाब का फूल हरकत में कर नज़र-फ़रेब ज़ाविए बनाने लगा। उसने इस बेबाक औरत को अख़्तरी बाई जाना। अख़्तरी उस पर लपकी। ये भागी। उधर से नटखट पनवाड़ी निकला। वो भी पीछे दौड़ा। ख़ुश क़िस्मती से धनक सामने गई। ये उछल कर धनक पर चढ़ गई। धनक ऊँची हो गई। अख़्तरी बाई और नटखट पनवाड़ी मुँह देखते रहे। ये मारे ख़ुशी के नाचती-गाती आसमान पर पहुँच गई। नींद खुली, ख़्वाब का मतलब समझ सकी। अख़्तरी और नटखट के ख़्याल ने जवानी का नशा और बदन की मस्ती अंग-अंग से निचोड़ ली। झट आली शाह के यहाँ पहुँची। दरीचे पर लटकी हुई लकड़ियों को चूमा, इस लगन से चूमा जैसे ये उसके महबूब के होंट हों। तेल से चिकटे हुए ताक़चों पर दिए धरे थे। बत्तियाँ ग़ायब थीं। सुबह-सुबह हस्ब-ए-मा'मूल कव्वे बत्तियाँ उड़ा ले गए थे। इसलिए बत्तियाँ बट-बट कर डालीं। आने से पहले पुरानी हवेली की सलामती के लिए लंबी दुआ माँगी। फिर तुरबत शरीफ़ के पास बैठ कर मुराक़बे में गई। उसने तय किया कि वो महीना पूरा करके ज़मर्रुद की ट्यूशन छोड़ देगी। घर और चकले की महाज़-आराई के अंजाम का इंतज़ार करेगी। अख़्तरी बाई और जागीरदारनी के फ़तह-ओ-शिकस्त से उसे क्या मिलेगा?

    वो समझ गई कि इंक़लाब कर रहेगा लेकिन आने वाले इस इंक़लाब से पहले जागीरदारनी के रवैये में इंक़लाब आया। उसकी फ़य्याज़ी में यकायक इज़ाफ़ा हो गया। एका-एकी कई नये नकोर कपड़े अपने आप तंग हो गए। स्वेट क्रेप, विलायती जॉर्जट और ब्रोकेड की क़मीज़ें, नये नकोर सैंडल और नई नकोर कोटियाँ पहने बग़ैर तंग क़रार दे दी गईं। उन्हें एक-एक करके ज़ुबैदा को पहनाया गया। उसे दुल्हन बनाया गया। हर जोड़ा पहनाने से पहले जागीरदारनी ने उसके कुँवारे रेशमी बदन पर हाथ फेरा। हर जोड़ा उस गुल अंदाम पर ज़ेब दे गया। उसके बदन के ज़ावियों और ख़तों की तारीफ़ की गई। जागीरदारनी ने उसके बदन से अपने बदन का मवाज़ना किया। जागीरदारनी मुस्कुरा कर बोली, हाय कितनी प्यारी लगती हो। जी चाहता है मुँह चूम लूँ। और फिर उसने अपने सुलगते हुए जज़्बात गुलाब की दो जुड़वाँ पत्तियों पर रख दिए। ज़ुबैदा इस अमल से ज़रा खुली और बोली, तौबा! आपने तो हद ही कर दी। यूँ क्या, जैसे आप प्यारी नहीं लगतीं।

    जवानी फिर जवानी है।

    आप तो यूँ ही कसर-ए-नफ़सी कर रही हैं। अब भी लाखों में एक हैं।

    तो आओ फिर अदली-बदली कर लें। अपनी जवानी मुझे दे दो और मेरी जवानी तुम ले लो।

    हो सके तो बे-शक अदली-बदली कर लें। मेरे लिए ये ज़रा घाटे का सौदा नहीं।

    अफ़सोस! ऐसा नहीं हो सकता वर्ना घाटे में तो मैं भी रहती।

    जागीरदारनी ने सर से पाँव तक उसे एक बार फिर देखा और कहा, तुमने बदन को ख़ूब सँभाल कर रखा है।

    ये ख़र्च करने की चीज़ है पगली!

    ज़ुबैदा झेंप गई। ज़ुबैदा के हरारत और शरारत से भरे बदन पर वीनस के पैकर से क़दरे ज़्यादा आब-ओ-ताब थी। जागीरदारनी के सामने सर्व का बूटा खड़ा था। उसके कंवल कटोरों का तीखा कुँवार-पन आँख में चुभ रहा था। जवानी के मह्शर-ख़ेज़ साज़-ओ-सामान से सजा-सँवारा हुआ एक नया मा'शूक़ तलूअ' हुआ था जिसे देख कर जागीरदारनी ने आह भर कर कहा, कभी हम पर भी जवानी टूटी पड़ती थी।

    आप तो अब भी जवान हैं। जाने क्यों टूटे दिल से बात करती हैं।

    तू क्या जाने ज़ुबैदा, औरत के नसीबों में क़ुदरत ने कितनी टूट-फूट रखी है। ज़ुबैदा जो टूट-फूट के इल्म और अमल से बेगाना थी, जागीरदारनी के जुमले के मुज़म्मिरात से बेगाना रही। जागीरदारनी के दिल में उसके लिए प्यार की अचानक जो हिद्दत पैदा हुई वो हैरान-कुन थी। ब-हर-हाल उसका पुर-सोज़-ओ-गुदाज़ रवैया ज़ुबैदा के फ़ैसले पर असर-अंदाज़ हो सका जो उसने मुराक़बे में किया था। समझी कि हवेली के रोज़-ए-बद के ख़ौफ़ ने जागीरदारनी को उसके क़रीब कर दिया है और उसने बचाओ के लिए ऐसा सहारा पकड़ा है जो ख़ुद बे-सहारा है।

    ख़ुदा-ख़ुदा करके पहली आई। पहली की मसर्रत के लिए उसने गर्मी, सर्दी, आँधी, बिजली और मेंह पानी की परवा की। पहली को दुनिया हसीन-ओ-दिल-फ़रेब हो जाती लेकिन फिर बनिया, ग्वाला और क़र्ज़-ख़्वाह उसे घिनौना बना देते।

    राइल कोचिंग कॉलेज से तनख़्वाह वसूल करके आली शाह के मज़ार पर आई। यहाँ उसने फूल चढ़ाए और हस्ब-ए-मा'मूल सिद्क़ दिल से पुरानी हवेली के लिए ख़ैर की दुआ माँगी। फिर तुरबत के फूल उठाए और चल दी। आज चाल में अजीब मस्ती थी। लिबास भड़कीला था। नया माशूक़ बनी जागीरदारनी के दिल में नई हिद्दत भड़काने और ईमान-ओ-आगही से दुश्मनी करने चली थी। जागीरदारनी की बातों ने उसे सैक़ल कर दिया था। नक़ाब उठाए राह गीरों की निगाहें रौंदती और दिलों पर दस्तक देती चली गई।

    हवेली पर पहुँची तो फाटक पर बग्गा ब्लड़ खड़ा गुड़ चूस रहा था। वो उसे देख कर हँसी और आगे बढ़ गई। ज़ीनों पर पहुँची तो फाटक ज़ोर से बंद हुआ। ऊपर पहुँच कर कमरों में गई। हर तरफ़ ख़ामोशी थी। धड़कते हुए दिल से उसने जागीरदारनी और ज़मर्रुद को आवाज़ दी लेकिन जवाब मिला। आँगन में आई तो उसे एक फ़त्ह-मंदाना मगर मुहीब क़हक़हे ने लिया। उसके हाथों से तुरबत शरीफ़ के वो हार गिर गए जो वो हवेली की सलामती की ख़ातिर लाई थी। वो लौटी और लपक कर ज़ीने में आई। बग्गा ब्लड़ रास्ता रोके खड़ा था। बोला, नीचे फाटक बंद है और मैं यहाँ खड़ा हूँ। इतने में आँगन वाला क़हक़हा भी गया, आज पहली है और तुम्हारी तनख़्वाह मेरे पास है।

    मुझे तनख़्वाह नहीं चाहिये।

    सही। कह कर वो क़हक़हा गरजा। ज़ुबैदा ने पूरी तरह चिल्ला कर कहा, मुझे जाने दो। जवाब में बुलडॉग भौंका और ज़ुबैदा के लिए तो जागीरदार भी बुलडॉग ही था। वो उसे कमरे में खींच लाया जहाँ एक सांवली सलोनी औरत नशे की हालत में सोफ़े पर पड़ी सिगरेट के कश लगा रही थी। औरत हँसी और बोली, बादशाह! इसे फड़का दे। बड़ी ठन के आई है।

    चुप रह गश्ती!

    और गश्ती हँस कर चुप हो गई। फिर ज़ुबैदा को चिता पर डाला गया तो गश्ती उठ कर बैठ गई और ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगी। वही ज़ुबैदा जो कुछ देर पहले कली थी, बासी ज़नाज़ा हो कर रह गई। ये ज़नाज़ा तीन दिन के बाद सिसकता तड़पता पुरानी हवेली में से निकला। आशिक़ का ज़नाज़ा था वर्ना धूम से निकलता। ज़नाज़े ने फ़ीस छोड़ कर वो पाँच सौ रूपये फाटक के अंदर फेंक दिए जो उसे जबरन बतौर उजरत दिए गए थे। ज़नाज़ा घर गया, जहाँ इक उज़्व मुअत्तल था। जहाँ रीत के फूलों की बात थी और जहाँ चंद रूपल्ली से ज़िंदगी की हरकत-ओ-हरारत क़ायम थी। जहाँ अफ़्लास के जरासीम पल रहे थे और जिन्हें मारने वाली डी. डी. टी. अभी ईजाद नहीं हुई थी। ज़ुबैदा दरबार गई। उसने बाप को ख़बर सुनाई। बाप सकते में गया। उसे ख़बर थी कि भेड़िए भी इतने ख़ूबसूरत होते हैं। उसने वो कोट फाड़ दिया जो उसे पुरानी हवेली से मिला था। फिर काँपता हुआ हाथ बेटी के गले तक ले गया। बेटी ने गला छुड़ाने की कोशिश नहीं की लेकिन एक हाथ और वो भी नातवाँ! वो गला दबा सका। पुरानी हवेली उस पर गरी। वो मलबे तले दब गया और वहीं पड़ा-पड़ा मर गया। तकिये में उसे पहुँचे हुए लोगों के पहलू में दफ़ना दिया गया।

    वो सारी रात क़ब्र से लिपटी सिसकती रही। रात भर आँसू टपकते रहे। वो बे-सहारा हो गई। उसने पहली बार बेगम परवीन की दहलीज़ पर क़दम रखा। बेगम परवीन बीवा थी और अच्छी शोहरत रखती थी। कम-गो, कम-आमेज़ थी। दो नौकरानियाँ और एक नौकर अफ़राद-ए-ख़ाना थे। दिन-भर रेडियो सुनती और रिकॉर्ड बजाती। मौसीक़ी उसकी रूहानी ग़िज़ा थी। हारमोनियम पर ख़ूब हाथ साफ़ था। अपनी आवाज़ पर आशिक़ थी। ख़ुद गाती, ख़ुद ही सुनती। मरहूम मियाँ आला दर्जे के सितार नवाज़ थे। बेगम परवीन ने ज़ुबैदा का ख़ैर-मक़दम किया और पूछा, बहन कौन हो? कैसे आई हो?

    ज़ुबैदा ने तआरुफ़ करवाया और बताया कि उसे तन्हाई काटती है। घबराहट का मर्ज़ है। बाप मर चुका है। माँ क़ब्र में पाऊँ लटकाए पड़ी है। दिल का बोझ हल्का करने आई है। बेगम परवीन ने तवाज़ो की और आने-जाने की खुली दावत दी। वो इस दावत पर अमल पैरा हो गई। ज़ुबैदा ने बेगम परवीन के यहाँ एक औरत को भी आते-जाते देखा। उसका नाम ख़ुर्शीद था। बेगम परवीन से शक्ल मिलती-जुलती थी। पान खाती और सिगरेट पीती थी। बेगम परवीन के साथ ज़ुबैदा की दर्द आशना हुई। उन्हें हम-दर्द पाकर ज़ुबैदा ने अपना राज़ बता दिया। इस पर दोनों औरतों ने उसे तसल्ली दी। तसल्लियाँ मिलती रहीं। तनूर-ए-शिकम दम-पुख़्त होता रहा, हराम की हँडिया पकती रही।

    बेगम परवीन और ख़ुर्शीद ने मिल कर उसे हमदर्दी और मश्वरों में जकड़ लिया। सहारा ज़रूर मिला लेकिन कुंवार-पन के क़त्ल से एक नई हस्ती को जो लहू मिल रहा था उसकी घबराहट दूर हुई। पुरानी हवेली से उसे जो नफ़रत थी वो उसके पेट में पल रही थी।

    राइल कोचिंग कॉलेज में उसका दर्जा ऊँचा हो गया। ये ऊँचा दर्जा उसे मास्टर चिराग़ के इंतक़ाल की ख़ुशी में मिला लेकिन उसे कोई ख़ास ख़ुशी हुई। वो हर वक़्त पेट की उलझन में पड़ी रहती। पेट पालने के लिए उसने दो-दो जगह नौकरी की और पेट मुसीबत बन गया। किसी तरह उसके कानों में एक लेडी डॉक्टर के बारे में भनक पड़ी। वो अकेली ही उसके यहाँ चली गई। मिस क़ुरैशी इस वक़्त ऑपरेशन रूम में थीं जिसके बंद दरीचों में से चीख़ें निकल-निकल कर वेटिंग रूम तक रही थीं। चीख़ें इतनी दिलदोज़ थीं कि उन्हें सुन कर वो काँप-काँप गई। लड़की जानदार थी लेकिन चीख़-चीख़ कर बे-जान हो गई। बाहर निकली और एक ख़ूब-रू, ख़ुश जवान का सहारा ले कर चली गई। बात चंद लम्हों की थी लेकिन चीख़ों से यूँ लगता था जैसे पेट में जहन्नुम उतार दी गई हो। मा'लूम हुआ कि इस जहन्नुम को उतारने और लोहे के तेज़ औज़ारों से हराम की बोटी छीलने की फ़ीस सिर्फ़ तीन सौ रूपये यानी ज़ुबैदा की दो माह की तनख़्वाह थी। वो जहन्नुम में से गुज़र जाति लेकिन तीन महीने हो चुके थे। मिस क़ुरैशी ख़तरा मोल लेने को तैयार थी। बोली, तुम्हारा मर्द कहाँ है?

    वो हरामज़ादा बाहर चला गया है।

    ख़ैर, कुछ भी सही। मेरे काम का वक़्त गुज़र चुका है।

    आप ज़्यादा फ़ीस ले लें!

    और साथ ही तुम्हारी जान ले लूँ।

    वो क्यों?

    ये काम शुरू-शुरू में होते हैं। ये लड़की जो तुम्हारे सामने गई है उसे एक महीना हुआ था। तुम्हारा केस तीन महीने पुराना है। इतना पुराना केस कौन करेगा? किसी ने पैसे के लालच में कर किया तो तुम बचोगी नहीं।

    ज़ुबैदा मायूस-ओ-शर्मसार लौटी और अज़-सर-ए-नौ बड़े जज़्बे से बेगम परवीन के मश्वरों पर लग गई। एक दिन सख़्त आज़माइश में पड़ी। छुट्टी के दिन शोख़ी और शरारत की पुतलियाँ आईं। ये वही उसकी हम-कार थीं जो राइल कोचिंग कालेज में उसके साथ पढ़ाती थीं। उन्होंने खड़े-खड़े सैर का प्रोग्राम तरतीब दिया और ज़ुबैदा को ले कर चल दीं। ज़ुबैदा हौसले वाली थी। उसने सर होने दिया कि इस वक़्त सर से पाँव तक ज़िंदगी के सबसे बड़े बोझ तले दबी है। सहेलियाँ हँसती-खेलती, क़हक़हे बरसातीं, अह्द-ए-जाहिलियत का मफ़हूम अदा करती शालामार पहुंचीं। शबाब की मस्ती में गुम थीं। उन्हें ज़ुबैदा की तरफ़ तवज्जो देने की तौफ़ीक़ थी। वो तितली की तरह आवारा हुईं। ज़ुबैदा पर कटा कबूतर बनी रही। सहेलियाँ नाचती-दौड़ती तख़्ता-ब-तख़्ता दूर निकल गईं। ज़ुबैदा के लिए ये सजीले तख़्ते तख़्ता-ए-मौत से कम थे। बेगम परवीन की नसीहतों की पोट लिए सँभल कर पाँव उठाती, राज़ छिपाने के लिए तंग जूती का बहाना आड़े आया। शरीर बछड़ियाँ लपक कर फ़सील पर पहुंचीं और बुरजी में जा बैठीं। ज़ुबैदा भी लँगड़ाती-लँगड़ाती पहुँची। तीनों ने गप्पों और क़हक़हों की मय्यत में माल्टों की टोकरी ख़ाली की। उनकी खोपड़ी भी ख़ाली हो गई। आसाब का बोझ टालने के लिए आँखें मीच कर लेट गईं। कुछ देर तक चुप रहीं। फिर नजमा ने आग़ाज़-ए-कलाम किया।

    कभी बेगमें और शहज़ादियाँ यूँ ही आँखें मीच कर यहाँ लेट जाती होंगी।

    लेकिन वो बात कहाँ जो हमें नसीब है।

    हमारी तरह आज़ाद थोड़ी थीं वो, क़िले और बाग़ों में खिंच भिंच कर रहती थीं।

    हम ठहरीं परियाँ। जहाँ चाहें उड़ कर जा पहुँचें।

    और फिर वो परियाँ ज़मीन से उड़ कर आसमान पर जा पहुँचें। बदन खोलने के लिए खड़ी हो कर उन्होंने अंगड़ाइयाँ लीं। जवानी की चूलें तड़ख़ीं, तनाबें खींचीं और खड़े सुरों की रागनियाँ छिड़ीं। फिर चूलें बैठीं और ये चहकती महकती पानी की चादर और हौज़ के पास चली गईं। हर तरफ़ ग़ज़लें और ठुमरियाँ बिखरी हुई थीं। यहाँ कर जब औरतें एड़ियाँ उठा कर चलतीं और उनके दुपट्टे उड़ते तो वो परियाँ बन जातीं। नजमा और नूरी सच-मुच उड़ कर दरवाज़े पर पहुँचीं। ज़ुबैदा भी जुफ़्त-साज़ को कोसती-कोसती गई। आज उसने गालियों की सारी लुग़त तम्मत-बिल-ख़ैर की। वो चाट खाने लगीं और लड़के दूर खड़े उन्हें ताकने लगे। चाट से फ़ारिग़ हो कर माधव लाल हसीन की ख़ानक़ाह को निकल गईं। ज़ुबैदा के जज़्बा-ए-अक़ीदत ने जोश मारा और उसने तुरबत का रुख़ किया, ब-मुश्किल ख़ानक़ाह में दाख़िल हुई थी कि दूर से एक लोंडे ने चिल्ला कर कहा, बी-बी! मज़ार के अंदर जा। औरतों के लिए अंदर जाना मना है।

    ज़ुबैदा को यूँ लगा जैसे ये माधव लाल की आवाज़ थी। क़रीब से गुज़रा तो लड़कियाँ उस ख़ूबरू और बे-रीश लड़के को देखने लगीं। नजमा ने नूरी से कहा, गुल-मुंडा है। माधव लाल से कम हसीन नहीं। ज़ुबैदा डर सहम कर बाहर गई। दर-अस्ल डर ख़तरा बाहर नहीं था, उसके अंदर था और वो भी दिल में नहीं, पेट में था। नजमा बोली, वाह री ज़ुबैदा! उस लोफ़र की बातों में गई। क्या रखा है इन ढकोसलों में। लेकिन ज़ुबैदा तो उन्ही ढकोसलों पर ईमान रखती थी। बाहर खड़ी-खड़ी दुआ माँगने लगी। दिल ने कहा ये घड़ी टल जाएगी। साथ-साथ पेट फ़र्याद करने लगा। सहेलियाँ साथ थीं वर्ना पेट रोने चीख़ने लगता। मज़ार पर जाना और दुआ माँगना ज़माने की रीत थी। सौ लड़कियों ने भी दुआ माँगी। लेकिन ज़ुबैदा की तरह हर वक़्त गले में ख़ानक़ाहें लटकाए फिरतीं। लड़कियाँ लौट आईं। ज़ुबैदा का सारा बदन टूट गया और उसे जोड़ने के लिए वो डेढ़ दिन बिछौने में पड़ी रही।

    बेगम परवीन की तसल्लियों और वक़्त आने पर हर क़िस्म के इमदाद के वा'दों में दिन गुज़रने लगे और आख़िर वो घड़ी आई जब बिजली कड़की और मेंह ने तूफ़ान बाँधा। तसल्लियाँ और इमदाद के वा'दे इस तूफ़ान की नज़र हुए। उसके भाग ही ऐसे थे। मौसम को आज ही बरहम होना था। आसमान की दर्ज़ों में से शोले तड़प-तड़प निकले। ज़ुबैदा के बदन की दर्ज़ों में से भी शोले निकले। रेशमीं बदन वाली लड़की पर मौत के मुसलसल दौरे पड़े। उस वक़्त तो सारी कायनात दर्द में मुब्तिला थी। उसने ज़रा खिड़की खोली, बिजलियाँ घमबीर अंधेरों को चीर रही थीं। दूर से आली शाह का मज़ार नज़र आया। गुंबद तले ज़ुबैदा की उम्मीदों को ताबाँ रखने वाले दिए थे। आरज़ूओं को महकाने वाले फूल थे। उसने अपनी सोच और अरमान उन्ही के क़ुर्ब में बिखेर रखे थे और उस शहज़ादे का इंतज़ार करती थी जो उसकी बिखरी हुई ज़िंदगी को समेट कर गले से लगा ले। फिर कमर में हाथ डाल कर उसे अरमानों की धनक पर ले जाए लेकिन इस वक़्त वो हसीन ख़्याल और आरज़ू से महरूम थी।

    उस वक़्त तो चीख़ों का दूसरा नाम ज़ुबैदा था। वो मौत की गिरफ़्त में कर जीने का जतन कर रही थी। दर्द बढ़ता गया। वो तमाम मसाइब जो क़ुर्ब-ए-क़यामत के लिए महफ़ूज़ थे, उसकी जान-ए-नातवाँ पर टूट पड़े। अकेली बिस्मिल वार तड़पती रही। कभी ख़ुद को खरी चारपाई पर पटख़ती, कभी किवाड़ से झूलती और कभी दिवार के सहारे खड़ी हो जाती। बाल बिखर गए, हवास उड़ गए। ज़िंदगी और मौत दोनों में ठनी थी। उनकी कशमकश में ज़ुबैदा की सारी क़ुव्वत चीख़ों और टीसों में ढल गई। सुध-बुध थी तो मौजूदा लम्हे की जो टल रहा था।

    पिछले पहर एक नन्हीं-सी चीख़ सुनाई दी और ज़ुबैदा की क़हरनाक चीख़ें निकल गईं। रोई का गर्म-गर्म गोला बदन से जुदा हुआ तो उसे कल पड़ी। ग़लाज़त का वो अंबार भी ढुलक आया जिसने इस ताज़ा गुल-ए-शोला-रू को जिस्म-ओ-जाँ बख़्शे। औरत की ज़िंदगी का ये सबसे बड़ा अरमान ज़ुबैदा के लिए मौत और तबाही की अलामत बन गया। एक अलाव बुझा, दूसरा सुलग उठा और उसे डसने लगा। रोई का गोला अलाव बन कर उस पर टूट पड़ा। उसने ग़ैर-शऊरी तौर पर रोई के गोले को आलूदगी से पाक किया लेकिन रोई के गोले को ख़बर थी कि दुनिया की मुहीब तरीन आलूदगी अब भी उस बदन से चिमटी हुई है और मशरिक़ी समुद्रों का पानी उसे धोने से क़ासिर है।

    काम तमाम हुआ बल्कि उसका आग़ाज़ हुआ। उसकी टाँगें काँप रही थीं। रोई का गोला ज़मीन के इस बोझ से सिवा था जो फ़ातेह देवता ने मफ़तूह देवता अत्लस के शानों पर रख दिया था। उसने उसे छाती से चिमटा लिया। दहकता हुआ कोयला उसकी रूह में उतर गया। वो दहकता हुआ कोयला लिए गली में उतर गई। हर तरफ़ रास्ते ही रास्ते थे लेकिन उसके लिए एक भी रास्ता था। मेंह थम गया। तूफ़ान रुक गया लेकिन उसके अंदर तूफ़ान बरपा रहा। अज़ीम और रौशन शह्र उसे ज़िल्लत-ओ-रुसवाई और तारीकी के सिवा कुछ दे सका। कुछ देर बा'द एक रास्ता अयाँ हुआ और सब रास्ते उसमें कर मिल गए। एक जगह कर रुकी। कुत्ते के भौंकने पर चौंकी। उसे दुनिया कुत्ते की मानिंद नज़र आई। ये पुरानी हवेली का कुत्ता था। वो बे-शऊरी में ज़ोर से चीख़ी लेकिन ये चीख़ हवेली की मरमरीं ज़िंदगी की रेशमीं गुदगुदियों में दब कर रह गई। उसने रोई के गाले के गिर्द अच्छी तरह चादर लपेट ली। उसके बदन से रिस्ती हुई लहू की बूँदें एड़ियाँ भिगो कर मेंह के पानी में घुलती रहीं और क़दम-क़दम पर अपने अमल का निशान छोड़ती रहीं।

    काश! वो मर जाती, मिट जाती, ज़मीन में गड़ जाती। सीता की तरह, एंतेगोनी की तरह, हेलन के उस जाली पैकर की तरह जो आनन-फ़ानन सच की आग में जल गया।

    काश। आज की रात कभी आती।

    उसका दिल यूँ ही बोलता रहा। कितनी बे-सहारा थी वो! बाप के बाद दुनिया में उसका कोई रहा। अंधेरी रात का सन्नाटा और माज़ी की कर्ब-नाक यादों का हुजूम! उसकी गुज़र-गाह पर उम्मीद और फ़रहत की एक किरण थी। ज़िल्लत की जहन्नुम छाती से लगाए ना-मा'लूम मुस्तक़बिल की सम्त चल रही थी। आज ज़िंदगी और लहू पानी की तरह अर्ज़ां था। आली शाह उसे अपनी सम्त खींच रहे थे। अंधेरों की आँधी को चीरती हुई तुरबत पर पहुँची। भूल गई कि नजिस है। उसने अपनी ज़िल्लत की पोट फूलों की सेज पर डाल दी। मोती की झालरों को चूमा, चादर को मुँह पर फेरा जैसे सुर्ख़रू होने की सई की हो, निज़ाम दीन की क़ब्र पर कर आँसू टपकाए और कुँएँ की मुंडेर पर फ़ैसला-कुन अंदाज़ से आन खड़ी हुई। फूलों की सेज चीख़ी और बिजली का कोंदा उसके दिल में उतार गई। उसके अंदर छपी हुई नौ-ज़ाईदा माँ सन्नाटे में गई। पलटी और तुरबत पर पहुँची। उसने रोई का गोला उठाया और छाती से लगा कर चली गई।

    रौशनी और अँधेरे की मिली-जुली कैफ़ियत में से गुज़रती-गुज़रती बेगम परवीन की हवेली पर पहुँची। दरवाज़ा खटखटाया, नौकरानी ऊपर से झाँकी। इसने नीचे आकर दरवाज़ा खोला। बेगम परवीन भी गई और चिल्ला कर बोली, लड़की है या लड़का? लड़का है तो उल्टे पाँव लौट जाओ। और फिर हँस कर कहा, लड़की है तो सौ बिस्मिल्लाह।

    आपने कहा था, जब भी ज़रूरत पड़े चली आना। आँसू तेज़ी से टपके और लफ़्ज़ मर गए। उसने रोई के गोले को फ़र्श पर धर दिया। बेगम परवीन ने देख कर तसल्ली की और रोई का गोला उठा लिया। उसे सोफ़े पर लिटाया और ज़ुबैदा से कहा, बे-फ़िक्र रहो और जा कर आराम करो। ज़ियादा चलना-फिरना ठीक नहीं।वो रोती-रोती आँसू बहाती लौट आई। घर पहुँची तो माँ याद आई। छत पर गई। माँ कहाँ? वहाँ तो दो फटी-फटी आँखें थीं, जो ख़ला में झाँक रही थीं। साँस उखड़ गया था। मुँह बार-बार खुलता-मुंदता था। उसने पानी के क़तरे मुँह में टपकाए। हिचकी आई और दम पार हुआ।

    अब तक जो नाटक खेला गया था, उसमें ज़ुबैदा ने फ़आल हीरोइन का किरदार अदा किया था लेकिन इसके बाद तो वो स्लीपिंग पार्टनर हो कर रह गई। बेगम परवीन दो वक़्त आती। उसकी ख़बर-गीरी करती। उसकी नौकरानी आती। हज्जन दाई पर भेद खुला तो उसने बेगम परवीन का कच्चा चिट्ठा खोला और राज़दारी के लिए ज़ुबैदा से क़स्में उठवा कर उसे बताया कि बेगम प्रवीण अपने ज़माने की नामवर कंजरी थी। जवानी ही में एक रईस की मुलाज़मत पर चली गई और फिर शुरफ़ा की आबादी में हवेली बनवा कर उसमें उठ आई। यार के मरने पर उसे ढेर सारी जायदाद मिली और आराम-ओ-आसाइश की ज़िंदगी गुज़ारने लगी। ख़ुर्शीद बाई उसकी सगी बहन है। वो अब भी बाज़ार में रहती है।

    चिल्ला काट कर ज़ुबैदा राइल कोचिंग कॉलेज की तौसीअ-ओ-तरक़्क़ी में हमा-तन-मशग़ूल हो गई। बेगम चिराग़ दीन ने उसे बहन बना लिया। उसके कहने पर उसके साथ रहने लगी। कभी-कभी पुराने मकान में जाती और उसे झाड़ पोंछ कर जाती। कभी-कभी बेगम परवीन के यहाँ जाती क्योंकि उसने अपनी ज़िंदगी का सबसे हौल-आफ़रीं राज़ उसकी तहवील में दिया था। रोई का गोला रात-दिन उसकी सोच में तैरता रहता। जाने वो किस हाल में हो? क्या बनेगा उसका? क्या मुस्तक़बिल होगा उसका? निज़ाम दीन ने बेटी के लिए रौशन मुस्तक़बिल की आरज़ू की थी लेकिन बेटी की बारी आई तो उसके पास कोई आरज़ू थी। वो सरापा सवाल थी। सवालों का हुजूम रहता और वो कामयाब मुअल्लिमा होने, रात दिन सवालात के जवाबात बताते हुए भी अपने सवालों का जवाब देने से क़ासिर थी। बेगम परवीन जो कुछ और जितना बिता देती सब्र-ओ-शुक्र से क़ुबूल कर लेती। वो उसे देखना चाहती थी। जब हद से बढ़ कर बे-कल हुई और बेगम परवीन उसके इसरार की शिद्दत के सामने ठहर सकी तो ख़ुर्शीद बाई उसे अपने यहाँ ले गई।

    बाज़ार की हैअत और बे-बाक औरतों को देख कर परेशान हुई। एक आलीशान हवेली में दाख़िल हुई जिसकी सज-धज क़ाबिल-ए-दीद थी। सबक और रौशन कपड़े पहने एक लड़की सोफ़े पर नीम दराज़ थी। दोनों एक-दूसरे को देखते ही दंग रह गईं। ज़ुबैदा ने पहली नज़र में क़ैसरी को पहचान लिया। नक़्ल ब-मुताबिक़-अस्ल थी। ऐन उसकी तरह हर नक़्श तीखा। हर ख़त सही, हर ज़ाविया दिल-कश। हँसी तो चाँदिनी निखरी, खड़ी हुई तो सूरज एक नेज़े पर गया। उसे देख कर क़ल्ब-ओ-नज़र का तवाज़ुन डोल जाता। उसके कंवल कटोरों का चुभता हुआ उभार, उसकी जवानी की जारहीयत माँ से कम थी। बेटी ने माँ को अध-मुआ कर दिया।

    ख़ुर्शीद बाई ने ज़ुबैदा को सोफ़े पर बिठाया और क़ैसरी से मुख़ातिब होकर कहा, ख़ानदानी औरत हैं। कालेज में पढ़ाती हैं। हमें देखने आई हैं। क़ैसरी उठ कर बावर्ची-ख़ाने में गई और चाय तैयार कर लाई। उसने बड़े सलीक़े से चाय पेश की। उसकी सूरत, क़ामत और तमीज़-दारी देख कर ज़ुबैदा का दिल ज़ोर-ज़ोर से चीख़ने लगा। उसने पूछा, बेटी! कुछ पढ़ती भी हो?

    मास्टर साहब अंग्रेज़ी और उर्दू पढ़ाते हैं। उर्दू की ग़ज़लें और इंग्लिश साँग मैंने आप याद किए हैं। मैंने मोंकेज़ और बीटल्ज़ के कई रिकॉर्ड जमा किए हैं। उन्हें अपनी टेप पर भी उतार लिया है।

    बड़ी प्यारी लड़की हो। मेरे पास रहोगी?

    अम्मी कब जाने देंगी। वैसे भी आप शरीफ़-ज़ादी हैं और मैं जो कुछ हूँ, आप जान गई होंगी।

    जो कुछ भी हो, मुझे क़ुबूल है।

    हम यहाँ कीचड़ में रहते हैं, कीचड़ में पलते हैं। दूसरी जगह रहना हमारे बस की बात नहीं। ख़ुर्शीद बाई ने चरस का सिगरेट भरा और पीने लगी। उसने माँ बेटी की बातों में दख़ल नहीं दिया। ज़ुबैदा भी मुअल्लिमा थी और ख़ुर्शीद बाई भी। ज़ुबैदा की शागिर्दें सैंकड़ों थीं लेकिन ख़ुर्शीद की एक ही शागिर्द थी जो ज़ुबैदा की सब शागिर्दों पर भारी थी। वो सब मिल कर भी एक क़ैसरी बना सकती थीं। ज़ुबैदा जब तक वहाँ रही, शदीद इज़तिराब और कर्ब में मुब्तिला रही। उसी आलम में लौट आई। हज्जन बाई से बात की। उसने साफ़-साफ़ बताया कि ख़ुर्शीद बाई लड़की को कंजरी बनाएगी और उसकी कमाई खाएगी। वो तिलमिलाती रही। सोच कुंद हो गई। बेगम परवीन के यहाँ गई। ख़ुर्शीद भी आई हुई थी।

    कैसे आई हो ज़ुबैदा? बेगम परवीन ने पूछा।

    कोई ऐसी सूरत है कि क़ैसरी मुझे वापस मिल जाए?

    कोई ऐसी सूरत नहीं क्योंकि तुम दोनों की सूरत एक है और जिस राज़ पर तुमने पर्दा डाल रखा है, वो फ़ाश हो जाएगा।

    में उसे बहन बना कर रखूँगी।

    ख़ुर्शीद बाई ने मुदाख़िलत करते हुए कहा, वो बिकाऊ माल है।

    में उसे ख़रीदती हूँ।

    ख़ुर्शीद बाई ने इस ज़ोर का क़हक़हा लगाया कि ग़ुलाम गर्दिश तक गूँज गई, बोली, ज़ुबैदा! ये मेरी दुकान का सबसे क़ीमती हीरा है। उसकी रातें दिन सोने में तल कर बिकेंगे। उसे तो आम रईस भी नहीं ख़रीद सकता। उसकी पहली रात की क़ीमत पचास हज़ार रूपये है। ज़ुबैदा का सर चकरा गया और वो कुछ कह सकी।

    तुम तो उसके बढ़े हुए नाख़ूनों की क़ीमत भी नहीं दे सकतीं। उसके मेक-अप का ख़र्च नहीं उठा सकतीं। उसके नाज़-ओ-अदा का मोल तुम्हारी सारी पूँजी से ज़्यादा है। वैसे तुम ख़ुद अनमोल हो। चाहो तो कंजरी बन जाओ। मौला क़सम! क़ैसरी से ज़्यादा दाम लगाउँगी।

    दुनिया की सबसे अच्छी और सबसे बुरी चीज़ औरत है। ज़ुबैदा पर ये भेद खुल गया। बेगम परवीन ने कहा, उसका ख़्याल दिल से निकाल दो ज़ुबैदा! लेकिन ज़ुबैदा उसका ख़्याल दिल से निकाल सकी। ख़ामोश लौट आई। उसकी सोच के भटकने को बहुत बड़ा ख़ला पैदा हो गया। ज़माने भर के ज़ख़्म मुंदमिल करने वाला वक़्त उसका नासूर ठीक कर सका। क़ैसरी हर वक़्त उसकी सोच में शोला वार मचलती रहती। माँ की तरह वो भी गोरी-चिट्टी थी। उसकी जिल्द, उसका पंडा, तमाम लकीरें, मुस्कुराहट और हँसी बे-दाग़ थी। उसके बदन के किसी हिस्से पर कुछ लिखा था लेकिन फिर भी वो हरामज़ादी थी और ख़ुर्शीद बाई की ज़ेरे-निगरानी हराम-कारी की डगर पर पड़ने वाली थी।

    उसकी उदासी बेगम चिराग़, नजमा और नूरी के लिए परेशान-कुन थी। बेगम चिराग़ ने सेकंड हैंड कार भी ले ली। चारों मिल कर सैर को जातीं लेकिन ज़ुबैदा उदास जाती, उदास आती। कभी-कभी तो पढ़ाते-पढ़ाते आँसू रवाँ हो जाते। लड़कियाँ परेशान हो कर पूछ बैठतीं तो कह देती, माँ-बाप याद रहे हैं। बेगम चिराग़ उसे हर दम दिलासा देती। उसने तो यहाँ तक कह दिया कि अगर उसके कॉलेज की कोई लड़की सूबे में अव्वल आई तो वो उसे अपनी गाड़ी दे-देगी। ज़ुबैदा गाड़ी की ख़ातिर ख़ूब मेहनत से पढ़ाने लगी और उसने दो-तीन लड़कियाँ छाँट लीं। बद्र जहाँ सबसे होशियार थी। वो उसे फ़ाज़िल वक़्त में भी पढ़ाती। बद्र जहाँ ने भी रात-दिन एक कर दिए। जब देखो किताब लिए बैठी है। बद्र जहाँ सूबे में अव्वल तो हो सकी लेकिन ज़ुबैदा ने गाड़ी ख़रीद ली। ड्राइविंग उसने कुछ माह पहले हिमा ड्राइविंग स्कूल से सीख ली थी।

    बेगम परवीन के यहाँ जाती तो वो रूखे पन से कहती, तुम नाहक़ बार-बार मेरे पास आती हो। भला क़ैसरी मेरे पास है। और क़ैसरी जिसके पास थी वो बड़ी ऊँची और ज़ोरदार शय थी। उसने जवानी में बड़े-बड़े तूफ़ान उठाए। बड़ी-बड़ी कश्तियाँ डुबोईं। बड़ी-बड़ी हवेलियाँ मँझधार में लुढ़काईं। उनकी फ़ुतूहात में रावण की लंका और हेलन के ट्राय से बढ़ कर खंडर बिखरे थे। अब जो उसके खंडर होने का वक़्त आया तो उसे क़ैसरी मिल गई। उसने बड़ी मेहनत और जाँ-सोज़ी से उसे जवान किया। उसके रोज़-ओ-शब में अपनी बेदारियाँ भरीं। उसके कुंवार-पन की पूरी-पूरी हिफ़ाज़त की। उसकी नथ पर किसी क़िस्म के शक-ओ-शुबह का साया पड़ने दिया। उस्तादों ने बड़े ख़ुलूस और प्यार से उसकी आवाज़ में ठुमरियाँ और दादरे बिठाए। गले में नूर भरा। तब जा कर नया मा'शूक़ तैयार हुआ।

    नाइका ने महलों और हवेलियों को बरबाद करने और इंसानों के खंडहरों पर चलने के गुर सिखाए। उसके नाचने पर कायनात में धनक की हफ़्त रंग तलवारें खिंच जातीं, गाने पर गिरोह-ए-आशिक़ाँ लड़खड़ाने लगता। ख़ुर्शीद बाई ने उसकी आवाज़ और बदन के लौह से दो-साल में सुर्ख़ और सफ़ेद पत्थर की बहुत बड़ी हवेली तामीर की। ये क़ैसरी थी, ज़ुबैदा थी जिसकी नथ मुफ़्त खुली और छुरी तले रख कर खोली गई थी। ज़ुबैदा अफ़्लास की आग़ोश में पली थी, क़ैसरी भूकी उमंगों और बरसते हुए हन की छावनी में रहती थी। क़ैसरी जवान हो कर बड़े-बड़े नामवर लोगों की पहुँच से बाहर हो रही थी, ज़ुबैदा सिर्फ़ अपनी पहुँच में रहती थी।

    वक़्त ने ज़ुबैदा की सोच पुख़्ता और दिल पत्थर कर दिया। उधर बेगम परवीन के चिट्टे बालों ने उसके दिल की सियाही चाट ली। उसने ज़ुबैदा के जिस मस्ले को अपनी दानिस्त में ख़त्म कर डाला था उसे परेशान करने लगा। इसी का असर था कि वो मौलवी साहब से क़ुरान पाक पढ़ने लगी। क़ैसरी बड़ी ऊँची चीज़ बन गई और ऊँची-ऊँची बोलियाँ देने वाले बड़े-बड़े लोगों की पहुँच से बाहर चली गई। बड़े-बड़े क्लबों और होटलों में जा कर नाचती। ख़ुर्शीद बाई झोलियाँ भर-भर रूपया लाती। बड़े-बड़े स्मगलर जो हथेली पर जान रख कर निकलते और खड़ी मौत से टकर लेते, उसकी दहलीज़ पर कर सर रख देते। बड़े-बड़े रईस मुजरा-ख़ाने में यूँ रूपया लुटाते जैसे ये ठीकरियाँ हों। फिर एक दिन ज़ुबैदा को ख़बर मिली कि क़ैसरी राइल में नंगी नाची है। उसकी तो रूह में अंगारे तैर गए।

    वक़्त बड़ी तेज़ी से निकला जा रहा था। क़ैसरी नंगी नाची है तो नाचती रहेगी और जब नथ खुली तो शाहराह-ए-आम बन जाएगी। ज़ुबैदा की आँखों में ख़ून उतर आया। क़ुव्वत-ए-बर्दाश्त ख़त्म हुई। कार में बैठी और ख़ुर्शीद के कोठे पर पहुँची। मुजरा-ख़ाने में क़ैसरी नीम उरियाँ लिबास पहने फ़िल्मी स्टाइल में नाच रही थी। जो गीत गा रही थी उसके एक टुकड़े का मफ़हूम ये था कि पानी पुल तले ही से गुज़रता है। उसके अध-नंगे नाच से तमाश-बीनों के होश-ओ-ख़ुर्द का तिया-पाँचा हो रहा था। ज़ुबैदा भी किसी का तिया-पाँचा करने आई थी। बे-आवाज़ गोली चली और क़ैसरी चाँदनी पर गिर कर ढेर हो गई। उस्ताद और तमाशा-बीन सन्नाटे में गए और ज़ुबैदा उस सन्नाटे में वहाँ से निकल गई। पुरानी हवेली पर आई। बग्गा ब्लड़ को फाटक पर खड़ा देख कर उसने अंधेरी जगह कार रोकी और हाथ के इशारे से उसे बुलाया। वो पास आया तो उसने कहा, जागीरदार को बुलाओ।

    आप कान हैं?

    उनका नया मा'शूक़। बग्गा ब्लड़ हंसा। उसकी जद्द-ओ-जहद के बग़ैर नया माशूक़ कहाँ से गया? ब-हर-हाल वो जागीरदार को बुला लाया जिसे देखते ही ज़ुबैदा भड़की। उसने कहा, तुम बे-ग़ैरत हो!

    कान हो तुम?

    ये मत पूछो कि मैं कौन हूँ! ये जानो कि तुम्हारी बेटी क्लब में नंगी नाचे और तुम ख़बर लो।

    मेरी ऐसी कोई बेटी नहीं जो नाचने का धंदा करती हो।

    वो बेटी जिसे ज़ुबैदा ने जन्म दिया था, यही धंदा करती है।

    कहाँ है वो?

    जहाँ तुम्हें अभी जाना होगा।

    क्या मतलब?

    तुम मतलब नहीं समझे? कोई आदमी अपने गुनाहों का हिसाब चुकाए बग़ैर दुनिया से नहीं जा सकता।

    तुम क्या बक रही हो?

    गोली चली और जागीरदार के बदन में पैवस्त हो कर उसका हिसाब चुका गई। चंद साल पहले जागीरदार ने उसके पेट में गुनाह की तलवार भौंकी थी। आज उसने हराम ज़ादे की दराज़ रस्सी काट दी। वहाँ से फ़ारिग़ हो कर ज़ुबैदा अपने घर आई। उस कमरे में गई जहाँ रोई के मासूम गोले ने उसकी ज़िंदगी दो-लख़्त की थी। दो रोज़ पहले वो घर कर हर गोशा रौशन और हर शय उजली कर गई थी। यहाँ कोई था। कभी यहाँ निज़ाम दीन अपनी बेटी के मुस्तक़बिल में उमंगों के ताने-बाने बुनता था लेकिन एक नन्हीं-सी चीख़ ने तमाम उमंगें रेज़ा-रेज़ा कर दीं! उसके कानों में चीख़ें गूँजने लगीं। पूरा घर चीख़ों से लबरेज़ हो गया। उन चीख़ों में लिपटा हुआ रोई का गोला परवान चढ़ने लगा। रोई का गोला जवान होकर फ़ित्ना-ए-मह्शर बन गया। फ़ित्ना-ए-मह्शर बन कर नाचने लगा।

    उसकी आँखों में अंधेरा छा गया। उसने जान लिया कि वो दुनिया में चंद काँटे, चंद अंगारे और चंद गालियाँ लेने आई थी। यही उसकी ज़िंदगी का मक़सद था जो पूरा हुआ। अब जीने से हासिल? उसका कोई रहा। जब कोई रहे तो कोई कैसे जिए, क्यों जिए, किस लिए जिए? उसने खटका दबाया और निज़ाम दीन मरहूम की उमंगें ऐन उस जगह ढेर हो कर रह गईं जहाँ एक दिन रोई के गोले ने जन्म लिया था।

    स्रोत:

    Khushboo-Dar Aurtain (Pg. 116)

    • लेखक: रहमान मुज़्निब
      • प्रकाशक: रहमान मुज़्निब अदबी ट्रस्ट, लाहौर
      • प्रकाशन वर्ष: 2002

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