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अकेला दरख़्त

सादिक़ुल ख़ैरी

अकेला दरख़्त

सादिक़ुल ख़ैरी

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    स्टोरीलाइन

    एक ऐसे व्यक्ति की कहानी, जिसके संबंध बहुत सी औरतों के साथ रहे थे। जब उसकी शादी हुई तो उसे अपनी बीवी पर बड़ा नाज़़ हुआ और वह उससे दिल-ओ-जान से मोहब्बत करने लगा। मगर एक रोज़ जब वह माल रोड से टहल कर लौटता है तो उसे अपनी बीवी गुम-सुम नज़र आती है। पूछने पर पता चला कि उसे अपना कोई पुराना आशिक़ याद आ रहा है।

    दो घंटे की मुसलसल बारिश के बाद मत्लअ बिल्कुल साफ़ हो गया और चौदहवीं रात की चाँदनी में मरी की दूर-दूर तक फैली हुई पहाड़ियाँ दोशीज़-गान बहार की मानिंद हसीन और दिल-फ़रेब नज़र आने लगीं। उनके नशेब में तर-ओ-ताज़ा घाटियाँ और ख़ूबसूरत क़तआत थे जहाँ पहाड़ी ग़ल्ला की हरी-भरी फ़सलें तैयार खड़ी थीं और दूसरी जानिब, सर-ब-फ़लक हयात-ए-जावेद पाने वाले सिलसिले-वार पहाड़ जो किसी कुहन-साल की ज़िंदगी की तरह दराज़ हुए चले जा रहे थे।

    अभी दस नहीं बजे थे और मॉल रोड पर आने-जाने वाले ख़ुश-ख़िराम लोगों की आमद-ओ-रफ़्त जारी थी। इस सैलाब-ए-नूर और कोहिस्तानी माहौल में उस वक़्त ऐसा मालूम होता था कि कायनात की हर शय किसी ना-मालूम सर-ख़ुशी से बे-ख़ुद है। और ये चलते-फिरते लोग, ये हुस्न-ए-शबाब के मुतवातिर जल्वे और ये रौशनियों के दूर से नज़र आने वाले, नीले, सब्ज़ और काफ़ूरी रंग सब में ज़िंदगी की ताबिंदगी है।

    ज़ुबैद टहलता हुआ जा रहा था। जब रक़्स-गाह के सामने से गुज़रा तो ज़ीने पर इज़ाबेल फ़ालसईगाउन पहने किसी ग़ैर-मुल्की के हाथ में हाथ डाले अपने मख़्सूस दिल-सिताँ अंदाज़ में उतर रही थीं... इज़ाबेल! उसे चंद साल पहले की बातें याद गईं। ये वही चँचल इज़ाबेल है जिसके हुस्न ने उसे अपना शैदा बना लिया था और उसकी आग़ोश में पहले ही रक़्स के बाद उसके लिए बे-चैन और बे-क़रार हो गया था।

    लेकिन एक दिन ये बे-चैनी, ये बे-क़रारी हसब-ए-मामूल सत्ही और जवानी का तक़ाज़ा साबित हुई। चुनाँचे जब उसका जी इज़ाबेल से भर गया तो उसकी तबियत मिस मेहरू पटेल की तरफ़ मायल हो गई जिसे ख़ुश-नुमा लिबास पहनने का बड़ा सलीक़ा था, और जो बड़ी दिल मोह लेने वाली बातें किया करती थी। इससे मुतअस्सिर हो कर ज़ुबैद का दिल चाहा कि काश ये मेरे पहलू में चली आए। उसे नाकामी कभी नसीब नहीं हुई थी। दौलत और सेहत की बिना पर वो हमेशा कामरान रहा करता था। चुनाँचे वो मेहरू की रिफ़ाक़त हासिल करने में कामियाब हो गया। इस बड़े बाप की तालीम-याफ़्ता बेटी को मुहब्बत का यक़ीन दिला कर उसने अपना कर लिया। और सारे सीज़न वो मरी में ऐश-ओ-तरब की महफ़िलें आरास्ता करता रहा।

    लेकिन इज़ाबेल और मेहरू पर ही क्या मौक़ूफ़ है। पिंडी की वो लकड़ियाँ जमा करने वाली मुरादन भी तो उसकी जवानी के ड्रामे में एक अहम किरदार थी। जुनूब में बहने वाली नदी के उस पार उसका मस्कन था और वो वहाँ से लकड़ियाँ जमा करके आबादी में बेचने आया करती थी। एक दिन सुबह को ज़ुबैद ज़रा ग़ैर-आबाद हिस्से में चहल-क़दमी कर रहा था। उसने देखा कि जिस सिम्त से मशरिक़ का शिकारी अपनी ज़रतार कमंद आब-ए-नीलगूँ पर फेंक रहा है, एक लड़की लकड़ियों का गट्ठा कमर के सहारे, खाँचे में रखे लहँगे के पाइँचों को हाथों में उठाए पायाब नदी को पार करती चली रही है। उसके तन-बदन में जवानी की गंगा-जमुनी लहरें उठ रही थीं। उसका चेहरा आफ़ताब-ए-ताज़ा की मानिंद पुर-रौनक़ था। उसकी आँखों में दोशीज़गी और मासूमियत की अलामत थी। उसकी तनूमंद टाँगों और हाथों से मलाहत और क़ुव्वत का इज़हार होता था। ये मुरादन थी जो उसके क़रीब आते-आते अपनी पूरी कशिश के साथ उसके एहसासात पर छा गई और वो वहीं, नदी के किनारे बैठा-बैठा उसे देखता रहा। मुरादन ने पानी से निकल कर पाइँचे छोड़ दिए और चंद बार पाँव झटक कर आज़ाद हिरणी की तरह नीम के दरख़्त के नीचे से शहर की तरफ़ चली गई।

    दूसरे दिन फिर उसने उसे नदी में उभरते सूरज की तरह तुलूअ होते देखा तो उसका दिल उस ग़ज़्ज़ाल चश्म पहाड़न के लिए मचल गया। लकड़ियों की ख़रीदारी के बहाने उसने उससे राह-ओ-रस्म पैदा कर ली और आहिस्ता-आहिस्ता उस अल्हड़ दोशीज़ा का रोमान दरख़्तों की ओट, पहाड़ियों के दामन और नदी के किनारे परवान चढ़ने लगा।

    मुरादन अनजान थी। उसे इल्म नहीं था कि आग़ाज़ का अंजाम भी होता है। जो कहानी एक दफ़ा शुरू हो जाए वो कभी ख़त्म भी होती है। चुनाँचे जब वो अपनी दोशीज़गी ज़ुबैद के सुपुर्द कर चुकी तो उसे महसूस हुआ कि जिसे वो अपना समझती थी वो तो ग़ैर निकला। फिर क्यों उसकी बातों में आकर उसने अपने आपको उसके हवाले कर दिया? उसने ये क्यों यक़ीन कर लिया कि एक शहरी अपनी शहरियत और शख़्सियत छोड़ कर उस चंपई कुर्ती वाली का देस बसा लेगा और सबके सामने इक़रार कर लेगा कि हाँ मैं ही उस पहाड़न के बच्चे का बाप हूँ। बल्कि वो तो कहीं चला गया और सारी बस्ती में कहीं नज़र नहीं आया। मुरादन के दिल को बड़ी ठेस लगी। उसे ऐसा मालूम हुआ कि सारी दुनिया पर अंधेरा छा रहा है, और वो ख़ुद ज़मीन के किसी गड्ढ़े में गिर पड़ी है। उसका दिमाग़ माऊफ़ हो गया। वो अब क्या करे?

    एक दिन बिल्कुल ख़िलाफ़-ए-उम्मीद उसने कहीं देखा कि ज़ुबैद चंद साथियों के हमराह शिकार खेलने जा रहा है... जैसे चारों तरफ़ छाए हुए अँधेरे में चिराग़ जल उठे, उसके निहाँ-ख़ाने में दिए रौशन हो गये। वो अपनी मायूसी और परेशानी भूल कर बे-झिजक, बे-मुहाबा उसके पास चली आई। ज़ुबैद हैरान रह गया। उसे ख़्याल तक नहीं था कि मुरादन उस इलाक़े में नज़र सकती है। उसने तो उसकी रह-गुज़र से कई-कई फ़र्लांग तक रास्ता चलना छोड़ दिया था। अब उसे यूँ देख कर वो कुछ घबरा गया। लेकिन फ़ौरन ही सँभला। उसने अपने दोस्तों को परे चलने का इशारा किया और जब वो अकेला रह गया तो उसने मुरादन को नज़र भर कर देखा। वो सूरत से बे-सूरत हो गई थी और उसका जिस्म बे-डोल हो गया था।

    ज़ुबैद के चेहरे पर नर्मी के बजाए दुरुश्ती और निगाहों में तरह्हुम की जगह झुँझलाहट गई। लेकिन मुरादन को ग़ुस्सा नहीं आया। वो ज़ब्त करके रह गई। जैसे किसी ने अंदर से तैश का गला घोंट दिया हो। फिर देखते-ही-देखते उसकी आँखों में भीक और इल्तिजा उमंड आई। उसने ज़ुबैद के हाथ पकड़ कर अपनी कमर के गिर्द लपेट लिए और देखने लगी। ज़ुबैद समझ गया। उसका पेट अब बड़ा हो गया था। अब उसके बाज़ू मुरादन को अपनी आग़ोश के पूरे हाले में नहीं ले सकते थे। मगर वो क्या कर सकता था। जवानी के तेज़ क़दम सोच समझ कर थोड़ी उठते हैं। उसकी बातें तो शुरू ही से बनावटी थीं। उसने अपने हाथ खींच लिए और जेब में से चंद रूपये निकाल कर उसने मुरादन की मुट्ठी बंद कर दी। और इससे पहले कि वो कुछ समझ सकती ज़ुबैद नज़रों से ओझल हो गया। मुरादन की आस जाती रही। उसका दिल टूट गया और वो मुँह के बल ज़मीन पर लेट कर रोने लगी। इसके बाल बिखर गए। और उस का बढ़ा हुआ पेट कुर्ती में से निकल कर मिट्टी पर टिका... मिट्टी पर, जिसमें ज़िंदगी के उरूज और ज़वाल की हज़ारहा दास्तानें हैं।

    और यही नहीं, उसकी हवस-नाक ज़िंदगी पर एक और औरत भयानक क़हक़हा लगाती है। और वो औरत है ज़ेबा। उसके दोस्त की बीवी, जिसका उजला बदन सियाह साड़ी में मलबूस उसकी नज़रों में समा गया था। और जब तक वो अपने मक़सद में कामयाब नहीं हुआ, वो बराबर पारसाई की राह पर ज़ेबा का तआक़ुब करता रहा... लेकिन ये सब क्यों है? ये ख़्याल क्यों उस वक़्त उसके दिमाग़ में रहे हैं? मुतहर्रिक फ़िल्म की तरह उसके ज़ेहन के पर्दे पर जाने कितनी तस्वीरें यके-बाद-दीगरे गईं। कोई धुँधली। कोई रौशन। और ये चार, फ़ालसई गाउन में मलबूस इज़ाबेल, फ़ीरोज़ी स्कर्ट में मेहरू, चम्पई कुर्ती पहने मुरादन और सियाह-पोश ज़ेबा... ये चार तो बे-हद रौशन थीं। लेकिन उसे उन औरतों का ख़्याल सिर्फ़ आज और उस लम्हे आया है, वर्ना उनसे ताल्लुक़ ख़त्म होने के बाद उसे भूल कर भी उनका कभी ख़्याल नहीं आया। गोया वो लौह-ए-हयात पर हर्फ़-ए-ग़लत थे जो आन-ए-वाहिद में मिट गए। जैसे वो ना-गवार और ना-पायदार तस्वीरें थीं जो अज़-ख़ुद तहलील हो गईं। दर-अस्ल ज़ुबैद ने उन औरतों से वाक़ई असर कभी नहीं लिया। एक दफ़ा दिल से उतर कर वो कभी उसे याद आईं।

    (2)

    मैमूना से शादी के बाद ज़ुबैद में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ पैदा हो गया। वो उसकी आवारगी, वो उसकी हवस-नाकी, वो ऐश-परस्ती, सब रुख़सत हुएँ। उसका हरजाई-पन जाता रहा और उसे अब मालूम हुआ कि वो ख़ातून जो महरम-ए-राज़ है, हुस्न-ए-रह-गुज़र से किस क़दर अर्फ़ा-ओ-आला होती है। उसमें कितनी ख़ूबियाँ पिन्हाँ हैं, और ये सच ही है। इंसान की जब तक कोई मंज़िल हो वो भटकता ही रहता है। उसके भटकने में लाख नुदरत और लज़्ज़त सही, उसमें वो आसूदगी और सुकून तो नहीं जो मंज़िल-ए-मक़सूद पर पहुँचने से मिलता है। और उस इंक़िलाब की वजह सिर्फ़ मैमूना थी जिसकी ख़ूबसूरती और रानाई ने उसे मस्हूर कर लिया था। वो उससे मोहब्बत करती थी। उसे अपने सर का ताज और अपने सुहाग का मुहाफ़िज़ समझती थी, और ज़ुबैद के लिए बिल्कुल नया तजुर्बा था। इस ज़ावीया-ए-निगाह से तो उसे किसी औरत ने कभी नहीं देखा। किसी ने उसकी इतनी क़दर नहीं की और फिर उसकी एक-एक अदा उसे भा गई थी। फिर क्यों उसके वल्वले उसी एक हस्ती पर जमा हो जाते?

    सड़क के मोड़ तक वो अकेला रह गया। हुजूम और उसकी चहल-पहल पीछे रह गई, और अचानक उसने देखा कि रक्षा में एक जवानी से भरपूर फ़िरंगन हसीना एक मर्द की आग़ोश में नीम-दराज़ चली जा रही है। उस का फ़िराक घुटनों से ऊपर सरक गया था। मअन ज़ुबैद पर जुनून-ए-हवस सवार हो गया। मगर उसके क़दम नहीं डगमगाए। उसने फ़ैसला कर लिया था कि वो जिस राह पर गाम-ज़न हो चुका है उससे वापस नहीं होगा। उस देव-नुमा पहाड़ की उस जानिब जो आबादी है वहाँ अब वो दोबारा नहीं जाएगा। उसे अब किसी औरत से ताल्लुक़ मंज़ूर नहीं, और वो जल्दी-जल्दी क़दम उठाता अपने घर की तरफ़ रवाना हो गया।

    (3)

    ज़ुबैद घर में दाख़िल हुआ तो मैमूना दरीचे के पास बैठी हुई, बाहर के रुख़ टकटकी बाँधे देख रही थी। उसका इस्तिग़राक़ उस वक़्त दुनिया की हर शय पर ग़ालिब था। ज़ुबैद की आमद भी उसे मुतवज्जे कर सकी। वो उसके क़रीब गया और चाहता था कि उसके फ़र्क़-ए-नाज़ को जोश-ए-मोहब्बत में अपने सीने से लगा ले कि यक-लख़्त मैमूना के बशरे को देख कर वो वहीं का वहीं ठटक गया। ये क्या? उसका चेहरा इस क़दर संजीदा क्यों है? उसकी ख़ूबसूरत आँखों में ग़म की घटाएं क्यूँ छाई हुई हैं?

    उसने आहिस्ता से उसके शाने हिलाए, मैमूना...!

    मैमूना ने पलट कर उसे देखा। लेकिन उसमें कोई तब्दीली नहीं हुई। बल्कि उसने ज़ुबैद की जोशीली बाँहें अलैहदा कर दीं और फिर बाहर चाँदनी के आबशार में नहाए हुए मंज़र को देखने लगी। ज़ुबैद ने उसे सहारा दे कर उठाया। वो खड़ी हो गई। उसे तामील में कोई उज़्र नहीं था। वो उसके साथ मुसहरी पर बैठी मगर उसकी निगाहें दरीचे के बाहर जमी रहीं।

    ज़ुबैद ने उसे इस हालत में पहली बार देखा था। उसके सान-ओ-गुमान में भी नहीं सकता था कि ये मैमूना, ये कम-उम्र समन-अंदाम लड़की जिसे हमेशा से, हर तरह का लुत्फ़-ओ-आराम मयस्सर है कभी यूँ ग़म-दीदा भी हो सकती है। आख़िर उसने आहिस्ता से कहा, क्या बात है? मैमूना ने उसे नज़र भर कर देखा और बे-चारगी से बोली, इस दरीचे के बाहर, पहाड़ी के ढ़लान पर एक दरख़्त लरज़ रहा है।

    तो क्या हुआ?

    मैं उसे बहुत देर से देख रही हूँ! उसे देख कर मुझे ख़लीक़ याद गया है!

    कौन ख़लीक़? ज़ुबैद ने हैरत से पूछा।

    वो देहरादून में हमारे मकान के क़रीब रहा करता था।

    ज़ुबैद को एक धचका सा लगा और वो परेशान आवाज़ में बोला, तुम्हें उससे मोहब्बत थी? क्या उसी की याद तुम्हें सता रही है?

    जैसे मैमूना ने उसके सवाल नहीं सुने। वो मद्धम आवाज़ में कहने लगी, इस दरख़्त को लरज़ते देख कर मुझे वो वक़्त याद गया जब...

    जब वो तुम्हारे गले में बाहें डाला करता था? कौन है वह?

    मैमूना ने उसे मासूमियत से देखा और कुछ नहीं बोली। ज़ुबैद के दिल में जो अब तक सिर्फ़ हवस या जोशीली मोहब्बत से वाक़िफ़ था एक नया जज़्बा पैदा हो गया। रक़ाबत ने उसके हवास मुख़्तल कर दिए और वो झुँझला कर बोला, क्या उसके कोढ़ निकल आई थी? या चेचक ने उसकी जान ले ली?

    मैमूना की आँखें डब्डबा आईं। और वो आहिस्ता-आहिस्ता गोया हुई, वो बे-चारा क़ब्र में सो रहा है। उसने मेरी ख़ातिर जान दी। निमूनिया की वजह से उसे घर से बाहर निकलने की इजाज़त नहीं थी मगर जब वालिद साहब का तबादिला लखनऊ हुआ तो रवांगी की रात में अपने कमरे में सो रही थी कि खिड़की पर ठक-ठक की आवाज़ से मेरी आँख खुल गई। मैंने खिड़की के शीशों में से देखा कि लीची के दरख़्त के नीचे ख़लीक़ खड़ा है। जाने उस ग़रीब ने किस मुश्किल से लीचियाँ खिड़की पर मारी होंगी।

    ज़ुबैद के चेहरे पर रंग बदलने लगे। वो बेताबी से बोला, वो तुम्हारा आशिक़ अंदर क्यों नहीं आया?

    मैमूना उस वक़्त किसी दूसरे आलम में थी। वो ज़ुबैद की परवा किए बग़ैर कहती रही, आधी रात जा चुकी थी। सर्दियों का ज़माना था और ऐसी ही चाँदनी फैली हुई थी। मैं हिम्मत करके उसके पास चली गई। वो खड़ा काँप रहा था... उस सब्ज़ दरख़्त की तरह काँप रहा था। मैंने कहा, ख़लीक़ इस वक़्त तुम बाहर क्यों निकल आए हो? तुम्हें कुछ हो गया तो...

    मैमूना एक लम्हे के लिए रुक गई। ज़ुबैद भी ख़ामोश रहा। वो उसे टोक कर आगे से रोकना नहीं चाहता था। वो तो ख़ुद ये जानना चाहता था कि चाँदनी रात में जब महबूब-ओ-मुहिब मिले तो उन्होंने क्या किया? मैमूना आह-ए-सर्द भर कर कहने लगी, खाँसी की शिद्दत और सर्दी के मारे ख़लीक़ की आवाज़ नहीं निकलती थी। उसने ब-मुश्किल कहा, अब तुम्हारे जाने के बाद मैं जी कर क्या करूँगा?

    ज़ुबैद पर ख़ामोशी तारी हो गई। उसके ख़्यालात में तसादुम हो रहा था। मैमूना फिर बोली, मैंने ज़बरदस्ती उसे वापस घर भेज दिया और हमारे लखनऊ पहुँचने के दूसरे रोज़ उस बिचारे का इंतिक़ाल हो गया। सच कहती हूँ वो बड़ा नेक था...

    ज़ुबैद ने कोई जवाब नहीं दिया। उसके पास से उठ कर उसने दरीचे के किवाड़ भेड़ दिए। लेकिन वहाँ से हटते हुए आप ही आप उसने बाहर झाँका। पहाड़ की ढ़लान पर एक दरख़्त हवा के झोंकों से लरज़ रहा था। उसके क़दम वहीं जम गए। उसकी नज़र उस दरख़्त में उलझ गई और उसके ख़्यालात का समुंद्र अपनी पूरी क़ुव्वत के साथ उसके दिमाग़ में मोज्ज़न हो गया। वो ख़ुद लाख आवारा सही, उसकी अपनी ज़िंदगी घिनावनी और क़ाबिल-ए-नफ़रीं सही लेकिन वो एक लम्हे के लिए भी ये बर्दाश्त नहीं कर सकता कि उसकी बीवी के दिल में किसी दूसरे का ख़्याल भी सके। तो क्या वो उसे हलाक कर दे? मैमूना ने जो उसका एतिमाद यूँ पाश-पाश कर दिया है, क्या वो उसकी उसे सख़्त से सख़्त सज़ा दे-दे? और इस तसव्वुर के आते ही वो उसकी तरफ़ मुड़ा लेकिन वो सो गई थी और इसकी मासूम सूरत से ऐसा ज़ाहिर होता था कि उसके दिल में कोई ख़लिश है। वो किसी के ख़्याल में मह्व है। और यकायक ज़ुबैद को यूँ महसूस हुआ गोया किसी ने उसके मुँह पर तमाँचा मारा है... जैसे वो और मैमूना एक-दूसरे के मुक़ाबिल खड़े हों। एक वो है कि उसकी तमाम उम्र हुस्न-परस्ती में गुज़री मगर वो उस चोट से ज़रा भी आशना हुआ जो ज़िंदगी को रिफ़अत और अबदीयत अता करती है... और एक मैमूना है जिसकी ज़िंदगी कभी तूफ़ानी नहीं हुई मगर उसके दिल में एक दर्द है। उसके एहसासात में एक ज़ख़्म है। उसकी आह में ख़ुलूस है।

    वो उसके बिल्कुल क़रीब चला गया। मैमूना बे-हाल और बे-तरतीबी से पड़ी थी। ज़ुबैद की मोहब्बत ऊद कर आई। उसने उसे आहिस्तगी से ठीक तरह लिटा दिया। फिर वो उसके पास मुसहरी पर बैठ कर उसके चेहरे को नीम-वा आँखों से देखने लगा। वो यक़ीनन उसी की है और उस पर उसे वो हक़ और अख़्तियार हासिल है जो उसे कभी और किसी पर हासिल नहीं हुआ। दफ़्अतन उसका जी चाहा कि उस ख़्वाबीदा हसीना को, अपनी मंकूहा को, अपने बाज़ुओं में लेकर ख़ूब भींचे... मगर नहीं। इस क़दर नज़दीक, इतना क़रीब होने के बावजूद शायद वो उससे दूर हो गई है। जैसे वो ज़ुबैद को साहिल पर छोड़ कर मौज-ए-आसा कहीं और चली जा रही है।

    ज़ुबैद अपने ख़्यालात से ख़ुद ही सहम गया और यक-बारगी जब उसने दरीचे में से झाँका तो देखा... कि पहाड़ की ढ़लान पर एक दरख़्त तन्हा और अकेला सर्दी से काँप रहा है।

    स्रोत:

    Sadiq-ul-Khairi Behtareen Afsane (Pg. 206)

    • लेखक: अबुल ख़ैर कशफ़ी
      • प्रकाशक: शहनाज़ बुक क्लब, कराची
      • प्रकाशन वर्ष: 1984

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