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अकेला फूल

जमीला हाशमी

अकेला फूल

जमीला हाशमी

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    स्टोरीलाइन

    "यह मुहब्बत की अतृप्ति और उपेक्षा से जन्म लेने वाली स्वछंदता की कहानी है। अतीया बेगम एक कॉलेज स्टूडेंट है लेकिन उन्हें एक विवाहित उच्च अधिकारी से मुहब्बत हो जाती है। अधिकारी पहले तो उसे नज़रअंदाज करता है लेकिन अंततः वो भी उसकी तरफ़ उन्मुख हो जाता है। एक दिन जब अतीया को एहसास होता है कि उसके महबूब की आसक्ति काम वासना में है और वो अब तक उसके निश्छल प्रेम से वंचित है तो फिर वो रूठ कर वापस चली जाती है। अब वो अक्सर दूसरों की कार में बैठी हुई नज़र आती है, जिसे देखकर उस अधिकारी का ज़ख़्म हरा हो जाता है।"

    दरिया के साथ-साथ चलती ये सड़क पहाड़ों के दामन से गुज़रती अँधेरे में डूबती हुई लगती है। दिन की रौशनी बादलों की लाली में बदल गई है और पानी में घुली सुर्ख़ी शाम को लहू रंग बना देती है। लहरें और आसमान का रंग और मग़रिब की तरफ़ अकेले तारे की चमक एक बे-नाम उदासी के रिश्ते में बँधे हैं। सरकण्डों के झुण्ड में रंग-बिरंगी चिड़ियाँ बसेरा करती शोर मचाती हैं और हवा की सरसराहट में मिली ये आवाज़ें नीले-पन का एक ताना-बाना सा बुनने लगती हैं। परिन्दों के झुण्ड अपने ठिकानों को लौट रहे हैं और एक पुर-हौल सन्नाटा पत्थरों और दरिया, सड़क पर और फ़िज़ा में गूँजता है, बहता चला जाता है।

    सायों की तरफ़ देखते हुए दम घुटने लगा है। रात सड़क के किनारे की झाड़ियों और सुर्ख़ फूलों, पानी और उन टूटी हुई बुर्जियों से निकल रही है जिस के नीचे से दरिया जाने कितने ज़मानों बहा है और निकला चला गया है। दम घोटने वाली ख़ुश्बुएँ आवारा-ओ-परेशान ख़यालों की तरह हर तरफ़ से यूरिश कर रही हैं। जंगल की बास अँधेरे में मिलती घात से निकल कर हमला करने वाले डाकू की तरह है ऐनमैन तुम्हारी ख़ुशबू की तरह अ​ितया बेगम जो अचानक कहीं से निकलती और मुझे अपना दम घुटता हुआ महसूस होने लगता। तुम्हारी शख़्सियत यही बास थी अतिया बेगम जो मुझे आज तक मुक़य्यद किए हुए है और मग़रिब में अकेले तारे की तरह तुम्हारा वुजूद। ये तुम्हारे वुजूद का अलमिया था अतिया बेगम जो आदमी को बे-बस कर देता था और तुम्हारा देखने और देखते रहने का अन्दाज़ जैसे दरिया के किनारे की घास में अकेला फूल हो कर झाँके और अपने अकेले-पन का एहसास दिलाए और फिर बे-चारगी का लबादा ओढ़े तुम्हारी ताब-नाक मुस्कुराहट।

    यही मुस्कुराहट जिस के लिए मैं गुज़र गया अतिया बेगम। तुम्हारी ताबानी जो पलकों के नीचे से निकल कर तुम्हारे चेहरे पर फैलती थी। मैंने हमेशा तुमसे कहा था और मुझे ये एहसास था कि मैं तुम्हारी शख़्सियत से मरऊब हो गया हूँ, ग़लत था। मैंने तुम्हारी हिम्मत और तुम्हारे बा-वक़ार अन्दाज़ से हार नहीं मआनी थी। अतिया बीबी ये सिर्फ़ तुम्हारी मुस्कुराहट थी जो कली पर फूल बनते में गुज़रने वाली कैफ़ियत की तरह है। उसमें हुज़्न-ओ-अलम की एक ऐसी निस्बत है। उसको तुम लफ़्ज़ों के पैमाने में नहीं नाप सकते और फिर तुम ख़ुद तिश्ना मिज़राब-ए-साज़ की तरह हमेशा मुन्तज़िर। मुझे लगता है तुम क़दीम देवमाला में आसमआनी क़ुव्वतों की मज़हर हो। मेरे और अपने अलमिए में अहम किरदार अदा करने वाली।

    ज़िन्दगी की सारी शामें रंग-ओ-नूर, नग़्मा-ओ-कैफ़ नहीं होतीं मगर ऐसी शामें जिनमें कुछ होने वाला हो, दिल को बुरी तरह धड़काती हैं जैसे कोई अनजानी मुसीबत नाज़िल होने वाली हो। ऐसा लगता है जैसे कुछ हो कर रहेगा। और उस शाम भी यही हुआ था। दफ़्तर से घर आया हूँ तो मेरा जी अच्छा नहीं था। मैं बाहर जाना नहीं चाहता था। आज की तरह सन्नाटे की एक बजती हुई नौबत थी जो रह-रह कर दिल के वीराने में गूँजती थी। उस महफ़िल में मेरी शिरकत ज़रूरी भी थी और इसलिए जब मैं देर से पहुँचा हूँ तो साज़िन्दे अपने साज़ मिला रहे थे। लोग मुन्तज़िर थे। अगली सफ़ों में मेरे नाम की कुर्सी ख़ाली नहीं थी। हौले-हौले रात भीगती गई। आवाज़ें जादू भरी वादी से आने वाली सदाओं की तरह आदमी के अन्दर सोई तानों को जगाने लगीं।

    वो यादगार रात जब लग रहा था ज़मीन-ओ-आसमान वज्द में आए हुए हैं। हर शय ख़ामोश है और चुप-चाप मुन्तज़िर है। मुझे अपना साँस रुकता हुआ लगता था। तुम समुन्दर के सामने अपने आपको जैसे बेबस और हक़ीर ज़र्रा महसूस करते हो वैसे ही मौसीक़ी में अपने आपको नाचीज़ और फ़ना होता पाते हो। लय और लय में बोल और दुनिया की ख़ूबसूरती बहती हुई शौक़ बनती हुई और फिर यूँ लगता था साज़, रूहें, सदाएँ सब मिल कर बह रहे हैं। एक दरिया था जोश-ओ-रवानी में हस्ती को सय्याल बनाता हुआ और अपने साथ ख़स-ओ-ख़ाशाक की तरह तमाम तमन्नाओं और आरज़ूओं को बहा कर ले जाता हुआ। मैं आँखें बन्द किए था और गाने वालों के हाथों की लज़्ज़त और भाव बताने के अन्दाज़ से बे-ख़बर उस घड़ी में देवता बना हुआ था और ख़याल की सारी कसाफ़तें और आलूदगियाँ धुल चुकी थीं। अपने निखरे हुए बातिन के साथ जब मैंने तुम्हें देखा है तो उस अलमिया मुस्कुराहट के साथ मुझे यूनानी देवमाला का कोई किरदार लगीं।

    मैंने पूछा था, तुम्हें कहाँ जाना है बीबी। कहिए तो मैं पहुँचा आऊँ।

    मुझे बहुत दूर जाना है, मेरी मंज़िल क़रीब नहीं है, आपको नाहक़ तकलीफ़ होगी।

    मैंने मोटर का दरवाज़ा खोलते हुए कहा था, मेरी तकलीफ़ का ख़याल करें, आख़िर किसी तरह तो आपको पहुँचना होगा ही ना।

    तुम ने घबराई हुई नज़रों से मुझे देखा जैसे अजनबी आदमी से तुम ने कभी बात ही की हो। और मैंने सोचा अगर तुम एक-दो साल कम की होतीं तो मेरी नूरी के बराबर होतीं। मुझे अपनी बेटी में और तुममें कोई फ़र्क़ महसूस नहीं हुआ और ख़ुदा गवाह है अतिया बेगम तुम जो मेरी हस्ती को अपनी रवानी में ख़स-ओ-ख़ाशाक की तरह बहाना चाहती थीं, अगर तुमको मैंने नूरी की तरह कम-अक़्ल और बे-बस जाना होता, तुमसे तुम्हारी हिफ़ाज़त की होती, अपने से तुम्हें बचाया होता तो आज मैं तुम्हारी इस मुस्कुराहट की भेंट होता। तुम्हें पाकर मैंने यूँ महसूस किया जैसे मैं मुद्दतों बीमार रहा हूँ और अब रू-ब-सेहत हो कर पहली बार हवाओं की नर्मी और गीतों को अपने गिर्द महसूस कर रहा हूँ जैसे तुम रात का राग हो और मेरी हस्ती पर से बह रही हो और बे-नाम ख़ुशबू की तरह तुमने मुझे अपने घेरे में ले लिया। तुम चाँदनी बन कर मेरे सारे वुजूद पर फैल गईं मगर ये तो बाद की बातें हैं।

    तुम्हारी मन्ज़िल गई तो तुमने पिछली सीट पर से उतर कर दरवाज़ा बन्द कर दिया और बिना शुक्रिया का एक लफ़्ज़ कहे अन्दर चली गईं। मैं हैरान था मगर फिर ये सोच कर कि शायद इतनी कम-उम्री में ऐसी बातों का शुऊर नहीं होता, जी को तसल्ली दी और घर चला आया। सारी रात ख़्वाब और बेदारी की एक अजीब-सी हालत थी जो मुझ पर तारी रही। तुम मोटर में अपनी जो ख़ुशबू छोड़ गईं वो मुझे परेशान करती रही और साथ ही मौसीक़ी की तानें जिन पर रूह झूम-झूम गई थी दिमाग़ में गूँजा कीं।

    चार दिन बाद जब मैं दौरे से वापस आया तो अपनी मेज़ पर मैंने अजनबी तहरीर में जो माइल-ब-पुख़्तगी थी एक ख़त अपनी मेज़ पर पड़ा देखा। आज भी मालूम नहीं पड़ता शायद मैं कभी इस गुत्थी को सुलझा सकूँगा कि मैं जिसने ऐसे सैकड़ों ख़त अपनी मेज़ पर देखे थे। जिन्हें खोला था और जिनके जवाब लिखे थे, एक ख़त को पाकर क्यों ऐसा बे-क़रार हो गया था। खोलने से पहले मेरी अजीब कैफ़ियत हो रही थी जैसे कोई अन-देखा अन-जाना ख़ौफ़ हो। मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। मुझे अपने हाथ ठण्डे होते जान पड़े। तुम दिमाग़ के पर्दों पर जाने कैसे गईं, यूँ जैसे ग़लती से पर्दा-ए-सीमीं पर कोई ग़लत रील चल जाए और उल्टे-सीधे अक्स ज़ाहिर हों और मशीन चलाने वाला जी में शर्मिन्दा सा जल्दी से मशीन बन्द कर दे। वो लड़की जिसको शुक्रिया तक अदा करने का शुऊर नहीं, भला वो क्यों लिखेगी। मगर मैंने उस ख़त को उसी तरह रहने दिया और क्लर्क से बात करने में मसरूफ़ हो गया। आदमी कई ऐसे काम करता है जिसकी ख़ुद उसे भी समझ नहीं आती। उस ख़त को खोलने की बात आज तक समझ में नहीं आई मगर मैं आने वाले लम्हे के लिए अपने आपको तय्यार कर रहा था।

    बग़ैर अलक़ाब के बिना ख़िताब के लिखा था।

    तुम्हें याद हो कि याद हो।

    शुक्रिया

    अतिया बेगम

    लाहौल-वला-क़ुव्वत। मैंने ख़त को फाड़ते हुए कहा। क्या बेवक़ूफ़ सी लड़की है भला ये तरीक़ा शुक्रिया अदा करने का कैसा है अगर घर के दरवाज़े पर मुझसे कह देती तो लिखने की क्या ज़रूरत थी मगर लड़कियाँ इस उम्र में अजीब-अजीब हरकतें करती हैं। लड़कियाँ भी और लड़के भी, उम्र का ये दौर जिससे उन दिनों तुम गुज़र रही थीं ऐसा ही था। शेर के टुकड़े को भी मैंने कोई ख़ास अहमियत नहीं दी। कभी का पढ़ा हुआ ये टुकड़ा तुम्हारे ज़ेह्न में होगा। ख़्वाह-मख़ाह इल्मियत जताने के लिए तुमने लिख दिया होगा। अपने दिल की धड़कन पर और अपनी बेवक़ूफ़ी पर मुझे बहुत हँसी आई। उस दिन मेरा मूड बहुत ख़ुशगवार रहा।

    घर आकर मैंने बे-नूरी को बहुत ग़ौर से देखा। हो सकता है कि मेरी बेटी भी ऐसी ही हिमाक़तें करती हो। कम-से-कम उस दिन तो तुम्हारे एक छोटे से नोट को मैंने क़तअन कोई अहमियत नहीं दी और ही जवाब देना ज़रूरी समझा। गो तुम्हारा पता उसमें लिखा हुआ साफ़ मौजूद था। भला मैं उम्र के इस दौर में ज़रा-ज़रा सी लड़कियों की हिमाक़तों पर ग़ौर किस तरह से कर सकता था, दुनिया के और काम थे। लिखना-पढ़ना, मिलना-मिलाना, बीवी बच्चे मेरी अपनी पोस्ट मुझे भला किस शय की कमी थी। क्लब, दोस्त, अहबाब।

    दो दिन बाद फिर एक उसी तरह का नोट मेरी मेज़ पर रखा था लिखा था, वाँ वो ग़ुरूर-ए-इज़्ज़-ओ-नाज़। मैंने झुँझलाकर काग़ज़ को सैकड़ों पुर्ज़ों में फाड़ा और सोचता रहा ये लड़की कोई सिर-फिरी और दीवानी मालूम पड़ती है। भला मैं इतना मसरूफ़ इंसान इस आँख-मिचौली के लिए वक़्त कहाँ से लाऊँ और अगर वक़्त हो भी तो इस चक्कर में क्यों पड़ूँ। फिर मैंने सोचा कमसिन है इसके शुक्रिया करने का मैंने कोई नोटिस नहीं लिया ना, इसलिए उसने ग़ालिब के इस मिस्रे के ज़रिए मुझसे गिला किया है इसके सिवा और क्या हो सकता है भला। एक कोने में टेलीफ़ोन नम्बर भी लिखा था।

    मगर मैंने दो दिन और ख़त लिखा और फ़ोन किया। आम तौर पर मैं ऐसा सुस्त हूँ और ही मग़रूर। लड़कियों की तवज्जो अपनी तरफ़ मुन्अतिफ़ करवाने की अपनी तरफ़ से मैंने बहुत कम कोशिश की है, अगर करूँ भी तो दिलचस्पी क़ायम रखने की ख़ातिर को हद से तजावुज़ नहीं करता मगर फिर भी वाजिबी इल्तिफ़ात का क़ाइल हूँ। इस ख़त को पढ़ कर मुझे तुम्हारी मुस्कुराहट याद आई, तुम्हारा सरापा और दुपट्टे से ढका तुम्हारा सर, तुम्हारी झुकी हुई झालर की सी लम्बी सियाह पलकें और तुम्हारा वो सहमा-सहमा सा अन्दाज़ याद आया। और फिर मैंने सोचा कि तुम ऐसी बेबस जो उस रात लग रही थीं, अस्ल में कुछ और हो। तुम्हारी सूरत की बस गिनी-चुनी लड़कियाँ ही सारे शह्‌र में हो सकती हैं। फिर तुमने ये नवाज़िश-ओ-करम क्यों शुरू किया समझ में कुछ नहीं आया।

    कई बार मैंने नम्बर मिलाया और फिर फ़ौरन इरादा बदल दिया। ये बात नहीं कि मैं तुमको अपनी तरफ़ मुल्तफ़ित करना चाहता था। यूँही जाने क्यों जी नहीं चाहता था कि मैं बात करूँ। पता नहीं क्या था जो राह में हाइल था। मैं मुश्किल-पसन्द भी नहीं हूँ और लड़कियों का तआक़ुब करना मेरी आदत भी नहीं फिर भी तुम्हें फ़ोन करना मुझे अच्छा नहीं लगा। भला मैं क्या कहूँगा ये कि आपके दो नोट मिले और मैंने जवाब नहीं दिया। बिना गुनाह के ये उज़्र-ए-गुनाह मुझे समझ में नहीं आता था। फिर मैंने फ़ोन नहीं किया मगर वो सारी शाम अजीब तरह बे-कली में गुज़री। सोने के लिए लेटा हूँ तो ख़याल हुआ अब तो तुम सो गई होगी।

    दूसरी सुब्ह मैं दफ़्तर के कामों में लगा था कि तुम्हारा नोट फिर आया। अब मैं इस यक-तरफ़ा ख़त-ओ-किताबत में दिलचस्पी लेने लगा था। ज़ेर-ए-लब मुस्कुराहट से मैंने ख़त लिया, लिखा था, क़ासिद के आते-आते ख़त इक और लिख रखूँ। चन्द लम्हों तक मैं सन्न बैठा रहा। उस ख़त में पता था और ही फ़ोन। मैं तुम्हारा फ़ोन नम्बर और पता याद करने की कोशिश करता मगर कुछ याद नहीं आया। झुँझलाहट और अजीब बे-चारगी का एहसास हुआ। रात को सोने की कोशिश करता तो नींद आती। बीवी ने पूछा, क्या है बे-चैन क्यों हो क्या कोई दफ़्तरी परेशानी है।

    नहीं भई कोई परेशानी नहीं। मैंने क़तअन उसकी हमदर्दी का कोई नोटिस नहीं लिया बल्कि ज़रा-सा ग़ुस्सा मुझे आया। उस पर नहीं अपने आप पर कि एक ज़रा सी लड़की ने जो दो दफ़ा महज़ दिल लगी की ख़ातिर आपको ज़रा-ज़रा से शेर लिख दिए तो दीवाने होने लगे। अपनी चोरी पकड़ी तो शर्मिन्दगी भी हुई और ग़ुस्सा भी आया। हालत ये हो गई कि फ़ोन की घण्टी बजी और मेरा दिल धड़कना शुरू हो गया। एक हफ़्ते के बाद जब मैं मायूस होकर तुम्हारा वुजूद भूलता जा रहा था, तुमने फ़ोन किया। मुझे ख़याल तक नहीं था कि ये तुम होगी। मैंने रिसीवर उठाया है तो तुमने कहा था।

    आपको लिखना नहीं आता क्या? तुम्हारी आवाज़ में अजीब तरह की मुलायमियत थी, अलम से भरी हुई और रजीदा करने वाली। मैंने कुछ लम्हों तक जवाब नहीं दिया। मेरे पास कुछ लोग बैठे थे। फिर मैंने कहा, मैं मसरूफ़ हूँ बेहतर होगा अगर आप पन्द्रह मिनट बाद फ़ोन करें। वो सारा दिन फ़ोन का इन्तिज़ार करता रहा। दफ़्तर में देर तक बैठा रहा ये सोच कर कि शायद तुम फ़ोन करो। मुज़्महिल सा और उदास-उदास घर लौटा। शाम को बादल थे और ख़ास चहल-पहल थी, रौनक़ थी और दुनिया बड़ी हसीन लग रही थी। बच्चे मुसिर हुए कि उन्हें सैर करा लाऊँ। बीवी ने कहा कि कई दिनों से तुम इतने उदास हो रहे हो चलो आज बाहर चलें घूम भी आएँगे और मुझे एक सहेली के हाँ जाना है, वहाँ से होते हुए आएँगे। बा-दिल-ए-ना-ख़्वास्ता सबको मोटर में लाद कर चला।

    जिन साहब के हाँ जाना था वहाँ कोई पार्टी हो रही थी। बहुत लोग जमा थे। साहब-ए-ख़ाना मसरूफ़ थीं उनकी लड़की बाहर आई। तुम में इतनी मिलती हुई कि मैं देखता रह गया। जब उसने कहा, अंकल आप नहीं उतरेंगे? तो मैंने हड़बड़ा कर कह दिया कि नहीं मैं आगे जा रहा हूँ। वापसी में बच्चों को ले लूँगा। शाम लहू-रंग हो रही थी। बादल छुट गए थे और बड़े-बड़े सुर्ख़ पहाड़ों की तरह लगते थे। लोग ख़ुशियाँ मना रहे थे। मौसम की ज़रा सी तब्दीली तबीअत पर भी असर-अन्दाज़ होती है। टोलियों में बटे जवान लड़के गिटार बजा रहे थे। मोटरों में भर कर समुन्दर की तरफ़ जाते हुए गाते हुए अजीब हंगामा था। लाहौलवला-क़ुव्वत मैं भी क्या दीवाना आदमी हूँ, अतिया बेगम की वज्ह से कोई शय यानी कि अच्छी ही नहीं लग रही। अजीब बे-हंगम ख़यालात हैं ज़रा-सा किसी ने तवज्जो दी और आप बस गए। यही आपका कैरेक्टर है जिसका डंके की चोट आप ऐलान करते हैं। मैं अपने आपसे शर्मिन्दा होता रहा।

    दूसरे दिन-रात की सरज़निश करने की वज्ह से तबीअत बहुत हद तक ठीक थी। फ़ोन की घण्टी बजने पर मुझे फ़ोन का इन्तिज़ार नहीं था। आम हालात में तुमसे मिलने से पहले मैं जैसा था वैसा ही था। आराम से काम कर रहा था। चपरासी ने ​िचक उठाई और तुम अन्दर आईं। वो कुछ देर खड़ा रहा। मैंने अपने आप पर गि​िरफ़्त मज़बूत करके एक कुर्सी की तरफ़ इशारा किया और तुम बैठ गईं। तुम्हारी मुस्कुराती हुई आँखें आज भी याद आती हैं तो मुझे अपनी वो इस लम्हे की घबराहट याद आती है। ब-ज़ाहिर मैं काम में मसरूफ़ था मगर अपने आपको लानत-मलामत कर रहा था। आख़िर मैं इतना कमज़ोर क्यों हो गया था। कमज़ोर और बे-वक़ूफ़ और पागल। किसी का फ़ोन आया जिससे मुझे ख़ास तक़्वियत हुई। मैंने सोच लिया कि मैं तुम्हें किसी रेस्टोरान में ले चलता हूँ। चाय पिलाऊँगा और समझाऊँगा कि ज़रा-ज़रा सी लड़कियाँ ग़ालिब के अश्आर का ग़लत इस्ते’माल नहीं किया करतीं।

    अजीब सर-परस्ताना अन्दाज़ से मैंने कहा, चलो बीबी तुमको किसी कैफ़े में चाय पिलाएँ। और यही मेरी ग़लती थी। अगर उस घड़ी तुमसे दफ़्तर में बात करके तुमको रुख़्सत कर देता तो नौबत यहाँ तक पहुँचती। चपरासी से मैंने कहा काम से जा रहा हूँ आध घण्टे में लौट आऊँगा। बैठे हुए मैंने अपने साथ वाली सीट का दरवाज़ा तुम्हारे लिए खोल दिया और ख़ुद ड्राइवर पर जा बैठा। मोटर चली है तो तुमने कहा, किस मुँह से शुक्र कीजिए इस लुत्फ़-ए-ख़ास का। मैं इस क़दर तेज़ी से किसी तक़रीर करने के लिए तय्यार नहीं था। मैं नासेह नहीं हूँ मगर फिर भी मैंने कहा, लगता है ग़ालिब के अश्आर आपको ख़ूब याद हैं।

    तुमने मोटर चलाते हुए मेरे हाथ को ज़ोर से पकड़ लिया और कहा, आप मुझे बच्चा क्यों समझते हैं। मैं अठारह साल की कब से हो चुकी हूँ और बी.ए. में पढ़ती हूँ। आपने मुझे क्या समझा है कि मेरे ख़तों का जवाब नहीं देते, मुझसे फ़ोन पर बात नहीं करते, आप कौन होते हैं इस तरह मेरी बे-इज़्ज़ती करने वाले?

    लाहौल-वलाक़ुव्वत। मैंने दिल ही दिल में कहा था और ब-ज़ाहिर तुमसे अपना हाथ छुड़ाने के लिए कहा था, बीबी तुम मेरी बेटियों के बराबर हो और फिर ख़तों में ऐसी कौन सी बात थी जिसका जवाब मैं ज़रूर देता। इसके अलावा मैं आपको क़त्अन नहीं जानता। मैं फ़ोन पर आपसे क्या कहता।

    आप ग़लत कह रहे हैं और झूट बोल रहे हैं। आपको दिनों मेरे फ़ोन का इन्तिज़ार रहा होगा और ख़त का भी। मैं आपकी बेटियों के बराबर ज़रूर हूँ मगर आपकी बेटी नहीं। आप मुझसे ये बुज़ुर्गाना मुशफ़िक़ाना बरताव ही करें तो बेहतर है। आज मैं शिकस्त देने या हार मानने आई हूँ। और मैं आपके साथ किसी रेस्टोरान में नहीं जा रही, मुझे क्लिफ़्टन या किसी और जगह ले चलिए। मुझे आपसे बहुत कुछ कहना है। समझे आप।

    मैंने मोटर क्लिफ़्टन की तरफ़ मोड़ ली। सारा रास्ता तुमने कोई बात नहीं की। तुम्हारे साँस लेने से पता चलता था कि तुम हाँप रही हो जैसे बहुत दूर का सफ़र तय करके आई हो। मैं पिंजरे में बन्द परिन्दे की तरह महसूस कर रहा था जैसे भाग-भाग कर थक कर कोई सय्याद के आगे अपने आपको बेबस पाए। मैंने जी में कहा, क्या ज़ोरदार लड़की है और किस क़दर जुरअत-मन्द। मैं तुम्हारी हिम्मत की तारीफ़ किए बग़ैर नहीं रह सका।

    हम समुन्दर के किनारे तक एक-दूसरे से कुछ कहे बिना चले गए, जैसे तुम्हें मुझसे कुछ कहना हो। मैंने कहा, अतिया बेगम! मेरा ख़याल है, यही आपका नाम है, कहिए आपको मुझसे क्या कहना है? तुम फिर भी चुप रहीं। मैंने कहा, भाई आख़िर कब तक समुन्दर के किनारे टहलेंगे आप तो कह रही थीं कि आपको मुझसे बहुत कुछ कहना है बोलिए तो सही। तुमने मेरी तरफ़ देख कर कहा, पुर्सिश है और पा-ए-सुख़न दरमियाँ नहीं। मैंने कहा, अतिया बीबी! आप मेरे लिए बिल्कुल अजनबी हैं, मैं बाल-बच्चों वाला आदमी हूँ आपकी क्या ख़िदमत कर सकता हूँ। बता दें तो मेहरबानी होगी।

    थोड़ी दूर तक और हम ऐसे ही चलते गए। मैं हैरान था कि अब जाने आगे ये लड़की क्या करे मगर तुमने पलट कर अपने बाज़ू मेरी कमर के गिर्द हमाइल कर दिए और अपना सर मेरे सीने पर रख कर रोने लगीं। तुम्हारी गिरिफ़्त इतनी मज़बूत थी कि मैं अपने आपको छुड़ा नहीं सकता था और मैंने निहायत आहिस्तगी से तुमको अपने से अलैहिदा करने की कोशिश भी की मगर तुम और मज़बूती से अपनी बाँहों का हल्क़ा मेरे गिर्द तंग करती गईं। तुमने इस तरह सिसकियाँ भरते हुए कहा था, मैं अठारह साल की जवान औरत हूँ, बच्चा नहीं मेरे सर पर हाथ मत फेरें।

    ब-ख़ुदा ज़िन्दगी में इस घड़ी से ज़ियादा मैंने कभी अपने आपको ख़ाली-उज़-ज़ेह्‌न नहीं पाया। मैं सोच नहीं सकता था कि ये सब कुछ मेरे साथ हो रहा है। मैं जो एक ज़िम्मेदार, ज़िम्मेदार अफ़सर और ज़िम्मेदार बाप था, जिसकी शौहर-परस्ती मशहूर थी और जिसकी आँख-मिचौली भी इस क़दर बे-ज़रर होती थी कि क़िस्से नहीं बन सकते थे। मैंने देखा दूर-दूर तक साहिल पर किसी आदमी का पता नहीं था। हो सकता है शर्म के मारे मेरा बुरा हाल हो जाता। मैंने कहा ना कि तुम मेरी ज़िन्दगी में पहली लड़की नहीं थीं मगर फिर भी तुम्हारी निसाइयत कहाँ गई थी और मैं किस तरह से गि​िरफ़्तार था। तुम्हारे और मेरे क़दमों के निशानात पर जाने कितने लोग इन्हीं राहों पर चले होंगे। हो सकता है मैं ही पहला आदमी था जो इस तरह से पकड़ा गया।

    तुम्हारी सब हरकात में तो बनावट थी और ही वो सादगी जो पागल-पन कहलाती है। फिर मेरे सीने से लगी-लगी तुम मुस्कुराईं। तुम्हारी आँसुओं से भीगी मुस्कुराहट जिसमें रिया थी और शोख़ी। सादा सी एक बे-बस लड़की की अलम-ज़दा हँसी। और यही तुम्हारी अलम-ज़दा हँसी थी जिसने मुझे जीत लिया। इस शाम मैं घर आया हूँ तो बीवी ने कहा, आज तुम कहाँ थे, बच्चे को चोट आई थी, मैंने बार-बार दफ़्तर फ़ोन किया, पता चला तुम आध घण्टे का नोटिस दे कर चले गए हो और लौट कर नहीं आए। मैं हैरान कि तुम्हें कहाँ तलाश किया जाए।

    यूँही एक पुराने दोस्त मिल गए, उन से बातें करते रहे, पुराने दिनों की बातें दिल को अजीब तरह अपने शिकंजे में लेती हैं। मगर मैंने आँख उठा कर बीवी की तरफ़ नहीं देखा। सोने के लिए लेटा हूँ तो जी चाहता चुप हूँ, किसी से बातें किए चला जाऊँ। मगर एहसास-ए-गुनाह भी दूर दिल के गोशे में था। भला बच्चे को चोट आई हो और मैं कैसा बाप था जो साहिल-ए-समुन्दर पर बैठा था।

    कुछ दिनों फिर तुम्हारा फ़ोन आया और ही कोई ख़त। मैं मुज़्तरिब, बेचैन तुम्हारी ख़ुशबू को अपने सीने में अमानत के बोझ की तरह छिपाए अपने कामों में लग गया। तुमसे मिलने का कोई तरीक़ा नहीं था और तुमसे बात कहीं हो नहीं सकती थी। तुम जाने कौन मख़्लूक़ थीं कि ग़ायब हो गई थीं। पन्द्रह दिन... इज़्तिराब, उम्मीद-ओ-बीम के पन्द्रह दिन, तुम्हारी किसी ख़बर के बिना पन्द्रह दिन गुज़र गए तो तुम्हारा फ़ोन आया।

    मेरा एक कज़िन आया हुआ है, उसकी वज्ह से आना हो सका है और ही फ़ोन। मैंने शिकायतन कहा, कम से कम तुम फ़ोन तो कर सकती थीं। और तुमने कहा था, इन्तिज़ार का अलमिया ये है कि वो सब को यूँही परेशान करता है। अगर आप कहें तो मैं आपसे मिलने आऊँ और कज़िन को भी साथ लाऊँ। ख़ैर मैं आऊँगी। और खट से फ़ोन बन्द कर दिया।

    मैं रिसीवर हाथ में लिए बैठा हुआ एक ऐसे उल्लू की तरह लग रहा था जिस पर सारी दुनिया हँसती हो। मुझे ख़ुद अपने ऊपर रहम आया। इन पन्द्रह दिनों की पन्द्रह बे-आराम रातों में मुझ पर क्या कुछ नहीं बीता था। मैं क्या से क्या हो गया था। मेरे अज़्म, मेरे इरादे एक अठारह साल की नौ-ख़ेज़ लड़की के हाथों बरबाद हो गए। उसका वुजूद मेरे अख़्लाक़ी नज़रियों और ख़ुद्दारी का मज़ाक़ उड़ा रहा था। मैं एक ज़र-ख़रीद ग़ुलाम की तरह उसके फ़ोन और उसकी आवाज़ के तरन्नुम को सुनने के लिए तरसता था। वो छलावे की तरह जब चाहती थी ग़ायब हो जाती थी और जब चाहती थी दिखाई देती थी। मस्नवियों के शहज़ादों की तरह मैं भटक रहा था और वो ग़ुस्सा-वर जादूगरनी जब जी चाहता था मुझे जुदाई के कुएँ से बाहर निकालती खिलाती-पिलाती और फिर मुझे उसी कुएँ में फेंक देती थी।

    जिस दिन तुम कज़िन को लेकर आने वाली थीं मैं सुब्ह से दोपहर तक दफ़्तर में हर आहट पर कान लगाए बैठा था। जब ​िचक उठती और चपरासी आता मैं सोचता ये तुम हो। फिर तुम्हारा फ़ोन आया कि तुम कॉलेज में हो किसी ड्रामा की रिहर्सल हो रही है। अगर मैं सकूँ तो तुम्हें वहाँ से ले लूँ। जिज़-बिज़ तो मैं हुआ मगर चूँकि तुम फ़ोन बन्द कर चुकी थीं इसलिए कॉलेज की तरफ़ चला। तुम आईं बाल बिखरे हुए एक अलमिया किरदार की सूरत और आकर मेरे पहलू में बैठ गईं। तुम्हारी पलकों के नीचे से मुस्कुराहट तुम्हारे रुख़्सारों पर फैल रही थी, तुम्हारे लम्बे सियाह बाल लबादे की तरह तुम्हारे गिर्द फैले थे। तुमने निहायत ख़ूबसूरत रंग का लिबास पहना हुआ था। उसका अक्स तुम्हारे चेहरे को भी रंगे देता था, जैसे ये तुम नहीं हो ज़ह्‌र का रंग हो। सब्ज़ रंग। मुझे लगा जैसे तुमने ज़हर पी रखा है और अब कोई दम में गिरने वाली हो। फिर हौले-हौले ये ज़ह्‌र मेरे रग-ओ-पै में भी सरायत कर गया।

    तुमने इतने दिनों की ग़ैर-हाज़िरी की माज़रत नहीं की, कुछ नहीं कहा। मेरे सीने पर सर रखे सिसकती रहीं। मेरा नाम लेकर पुकारतीं और मेरे सीने से लग जातीं। जैसे ये भी तुम्हारे हाँ होने वाले ड्रामे का एक हिस्सा हो और मैं भी इस ड्रामे में कोई किरदार हूँ, निहायत ग़ैर-अहम सा। अस्ल में मुझे मालूम नहीं अतिया बेगम कि तुम्हारे इस ड्रामे में जिसको मैं तुम्हारी ज़ात का अलमिया कहूँगा, मैंने कौन-सा किरदार अदा किया। बीते वक़्तों के बाईस्कोप में किरदार सिर्फ़ हरकतों से अपना आप वाज़ेह करते थे मगर मेरी सब हरकतों पर तो तुम्हारा इख़्तियार। सिर्फ़ तुम्हारा। और अब मैं तुम्हारे चुप-चाप अँधेरे में से आने और अपने साथ लग कर रोते रहने का आदी हो चला था।

    ख़ाली-उज़-ज़ेह्‌न मैं अगर चाहता कि अपने आप तुम्हारे सर पर हाथ फेरूँ, तुम्हारे बालों की ख़ुश्बू सूंघूँ, तुम्हारा भट्टी में जलता आँच देता जिस्म छू लूँ तो ये ना-मुमकिन था कि मैं मामूल था और तुम आमिल थीं। जब तुम मुझे छोड़ देतीं तो मैं तुम्हारा हाथ थाम लेता। हम सामने समुन्दर को देखते रहते। मैं बात करता तो तुम मेरे मुँह पर हाथ रख देतीं और मैं ख़ामोश गुम-सुम उसी तरह बैठा रहता। आज जब तुम्हें देखे और तुमसे मिले ज़माने हो गए हैं और मैं तुम्हारी तरफ़ से कुछ मायूस भी हो चला हूँ। मुझे आज भी मालूम नहीं कि तुम क्या हो। तुम्हारी मुलाक़ातों में इतना मौक़ा ही कब मिलता था कि तुमसे कुछ पूछा जाता।

    तुम्हारे काॅलेज ड्रामा हम भी देखने गए थे। अस्ल में मेरे दोस्त मुझे खींच कर ले गए। मैं जाना नहीं चाहता था मगर चला गया। जब-जब तुम स्टेज पर आईं, हॉल तालियों के शोर से गूँज उठता। लोग किस इश्तियाक़ से तुम्हें देखते थे। मेरे दोस्त ने कहा, रियाज़ यार देखो ये कैसी लड़की है, इस किरदार के लिए कितनी मौज़ूँ है। तुम अगर ये जानते कि वो कौन है तो उस ड्रामे का लुत्फ़ दो-बाला हो जाता। मैंने कहा, तुम उसे जानते हो क्या? मेरी आवाज़ का इज़्तिराब महसूस करके मेरे दोस्त ने सर हिला दिया मगर हैरत से मुझे देखने लगा, जैसे उस बेचैनी की थाह लेना चाहता हो। मैं शर्मिन्दा सा होकर फिर अपने सामने देखने लगा। अतिया बेगम मेरे दिल में शक ने सर उठाया।

    उस दिन मैंने ख़ास तौर पर बहुत दिन पहले से किसी ग़ैर-मुल्क में जाने वाले दोस्त से हॉक्स-बे पर उसके हट की चाबी माँग ली थी। मैं कई दिनों से तुम्हारा मुन्तज़िर था। तुमने जल्द ही में घबराहट में वैसे ही फ़ोन किया कि तुम आने वाली हो और मुझे दफ़्तर में नहीं मिलोगी बल्कि किसी बस स्टॉप से मैं तुम्हें ले लूँ। वो स्टॉप मेरी राह से बहुत दूर था, मैंने वहाँ के कई चक्कर लगाए मगर तुम नज़र नहीं आईं। जब मैं मायूस होकर जाने वाला था और लोग मुझे यूँ मोटर में घड़ी-घड़ी उस जगह के चक्कर लगाते देख कर शक-ओ-शुब्हा से देख रहे थे, तुम आईं जैसे दूर से भागती हुई आई हो और दरवाज़ा खोल कर मेरे पहलू में बैठ गईं।

    मोटर में बैठते ही मैंने पूछा, अतिया बेगम मेरे अलावा और कितने लोग आपको जानते हैं।

    आपके अलावा बहुत से लोग मुझे जानते हैं मगर ये आप क्या पूछ रहे हैं। क्या आपको मेरे सिवा और कोई नहीं जानता।

    मैंने सवाल जिस तरह से मैं चाहता था, तुमसे नहीं पूछा था और फिर हॉक्स-बे के उस हट में शाम हमारी राह देख रही थी। अभी हमें बहुत तवील मसाफ़त तय करना थी और मैं बात बढ़ाना नहीं चाहता था। हॉक्स-बे पर पहुँचते ही तुमने कहा, बस ज़रा समुन्दर के किनारे टहलेंगे फिर मैं घर जाऊँगी। मेरी अम्मी का जी अच्छा नहीं है। हवा ज़ोरों में चल रही थी, बादलों की सियाही में समुन्दर मलगजे पानी का उबलता हुआ कुआँ था। हम देर तक किनारे की गीली रेत पर नंगे पाँव चलते रहे। हाथ में हाथ दिए। बीच-बीच में तुम मेरा हाथ पकड़ कर दबातीं। मेरे सामने खड़े होकर मुझे बाज़ुओं में जकड़ लेतीं और मेरे सीने पर सर रख देतीं। और हर दफ़ा मुझे अपना साँस रुकता हुआ महसूस होने लगता। तुम्हारी गि​िरफ़्त आज की तरह इस वक़्त मुझ पर इतनी गहरी होती और मैं सोचता था इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है कि तुम्हें कितने लोग जानते हैं। इस एक लम्हे तो तुम सिर्फ़ मेरी हो।

    तुम्हारा वुजूद उस रोज़ लहरों के शोर और हवा की तुन्दी में मुझे अपने वुजूद का एक हिस्सा लगा। और फिर अब कि मेरे बालों में सफ़ेदी झलकने लगी थी तुम मुझे ऐसे सच्चे गुलाब की तरह लगीं जो मेरे ज़रा सा छूने और हाथ लगाने से अपना रंग और ख़ुश्बू खो देगा। तुम्हारी मोहब्बत ने मेरी ज़िन्दगी को नई जिला और मेरे जीने को नई उमंग बख़्शी थी। तुम्हारे गुलाबों का असर मुझ पर हो रहा था। मैं इन दिनों ख़ुशी और सरशारी की नई लज़्ज़त के साथ-साथ तल्ख़ी और बे-बसी के नए दो-राहे पर था। तुम हवा की तरह मेरे आस-पास इर्द-गिर्द मेरे वुजूद का अहाता किए थीं और मेरी पहुँच से बाहर भी।

    जब मैंने वापस जाने के लिए मोटर का दरवाज़ा खोला है तो तुम्हारा अपनी अम्मी के जी के लिए सारा इज़्तिराब रुख़्सत हो गया। तुम उसी तरह मेरे साथ लग कर खड़ी हो गईं। अगर मैं चाहता तो हम हॉक्स-बे की उस हट में रात समुन्दर के किनारे गुज़ार सकते थे मगर मैंने बहुत दिनों से पहली घड़ी से सब कुछ तुम पे छोड़ रखा था। मुझे आज भी मालूम है अगर मैं तुम्हें आसरा देता तो तुम उस हट तक पहुँच सकतीं मगर मैं तुम्हारी निगाहों के अज़्म से आज अपने आपको बचाना चाहता था। मुझे मालूम था कि तुम्हारी ख़ुद-सुपुर्दगी मेरे इशारे की मुन्तज़िर है मगर मैं तुम्हें तुम्हारे सुपुर्द भी नहीं करना चाहता था। इसलिए मैं तुम्हें वापस ले आया। वापसी में तुम बातें करती रहीं जैसे मेरी ब्याहता बीवी मेरे साथ करती थी। सियासत की, दुनिया की, मौसम की, चन्द लम्हों पहले की, साहिल-ए-समुन्दर की। अतिया मैं और तुम में कितना फ़र्क़ था। जब मैं तुम्हें तुम्हारे घर के सामने पहुँचा कर वापस रहा था तो तुमने ऐसी ज़ख़्मी नज़रों से मुझे देखा मानो मैंने तुम्हें बहुत ही ठेस पहुँचाई हो तुम्हारी बे-इज़्ज़ती की हो।

    उसके बाद बहुत दिनों तुम्हारा फ़ोन नहीं आया। मैंने तुम्हारे घर के कई चक्कर लगाए। यूँही सामने से गुज़रा चला जाता। एक-बार तुम दिखाई दीं, पाईंचे उठाए ट्यूब लिए उस इन्हिमाक से फूलों को पानी देती हुईं कि मैंने सोचा ये तुम नहीं हो कोई और है मगर तुमने आँख उठाकर बाहर की तरफ़ नहीं देखा। बस एक झलक और कुछ नहीं। इम्तिहानों का ज़माना बीत गया। मैंने तुम्हारे कॉलेज की लड़कियों को यूँ घूर-घूर कर देखा कि शायद तुम्हें देख सकूँ मगर महीनों गुज़र गए और तुम नहीं आईं। मेरे जज़्बात की पुर-शोर नदी में वक़्त ने नर्म-रवी पैदा कर दी। जाने कितने मौसम बीत गए। हाँ अतिया बेगम कितने ही मौसम बीत गए।

    दिल की दुनिया में मौसम रोज़ तो नहीं बदलते और तुम्हारे लिए मेरे जज़्बात में जो ठहराव पैदा हुआ है वो ज़मानों के गुज़रने से ही पैदा होता है। मैं तुम्हारे साथ बहुत चला हूँ, इतनी दूर तक कि मेरे पाँव में अब और आगे जाने की सकत नहीं है। मगर तुमने मुझे आगे चलाया ही कहाँ है। जब तुमसे मुलाक़ात हुई है तो तुम ज़र्द-रू और दुबली हो रही थीं। तुम्हारी आँखों में घायल हिरनी की सी अलमनाक बे-बसी थी और वो मुस्कुराहट जिसने मेरा सब कुछ हर लिया था। तुमने मुझे फ़ोन नहीं किया था। तुमने मुझे कोई इत्तिला आने की नहीं दी थी। सिर्फ़ एक नोट लिखा था, दाग़-ए-फ़िराक़-ओ-सोहबत-ए-शब की जली हुई।

    मेरा दिल उसको देख कर धड़का नहीं। मैंने सारे ख़तों से अलग उसे अपने सामने रख लिया और बहुत देर उसे पढ़ता रहा। यहाँ तक कि हुरूफ़ मेरी आँखों में धब्बों की तरह उभरने लगे। मुझे अपने चेहरे पर नमी महसूस हुई। क्या मैं रो रहा था? तुम्हारे फ़िराक़ की मुद्दत इतनी तवील और तुम्हारे वस्ल की घड़ी इतनी मुख़्तसर हुआ करती थी कि मैंने अपने आपको उस साँचे में ढाल लिया था। क्या मैं तुम्हारे लिए परेशान था।

    दफ़्तर के सामने निकलते ही तुम मुझे मिल गईं। बैठते ही तुमने मेरा हाथ थाम लिया। मैं भीड़ में मोटर चलाता रहा और तुम अपने सामने देखती हुई चुप-चाप आँसू बहाती रहीं। तुमने मेरे सीने पर इतने आँसू बहाए हैं मगर वो कैफ़-ओ-निशात के आँसू थे। दो घड़ी मिल बैठने की ख़ुशी के आँसू, जाने क्यों मुझे अपना दिल बैठता हुआ लगा। हम दोनों में से कोई नहीं बोला। हॉक्स-बे हमसे बहुत पीछे रह गया और सामने गहरा नीला बे-पायाँ बे-कराँ समुन्दर करवटें ले रहा था। लहरें ग़ुस्सा-वर देव की तरह फुंकार रही थीं। अगली मुलाक़ातों की तरह तुमने अपना सर मेरे सीने से नहीं लगाया। आज शायद तुमने कुछ भी कहने की क़सम उठा रखी थी। और मैं एक पत्थर पर बैठ गया, तुम्हारे क़ुर्ब से सरशार।

    आख़िर मेरा क्या हक़ था तुम पर। तुम्हारा वुजूद मुझे ख़ुशी देता था मेरे लिए यही काफ़ी था। मैंने तुमसे उस तवील ख़ामोशी की वज्ह नहीं पूछी। मैंने इतने दिनों में क़ुदरत की तरह तुम्हारे बदलते रंगों से मुताबिक़त पैदा कर ली थी और मुझे तुम्हारी मोहब्बत पर यक़ीन था और ही बे-यक़ीनी। तुमने पलट कर मुझसे कहा था, दुनिया में हॉक्स-बे के अलावा और कोई जगह नहीं। समुन्दर से मुझे अब ख़ौफ़ आने लगा है। क्या हम और कहीं नहीं जा सकते। मुझे इस शह्‌र की निगाहें पीस कर रख देंगी। मैं यहाँ एक लम्हा नहीं रुकना चाहती।

    ये तुम में ख़ुद-कलामी की आदत कब से पैदा हो गई। तुम तो बात करने को वक़्त की तौहीन ख़याल करती हो। मैंने पत्थर से उठ कर तुम्हारी तरफ़ आते हुए कहा। तुम मेरी टाँगों में लिपट गईं। तुम्हारे बाज़ुओं के हल्क़े में मैं काँप गया।

    मुझे यहाँ से ले चलो कहीं दूर, जहाँ ये जान को पीने वाला मौसम हो। ये समुन्दर की नमी से भरी हवा हो, ये जादू जगाती हुई लहरें होंं। तुम मुझ पर इतना एहसान नहीं कर सकते।

    मगर क्यों अतिया बेगम। मैंने बहुत हिम्मत से काम लेकर कहा, समुन्दर को शुरू से तुमने मुन्तख़ब किया है और मैं सोचता हूँ ये ठीक ही है।

    तुम सोचते हो! तुम सोचते हो! तुम कुछ नहीं सोच सकते। तुमने सोचा एक जवान औरत तुम्हारी झोली में गिरी है। तुमने कभी मुझसे मुलाक़ात का इश्तियाक़ ज़ाहिर नहीं किया। मैं आऊँ या आऊँ तुम्हें इससे क्या। तुम्हें मेरा वुजूद पत्थर के टुकड़े की तरह लगता है ग़ैर-अहम और ला-यानी, बेकार। सच कहना मेरी ग़ालिब-पसन्दी तुमको खेल नहीं लगती? तुमको क्या पता ख़ून-ए-जिगर होने तक आदमी पर क्या बीत जाती है।

    तुम बैठे से खड़ी हो गईं।

    मैंने तो ऐसा तुमको सताने का कोई काम नहीं किया अतिया बेगम। मैं तो चराग़ का जिन हूँ जब-जब तुमने मुझे पुकारा है तुम्हारी आवाज़ पर लब्बैक कहा है। ये तुम्हारी मुझसे ग़ालिबन चौथी मुलाक़ात है और मैं ख़ुद भी सोचता हूँ कि ये हालत ज़ियादा दिनों नहीं चल सकती। तुम मुझसे क्या चाहती हो, मुझे बता दो तो शायद राह आसान और ज़िन्दगी में कुछ सुकून हो। और अब हालत ये है कि तुम मेरी और अपनी दोनों की मालिक-ओ-मुख़्तार हो। और अतिया तुमने कहा था, ये राह हम दोनों ने चुनी है। तुमको मुझसे शिकायत करने का कोई हक़ नहीं।

    हम बरसों से साथ रहने वाले दोस्तों की तरह एक-दूसरे पर इल्ज़ाम धर रहे थे। अतिया तुम अठारह साल की जवान औरत थीं और मैं तुम्हारे क़दमों के निशानों पर कितनी दूर निकल आया था। ये तुम्हारे क़दमों के निशान ही थे वर्ना तुम मेरी मंज़िल थीं, मैं तुम्हारा सहारा था।

    ठीक है। मैंने कहा, मैं शिकायत नहीं कर रहा, मैं सिर्फ़ उस सूरत-ए-हाल की बात करता हूँ। तुम्हारा ख़याल है। मेरी बात ख़त्म होने से पहले ही तुमने कहा था, मुझे सहारे की ज़रूरत थी और तुम मेरा सहारा बनना नहीं चाहते। तुमको मुझसे क़तअन कोई दिलचस्पी नहीं। ये मेरी और तुम्हारी आख़िरी मुलाक़ात है। मैंने तुम्हें दिल-ओ-जान से चाहा है तुम मुझे नहीं चाह सके ये मेरी बद-क़िस्मती है और मैं क्या कहूँ?

    फिर तुम मुझसे मुँह मोड़ कर मोटर में जा बैठीं और मैं तुम्हें वापस ले आया। अतिया बेगम मैं आज इस अकेली रात में जब कहकशाँ है और तारे, इक़रार करता हूँ अतिया बेगम कि मैंने तुम्हें चाहा था। और मेरा दिल तुम्हें देख-देख कर बहुत जला है। जब मुझसे रूठ जाने के बाद ज़ाहिर तुम कभी मुझे नहीं मिलीं मगर अक्सर तुम दूसरों के पहलुओं में औरों की मोटरों में ग़ैरों के साथ मुझे दिखाई दी हो।

    जाने तुमने मुझसे क्या चाहा था? मगर अतिया मैं तुम्हारी हिम्मत की वज्ह से तुम्हारी इज़्ज़त करता हूँ और तुम्हारी जुर्रत ने कभी मुझे आगे क़दम बढ़ाने का हौसला नहीं दिया। मैंने सदा तुमसे तुम्हें बचाना चाहा है। मैंने अपने आपसे भी तुम्हें बचाया है। तुम मेरी अमानत हो अतिया जो मैंने दुनिया को सौंपी है। तुमको क्या मालूम मैंने उन घड़ियों को जब तुम मेरे सीने से लग कर सिसकती थीं कैसा सँभाल कर रखा है, उस उलूहियत को बरबाद नहीं कर सकता था। उन लम्हों की क़ीमत तुम हो और मैं। हो सकता है हम कुछ दूर साथ चलते। मेरा मतलब है कुछ दूर और मैं तुम्हारे क़दमों के निशानों पर चलता मगर चाहतें मंज़िल नहीं बन सकतीं अतिया बेगम। ये तो ज़िन्दगी की राह पर चलने वाले दिए हैं जिनकी रौशनी में राह तय होती है भला मैं इस यख़-बस्ता बे-रहम दुनिया में तुम्हारे वुजूद की रौशनी में कितनी दूर चल सकता था? और कौन जानता है इसकी मंज़िल कहाँ है?

    मगर जब भी ना-मालूम ख़ुश्बुएँ मुझे घेर लेती हैं, मैं अकेला होता हूँ तो मुझे याद आती हो अतिया बेगम, घास में से झाँकते अकेले फूल की तरह, मग़रिब के आसमान पर चमकते हुए तारे की तरह।

    स्रोत:

    नया दाैर, कराची (Pg. 69)

      • प्रकाशक: सनाउल्लाह
      • प्रकाशन वर्ष: 1967

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