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अंगड़ाई

मुमताज़ शीरीं

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मुमताज़ शीरीं

MORE BYमुमताज़ शीरीं

    स्टोरीलाइन

    एक ऐसी लड़की की कहानी जो अपनी प्रोफे़सर की मोहब्बत में मुब्तिला है। पूरे कॉलेज में उनके मुआशिक़े का ज़िक्र होता रहता है। इसी दरमियान लड़की के घर वाले लड़की की मंगनी कर देते हैं, फिर भी लड़की अपनी प्रोफे़सर की मोहब्बत को भूल नहीं पाती। धीरे धीरे अपने होने वाले शौहर की याद और मर्द की दिलकशी ख़ातून प्रोफे़सर में उसकी दिलचस्पी को ख़त्म कर देती है।

    आपा, गुलनाल आपा! वो देखो मुझ फ़ना... जावेद नन्हे-नन्हे हाथों से मेरी सारी खींच रहा था।

    अरे हट भी, जब देखो आपा-आपा... देख तो मेरी सारी का नास किए दे रहा है। सफ़ेद सारी कल ही तो पहनी थी और ये धूल में अटे हुए हाथ! मिट्टी से खेल रहा था क्या बदतमीज़! मैंने ग़ुस्से से उसके हाथ झटकते हुए कहा। इसने रोनी सूरत बना ली। नहीं तो आपा... मुझ फ़नांछ हमाले लोड पल... उसने सिसकते हुए कहा, उन्हें बुलाओना... मच्छ फ़नांछ कितनी अच्छी हैं। उच्छ दिन मुझे केक दिया था औल को-को... की छी छी कोको... आपा उन्हें बुला लो अच्छी आपा।

    अरे! मैं चौंक पड़ी। मिस फ़िनांस यहाँ! मैंने दरीचे की तरफ़ निगाह डाली, हाँ वो सचमुच कुछ दूर पर किसी औरत से बातें करती हुई आरही थीं, तो उन्हें बुला लूं? मैंने सोचा। फिर जल्दी से कमरे का जाइज़ा लेने लगी। किताबें बिखरी हुई और फ़र्नीचर! एक कुर्सी दीवार की तरफ़ मुँह किए कोने में पड़ी है। तो एक कमरे के ऐन बीच में, गोया अपनी पॉलिश से बे-नियाज़ी पर नाज़ाँ बैठी हो और सोफ़ा! हुँह, ये बड़ा सा सुराख़ और उसमें से मैली-मैली रूई झाँकती हुई... टेबल क्लॉथ? उसपर तो जावेद ने बड़े ही ख़ुशनुमा नक़्श बना रखे हैं और सियाही के बरतने में तो बड़ी फ़य्याज़ी दिखाई है। मेरे अल्लाह! एक चीज़ भी सलीक़े की है? उफ़ किस बदतमीज़ ने फ़र्श पर काग़ज़ बिखेरे हैं? ऐसे शरीर बच्चे भी किसी के होते हैं? और ये धूल की एक इंच मोटी तह! ये करीमन भी कहाँ मर गई? कमबख़्त से ये भी नहीं होता कि सुबह-सुबह कमरों में झाड़ू दे दिया करे।

    करीमन! करीमन, ज़रा झाड़न लेती आना! क्या तुमने ये धूल बेचने के लिए जमा कर रखी है?

    आई बीबी! अभी आई। ज़रा तवे से रोटी तो उतार लूँ, जल जाएगी। भाड़ में जाए वो और उसकी रोटी। कमबख़्त हर वक़्त चूल्हे में घुसी रहती है... आख़िर मैं क्यों इतना जल रही थी। मुझे ख़ुद शर्म आने लगी। बेचारी ग़रीब क्या करे एक ही तो थी और घर का सारा काम उसी के सर। हम ऐसे कोई अमीर तो थे कि दस नौकर रखते, एक भी ग़नीमत है।

    मैंने जल्दी से टेबल क्लॉथ बदला और कुर्सियों को अपनी-अपनी जगह घसीट कर फ़र्श पर बिखरे हुए काग़ज़ समेटने लगी। समेटते-समेटते उठ कर खिड़की पर नज़र डाली तो मेरी साँस जैसे रुक गई। उफ़ मिस फ़िनांस कितनी नज़दीक आगई थीं! ज़किया! ज़ुबैदा! मैं हलक़ फाड़ चिल्लाई, जवाब नदारद! दरवाज़े में जाकर देखा तो बस जल ही गई। दोनों आँगन में मौजूद! ज़किया जावेद को उठाए खड़ी थी तो ज़ुबैदा गेट पर चढ़ी हुई गर्दन बढ़ा-बढ़ा कर मिस फ़िनांस को देखने की कोशिश कर रही थी।

    ज़किया! कुछ मदद भी करोगी? शर्म नहीं आती तुम्हें यूँ बाहर खड़ी हो।

    ख़फ़ा क्यों होती हो आपा! मैं हमेशा गेट में थोड़े ही खड़ी होती हूँ? यूँही आज... फिर वो मेरे फूले हुए चेहरे को देख कर हंस पड़ी,अख़ाह, आपा! आज तो आपके ग़ुस्से का पारा सौ डिग्री पर चढ़ा हुआ है। अहाहा, अभी उतारे देती हूँ। अपनी आपा का टेम्प्रेचर। देखो ना, ऐसे मज़े की बात बताऊँगी। मुँह बनाकर ताली बजाते हुए, बता दूँ आपा? ओ... ऊँ ... मिस फ़िनांस यहाँ से गुज़र रही हैं।

    ये तो मालूम ही है, अच्छा आओ ज़रा कमरे को साफ़ करने में मदद दो, तुम्हें तो बस बातें ही आती हैं। मैंने बे-परवाई से कहा।

    तो आपा मिस फ़िनांस को बुलाओगी? उसने ख़ुशी से उछलते हुए कहा। ज़ुबैदा भी नाच रही थी। ओह! अभी तक ये बच्चे मिस फ़िनांस को इतना चाहते हैं!

    ज़किया फिर दरवाज़े की जानिब तकने लगी। मैं भन्ना गई। काग़ज़ सारे कमरे में फैले पड़े थे।

    हुँह! मैं नहीं बुलाऊँगी! देखो तो घर कितना साफ़ है। मैंने झुँझलाकर समेटते हुए काग़ज़ों को ज़मीन पर दे मारा।

    क्या कह रही हो आपा? ज़किया ताज्जुब से मेरा मुँह तकने लगी। मैंने उसकी तरफ़ तवज्जो किए बग़ैर ज़ुबैदा को पुकारना शुरू किया,ज़ुबैदा! जाओ अंदर।

    क्यों आपा? ज़ुबैदा ने अंदर आते हुए पूछा।

    जाओ! अगर मिस फ़िनांस तुम्हें देख लें तो उन्हें मालूम हो जाएगा कि ये हमारा ही घर है और वो यक़ीनन मुझसे मिलने आएँगी। मैंने जावेद को भी अंदर घसीटते हुए जवाब दिया।

    ये तो और अच्छा होगा, वो क्यों आएँ आपा?

    गोया तुमने घर को बहुत अच्छी तरह सजा रखा है!

    हम अभी सब ठीक कर देंगे उन्हें आने दो आपा! दोनों ने निहायत इश्तियाक़ से इल्तिजा की।

    कह जो दिया कि नहीं बुलाएंगे।

    और आपा! मिस फ़िनांस! और इतने दिनों के बाद उन्हें देखना नसीब हुआ। आख़िर तुम्हें कालेज छोड़े हुए दो तीन माह हो गए ना? इतने दिनों बाद इत्तिफ़ाक़न वो ख़ुद हमारे शहर में आएँ, हमारे घर पर से गुज़रें और तुम...! तुम उन्हें बुलाओ। आपा तुम तो मिस फ़िनांस पर, ज़किया संजीदा लहजे में कहती-कहती यकायक ज़ोर से हंस पड़ी और शरारत आमेज़ नज़रों से मेरी तरफ़ देखने लगी।

    हूँ! अच्छा मैं जान गई... जब से परवेज़ भैया...

    अरी चुप! बहुत बातें बनाने लगी है। मैंने ज़ोर से उसके एक चुटकी ली।

    हुँह आपा! तुम बहुत बनती हो। अभी देखो ना परवेज़ का नाम आते ही कैसे शर्मा गईं। मैं यूँही शर्माती लजाती, सिमटी सिमटाई सब कुछ भूल कर वहीं खड़ी रही गोया इस नाम ने मुझपर जादू कर दिया हो। कैसा हसीन नाम है। कितना प्यारा नाम है! परवेज़!

    मैं उस शीरीं तसव्वुर से चौंकी तो सामने क्या देखती हूँ, दरवाज़े के किवाड़ खुले पड़े हैं, पर्दा हवा से उड़ा जा रहा है और मिस फ़िनांस हमारे घर के बिल्कुल मुक़ाबिल में खड़ी मुझे टकटकी बाँधे देख रही हैं। जूँही मैंने उन्हें देखा वो मुस्कुराकर हमारे घर की तरफ़ बढ़ने लगीं।

    या अल्लाह! अब क्या किया जाए? मैं ज़किया को झिंजोड़ने लगी,अब तुमही सब कुछ देख लो। देखो वो रही हैं। मैं बेतहाशा वहाँ से भाग खड़ी हुई और अपने कमरे में जाकर दम लिया। कुछ देर के बाद मैंने झाँक कर देखा मिस फ़िनांस बरामदे के बाज़ू वाले कमरे में कुर्सी पर बैठी थीं और ज़किया एक ख़ुशनुमा बरतन में केले और संगतरे लिए हुए उनके पास खड़ी थी,गुलनार को बुलाओना। मिस फ़िनांस कह रही थीं, अचानक उन्होंने मुझे झाँकते हुए देख लिया और मुस्कुराकर आवाज़ दी, गुलनार! मैं शर्माकर दरवाज़े की ओट में होगई... मेरे यूँ शर्मा जाने से वो क्या समझी होंगी? यही ना कि मेरे जज़्बात उनकी तरफ़ अब भी ऐसे ही हैं। हुँह! उन्हें क्या मालूम कि मैं अब... मगर उन्हें ये ग़लतफ़हमी ज़रूर होगी। मैं पहले तो उनके सामने यूँही शर्माया करती थी। जब वो कहीं से निकलतीं तो मैं भागकर कहीं जा छुपती। वो मेरी तरफ़ देखतीं तो दोनों हाथों में मुँह छुपा लेती, गो दिल तो यही चाहता कि वो यूँही देखती रहें। अजीब लड़की थी कुछ साल पहले! रफ़्ता-रफ़्ता मैं उनसे खुल कर बात करने लगी थी। फिर भी जब कभी उनसे अचानक मुड़भेड़ हो जाती तो मेरी बदहवासी पूछिए। वो दिन भी क्या दिन थे! छुट्टी होने पर कालेज के बरामदे में घंटों उनका इंतज़ार करना मेरा मामूल था। हफ़्ते भर में जिस दिन उनका घंटा होता वो दिन किस क़दर मनहूस दिखाई देता था! हाँ मैं उनपर मरती थी, उन्हें दीवानगी की हद तक चाहती थी और लड़कियाँ कैसे मुझे तंग करती थीं गुलनार! जाने तुम क्यों मिस फ़िनांस पर मरती हो वो कौन सी ऐसी हसीन हैं कि बल्कि उन्हें बदसूरत भी कहा जाए तो बेजा होगा। जी चाहता उन चुड़ैलों के मुँह नोच लूँ। उन्हें क्या मालूम कि वो मुझे कैसी हसीन नज़र आती थीं! दूसरी लड़कियाँ तो क्या मैं ज़रीना से भी उस दिन ख़फ़ा होकर रूठ गई थी, गो ज़रीना मेरी सबसे प्यारी सहेली थी। हाँ उस दिन मैंने काली साढ़ी पहन रखी थी और प्रभा से सादो मांग कर सियाह, बोटो, भी लगाया था। मैं और ज़रीना हॉस्टल के काम्पोंड में टहल रहे थे। इंद्रा भी कहीं से निकली, अहा, आज तो तुम बला की हसीन नज़र आरही हो गुलनार! मिस फ़िनांस की सी? मेरे मुँह से बे-इख़्तियार निकल गया था। हुँह! मिस फ़िनांस! ज़रीना ने तंज़ से कहा था,मिस फ़िनांस! वो तीन दफ़ा मरकर जन्म लें तो शायद तुम्हारा हुस्न उन्हें नसीब हो! मुझे कितना ग़ुस्सा आया था उस पर,ओह रूठ गई गुल? अच्छा भई वो तुझसे पाँच गुना ज़्यादा हसीन हैं! ख़ुश हो गई अब तो? फिर वो क़हक़हा पर क़हक़हा लगाने लगी और इंद्रा भी मुस्कुराने लगी। जी में आया ज़रीना से लड़ पड़ूँ, आख़िर वो कौन हुई मिस फ़िनांस की तौहीन करने वाली! यहाँ मेरा जी जल रहा है और वो यूँ खड़ी हंस रही है! अगर एक बात भी उनके ख़िलाफ़ कही जाती तो मैं ज़रीना से तो क्या कालेज भर की लड़कियों से लड़ने के लिए तैयार थी। भला मैं एक ही थी कई लड़कियाँ मेरा साथ देतीं और भी तो बहुत सी लड़कियाँ उन्हें चाहती थीं।

    ललिता, ग़रीब लड़की वो तो मुझी को उनकी मोहब्बत का हक़दार समझती। मेरे रास्ते में कोई रुकावट पैदा करती बल्कि मिस फ़िनांस को मुझसे मोहब्बत करते देख कर और ख़ुश होती। कैसी बे-लौस लड़की थी! उसके बर-ख़िलाफ़ वो लक्ष्मी! हसद की पुतली! क्या-क्या जतन करती थी कि मिस फ़िनांस की तवज्जो मेरी बजाय उसपर हो। जाने कहाँ से लाती थी ऐसी ख़ूबसूरत सारियाँ और उन्हें किस सलीक़े से पहनने की कोशिश करती। झूटे मोतियों से तरह-तरह के ज़ेवर बनाकर पहना करती और बाद में तो उसने बर्क़ी मशीन से अपने बालों को घुंघरियाले भी बना लिया था, हुँह। इन सब जतनों से क्या होता वो हसीन तो थी नहीं। मिस फ़िनांस मुझी को देखा करतीं। वो जल मरती। मिस फ़िनांस के ख़ास सब्जेक्ट पर तो वो दुनिया भर की किताबें पढ़ती। मगर कहीं मुझसे अच्छा लिख सकती थी! मुझसे ज़्यादा नंबर भी कभी लिये थे? आख़िर कुछ बन पड़ता तो मुझसे ख़ूब जला करती और हमेशा इसी कोशिश में लगी रहती कि ऐसी बातें करे जिनसे मेरे दिल को ठेस लगे, ये देख कर कि मैं हसीन समझी जाती थी वो कैसे कुढ़ती थी। कहा करती,हुँह! सुर्ख़ सफ़ेद रंग के बग़ैर भी कोई हसीन कहा जा सकता है। दराज़ क़द और छरेरा बदन तो हुस्न के ज़रूरी जुज़्व हैं। वो ख़ुद भी गोरी तो थी लेकिन थी दराज़ क़द और दुबली-पतली मगर उसके छरेरे बदन में ख़ाक भी हुस्न था। वो ऐसे दिखाई देती थी गोया एक लाँबी सी लकड़ी को तराश कर साफ़ कर दिया गया हो, वो बदन के दिलकश नशेब-ओ-फ़राज़, कोई लचक, कोई अदा, चपटी बेजान लकड़ी! जी चाहता मुँह तोड़ जवाब दूँ, हुँह! ख़ूबसूरती के लिए दिलकश नक़्श सबीह रंग से ज़्यादा ज़रूरी हैं और भरा हुआ गोल बदन इतना ही ख़ूबसूरत होता है जितना नाज़ुक जिस्म बल्कि इससे कहीं ज़्यादा दिलकश। मगर मुस्कुराकर चुप हो रहती और ये ज़ाहिर होने देती कि मैं उसके तान को समझ गई हूँ। कभी वो किसी की गोरी रंगत वाली लड़की को दिखाकर कहती,देखो गुलनार वो लड़की कैसी हसीन है। और उसकी बताई हुई लड़की, इतनी बदसूरत, इतनी करीह सूरत होती कि मैं बे-इख़्तियार हंस पड़ती नकटी नाक, फैले हुए नथुने, बेहद मोटे होंट, भद्दा जिस्म, मगर हाँ सफ़ेद रंगत! मैं हंस कर कहती,तुम्हारी हुस्न शनासी की दाद देती हूँ। जब इन बातों से काम चलता तो सीधी ज़ातियात पर उतर आती और बार-बार मुझे 'काली' कहती हालांकि मेरा रंग अच्छा-ख़ासा गंदुमी था... और ज़ीनत वो तो मिस फ़िनांस के पीछे ही लगी रहती थी। कैसी सादगी से शिकायत करती थी,गुलनार! मिस फ़िनांस तो तुम्हीं को ज़्यादा चाहती हैं। और वो बेहद मोटी लड़की, लड़की नहीं बल्कि औरत, वो भी तो उन्हीं का दम भरा करती थी! और अपनी मोहब्बत कैसी अजीब तरह से जताया करती थी। मिस फ़िनांस को भी बे-इख़्तियार हँसी जाती और नलीनी...

    गुलनार बीबी!

    क्या है करीमन?

    बेगम ने मीठे टुकड़े और समोसे बनाने के लिए कहा है। वो जो कोई मिस साहब आई हैं ना!

    बहुत काम ही बेटी, ज़रा इस रोटी के टुकड़े तो काट लो। अच्छी बेटी उम्र भर दुआ देती रहूँगी।

    मैंने किवाड़ खोले और आहिस्ता-आहिस्ता से झाँक कर देखा कि कहीं मिस फ़िनांस इधर देख तो नहीं रही हैं? अम्मी भी पास ही बैठी हुई थीं। वो अम्मी से बातें करने में मशग़ूल थीं। मैं नज़र बचाकर जल्दी से बावर्चीख़ाने में चली आई। चाक़ू को अच्छी तरह साफ़ करके रोटी काटने बैठ गई। करीमन ने गला हुआ क़ीमा चूल्हे पर रखा और उसमें नमक-मिर्च प्याज़ डाल कर भूनने लगी... तो ये मीठे टुकड़े पकाए जा रहे हैं। ये उन्हें बहुत मर्ग़ूब थे ना! और मैंने कितनी दफ़ा मीठे टुकड़े अपने हाथों से पकाकर उन्हें भेजे थे। उन दिनों वो यहीं कालेज में प्रोफ़ेसर थीं और जब इनका ट्रांसफ़र हुआ था तो मैं कितना रोई थी! वो मना रही थीं, तसल्ली दे रही थीं और मैं रोती जाती थी... फिर मैंने रो धो कर अब्बा को मुझे उसी जगह भेजने पर रज़ामंद कर लिया जहाँ मिस फ़िनांस काम कर रही थीं और उनसे जा मिली थी। देखते-देखते दो साल यूँही गुज़र गए। मुझे उस कालेज का आख़िरी इम्तहान देना था और उसके बाद मिस फ़िनांस से दायमी जुदाई! मैं इसका ख़्याल भी कर सकती थी। काश, उस कालेज में एम.ए का कोर्स भी होता और मैं दो और साल उनके साथ रह सकती! फिर मैंने इस मर्तबा फ़ेल होने की ठान ली थी। एक ऐसी लड़की के लिए जो जमाअत में हमेशा अव्वल आया करती हो, फ़ेल होना कितनी शर्म की बात थी। इस बात का मुझे ख़्याल तक आता था। प्रोफ़ेसरों ने मुझसे कितनी उम्मीदें बाँध रखी थीं, में कानोकेशन में बहुत से तमग़े और इनामात हासिल करूँगी। सब लड़कियों में अव्वल आना तो मेरा मामूल था, उसके अलग तमग़े मिलेगें। सोशियोलोजी और अंग्रेज़ी में तो रियासत भर में अव्वल रहूँगी। लड़के देखते के देखते रह जाएंगे और कालेज का नाम कैसे चमकेगा, उनकी उम्मीदों पर पानी फिरने की मुझे परवा थी।

    आख़िर वो दिन गया जब इम्तहान ख़त्म हो चुका था और मैं मिस फ़िनांस से आख़िरी बार मिली थी। उन्हें ख़ुदा हाफ़िज़ कह कर जब हॉस्टल लौटी तो सीधे अपने कमरे में जाकर बिस्तर पर गिर पड़ी और तकियों में मुँह छिपाकर फूट-फूट कर रोने लगी। इतना कि आँखें सुर्ख़ हो गईं और तकिया पोश भीग गया। फिर जब ज़रीना आई तो उसने मुझे गले लगा लिया और तसल्ली देनी शुरू की। वो जितना मनाती थी मैं और ज़्यादा रोती जाती थी... उस रात ज़रीना कितनी देर तक मेरे पास बैठी समझाती रही यहाँ तक कि मेरी आँखें जो रोने की वजह से बुरी तरह जल रही थीं। नींद के ग़लबे से बंद होने लगीं। कितनी मोहब्बत करने वाली लड़की थी ज़रीना!

    तो तुमने टुकड़े काट लिए बेटी? इधर लाओ इन्हें मैं घी में भून दूँ और अच्छी बेटी ज़रा इन पूरियों में क़ीमा भर के समोसे बना लेना। बेगम ने जल्दी तैयार करने का हुक्म दिया। क्या करूँ बेटी! तुम देखती हो बहुत बूढ़ी होगई हूँ। हाथ से ज़्यादा काम नहीं बन पड़ता। वरना मैं तुम्हें काम करने को कहती, तौबा-तौबा इस बूढ़े मुँह में कीड़े पड़ जाते ये नाज़ुक-नाज़ुक हाथ जो सिर्फ़ क़लम पकड़ते थे, इनको मैं, मुई नौकरानी, काम करते देखती! आँखें फूट जातीं! बूढ़ी करीमन ख़ुशामद करने लगी, मैं बग़ैर जवाब दिए, क़ीमा भरकर समोसे बनाने लगी।

    वो ख़ुद भी मुझे कितना चाहती थीं। कई बार उन्होंने मुझे अपने घर पर बुलाया था और कितना इसरार करती थीं कि मैं उनके साथ सैर को जाया करूँ। उस दिन उनकी आवाज़ में कैसी इल्तिजा थी, सिर्फ़ एक बार जाओ गुलनार! मैं तुम्हें अपनी कार में घुमा लाऊँगी। फ़लाँ-फ़लाँ गार्डन ले जाऊँगी। मैंने बसद नाज़ उनकी इल्तिजा को ठुकरा दिया था... और अपने पर्चों में मुझे कितने ज़्यादा मार्क्स दे देती थीं, अस्सी पचासी फ़ीसदी! ये देख कर लड़कियाँ मुझसे बहुत जलतीं, कहा करतीं, आख़िर तुम तो इनकी फ़ेवरिट होना! हमें कहाँ से मिलें इतने नंबर... मेरा नाम इस चटख़ारे से लेती थीं गोया उनके मुँह में लज़ीज़ मिठाई रखी हो। जब मेरी तरफ़ देख कर मुस्कुराती थीं तो उनका तबस्सुम कितना मुहब्बत आमेज़ होता था। मेरे दिल में बे-इख़्तियार ये ख़्वाहिश पैदा होती कि उन्हें मिस फ़िनांस की बजाय एंजलिना कहा करूँ या कम अज़ कम एक-बार चुपके से कह दूँ, मेरी एंजलिना मगर मुझे कभी जुरअत हुई थी। उनके सामने कहती नहीं थी तो क्या ख़तों में तो जो जी में आया लिख देती थी। मेरे दिल की मल्लिका, मेरी जान, मल्लिका-ए-हुस्न, मेरी आसमानी, एंजलिना और क्या कुछ नहीं लिखा करती थी। अजीब रूमान भरे ख़त लिखा करती थी मैं तो! और वो कभी ख़फ़ा होती थीं। उन्होंने भी तो एक दिन... उस दिन मैं और ललिता उनके साथ कार की पिछली सीट में बैठी थीं। बातों में ललिता ने पूछा था,मिस फ़िनांस आप घोड़े की सवारी जानती हैं? नहीं, उन्होंने जवाब दिया,मगर बहुत दिनों से सीखने की ख़्वाहिश है और इसके लिए राइडिंग सूट भी सिलाने वाली हूँ। और फिर अचानक मेरी तरफ़ मुख़ातिब होकर कहा,कोट और पतलून गुलनार! इस अंदाज़ से कहा था कि मैं शर्म से पानी-पानी हो गई थी। मैं तो उस सूट में बिल्कुल मर्द मालूम हूँगी ना? मैं दोनों हाथों में मुँह छुपाए बैठी रही। हाँ, उनमें कुछ-कुछ मर्दाना झलक भी तो थी। बहुत दराज़ क़द, चौड़ा चकला सीना और ऐसी नज़रों से देखती थीं कि मैं बे-इख़्तियार शर्मा जाती। ख़्वाह वो कितनी ही लड़कियों की भीड़ में खड़ी हों, वो बातें तो और लड़कियों से कर रही होतीं मगर नज़र मुझी पर जमी होती और नारंजी सारी में वो कैसी भली मालूम होती थीं। शायद सारी की अक्स की वजह से चेहरे का रंग सुनहरी होजाता और रुख़्सारों पर हल्की सुर्ख़ी जिसमें कुछ नीलाहट की आमेज़िश भी होती... और दूर से तो चेचक के दाग़ भी दिखाई नहीं देते थे।

    मैंने समोसों की सेनी करीमन के आगे रख दी। करीमन उन्हें तलने लगी। अब कहीं फ़ुर्सत मिली इन कामों से! इतनी देर चूल्हे के पास बैठने से बहुत गर्मी महसूस हो रही थी। मैंने ठंडे पानी से मुँह-हाथ धोए, सारी के आंचल से उन्हें ख़ुश्क करते हुए फिर उस कमरे की तरफ़ निगाह दौड़ाई जहाँ मिस फ़िनांस बैठी हुई थीं। वही साहिराना मुस्कुराहट जो मुझपर जादू सा कर देती थी। अब मैं ब-ख़ुशी उनके पास जाने को तैयार थी। दफ़्अतन मेरी नज़र सारी पर पड़ी। जगह-जगह मिट्टी लगी हुई थी और जावेद के हाथों के निशान साफ़ नज़र रहे थे। मैं ये सारी पहन कर कैसे जा सकूँगी? इतने में ज़ुबैदा निकली।

    ज़ुबैदा! मैंने आवाज़ दी। तवज्जो किए बग़ैर भागी जा रही थी। ज़ुबैदा इधर तो आओ।

    हुँह! नहीं आऊँगी मुझे मिस फ़िनांस के पास जाना चाहिए।

    मेरी अच्छी मुन्नी मान लेगी अपनी आपा की बात। चॉकलेट दूँगी मुन्नी को!

    क्या है आपा? चॉकलेट देख कर उसकी आँखें चमक उठीं।

    अच्छी मुन्नी मुझे अलमारी में से एक सारी लादो ना! देखो ये कैसी मैली हो रही है। मिस फ़िनांस के पास ये पहन कर कैसे जाऊँ। ये लो अलमारी की कुंजियाँ!

    हाँ आपा, जल्दी जाओ मिस फ़िनांस बार-बार तुम्हें याद कर रही हैं।

    तो वो अब भी मुझे चाहती हैं? हाँ शायद दो माह पहले मैंने एक लड़की के ज़रिए उन्हें ख़त भेजा था। उसने मुझसे कहा था ना कि वो ख़त पाकर कैसे ख़ुश हो गई थीं और उस दिन भी तो वो ख़ुशी से दीवानी हुई जा रही थीं ना जब मैं इत्तिला दिए बग़ैर अचानक उस कालेज में आगई थी जहाँ वो अब काम कर रही थीं। मैं एक ऐसी जगह छुप गई थी जहाँ से मैं तो उन्हें देख सकती थी। मगर वो मुझे देख सकती थीं और एक लड़की को उनके पास भेजा था कि उन्हें इत्तिला कर दे। मैं इस कालेज में दाख़िले के लिए आई हूँ। उन्होंने फ़र्त-ए-मसर्रत से कई बार मेरा नाम दोहराया था, गुलनार! गुलनार! गुलनार! यहाँ! सच कहो। लड़की ने उन्हें यक़ीन दिलाया। वो कहाँ हैं बताओ ना? लड़की उन्हें बता रही थी मैं किस जगह हूँ मगर वो देखे बग़ैर गुलनार! गुलनार, तुम कहाँ हो? कहती हुई हर तरफ़ घूम रही थीं। उन्हें यूँ बेताब देखने में बड़ा ही मज़ा आया था।

    लो अल्लाह-अल्लाह करके सब चीज़ें तैयार हो गईं अब मैं इस बूढ़े जिस्म को ज़रा आराम तो दे लूँ।

    कमबख़्त बूढ़ी जब देखो बड़बड़ाती रहती है। मैं झल्ला कर रह गई।

    ख़ुदा भला करे गुलनार बीबी का, मुझ बूढ़ी की कितनी मदद करती है। करीमन बावर्चीख़ाने में टाट बिछाकर वहीं लेट गई। अहा बेटी, तुम यहीं हो। अभी-अभी याद कर रही थी। देखा बहुत दराज़ उम्र होगी। मेरी बीबी की! और बेटी तुम्हारे लिए कितनी ही दुआएं मेरे मुँह से निकलती हैं। झूट नहीं कहती। कितनी ही जगह काम किया, पर ना बाबा ऐसी बच्ची कहीं देखी। ज़रा से लौंडे तक मुझे डाँट बताते थे। मेरी बीबी ने तो अब तक एक सख़्त लफ़्ज़ भी कहा। अब तो मेरे काम करने के दिन गए। इसीलिए तो तुम्हारे हाँ भी काम छोड़ दिया था। सच कहती हूँ बेटी। सिर्फ़ तुम्हारी शादी की ख़बर सुन कर आई। तुमें इन आँखों से दुल्हन बनी देखूँ। बहुत दिनों से यही अरमान है। ख़ुदा करे बहुत अच्छा दूल्हा नसीब हो।

    भला परवेज़ से अच्छा दूल्हा भी कोई होगा? एक हल्की सी मुस्कुराहट मेरे लबों तक गई। मैंने जल्दी से मुँह फेर लिया कि कहीं करीमन देख ले।

    फिर जैसे दिमाग़ ख़्यालात से यक-लख़्त ख़ाली हो गया हो और उनकी जगह परवेज़! परवेज़! परवेज़! परवेज़! और मैं एक हसीन दुनिया में जा पहुँची, जज़्बात की एक रंगीन दुनिया, हाँ निहायत हसीन, कालेज और मिस फ़िनांस वाली दुनिया से कहीं ज़्यादा हसीन!

    कभी मैं ये सोचा करती थी कि मेरी शादी हो जाए तो मैं अपने शौहर से मोहब्बत भी कर सकूँगी। एक दफ़ा ज़रीना ने जो पामिस्ट्री जानती थी मेरा हाथ देख कर कहा था,तुम्हारे शौहर को तुमसे बेहद मोहब्बत होगी। तो मुझे अपने उस होने वाले शौहर पर कितना रहम आया था कि मैं उसकी मोहब्बत का जवाब दे सकूँगी और अब? अब तो मैं अपने परवेज़ को दीवाना-वार चाहूँगी।

    आपा सारी ले लो। मैंने ज़ुबैदा से सारी लेकर मेज़ पर रख दी और बाल बनाने लगी।

    आख़िर मैं मिस फ़िनांस को कैसे भुला सकी? वो भी तो मुझे बहुत चाहती थीं। हुँह! चाहती होंगी। कभी उन्होंने ज़बान से उसका इज़हार भी किया था? मैं साथ होती थी तो डर के मारे मरी जाती थीं। गुलनार! लड़कियाँ क्या कहती होंगी? गुलनार अगर प्रिंसिपल देख लें तो?

    लड़कियाँ देखें तो देखें क्या हमने कोई जुर्म किया था कि यूँ डरें, उफ़ रे बुज़्दिली! और जब हमारे मज़ामीन की कापियाँ तसहीह करके क्लास में लाती थीं तो मेरे लिखे हुए नज़रियों और नुक्तों की तो बहुत तारीफ़ करतीं। मगर कभी लड़कियों को बताया भी था कि ये मेरे पेश किए हुए नुकते हैं। जवाबात के पर्चे वापस करते हुए तो कभी भूले से भी मेरा नाम लिया था... मगर वो मुझी को सबसे ज़्यादा नंबर देती थीं। हुँह! ये भी कोई बात हुई? मैं तो हर पर्चा में अव्वल आती थी लेकिन कोई उस्तानी इतने नंबर नहीं देती थीं। मिस फ़िनांस तो अस्सी पचासी दे देती थीं। हुँह! सिर्फ़ ज़्यादा नंबर दे दिए तो क्या हुआ। मुझे कितनी ख़ुशी होती अगर वो क्लास में लड़कियों के सामने मेरी तारीफ़ करतीं और कहतीं, देखो गुलनार ने कितने नंबर लिये हैं। फ़लाँ नंबर ने इतने मार्क्स लिये हैं, फ़लाँ नंबर ने ये क्या है, वो क्या है, वो क्या है, फ़लाँ नंबर, फ़लाँ नंबर, मैं तो बस फ़लां नंबर ही हो कर रह गई थी और वो मिस जोन्स थीं ऑक्सफ़ोर्ड की एम.ए, वो तो आध-आध घंटे तक मेरे मज़मून की तारीफ़ करती थीं। गो उनके जाँचने का मेयार बहुत ही आला था और मिसेज़ सुशील! सरोजनी ने कहा था कि वो मेरा पर्चा लिए भागी-भागी फिर रही थीं। माशा अल्लाह गुलनार ने तो इस दफ़ा कमाल ही कर दिया। कितने अच्छे जवाब हैं। मैंने तो इस पर्चे को कई मर्तबा पढ़ा। वो दूसरी टीचर्स और लड़कियों के सामने हमेशा मेरी तारीफ़ करती रहती थीं और मिस कमला बाई भी। लेडी टीचर्स तो क्या मर्द प्रोफ़ेसर भी मेरी ज़हानत और क़ाबिलियत की दाद देते थे! फ़क़त थीं तो मिस फ़िनांस जो तारीफ़ में एक लफ़्ज़ भी कहना शायद अपनी शान के ख़िलाफ़ समझती थीं। हुँह!

    और मेरा दिल कैसे चाहता था कि वो मेरे हुस्न की तारीफ़ करें। हमेशा सही कभी-कभी बेताबी से कह दें,गुलनार! तुम कितनी हसीन हो! कम से कम एक दफ़ा बे-इख़्तियार उनके मुँह से निकल जाए, आज तो तुम बहुत ख़ूबसूरत नज़र रही हो गुलनार! या यही सही, ये सारी तो तुम्हें बहुत सजती है। मैं इसके लिए कितने ही जतन करती थी। जिस दिन उनका घंटा होता वही सारियाँ पहनती जो मुझे भाती थीं। बालों को ख़ास तवज्जो से सँवारती। कभी-कभी बोटो लगाती। अच्छी-अच्छी ख़ुश रंग चूड़ियाँ पहनती और मुझे अपनी क्लाइयों और उंगलियों पर बहुत ही नाज़ था। मैं अपने हाथ मेज़ पर इस अंदाज़ से टेके रहती कि चूड़ियाँ जम कर क्लाइयों पर पड़ें और मिस फ़िनांस की सीट से उंगलियों की ख़ूबसूरती का अच्छी तरह ज़ाइज़ा लिया जासके... मगर ये तो ज़ाहिर था कि वो मुझे हसीन समझती थीं। वरना यूँ तकती रहतीं और जब कभी मुझे महसूस होता कि आज ख़ुसूसियत से अच्छी नज़र रही हूँ, ऐसे मौक़ों पर तो वो मुझे बहुत ही तवज्जो से देख रही होतीं। उनकी निगाह मुझपर से हटती ही थी... अच्छा यूँही सही। लेकिन क्या मैं एक पत्थर का मुजस्समा थी या नक़्क़ाश की खींची हुई तस्वीर थी कि यूं ख़ामोश दाद मिलती। आख़िर मैं एक इंसान थी। एक सत्रह साला नौख़ेज़ लड़की रुमानी और जज़्बाती! कभी तारीफ़ कर देतीं तो उनका ख़ज़ाना खो जाता? माना भी कि वो प्रोफ़ेसर थीं मिसेज़ सुशील भी तो प्रोफ़ेसर ही थीं। क्या वो मेरी सूरत की तारीफ़ करती थीं। उस दिन जब मुझे एक टियाबलो में हिस्सा लेना था जिसमें ये बताया जाने वाला था कि मल्लिका नूरजहाँ रक़्स और मूसीक़ी से लुत्फ़अंदोज़ हो रही है। मिसेज़ सुशील मेरा मेकअप करती हुई कैसे सराहती जाती थीं,गुलनार! नूर जहाँ की तमसील के लिए तुमही मौजूँ हो।, तुम कैसी अच्छी अंग्रेज़ी लिखती हो। मिस्टर सुशील भी तुम्हारे ही गुण गाते रहते हैं, वो भी तुम्हारे टीचर रह चुके हैं ना? पोडर, लिपस्टिक, रूज लगा चुकने के बाद उन्होंने कहा,अब आँखें ऊपर उठाओ इन का मेकअप भी करदूँ। और मैंने आँखें उठाईं तो वल्लाह कितनी ख़ूबसूरत आँखें! और किस शिद्दत से मेरे दिल में ये ख़्वाहिश पैदा हुई थी कि काश, मिसेज़ सुशील की बजाय मिस फ़िनांस होतीं! आख़िर में मिसेज़ सुशील को ही क्यों चाहती थी? मिस फ़िनांस में कौन से सुरख़ाब के पर लगे थे? और ज़रीना भी तो मेरी आँखों की तारीफ़ करते थकती ही थी! और ललिता! वो तो अशआर लिखा करती थी मेरी आँखों पर! ज़ेनी भी कहा करती थी ना,गुलनार, तुम चश्मा पहना करो। ये तुम्हारी हसीन आँखों को छुपादेता है। सभी तारीफ़ करती थीं। सीलिए तो मैं इसका ख़ास ख़्याल रखती थी कि मिस फ़िनांस मेरी आँखों को देखें और उनकी क्लास में चश्मा भी तो उतार कर रख देती थी।

    गो मुझे बोर्ड पर लिखी हुई तहरीर पढ़ने में मुझे बहुत दिक़्क़त होती। हुँह! उस बे-हिस पर कुछ असर भी होता था? मगर परवेज़, परवेज़ की हुस्न शनास निगाहें पहली ही नज़र में मेरी आँखों का हुस्न देख लेंगी। वो बे-इख़्तियार कह उठेंगे,तुम्हारी आँखें, ग़ज़ाली आँखें, कितनी सियाह! कैसी मधभरी! कालेज डे में मैंने सिर्फ़ इसलिए ड्रामा में पार्ट किया था कि मिस फ़िनांस देखें, सेंट जोन(Saint Joan) का इंतख़ाब हुआ था और मैं जोन बनी थी। मुझे कैसी अच्छी तरह सँवारा गया था। मैं ख़ुद आईने में अपनी सूरत देख कर ठिटक गई। फिर मुझे हँसी भी आगई। जोन, एक देहाती लड़की, फिर एक क़ैदी जो कोर्ट में लाई जा रही थी। क्या उस वक़्त वो बनी संवरी होगी। लेकिन यहाँ के फ़िल्मों और स्टेजों पर तो सिर्फ़ यही ख़्याल रखा जाता है कि जो लड़की हीरोइन का पार्ट करे वो ख़ूबसूरत हो और उसे अच्छी तरह सँवारा जाए। लेकिन ये तो मिसेज़ सुशील और मिस जोन्स की ग़लती थी। उन्होंने मेरा ठीक ही मेकअप किया था। मिस जोन्स ने अपनी ख़ाकी रंग का राइडिंग सूट मुझे पहनाया था। ख़ाकी कोट और ख़ाकी पतलून और मेरे लांबे बाल पन्नों में लपेट के शानों पर डाल दिए गए थे। बालों में कंघी तक की थी। बाल पेशानी पर और रुख़्सारों पर निहायत बेतरतीबी से बिखेर दिए गए थे। ग़लती तो वैदेही की थी जिसने ड्यूक ऑफ वार्क का पार्ट किया था। वो अपने लबों पर लिपस्टिक लगा रही थी। ड्रामे का वक़्त होगया था। मुझे जाती देख कर उसने हाथ पकड़ कर मुझे खींच लिया, हाय गुलनार! ये क्या? तुम तो हीरोइन हो, रोज़ लिपस्टिक! उसने जल्दी से मेरे होंटों पर लिपस्टिक लगा दिया और गालों पर रूज़ मल दिया और जाते हुए मैंने आईने पर नज़र डाली तो ख़ुद ही ठिटक गई। बेतरतीबी से बिखरे हुए रूखे बाल तो और भी अच्छे लग रहे थे। मुझे यक़ीन था मिस फ़िनांस आज मेरी तारीफ़ ज़रूर करेंगी। बल्कि तारीफ़ करने पर मजबूर हो जाएंगी। ड्रामे के इख़तताम पर मिसेज़ सुशील, मिस जोन्स, मिसेज़ डियानेल, दौड़ी हुई स्टेज पर चढ़ आईं और पर्दे के पीछे आकर बड़ी गर्मजोशी से मेरा हाथ दबाते हुए मुझे मुबारकबाद दी कि मैंने जोन के से मुश्किल पार्ट को बहुत अच्छी तरह निभाया था। सब मेरी अदाकारी पर अश-अश कर रहे थे। ये सब कुछ और मिस फ़िनांस? उन्होंने हाज़िरीन में शामिल होकर ड्रामा देखा तक नहीं। पर्दे के पीछे खड़ी होकर अदाकार लड़कियों को हिदायात देती रहीं। मैंने कितनी इल्तिजा के साथ कहा था कि हाज़िरीन में बैठ कर ड्रामा देखें। उनके दोनों शाने पकड़ कर निहायत मुल्तजी निगाहों से उन्हें देखा था। मेरी ये मुल्तजी निगाहें तो पत्थर से दिल को पिघला देतीं। लेकिन वो तो शायद पत्थर से भी ज़्यादा बेहिस थीं। गुलनार क्या करूँ मैंने अपने ज़िम्मे ये काम लिया है तो मुझे करना ही होगा। वाह रे तुम्हारा काम! ताहम उन्होंने पर्दे के पीछे से तो देखा था।

    उस रात मुझे हॉस्टल लौटने में बहुत देर हो गई थी गो हॉस्टल कालेज ही के कंपाउंड में थी। लड़कियाँ क़दम-क़दम पर मुझे घेरे लेते थीं। गुलनार! तुमने तो कमाल ही कर दिया, तुम्हारी अदाकारी के क्या कहने,तुम स्टेज पर कैसे हसीन नज़र रही थीं गुलनार! उन सबसे पीछा छुड़ा कर थकी हारी हॉस्टल लौटी। ज़रीना बाहर खड़ी मेरा इंतज़ार कर रही थी। वो दौड़ कर मुझसे लिपट गई। मेरी अच्छी गुलनार! तुम बाल कटवाकर यूँही मेक अप किया करो ना। आज तो तुम परी मालूम हो रही हो। लेकिन भई, जोन के लिए तुम्हारा मेकअप ठीक था। अन्क्विज़ीटर (Inquisitor) कह रहा था, Joan you look very pale today और तुम्हारे गालों से शफ़क़ फूट रही थी! हम दोनों हंसने लगे और हाथ में हाथ डाले हम दौड़ते हुए डाइनिंग हॉल पहुँचे। सब लड़कियाँ खाने पर बैठ चुकी थीं। मेरे जाते ही सभों ने तारीफ़ों की बौछार कर दी और उस रात मैं कैसी ख़ुश-ख़ुश बिस्तर पर जा लेटी थी। नींद ही आती थी। हुँह! उन सब तारीफ़ों की मुझे क्या परवा? कल मैं अपनी मिस फ़िनांस अपनी एंजलिना से मिलूँगी तो वो ये कहेंगी। यूँ तारीफ़ करेंगी। दूसरी सुबह उन उमंगों और उम्मीदों को लिए हुए गई तो अपनी एंजलिना के पास क्या रखा था? एक जज़्बात से आरी चेहरा और फीकी बेमज़ा बातें। ज़रीना सच कहती थी,गुलनार तुम इतनी रूमानवी लड़की और मिस फ़िनांस की सी बे-हिस और सर्द मुहर कहीं तुम्हारा जोड़ भी है। तुम तो आग हो और वो बर्फ़। हाँ वो ज़रूर जज़्बात से बिल्कुल आरी थीं। बे-हिस और मुर्दा दिल। पत्थर का मुजस्समा बर्फ़ का तोदा! भला परवेज़ से इनकी क्या मुनासिबत? मेरे परवेज़ की रग-रग में ज़िंदगी है, बिजली है। तस्वीर ही में वो कितने रोमांटिक मालूम होते थे और मैंने उस दिन चोरी से झाँक कर उन्हें देख भी लिया था ना! जब अब्बा ने उन्हें सलामी देने (नज़राना पेश करने के लिए) खाने पर मदऊ किया था। उस दिन भी ज़रीना आई हुई थी और जैन भी। दूल्हा भाई आगए। ज़ुबैदा की आवाज़ आई और मेरा दिल कैसे धड़कने लगा। ज़रीना और जैन भाग कर खिड़की में जाकर खड़ी हुईं। ज़रीना मुझे भी घसीटने लगी। उठो गुलनार! तुम भी अपने दूल्हा को देख लो ना। मैं पहले तो झिजकी। गो मेरा जी बे-इख़्तियार चाह रहा था कि उन्हें एक नज़र देख लूँ। अम्मी क्या कहेंगी? अरी अम्मी की बच्ची उठ। ऐसा ज़रीं मौक़ा खो देगी। ज़रीना ने आख़िर मुझे खींच ही लिया। वो अब्बा के सामने कैसे शर्माए-शर्माए खड़े थे। फिर जब वो हॉल में आए तो हमने दरवाज़े के सुराख़ों में से झाँकने की कोशिश की। कमबख़्त सुराख़ कितने छोटे थे! आख़िर हमें एक तरकीब सूझ ही गई। जैन ने हमारे कमरे की रौशनी गुल कर दी ताकि बाहर वाले हमें देख सकें और ज़रीना ने आहिस्ता से चिटख़नी खोल कर एक किवाड़ को ज़रा सा खोल दिया। फिर क्या था जैन और ज़रीना दोनों टूट पड़ीं मगर मैं जाने क्यों पीछे हट गई।

    बड़ा ख़ूबसूरत नौजवान है गुल! ज़रीना ने फ़र्त-ए-मसर्रत से गले लगा लिया। मैंने शर्माकर आँखें झुका लीं। मेरी गुल! ऐसा अच्छा जोड़ है तेरा और उसका। वो मेरे ठोड़ी पकड़ कर चेहरा ऊपर उठाते हुए बोली। उसकी आँखों से कैसी मोहब्बत टपक रही थी! वो फिर झाँकने लगी। फ़ार्म भी बहुत अच्छा है और आँखें कैसी हसीन हैं। इधर तो गुल! बड़ी आई कहीं की अम्मी से डरने वाली। ज़रीना मुझे फिर घसीटने लगी। देखा तूने अपने परवेज़ की आँखों को? ब-ख़ुदा तेरी आँखों का जवाब हैं वो तो! हाँ मैंने देखा सब कुछ देखा। उस ख़ूबसूरत चेहरे को, उन तबस्सुम आमेज़ होंटों को, उन हसीन आँखों को जिनमें शोख़ी और बेताबी कूट-कूट कर भरी थी...अरी बड़ा रोमियांटिक मालूम होता है गुल! तुझपर दीवाना हो जाए तो मेरे ज़िम्मा! अभी से कहे देती हूँ गुल, वो तुझे आँखों में बिठाएगा, गले का हार बना लेगा। और मैं वफ़ूर-ए-जज़्बात से फुँकी जा रही थी। उसके बाज़ुओं में गिर पड़ी। दीवानी, मिस फ़िनांस पर मरी जाती थी। आख़िर तूने क्या उम्मीदें बाँध रखी थीं उस पत्थर की सी बेहिस औरत से। मसर्रत हो या रंज, ग़ुस्सा हो या बेताबी, वही फीका चेहरा, वही बेनूर आँखें! परवेज़ को देख कितना एक्सप्रेशन है उसके चेहरे पर, गोया जज़्बात की शुआएँ फूट रही हैं। हाँ वो उस वक़्त मुजस्सम इज़तराब नज़र रहे थे। उनकी आँखें किस बेताबी से इधर-उधर घूम रही थीं। क्यों? शायद इसलिए कि कहीं मैं नज़र जाऊँ?

    जी बे-इख़्तियार चाह रहा था कि दरवाज़े तोड़ दूँ, सबकी मौजूदगी को फ़रामोश करते हुए उनके सामने जा खड़ी होजाऊँ... काश, मैं किसी पर्दे की आड़ ही में खड़ी होती, एक लम्हा के लिए पर्दा खिसक जाता और मैं उनकी तरफ़ शोख़ नज़रों से देखकर मुस्कुरा देती। फिर जल्दी से नज़रें झुकाकर शर्मा जाती और उन्हें दम बख़ुद करदेती! हाँ वो ज़रूर दम बख़ुद हो जाते। मैं इस नीली जॉर्जिट की नुक़रई बॉर्डर वाली सारी में बहुत दिलकश नज़र रही थी ना... हुँह! मैं ये सारी क्यों पहन कर जाऊँ। मैं जॉर्जिट की सारी पहनूँगी जो मेरे परवेज़ की लाई हुई है। मैंने सारी खींच कर फेंक दी जो अभी-अभी पहन रही थी और ज़किया को आवाज़ दी। ज़किया एक बरतन में समोसे लिए जा रही थी। ज़किया, ज़रा मेरी नीली सारी ले आना वही जॉर्जिट की।

    अच्छा ले आऊँगी, मगर तुम जल्दी आना अम्मी कह रही थीं कि वो मिस फ़िनांस के साथ खाने पर नहीं बैठेंगी। उनकी बजाय तुम बैठो तो बेहतर है।

    मैंने बेपरवाई से उस कमरे की तरफ़ निगाह की। मिस फ़िनांस हाथ पर ठोड़ी रखे ऊपर देख रही थीं। जज़्बात से ख़ाली बेनूर आँखें, बेहद पतले, फीके रंग के होंट, ज़र्द चेहरा जिसपर चेचक के दाग़ ही दाग़ थे। मुझे ऐसा दिखाई देने लगा कि वो दाग़ बढ़ रहे हैं, गहरे हो रहे हैं और फैलते जा रहे हैं, उनकी सूरत कैसी करीह होती जा रही थी! मैं जल्दी से अंदर खिसक गई और सर को ज़ोर से झटका दिया कि दिमाग़ पर खींची हुई तस्वीर मिट जाए। उसकी जगह दिमाग़ के पर्दे पर एक और तस्वीर उभरने लगी। परवेज़ की! वो ख़ूबसूरत नीली आँखें, बड़ी-बड़ी, बादामी, नशीली, लांबी ख़मीदा पलकें, बैज़वी चेहरा, कुशादा हसीन पेशानी और होंट? कितनी हसीन तराश थी उन होंटों की। रसीले भरे हुए और किनारों पर वो हल्का-सा ख़म गोया वो मुस्कुराने के लिए ही बनाए गए हों। वो साँवला साँवला रंग, श्याम सुंदर, हाँ मेरे श्याम और मैं राधा! मैंने मेज़ पर रखी हुई तस्वीर उठा ली, परवेज़ की और फ़र्त-ए-बेताबी से उसे चूम लिया। यही सारी ना? मैंने घबराकर तस्वीर रख दी। ज़किया सारी लिए खड़ी थी। हाँ यही। आपा जल्दी आओ ना। समोसे ठंडे हो रहे हैं और यहाँ सारियों पर सारियाँ बदली जा रही हैं। इधर ये बेपरवाई और उधर देखो तो बेचारी मिस फ़िनांस ने गुलनार-गुलनार ही की रट लगा रखी है।

    अच्छा अभी आई। मैंने फिर तस्वीर उठा ली और सब कुछ भूल कर उसी हसीन तसव्वुर में खो गई। कैसा हँस-मुख चेहरा। आहा ये होंट, नज़र पहले इन होंटों पर ही जा जमती थी। ये होंट और उफ़... क्या ख़्याल गया। मैं मारे शर्म के अर्क़-अर्क़ हो गई। मैंने तस्वीर रख दी और सारी पहनने लगी। उनकी शख़्सियत में कितनी दिल-कशी थी! उफ़ किस बला का सजीलापन! गठा हुआ बदन, दराज़ क़द, चौड़ा चकला सीना, लांबे मज़बूत बाज़ू। उन बाज़ुओं में... उफ़ फिर कैसे ख़्याल रहे थे। जैसे रग-रग में बिजलियाँ कौंद रही थीं, दिल की धड़कन कैसी तेज़ हो रही थी! और ख़ून जैसे उबला जा रहा हो। नस-नस में गर्मी, आग उफ़ ये जज़्बात का हुजूम, ये तूफ़ान! मैं बिस्तर पर गिर पड़ी और तकियों में मुँह छुपा लिया। ये हैजान, कैसी लज़्ज़त थी उसमें!

    गुलनार आख़िर तुम्हें हो क्या गया है? मैंने चौंक कर देखा। अम्मी खड़ी थीं। उन का चेहरा ग़ुस्से से तमतमा रहा था। मिस फ़िनांस कबसे तुम्हारा इंतज़ार कर रही हैं। तुम्हें कुछ पास भी है बड़ों का और वो तो तुम्हारी उस्तानी हैं। अम्मी बड़बड़ाती हुई चली गईं।

    तुम्हारा इंतज़ार कर रही हैं। तुम्हीं को याद कर रही हैं। तुम्हारे नाम की रट लगा रखी है। अच्छा भई जाऊँगी... हाँ, क्यों नहीं? ज़रूर जाऊँगी। ये सारी पहन कर जो मेरे परवेज़ ने लाकर दी है और हाँ वो अँगूठी भी पहनूँगी जो परवेज़ से मेरे मंसूब होने की निशानी है। मैंने एक छोटी सी मख़मल की डिबिया निकाली। कैसी ख़ूबसूरत अँगूठी थी। मेरी इंगेजमेंट रिंग 'P-Engagement Ring ' परवेज़ के नाम का पहला हर्फ़ किस ख़ूबसूरती से तराशा गया था! हीरों की चमक आँखों को खैरा किए दे रही थी और उन सफ़ेद नगीनों में एक सब्ज़ रंग जगमगा रहा था। मैंने फ़ख़्र से देखा और अँगूठी पहन ली। हाँ उसी तरह जाऊँगी और उन्हें बता दूँगी कि मुझे अपनी शादी की किस क़दर ख़ुशी है। वो अपने दिल में ख़्याल कर रही होंगी कि मैं उनसे शर्मिंदा हूँ। मुँह बिसवाए हुए बड़ी ही मग़्मूम सूरत बनाए उनके पास आऊँगी, दर्द भरे लहजे में अपनी मुसीबत बयान करूँगी कि मेरे दिल पर क्या बीत रही है और शायद रोने भी लगूँ। हुँह! मैं उन्हें कैसे हैरान कर दूँगी! सारी पर नज़र पड़ते ही कह उठेंगी ना कैसी ख़ूबसूरत सारी है और मैं बड़े फ़ख़्र से कहूँगी कि ये परवेज़ लाए हैं। परवेज़ ही की बातें करूँगी। ख़ुशी से झूमती हुई उन्हें बताऊँगी कि परवेज़ किस क़दर हसीन हैं। उन्हें मेरी शादी में शिरकत करने के लिए इसरार करूँगी और जज़्बात की शिद्दत का पूरे तौर पर इज़हार करते हुए ये भी कह दूँगी कि मैं परवेज़ से कितनी मोहब्बत करती हूँ। ये सुन कर बस जल ही जाएंगी जलेंगी? ज़रूर, उस वक़्त जब मैं छुट्टी लिए बग़ैर घर आई थी। वो बार-बार पूछ रही थीं ना। गुलनार! कहीं तुम्हारी शादी तो नहीं हो रही है? मैंने कहा,नहीं। उन्हें यक़ीन ही आता था,तुम मुझसे छुपाती हो गुलनार! मैंने कहा, नहीं। उन्हें यक़ीन ही आता था,तुम मुझसे छुपाती हो गुलनार! और जभी तो उन्होंने मेरी मंगनी की ख़बर मिलने पर मुबारकबाद तक लिख भेजी थी और अब तो मेरे चेहरे पर बजाय रंज के यह वफ़ूर-ए-शौक़, मसर्रत और बेताबी देख कर कैसे जल उठेंगी। हुँह! जलेंगी तो जलें! ख़ूब जलें मेरी बला से!

    मैंने चलते-चलते परवेज़ की तस्वीर भी ले ली।

    स्रोत:

    अपनी नगरिया (Pg. 19)

    • लेखक: मुमताज़ शीरीं
      • प्रकाशक: मकतबा जदीद, लाहौर
      • प्रकाशन वर्ष: 1948

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