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अग्नी दा

जमीला हाशमी

अग्नी दा

जमीला हाशमी

MORE BYजमीला हाशमी

    स्टोरीलाइन

    "सामाजिक अन्याय की कोख से जन्म लेने वाले मुजरिमों की कहानी है। ठाकुर तेज सिंह का चचा जब उसका अधिकार छीन कर ख़ुद सरदार बन बैठता है तो फिर वो घर छोड़ देता है और मुजरिम बन जाता है। पुलिस उसकी तलाश में एक सहरा में घात लगाए बैठी होती है तभी ठाकुर तेज सिंह की दाई माँ अग्नी दा आ जाती है और पूरी दास्तान सुनाती है कि किस तरह ठाकुर तेज सिंह एक शरीफ़ लड़के से बदमाश बना। उसकी ममता उसे मजबूर करती है कि वो उसे कहीं से तलाश करके उसे देखे, अग्नी दा पुलिस वालों से कहती है कि अगर आप लोगों को मालूम हो कि वो कहाँ है तो मुझे मिलवा दो। इसी दौरान गोलीयों की आवाज़ में ठाकुर तेज सिंह की आवाज़ उभरती है कि दाई माँ स्वर्ग में मिलेंगे। फिर वो मर जाती है। मरने के बाद उसके चेहरे पर अजीब मुस्कान थी।"

    कर्नल मिर्ज़ा का हेलीकॉप्टर गोपे के सामने पीली और तपिश से सियाह पड़ी घास पर से अभी उड़ा था। ठाकुर तेज सिंह की तलाश में सहरा के ऊपर लम्बी और नीची परवाज़ के लिए उन्होंने प्रोग्राम के मुताबिक़ अपनी दूरबीनें और भरी हुई बंदूक़ें, गोलियों के राउंड भी साथ लिए थे। हम कई दिनों से इस टोबे को अपना ठिकाना बनाए हुए होते थे क्योंकि ये टोबा रनिहाल पोस्ट और जयपुर की सरहद के क़रीब था। दोनों हुकूमतों को ठाकुर तेज सिंह की ज़रूरत थी। उसके सर पर एक बहुत बड़ा इनाम मुक़र्रर था जिसका ऐलान कई बार हो चुका था मगर सरदार सहरा के होने के ग़ुरूर, तबियत की बेबाकी और जुरअत-मंदी ने उसे अपनी जान से भी बेपरवा बना दिया था। वो कड़े पहरे और तंग घेरे के बावजूद जो चाहता कर गुज़रता।

    गर्म हवाओं के उबलते हुए चक्कर खाते और आग उगलते इस मौसम में जब सूरज तुम्हारे सर पर चमक रहा हो और रेत के लहरियों में से आग के शोले लपकते हों, वो अपने तेज़ रफ़्तार ऊँटों के झुंड लेकर जिस पोस्ट पर मौक़ा मिलता हमला कर देता। हम तक़रीबन पचास आदमी इस जंग में लगा चुके थे और कर्नल मिर्ज़ा के लिए ये अब ज़िंदगी और इज़्ज़त का सवाल बन गया था। मुर्दा या ज़िंदा तेज सिंह।

    झक्कड़ों और ख़ूनी आँधियों के घेरे में तेज़ रौ लहरों में हौंकता हुआ सन्नाटा हमारे चारों तरफ़ है। बद-तीनत दुश्मन की सी चालाकी से वो आदमी को गिरफ़्तार करता और फ़ना करता है। सहरा की बेचैन रूहें पल-पल लम्हा-लम्हा ज़िंदगी की खोज में घूमती हैं। ख़ानाबदोशों की तरह टीले अपने कंधों पर उठाए हुआ, ग़ुस्सावर दीवानी अपना सर झटकती शोर मचाती रहे, रेत के उबलते हुए फ़व्वारों में सूरज अपना ज़ोर और तवानाई लगाता है मगर शामें अपनी मेहंदी लगी पोरों से रात की ओढ़नी पर ठंडे सितारे टाँकती हैं, उसे सजाती हैं फिर ख़ामोशी की ढोलक पर लम्बी तानों वाले रागों की फुवार रेत के ज़र्रों को रिझाती है। काल कड़छी बोलती है।

    सारे टोबे सियाह कीचड़ बन जाते हैं जो अंदर की तपिश से फट जाती है और काले चिड़मड़ाए हुए पत्तों की तरह खड़खड़ाती है तो रेत उस साज़ पर अपने वहशी गीत और मौत के तराने गाती है मगर ये टोबा... जिसका पानी पाताल से मिला है कभी नहीं सूखता क्योंकि इस ऊँचे टीले की ख़तरनाक ढ़लवान से नीचे की तरफ़ जंडावर करें राई और फोग के पौदे बड़े छतनार जाल के दरख़्त में उलझे हुए उसपर गिरे पड़ते हैं और पानी पर साया किए हुए हैं जैसे प्यास बुझाने को झुके हों। ठंडा और मीठा पानी आसमान की निगाहों से छुपा सख़्त मौसम में भी उसमें हिलकोरे लेता है। सहरा में गुम हुई गाएं, राह भूले हुए ऊँट, भटके हुए हिरन सब उस पानी पर कभी कभी जमा होते हैं। दोस्त और दुश्मन उस चश्मे पर इकट्ठा होते हैं। ख़ुदा की इस फ़य्याज़ी पर ख़ुश होते हैं।

    और उस ऊँचे टीले पर बने गोपे पुरपेच राहों से एक-दूसरे से मिले हैं, यूँ लगता है एक शहर आबाद था। अनाज और असलहा और कपड़े और तस्वीरें बनाने का सामान, पेंसिलें और ब्रश, काग़ज़ और कैनवस, सिंगार का पिटारा, घुंगरू वार सितार, ढोलक, शहनाई और अंग्रेज़ी किताबें, बेशुमार लूट के ढेर, नायाब चीज़ें फैली हुई ज़िंदगी का सिमटा सा नक़्शा।

    शाम क़रीब थी। धूप के ज़ोर में ज़रा कमी थी। जब हेलीकॉप्टर बुलंद हुआ है तो धुली हुई फ़िज़ा में तीर की तरह सनसनाता हुआ दूर तक दिखाई देता रहा फिर उफ़ुक़ ने उसे उचक लिया और नज़र की हद से परे उसकी भर-भर भी बंद हो गई। मैंने बाहर गोपे में आकर इधर उधर देखा। बंदूक़ को चटाई पर रख दिया। अपने अकड़े हुए आज़ा को सीधा करने की ख़ातिर सर से ऊपर हाथ उठाकर उंगलियों को चटख़ा। दाएं बाएं घूमा। हवा के आने वाले सुराख़ों से आँख लगाकर देखा, सिपाही बंदूक़ें लिए मुस्तैद खड़े थे। मैंने ठंडी रेत पर औंधे लेट कर अपना जलता हुआ चेहरा चटाई पर रगड़ा। आँखें ख़ुद बख़ुद बंद होने लगीं और फिर जाने कब मुझे नींद ने लिया।

    जनाब! ये औरत आपसे मिलना चाहती है। सिपाही की आवाज़ तोप के गोले की तरह मेरे कान में दाग़ी गई। घबरा कर मैंने बंदूक़ पर हाथ मारा। अकड़ी हुई टाँगों ने हिलने से जवाब दे दिया। सोई हुई उँगलियाँ बेजान सी बंदूक़ के गिर्द मुर्दा घास की तरह बिखर गईं। तंग राह से परे मुझे एक घागरे की गोट दिखाई दी और घेर पर अटके हुए मलगजे कुरते के दामन पर लटके हुए हाथ तुड़े मुड़े काग़ज़ की तरह ज़ावियों और मुसल्लसों और टुकड़ों और शक्लों में बटे हुए थे। लम्बी उंगलियाँ पतली थीं जैसे किसी ज़माने में ये हाथ साज़ बजाते रहे हों। इन उँगलियों ने ब्रश और क़लम से तस्वीरें बनाई हों। पत्थर को तराश कर उसमें से मूर्तियाँ निकाली हों। ये हाथ कमज़ोर थे मगर मज़बूत और जब जवान होंगे तो जाने क्या होंगे। अब भी उनसे घबराहट नहीं झलकती थी। चेहरा मुझे उस वक़्त तक दिखाई नहीं दे सकता था जब तक मैं बाहर जाऊँ या आने वाली को अंदर बुलाऊँ।

    बंदूक़ को अपने सामने ताने जब मैं झुक कर बाहर आया तो मेरे सामने एक धुंदले भूले हुए ख़्वाब की सी सूरत थी। परछाईं, मूर्ति जो पत्थरों तले दबी-दबी रेज़ा-रेज़ा हो चुकी हों मगर झुर्री हों। सफ़ेद बालों में कहीं-कहीं सियाही थी और गोंदे जमाए हुए चमकीले बालों में मांग गुम हुई पगडंडी की तरह थी। सफ़ेद भवें पपोटों पर छाई हुई थीं और पपोटे बे पलकों की आँखों पर गिरे-गिरे थे। निगाह ओट से झाँकती किरन थी और धीरे-धीरे देखे जाने वाली शक्ल को उजालती थी। गर्दन सीधे कंधों पर टिकी हुई ज़रा आगे को झुकी हुई थी जैसे कोई वजूद सदियों पुराने पर्दों को हटाकर आज की दुनिया को देख रहा हो।

    मैं  'अग्नि अदा' हूँ तेज की दाई माँ, ठाकुर तेज सिंह की दाई माँ। मैं उसे देखता ही रहा।

    क्या तुमने उसे खोज लिया है। क्या वो तुम्हारे पास है? उसने बड़बड़ाते हुए कहा। लफ़्ज़ गुडमुड  हो रहे थे।

    अजेसर से आई हूँ। क्या तुम बैठने का कहोगे? मुझे समझ में नहीं रहा था कि उसे क्या जवाब दूँ।

    तुम अपनी बंदूक़ को परे कर लो। ये नहीं कि मुझे इस खिलौने से डर आता है। मैं बहुत थक गई हूँ। फिर वो अपना भारी घागरा समेट कर उसके घेरों पर बैठ गई। जूतियाँ उतार कर अपने सामने रख लीं और पाँव को दबाने लगी।

    तुम्हें अपने से किसी बड़े अफ़सर का इंतिज़ार होगा कि तुम ख़ुद मुझसे बात कर सकोगे। मुझे चुप देख कर उसने कहा,मेरा बच्चा सीधा और भोला है, हटीला बालक। हवाएँ उसे चक फेरियाँ देती हैं। अपने साथ उड़ाए-उड़ाए फिरती हैं।

    हवाएँ भी किसी को क़ैद कर सकती हैं। मैंने हैरान होकर पूछा।

    मैं सच कहती हूँ ये हवाएँ अपनी लहरों और आवाज़ों से ऐसा जादू जगाती हैं, ऐसी हाँक लगाती हैं, ये कभी ख़त्म होतीं। सहरा पर दिन-रात नाचती हैं। तुमने कभी रेत पर नाच के चक्कर नहीं देखे ना, वरना तुम्हें पता होता कि इनपर अगर कोई एक-बार पाँव धर दे तो फिर वो कहीं का नहीं रहता। फिर किसी की नहीं सुनता, अपनी दाई माँ की भी नहीं।

    अजीब बात है। मैंने जवाब देने के लिए कहा।

    तुम्हें पता है ना दक्किन से हवा घुले तो बारिश होती है। घनेरे काले बादल उमंड-घमंड कर आते हैं। बिजली के लहरिए ज़मीन को चमका देते हैं ऐसे ही चक्करों की भी कहानी है। मगर तुम शहरों के रहने वाले ये सब क्या जान सकते हैं।

    अच्छा! अब मैं दिलचस्पी और तवज्जो से बात सुन रहा था।

    हवा आदमी को अपने अंदर लपेट लेती है, अपनी बलाओं को उसपर बिठा देती है, उसके सर में घूमने फिरने और आज़ादी के ख़्याल भर देती है। वो जवानों के दिल को आबादियों से फेर देती है, वो दीवाने होकर बस्तियों से निकल आते हैं। वो अपने सर को दोनों हाथों से थाम कर बैठी रही।

    कर्नल ख़ुश्क लम्बी लेटी हुई सूखती चरमराती घास पर से चलता हुआ रौशनी मिली नीलाहट के गुलाबी पड़ते उजाले से हमारी तरफ़ आया। गोपे की तरफ़ चबूतरे पर क़दम धर कर वहीं खड़ा हो गया।

    ये तेज सिंह ऑफ़ अजेसर की दाई माँ है अग्नि दा। मैंने फ़राग़त का सांस लिया और बंदूक़ को अपने एक हाथ से दूसरे हाथ में बदला। कर्नल ने गहरी सोचती हुई निगाह से अग्नि दा की तरफ़ देखा जो अपनी अधमुँदी आँखें खोल कर बे ख़ौफ़ी से कर्नल की तरफ़ देख रही थी। कर्नल के माथे पर एक रग ज़ोर से फड़क रही थी। शायद उसे ग़ुस्सा रहा था।

    क्या कहने की ज़रूरत है तेज सिंह के लिए और अगर किसी बड़ी रियासत का राजा हो तो भी सज़ा से नहीं बच सकता। वो पूरा अपनी एड़ी पर घूम गया और टीले की बुलंदी से उसने नीचे पाताल से मिले टोबे पर निगाह दौड़ाई जहाँ जाल में चिड़ियाँ शोर मचा रही थीं और शाम की हवा से पानी गीत की लय पर मस्त मांझी की तरह ताल के बीच ठहरा हुआ था।

    मेरा सवाल सुन लो जवाब देना देना तुम्हारे इख़्तियार में है। अग्नि दा की आवाज़ बैठी तान की तरह कर्नल के पीछे से उठी।

    मगर ये सब नामुमकिन है। तुम ये चाहोगी कि मैं उसका पीछा करूँ। कर्नल ने झुँझलाकर अपना पाँव ज़मीन पर मारा। मैं महीने से इस जलाने वाली गर्मी और पेड़ों को कुमला देने वाले सहरा में डेरे डाल कर यूँही नहीं पड़ा हूँ।

    अग्नि दा ने ढलक जाने वाले दुपट्टे को सर पर बराबर किया, भिक्षा नाते बात करने का अधिकार तो दो। तुम बहुत ग़ुस्से में हो। तुम्हें होना ही चाहिए। तुम बहुत दिनों से इस सहरा में घूम रहे हो। ये भी मुझे मालूम है तुम तेज सिंह और उसके साथियों की खोज में हो। ये सब बातें अपनी जगह। वो सीने पर हाथ रखकर आगे को झुक गई। मैंने तीन नस्लों से उसकी चाकरी की है। तीन नस्लों की रगों में मेरा दूध है। क्या मुझे कुछ कहने दोगे?

    मगर तुम्हारी बात ऐसी होगी जो मैं कभी नहीं मान सकता। फिर ऐसी बातें सुनने से क्या मिलेगा। कर्नल ने बहुत आहिस्तगी से कहा जैसे अग्नि दा से ज़्यादा अपने आपसे बहस करके अपने आपको मनवा रहा हो।

    देखो मैं तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ। ऐसी कोई बात नहीं कहूँगी जिससे तुम्हारी राह में मुश्किलें पैदा हों। सोच कर जवाब दो मुझे वापस जाने की कोई जल्दी नहीं है। अजे सर में अब मेरा कौन बैठा है।

    क्यों अजेसर में तुम्हारा ख़ानदान होगा, बहुएँ, बेटियाँ, बेटे, पोते, घर। कर्नल ने कहा।

    मेरा सब कुछ इस सहरा में है। सिर्फ़ तेज मेरा है, मेरा ठाकुर।

    कर्नल ने कहा, गोपे में चटाइयाँ सीधी कर दीए जलाओ। हम अग्नि दा की बात सुन ही लें और मेरी तरफ़ देखकर कहा टोबे के चारों तरफ़ पहरा दो गुना कर दो। मैं सारे टोबों और पानी के ठिकानों पर देख आया हूँ। एक बूँद कहीं नहीं है सिवाए इस टोबे के। रकनपुर के पानी के ज़ख़ीरों का भी यही हाल है।

    मैंने सर झुका दिया। रेत ठंडी हो रही थी। सियाह आसमान दूज के चाँद की रौशनी में ख़ाली-ख़ाली सा था। ढ़लवान पर दरख़्तों में हवा सरसरा रही थी और कम सर से उभरती तो बाल बिखराए कंचनी की तरह हमारे चारों तरफ़ चक फेरियाँ लेती। मद्धम ज़र्दी में सितारे एक दम नहीं जैसे अंधेरी रातों में होता है, एक-एक,दो-दो की टोलियों में हमारे सरों पर जमा हो रहे थे।

    नातवाँ अग्नि दा कुसुम सर तक का लम्बा रास्ता तुमने क्योंकर तै किया। गर्मी इतनी बेपनाह थी और तुम तो हवा के एक झोंके से उड़ जाओ।

    दीए की लौ सीधी उसकी ज़मानों से भी पुरानी आँखों में पड़ रही थी और वहाँ हीरे की चमक और फिर अलग-अलग टुकड़े में अलग जैसे हीरों के रेज़ों से बनी मूर्ति फिर दीयों की लौ काँपे और दिखाई दे। अग्नि दा ने आँखें झपका कर कहा, कुसुम सर मेरे लिए कोई नई जगह नहीं है। फिर साँस लेने के लिए रुक कर उसने कहा, पहले ये सारे टोबे आबाद थे, जीते जागते लोग यहाँ रहते थे। अजेसर से अक्सर कुसुम सर आया करती थी। मेरे ठाकुर के दादा के वक़्तों में ये आबादियाँ थीं। राज महलों की सी रौनक़ें थीं। फिर और लोग, ख़राब मौसम, वक़्त सबने मिल अजेसर को एक गढ़ी बना दिया। सीटी की आवाज़ कर्नल के मुँह से निकल गई।

    तुम्हें विश्वास नहीं है ना। मैं भगवान की सौगंद उठाकर कहती हूँ, ये सब सच है।

    इन वीरानों को देख कर कभी ये गुमान नहीं होता। मैंने कहा।

    इस धरती पर तमाशे होते हैं और आकाश ये तमाशे देखता है। देखते ही देखते कुछ से कुछ हो जाता है। राजे डाकू बन जाते हैं। इज़्ज़तदार बड़े लोग बस मिट्टी में मिल जाते हैं। अग्नि दा की मद्धम मगर मज़बूत और साफ़ बातें सबको सुनाई दे रही थीं।

    ये तो है, ये तो है। कर्नल ने अपने घुटने पर हाथ मार कर कहा।

    भगवान तुम्हें सुखी रखे। जब तुम ये समझ गए हो तो आगे की बात भी तुम्हें समझ आजाएगी।

    अग्नि दा मैं तुम्हारी बात समझता हूँ और फिर भी मुझे पता है तेज सिंह को दुनिया की कोई हुकूमत माफ़ नहीं करेगी। कर्नल की आवाज़ उलझी हुई, झगड़ालू, तेज़ और क़तई थी।

    मैंने कहा है तुम ठाकुर को छोड़ दो? उसने हम सबके मुँह की तरफ़ देखा। किसी ने कोई जवाब नहीं दिया।

    अस्ल में सारा क़सूर मेरा है। इस सारी कहानी की मुसीबत मेरी लाए लाई हुई है। बड़े ठाकुर को मैंने बच्चों की तरह पाला था। अमरसिंह को तेज सिंह के बाप को मैंने अपना दूध पिलाया है और इस सीने में आग जलती है, अलाव लपकते हैं। जब मैं वो सब याद करती हूँ जो हुआ... वो सर झुकाकर चटाई पर हाथ फेरने लगी।

    अमर सिंह सीधा था। भोला और विश्वास करने वाला और इसलिए जब उसके घर में विश्वासघात हुई तो उसे पता ही चला। कोई सोच सकता है कि वो बहू जिस को सुहाग रात से मैंने अपने हाथों का साया किया, जिसके क़दमों में आँखें बिछाईं, जिसे अपनी कोख से जन्म पाने वाली बेटियों से ज़्यादा प्यार किया। वो मुझे हार देगी, मेरे दिल को अपने पैरों में मसल कर आगे निकलेगी, वो उसकी परवा नहीं करेगी जो उसका सुहाग था। पहले पहल मैंने सोचा हो सकता है ये मेरा वहम हो। मेरी आँखें धोका खा रही हों। मेरे कान कम और ग़लत सुनते हों। ये सिर्फ़ देवर और भाबी की छेड़ छाड़ हो। ज़रा सी दिल-लगी, थोड़ा सा दुलार यूँही मान और खेल। पता नहीं अमर सिंह को क्यों शुबहा नहीं हुआ। मैं उसे बता सकती थी, होशियार कर सकती थी मगर उस घराने में ख़ून की होली देखनी नहीं चाही।

    जब समय बीत जाता है तो बस बीत ही जाता है और मेरा दिल यूँही अंदर बाहर होता रहता था। ख़ौफ़ के मारे यूँही धड़कता था। जब सब ख़त्म हो गया। बहू के सोलह सिंघार और पोर-पोर सौगंध, उसके पाँव के पायल, उसके माथे की बंदिया, उसकी मांग का सिंदूर, उसकी आँखों का काजल उसकी सती सावित्री होने की चालें, उसकी हँसी की मोहनी, उसके होंटों के मीठे बोल, सब मिलकर वो ज़हर बने जो ठाकुर अमर सिंह की जान ले गए। राम सिंह और बहू ने मिलकर एक जाल फैलाया था जिसमें अमर सिंह फँसा और इससे पहले कि वो फड़कता वो रहा। आज इस घड़ी सोचती हूँ जब उसने उन दोनों को अपने पास देखा होगा उनकी ज़ालिम आँखों में अपने अंत का लिखा पढ़ा होगा। उस एक लम्हे उसकी क्या हालत हुई होगी। उसका दिल तो ख़ुद ही फट गया होगा।

    सीढ़ियों से उतरते हुए मैंने राम सिंह से कहा था,छोटे भैया, ये तुमने क्या कर दिया है? अपनी फ़तह की ख़ुशी में अपने मुकम्मल और ताक़तवर होने की इस घड़ी में उसने मुझे धकेल कर परे कर दिया ज़ोर से हंसा और कहा,तो तुम अग्नि जानती हो ना कि सब क्या हुआ है। अपनी ज़बान बंद रखो। जो देखा है भूल जाओ। अजेसर का ठाकुर मैं हूँ, मैं हूँ। और उसने ज़ोर से अपने सीने पर हाथ मारा था। और फिर वो लौट गया था। अजेसर राम सिंह का था। अजेसर की राजगद्दी सोग के बाद उसे मिल गई। साल बीतने पर बहू भी उसकी हो गई। अपने भाई के ख़ून में डूबा, हँसता और ख़ुश अजेसर का ठाकुर बन गया।

    हो सकता है ये तुम्हारा वहम हो। राम सिंह को ज़हर दिया गया हो। तुम्हारी सोच हो। कर्नल ने कहा।

    पहले पहल मैंने भी यही सोचा था कि मैं जलन के मारे दीवानी हूँ, ऐसी कोई बात नहीं, मगर वो रात, वो घड़ी भुलाए नहीं भूल सकती। राम सिंह का सुहाग, घर की सीढ़ियों से उतरना, मुझसे मिलना, उसकी ख़ुशी। ये सब बुरा ख़्वाब समझने पर भी समझे नहीं जा सकते। भुलाए नहीं जा सकते।

    मुझे पीने को पानी का एक घूँट दो भगवान के लिए। मेरा गला सूख रहा है। अग्नि दा ने हाथ फैलाया। मैंने उठकर सुराही से मिट्टी का सहरा उसमें भर कर उसे थमा दिया।

    हाँ ये कुसुम सर का पानी है। अमृत जैसा, पाताल के सारे सोते इखट्टे हुए हैं।

    सारे टोबों में कड़वा और बदबूदार पानी होता है सिर्फ़ कुसुम सर का पानी पीने के क़ाबिल है कभी सियाह नहीं पड़ता। कभी सूरज की गर्मी से सूखता नहीं और कभी किसी पर बंद नहीं किया गया। सिर्फ़ अब हम इस पानी को घात बनाकर तेज सिंह  के मुंतज़िर थे।

    अजेसर की गढ़ी का मालिक तो मेरा ठाकुर है। मैंने उसे भूके साए से भी जुदा रखा। अब सोचती हूँ हो सकता है अगर ये माँ की गोद में रहता तो हालात दूसरे होते। मगर नहीं ये कैसे हो सकता था। राम सिंह तो उसकी जान का लागू था। अगर उसके रोने की आवाज़ उसे कोल्कियों और आँगनों के पार से कभी सुनाई दे जाती तो बहू पर बिगड़ता। उसकी आँखों में ख़ून उतर आता। वो भला उसे कहाँ बर्दाश्त कर सकता था। मैं उसे छुपा कर रखती। जब ये खिलखिला कर हँसता तो मुझे डर लगा रहता। ये मेरे दिल के वहम थे। मेरी भूल थी। मैं समझती थी राम सिंह अब तेज को भूल गया है। महताब और शहताब पैदा हुए तो उसने मुझे बुलाया था। पालने पर झुके हुए और दोनों एक सी सूरतों को प्यार करते हुए उसने कहा था। अग्नि दा, देखो ये मेरी विजय है।

    ठाकुर भगवान सदा सुखी रखें। मैंने दूर खड़े होकर कहा था।

    क़रीब आओ और देखो ये तेज से ज़्यादा ख़ूबसूरत नहीं हैं क्या? दिल उछल कर मेरे हलक़ के क़रीब ख़ून-ख़ून होने लगा। मैंने हाथ मुँह पर भींच लिया और झुक कर उन दोनों को देखा फिर सीधे होकर कहा ये अभी बहुत छोटे हैं। और मेरा ठाकुर बड़ा है। बड़ा और बहुत सुंदर।

    अग्नि! राम सिंह ने मुड़कर कहा, तुम्हारी ये जुरअत। तुम हमारे ही मुँह पर हमारे बच्चों को बुरा कह रही हो।

    छोटे भैया मैंने तो सिर्फ़ ये कहा है कि ये अभी छोटे हैं अभी क्या पता चल सकता है।

    हम छोटे भैया नहीं ठाकुर राम सिंह हैं। इस गढ़ी के मालिक और ये शेर के बच्चे हैं। इनका पता तुम्हें पालने में भी चल सकता है। उसने गरज कर कहा। बहू लेटे से उठ गई। वो काँप रही थी। बांदियाँ मुँह ढाँप कोनों में छुप गईं। सिर्फ़ मैं खड़ी थी और मैंने कहा था,जब तेज बड़ा होगा तो वो ठाकुर होगा। छोटे भैया, ये इसके बाप ठाकुर अमर सिंह की गढ़ी है। मेरे सारे शरीर में से जान निकल गई थी। टाँगें काँप रही थीं और हाथ पसीने से ठंडे हो गए थे। मगर मैंने बड़े ठाकुर को गोदों खिलाया था। राम सिंह और अमर सिंह दोनों को अपना दूध पिलाया था। मुझे अपने हक़ और अपनी शक्ति पर बड़ा मान था।

    उस थप्पड़ के निशानों में आज भी आग सुलग उठती है। जब मैं ये सब याद कर रही हूँ। छोटे भैया के हाथ की पाँचों उँगलियाँ जल उठती हैं। अग्नि दा ने अपना तुड़ा मुड़ा ज़मानों पुराने काग़ज़ का सा गाल सहलाया।

    अग्नि दा, अग्नि दा। वो चीख़ने लगा,यहाँ से चली जाओ, अग्नि दा। मगर मेरा सारा जिस्म यूँ ढ़ह गया था जैसे बारिश में कच्ची दीवार बैठ जाए। उसके बाद हर दिन एक नई मुसीबत लेकर आता। राम सिंह तेज को बुलाता, दांत पीसता उसे डाँटता फटकारता। कभी हुक्म दिया जाता कि तेज को गढ़ी से बाहर निकलने दिया जाए, उस पर नित नये अज़ाबों और नित नई पाबंदियों की आज़माइश होती। हो सकता है अगर में अपनी ज़बान बंद रखती तो हमपर ये अज़ाब टूटा करता। इन सारे ज़मानों, लम्बे सालों में ये सब कुछ मेरी वजह से हुआ। अस्ल दुश्मन मैं थी। जब दूसरे आपका हक़ छीनते हैं तो वो सारी राहें बंद कर देते हैं। उनके अपने दिल तक जाने वाले रास्तों पर भी पहरे होते हैं। वो नर्मी, मोहब्बत, रिश्ता, हक़ हर शय को भूल जाते हैं। उनके लिए ये कहानियों की बातें होती हैं जो किसी और देस में, किसी और जन्म में ज़िंदा होती हैं।

    मैं जब तेज को महाभारत की कथाएं सुनाती तो वो हंस देता। अग्नि दा, जो आदमी छुटपने में कुछ कर सके जवानी में भी कुछ नहीं कर पाता। अग्नि दा मैं कुछ नहीं कर सकूँगा। तुम ऐसे ही अपनी जान खपाती हो। भला ये कैसे हो सकता है। यही तुम्हारे सपनों का सूरबीर बनकर गढ़ी का मालिक बन जाएगा। मैं कोंड़ हूँ,पांडवों की माँ का बेटा। जब मैं मुँह लपेट कर लेट जाती और उससे बोलती तो वो कहता,अग्नि दा, अगर तुम कहती हो तो मैं बहुत बड़ा ऊँचा सूरबीर बन जाऊँगा। मेरा सर छत से भी ऊँचा होगा। बाज़ू फैलाकर ये सारी जगह घेर लूँगा।

    अगर तुम कर सको तो मुझे फाँसी पर लटका दो, मैंने उसे झूटे सपनों में उलझाए रखा। में चोरी-चोरी उसे घोड़ों पर सवारी के लिए भेजती। उसे तीर चलाना और वो सारे करतब जो गढ़ी के ठाकुर को आना चाहिएँ, सिखातीं रही। मैंने उसे अंदर से नहीं बाहर से ठाकुर बना दिया। एक निराशा और घुटन और बिना मोहब्बत के पला हुआ बच्चा, सहमा हुआ डरा हुआ, डराया धमकाया बच्चा, वो आज़ादी और दिल कहाँ से लाता जो ठाकुर बनने के लिए ज़रूरी है। वो चुप हो गई जैसे खो गई हो। एक दोपहर जब राम सिंह के बाज़ गढ़ी का चक्कर लगा रहे थे, उड़ रहे थे तो तेज ने उनमें से एक को अपने तीर से ज़ख़्मी कर दिया। में न-न करती रही और उसने मुझे ख़ुश करने के लिए अपने तीर का सही निशाना आज़माने के लिए उस उड़ते बाज़ को निशाना बनाया। दीवारें भी काँप रही थीं और ख़ौफ़ से सहमे हुए नौकर उनमें घुसे जाते थे जब राम सिंह ने मेरे आँगन का दरवाज़ा तोड़ डाला। उसने तेज को उठाकर ज़मीन पर पटख़ दिया। वो चीख़ता रहा और वो उसे ठोकरें लगाता रहा। ऐसी घड़ियों में भगवान सो जाता है क्या? बहुत देर तक अग्नि दा ख़ामोश रही। थकी हुई चिड़िया की तरह ज़ोर-ज़ोर से साँस खींचती हुई यादों के दीयों में ख़ून जलाती हुई।

    जब बहू उसे देखने आई तो जाने रात का कौन सा पहर होगा। तेज रह-रह कर चीख़ता था और डर कर सिसकने लगता था। ज़रा सा बच्चा सितार के तने हुए तार की तरह हवा से भी बज उठता हो। कोफ़्त और शर्मिंदगी और बेइज़्ज़ती के एहसास से रौंदे जाने, ठुकराए जाने की अज़ीयत से सूजे हुए, चोट खाए हुए जगह-जगह से उभरे हुए ज़ख़्मों की वजह से सो सकता था। मेरी आँखों में आँसू थे। सिर्फ़ ख़ुश्क सिसकियाँ थीं जिनको रोके हुए बैठी में सिंकाई कर रही थी। रौशनी की चुभन से बचने के लिए अपनी आँखों पर पर्दा डालने के लिए मैंने दीया बुझा दिया था। अजीब सनसनाती हुई बेताब रात थी। नागिन की तरह पलट-पलट कर जिसकी तन्हाई पलट-पलट कर मुझे डसती थी। तेज का कोई भी था। मेरा कोई था। हम भगवान की इतनी बड़ी दुनिया में अकेले थे, अकेले और भुलाए हुए। मैं अमर सिंह को और बड़े ठाकुर को और सारे गुज़रे हुओं को याद कर रही थी। मुझे लगता था कोई नहीं है कुछ नहीं है। मैं और तेज पाताल में घिर गए हैं। भगवान मैं यहाँ से कैसे निकलूँ। किसे पुकारूँ, किसे आवाज़ दूँ। बहू ने दीया तिपाई के नीचे रख दिया। मैं खड़ी हो गई।

    अग्नि दा तेज का क्या हाल है?

    अच्छा है रानी माँ, ठीक है। मैंने सर झुका कर कहा।

    अग्नि, मैं तुम्हारी बहू हूँ। तेज की माँ हूँ। रानी माँ नहीं हूँ। बहू मेरे पाँव के क़रीब बैठ गई।

    जो आज्ञा रानी माँ.. मैंने अपने पाँव घागरे की गोट के अंदर करलिए। तेज की ज़रा देर हुई आँख लगी है अगर बुरा मानें तो आँगन में चलें वो रौशनी देखकर जाग जाएगा। हम दोनों बाहर गईं।

    अग्नि, इसमें मेरा कोई दोष नहीं, तुमने तेज को रोका होता। ठाकुर के बाज़ पर तीर क्यों चलाया।

    देखो बहू मैं तुम्हें दोष नहीं देती मगर तुम शताब और महताब की माँ हो। इस बिना माता पता के बच्चे पर कुछ तो दया किया करो, उसे जीने का हक़ तो दो, तुम्हारी कृपा होगी। अगर तुम अपने पति से कह कर उसे किसी स्कूल में भिजवा दो, वहीं जहाँ पर अमर सिंह को भिजवाया गया था। मैंने अपना हाथ उसके हाथ से नहीं छुड़ाया। टप-टप आँसू मेरी इन उंगलियों के बीच से गिरते रहे। दोनों हाथों को भिगोते रहे। मैं बिना हिले खड़ी रही। ऐसी ही रात थी काली और दुख भरी गूंजों से कराहती हुई।

    अग्नि दा, तुम कुछ भूल नहीं सकतीं। मुझे तेज से मिलने दो, उसके ज़ख़्मों पर मरहम लगाने दो। ये देखो मैं ये लाई हूँ। उसने एक डिबिया मेरे हाथ में दे दी।

    जाने इसमें क्या मिला हो। तुम्हारे पति देव को पता चल गया तो तेज को जीता रहने देगा। इसलिए तुम ये वापस ले जाओ और ख़ुद भी जाओ। मैंने उसे अपने आँगन से तक़रीबन धकेल कर दरवाज़ा बंद कर दिया। तेज अच्छा हुआ तो मुझे उसे गढ़ी से बाहर भिजवाने की जल्दी लग गई। मैंने आपही आप पुराने दिनों की यादों के समय, उसके कपड़े और दूसरा सामान ठीक करना शुरू कर दिया। सामान जो कभी मैंने ठाकुर अमर सिंह के लिए तैयार किया था। ऐसा ही सामान जो मैंने बड़े ठाकुर के लिए बनाया था। अपने ज़मानों में मेरा दिल हल्का होता मगर अब भारी और डूबता हुआ था।

    अगली सुबह उसे रवाना होना था। सब तैयारियां मुकम्मल हो चुकी थीं। मैं तेज को सीने से लगाए बैठी थी, जाने अब कब मिलना हो और हो भी सके कि नहीं। जीना और मरना तो भगवान के बस में है पर मैं पल-पल मर रही थी। आज तक मर रही हूँ। तेज को अपने सीने से लगाए मैंने प्रार्थना की थी,भगवान तू इसकी रक्षा करेगा। मैं उसे तुझे सौंपती हूँ। चारों दिशाओं में तूफ़ान और हवाएँ और बलवान दुश्मन हैं। मेरा अकेला बच्चा तेरे हवाले है, भगवान मेरा ये आँगन सूना  होने देना। ये दीया जलता रहे। अमर सिंह का ये नाम मिट जाए। भगवान तूने मौत बनाई है और ज़िंदगी भी। तूने आशाएँ दी हैं और उनको पूरा करने का भी ज़ोर तेरे पास है। फिर मैंने और तेज ने मिल कर मूर्ति को प्रणाम किया। मैंने आसन से उठाकर सिंदूर का टीका उसे लगाया जैसा गढ़ी के ठाकुर अपनी पेंचदार पगड़ी पहनते समय लगाते हैं। अमर सिंह की पगड़ी उसके सर पर रखी तो उसने कहा,

    अग्नि दा, मैं किसी शय पर विश्वास नहीं रखता। बदला लेने में गढ़ी का सरदार बनने में। इतनी लम्बी चौड़ी दुनिया है, उसमें मुझे भेज रही हो तो वादों में क़ैद करो। अब हम यहाँ से बाहर कहीं मिलेंगे। तुम्हें पता है मैं अब वापस नहीं आऊँगा। मैं किसलिए वापस आऊँ। अग्नि दा, देखो रो कर नहीं अब हँस कर मुझे विदा करो। अजेसर की गढ़ी ही तो सारी दुनिया नहीं है? जाने क्या-क्या तुम्हारी और मेरी आँखों ने नहीं देखा जो है। मेरा हाथ जहाँ था वहीं रह गया। ये ज़रा सा बच्चा जो मेरे सीने के साथ लग कर सोता था और जब भूक लगती थी तो मुँह बिसूर कर खाना माँगता था। ये एक दम इतना बड़ा समझदार कैसे हो गया। ये बड़ी-बड़ी बातें जो मुझे भी समझ में नहीं आतीं, इसने कब, कहाँ से सीखी हैं? मैंने तो उसे कभी अपनी आँखों से ओझल नहीं होने दिया।

    तुम्हें पता है अग्नि दा जब मैं घोड़ों को भगाने के लिए बाहर जाता हूँ तो मैं हवा  के चक्कर में अपना पाँव ज़रूर धरता हूँ। महाराज कहता है कि इस चक्कर में पाँव धरने वाला हवा के जादू के ज़ोर से बाक़ी बंधनों से आज़ाद हो जाता है, ख़ूब घूमता है मुसाफ़िर बना रहता है।

    भगवान मैंने अपना माथा पीट लिया, तो ये महाराज था जिसने मेरे तेज को हवा के चक्कर में पाँव धरने का बताया था।

    ये चक्कर क्या होता है? कर्नल ने पूछा।

    सहरा में रहने वालों के अपने वहम हैं। मैंने अग्नि दा की जगह जवाब दिया, हर जगह के छोटे-छोटे वहम होते हैं। शगून और इशारे।

    तेज स्कूल से कभी वापस नहीं आया। छुट्टियाँ होतीं तो वो अपने किसी उस्ताद के साथ पहाड़ पर भिजवा दिया जाता। सर्दियाँ होतीं तो वहीं पढ़ाई की कमी पूरी करने के ख़्याल से स्कूल के बोर्डिंग हाउस में टिका रहता। मैं बौलाई हुई दीवानों की तरह अपने आँगन के अंदर दालानों में और दालानों से बाहर छत पर नीचे फिरती रहती। आस लगाए,लगाए राह देखते-देखते सूली पर लटके-लटके मुझे नींद भी आती। लम्बी दोपहर को जब सोचें मेरा पीछा छोड़तीं। है भगवान अब क्या होगा? कभी तो, कभी तो सुख और तेज मुझे आन मिलेंगे। जब अजेसर की गढ़ी के बाहर एक सुनसान रात में तेज मुझे मिला है तो उसे देखती रह गई। तुमने मुझे यहाँ क्यों बुलाया है, घर चलो। मेरे सूने आँगन में बहार आए। मैं तुम्हारी राह देखती रही हूँ।

    अग्नि दा। उसने अपने बाज़ुओं के घेरे में लेकर मुझे अपने सीने से लगाते हुए कहा, अब मैं बड़ा हो गया हूँ और तुम्हारे आँगन में समा नहीं सकता। तुमने ही तो मुझे कहा था कि तुम सूरबीर हो। अब तुम मुझे किस आँगन में लिए जाती हो। वो इतना बड़ा, एक दम अक़्ल-मंद हो गया था कि मुझे कोई जवाब सुझाई दिया। मैं उसके साथ लगकर खड़ी रही, खड़ी रही, उसके पसीने की सौगंध, उसका भरा हुआ जिस्म ये सब मेरे थे। हाँ, मैं अब उसपर मान कर सकती थी। शताब और महताब की माँ नहीं, बहू नहीं, मैं तेज की माँ थी। वो मुझे कमज़ोर बच्चा समझ कर मेरे सफ़ेद बालों पर हाथ फेर रहा था। मेरे माथे और गालों को चूम रहा था। मुझे घड़ी-घड़ी अपने से लगा रहा था। तेज मेरा बच्चा था, मेरा अपना था।

    तेज! मेरे बच्चे आख़िर तुम कहा जा रहे हो। जब उसने मुझे अपने से अलग किया तो मैंने पूछा।

    ये घमबीर, बड़ी और गहरी रात है, इसमें क्या है। मुझे मालूम नहीं इसमें क्या है। नहीं मालूम नहीं। बस मैं यही खोजने निकलता हूँ। दा, अनजाने का जादू, ज़ोर से टक्कर लेने का जादू मुझको घेरे हुए है। उसने मुझे फिर अपने साथ लगा लिया।

    मुझे बहलाओ नहीं तेज! मुझे बताओ तुम कहाँ रहते हो। रातों को कहाँ घूमते हो। कुछ मुझे जानने का अधिकार है। है कि नहीं। मैंने पूछा था। उसने हँसकर कहा था,सारे अधिकार तुम्हारे हैं मगर इन सवालों के जवाब किसी और वक़्त दूँगा। जब कभी फिर मिलेंगे। सिर्फ़ ये कहता हूँ कि जब मेरे ज़ख़्मों के निशान उभरते और दिखते हैं। जब इनमें फिर से टीसें उठती हैं तो मैं उन लोगों के लिए दुआ खोजता हूँ जो दुखी हैं और जिनकी मदद करने वाला कोई नहीं। मेरे लिए किसी गढ़ी की ज़रूरत नहीं, किसी नीले हीरे की ज़रूरत नहीं।

    बेकार की बातें। कर्नल ने चटाई पर अपना पहलू बदलते हुए कहा।

    मुझे तेज ने यही कहा था। तब से अब तक, इस घड़ी तक जाने कितना समय बीत गया है। मेरी और उसकी भेंट कहीं नहीं होती।

    मैं तुम्हारे तेज को ढूँढता तो फिर रहा हूँ। कर्नल ने बात ख़त्म की ही थी कि गोली चलने की आवाज़ आई। हमने फूँक मार कर दीया बुझा दिया। बंदूक़ें उठाईं और बाहर की तरफ़ भागे। सितारों का गुबार रौशन और ज़्यादा चमकने वाले तारों के दरमियान आबशार की तरह हमारे सरों पर गिर रहा था। जाल में सोई हुई चिड़ियाँ चूँ -चूँ कर रही थीं। बेचैन होकर जाग उठी थीं, कहीं जिंड और करें की ख़ुश्क टहनियों पर पानी के खारे टिड्डों ने अपनी चर्चर फिर शुरू कर दी थी। भागते क़दमों, ऊँटों के बिलबिलाने और गोलियों की हर तरफ़ से आवाज़ें घूम फिर कर सन्नाटे को तोड़ रही थीं। हवा जिस रुख़ चलती आवाज़ उधर ही पलटती थी। हमारे पीछे से अग्नि दा की आवाज़ गूँजी,तेज ठाकुर मैं यहाँ हूँ। तुम्हारी अग्नि दा।

    हमारे हाथ बंदूक़ों पर जम गए। साँस रुक गई। जिस तरफ़ से आवाज़ भरेगी, हम उधर ही निशाना बाँधेंगे। और हम ठीक ही मुंतज़िर थे। टोबे के किनारे से किसी ने ज़ोर से कहा, अग्नि दा, स्वर्ग में। इससे पहले कि हम शिस्त बाँधते, बात ख़त्म हो  गई।

    रनिहाल पोस्ट पर जिस अग्नि दा को हमने दुश्मन के सिपाहियों के हवाले किया, उसका वज़न चिड़िया से भी हल्का था। बंद आँखों के गिर्द अजीब मुस्कान थी। बे-दाँतों का चेहरा भरा-भरा था और गुलाबी जैसे भोर का मुख हो। अनजाने के और हवा के चक्करों में जाने कौन क़ैद था और कौन आज़ाद था। स्वर्ग कहीं है भी कि नहीं।

    स्रोत:

    Pakistani Afsana Number (Pg. 13)

      • प्रकाशक: जमीला अहमद

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