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अपनी आग की तरफ़

इन्तिज़ार हुसैन

अपनी आग की तरफ़

इन्तिज़ार हुसैन

MORE BYइन्तिज़ार हुसैन

    मैंने उसे आग की रौशनी में पहचाना। क़रीब गया। उसे टहोका। उसने मुझे देखा फिर जवाब दिए बगेरे ‎टिकटिकी बांध कर जलती हुई बिल्डिंग को देखने लगा। मैं भी चुप खड़ा देखता रहा। मगर शोलों की तपिश ‎यहाँ तक रही थी। मैंने उसे घसीटा, कहा कि चलो। उसने मुझे बे-तअल्लुक़ी से देखा। पूछा, “कहाँ?” मैं ‎चुप हो गया जैसे इस सवाल का कोई जवाब नहीं हो सकता था।

    फिर उसने तीसरी मंज़िल वाले कोने के कमरे की तरफ़ इशारा किया जो धुएं से अटा हुआ था और जिसकी ‎दीवार से पलस्तर के जलते हुए पत्तड़ के पत्तड़ गिर रहे थे। “मैं इस कमरे में रहता हूँ।”

    ‎“मुझे मालूम है,” मैंने जवाब दिया।

    एक धोती पोश साईकल सवार कैरीयर पे दूध से भरी बड़ी सी गड़दी बाँधे पैडल पे ज़ोर-ज़ोर से क़दम ‎मारता क़रीब आया, साईकल से उतरा। उस हवास बाख़ता मजमे में सुनने और जवाब देने का किसे होश ‎था। हमें चुप-चाप खड़ा देखकर हमारे क़रीब आया उससे मुख़ातिब हुआ, “बाबू कैसे आग लग गई।” उसने ‎जवाब में साईकल वाले को ग़ौर से देखा और फिर जलती-ढैती इमारत को देखने लगा। साईकल वाले को ‎अपने सवाल का जवाब मिल गया था फिर वो अपने सवाल ही से बेनयाज़ हो चुका था। हैरत से जलती हुई ‎इमारत को देखता रहा। फिर बे कुछ कहे सुने साईकल पे सवार हो, चला गया।

    एक ताँगे वाले ने ताँगा दौड़ाते-दौड़ाते जल्दी से ताँगा रोका। ताँगा सड़क के किनारे खड़ा किया। फिर ताँगे से ‎कूद कर भागा हुआ आया और बे कुछ बोले बात किए अंदर से सामान निकालने वालों के साथ लग गया।

    ‎“तुमने अपना सामान निकाला?”

    ‎“नहीं”

    ‎“क्यों?”

    ‎“घर की चीज़ें घर के अंदर रखे-रखे जड़ पकड़ लेती हैं। फिर उन्हें उनकी जगह से उठाना बहुत मुश्किल ‎होता है। लगता है कि दरख़्त उखाड़ रहे हो।” चुप हुआ, फिर बोला, “तुम्हें पता है, मैं यहाँ कब से रहता ‎था।”

    ‎“पता है।”

    ‎“फिर?” उसने मुझे यूँ देखा जैसे लाजवाब कर दिया है।

    ये उसने ग़लत नहीं कहा। मैंने तो तालिब-ए-इल्मी के ज़माने से उसे इसी बिल्डिंग के इसी कमरे में देखा था। ‎वो हॉस्टल में कभी नहीं रहा। कमरा किराए पर ले लिया था। उसी में रहा। उसी में हमने इमतिहान के दिनों ‎की रातें जाग जाग कर काटी थीं। मेरे लिए वो और उसका कमरा लाज़िम-ओ-मल्ज़ूम थे। मेरिट किया, बी-ए ‎किया, एम-ए किया, फिर बेरोज़गारी फिर टूटी-फूटी मुलाज़मत। ब-हर-हाल वो यहीं रहा। यहीं हमने उससे ‎जिसे में अपने वालिद के शेविंग बॉक्स से चुराकर लाया था पहली मर्तबा शेव की थी। और अब की कनपटी ‎के सब बाल सफ़ेद हो चुके थे। और मेरे भी।

    इस बिल्डिंग में रहने वाले और लोग भी नए नहीं थे। मंज़िल-ब-मंज़िल फ़्लैट ही फ़्लैट थे जिनमें हर क़ुमाश ‎का आदमी आबाद था। कोई मुक़ामी कोई मुहाजिर। कोई किसी दफ़्तर में क्लर्क कोई किसी कॉलेज में ‎उस्ताद। कोई साहिब-ए-अह्ल-ओ-अयाल है कि साल-ब-साल बढ़ते हुए ख़ानदान के साथ छोटी सी छत के ‎नीचे सर छुपाए बैठा है। कोई छुड़ा है कि दिन-भर मटर गश्त करता है और रात गए ताला खोल कमरे में ‎पड़ा रहता है। किसी का पेंशन पे गुज़ारा है, किसी ने कोई छोटा-मोटा कारोबार कर रखा है किसी ने यहीं ‎इसी बिल्डिंग की दुकानों में से कोई दुकान ले रखी है और चिट्टी-बटी सजाये बैठा है। उन दुकानों का भी ‎ख़ूब रंग था। बाज़ दुकानें तो वाक़ई चमकती दमकती थीं। सजे हुए माल-ओ-अस्बाब की स्कीम बदलती ‎रहती थी। लेकिन ऐसी दुकानें भी थीं जिनमें जो कनस्तर, जो डिब्बा, जो बोरी जहाँ रखी है, वहाँ बस रखी है। ‎जैसे अज़ल से यहाँ रखी है और अबद तक इसी तरह रखी रहेगी, या जैसे ये दुकान का माल नहीं बल्कि इस ‎इमारत की फफूँदी है कि लग गई सो लग गई। अब उतर नहीं सकती। माल-ओ-अस्बाब पर मुनहसिर नहीं ‎यहाँ के बाज़ बूढ़े भी इस इमारत की फफूँदी सी लगते थे। मैं अपने आपको और उसे देखता हूँ और सोचता ‎हूँ कि जवानी दिनों में कैसे चली जाती है उन बूढ़ों को देखता हूँ जिन्हें हमने अपने लड़कपन में बूढ़ा ही देखा ‎था और सोचता हूँ कि बुढ़ापे को कितना क़रार और सबात है। शायद उम्र भी इक मुक़ाम पर आकर ठहर ‎जाती है। ख़ैर उस वक़्त तो किसी को क़रार नहीं था। मकीन मकानों से और माल-ओ-अस्बाब दूकानों से ‎निकला पड़ा था, जैसे किसी ने मशाल से छत्ते को सुलगा दिया है और भिड़ें बिल-बिलाकर निकल पड़ी हैं, ‎भिन-भिना रही हैं। चीख़ें, एक दूसरे को आवाज़ें। ग़ुस्सैली आवाज़ें, दर्द भरी आवाज़ें, अज़ीयत-नाक आवाज़ें, ‎गिरती पड़ती औरतें, बच्चे, बूढ़े। बाहर ढलता हुआ सामान, लपक कर आते हुए लोग, उस ग़ैर वक़्त में कि ‎अभी सुबह नहीं हो पाती थी जिस जिसने शोर सुना पहुँचा। कुछ पानी की बालटियां भर भर के लाए थे। ‎कुछ ढाटे मुँह पर बांध कर अंदर घुस पड़े और अंदर का सामान अंधा धुंद बाहर फेंकने लगे।

    ‎“अरे भाई मुख़तार साहब को भी पता है या नहीं?” किसी ने यकायक चिल्ला कर कहा।

    ‎“उसे तो उस वक़्त पता चलेगा जब सब जल जाएगा किसी ने ग़ुस्से में कहा।

    ‎“इत्तिला दे देनी चाहिए।”

    ‎“इत्तिला देने कौन जाये जी। याँ जानों पे बनी हुई है।”

    फिर किसी तरफ़ से भागे-भागे दो सक्के आए। सड़क पर लगे हुए नल से मश्कें भरीं और लपक-झपक ‎जलती इमारत के अंदर घुस गए।

    ‎“अरे भई किसी ने फ़ायर ब्रिगेड वालों को इत्तिला दी है?”

    ‎“पता नहीं जी।”

    ‎“इत्तिला नहीं है तो फिर जल्दी दे देनी चाहिए।”

    ‎“फ़ायर ब्रिगेड वालों का फ़ोन नंबर क्या है?”

    ‎“फ़ोन नंबर...? अरे भई किसी को फ़ायर ब्रिगेड वालों का फ़ोन नंबर मालूम है?”

    तीसरी मंज़िल वाला कोने का फ़्लैट अब बिलकुल शोलों और धुएं के नर्ग़े में था। सामने वाली दीवार से ‎पलस्तर बहुत उतर गया था। एक दो जगह अच्छे ख़ासे भम्बाके खुल गए थे। अब वो थोड़ा बेचैन हुआ, “आग ‎तो बढ़ती ही चली जा रही है।”

    मुझे भी तशवीश हुई। “हाँ अब तो बहुत बढ़ गई है।”

    बोला, “अस्ल में मेरे कमरे की छत ज़्यादा मज़बूत नहीं है। पिछली बरसात में बहुत टपकी थी।” रुका। फिर ‎आहिस्ता से बोला। “कहीं गिर पड़े।” ये कहते कहते मेरा हाथ पकड़ा , “चलो चलें।”

    वो और मैं दोनों वहाँ से ख़ामोशी से सरक आए। लोग आते चले जा रहे थे।

    अब उजाला हो चला था। वो और मैं शोर से दूर होते जा रहे थे।

    अब उजाला हो चला था। बरकत चाय वाले की दुकान खुल चुकी थी और चूल्हे पे रखी केतली में पानी ‎सनसनाने लगा था। हाजी साहब और मुंशी अहमद दीन रोज़ की तरह आज भी मस्जिद से वापिस होते हुए ‎यहाँ बैठे थे। हाजी साहब के होंट हिल रहे थे और उंगलियों में तस्बीह गर्दिश कर रही थी। वो और मैं ‎उनसे किसी क़दर हट कर मूंढों पर बैठे थे। और सामने पड़ी हुई टूटी फूटी मेज़ पर चाय की प्यालियाँ। चीनी ‎चाय का इन्तेज़ार कर रहे थे। बरकत ने दूसरे चूल्हे पे दूध की कढ़ाई रखी। फिर चाय के बर्तन साफ़ करने ‎लगा। फिर प्याली कपड़े से पोंछते-पोंछते मुंशी अहमद दीन से मुख़ातिब हुआ, “मुंशी साहब जी।”

    मुंशी अहमद दीन ने सवालिया नज़रों से बरकत को देखा। बरकत बोला, “मुंशी साहब जी, मार्कीट में आग ‎लगी तो उन्होंने कह दिया कि हुजूम ने आग लगाई है। अब पूछो ये आग किस ने लगाई है।”

    मुंशी अहमद दीन ने अफ़सोस भरे लहजा में कहा कि “भई हमारी समझ में तो कुछ नहीं आता कि ये सब ‎हो क्या रहा है और क्यों हो रहा है। क्यों हाजी साहब?”

    हाजी साहब ने तस्बीह फेरते-फेरते ठंडा साँस भरा, “अल्लाह हम पे रहम करे।”

    मुंशी अहमद दीन बोले, “जब हम एक दूसरे पे रहम नहीं करते तो अल्लाह हम पे क्यों रहम करेगा।”

    बरकत ने परज़ोर लहजे में ताईद की। “बिलकुल सच्च है जी। रोज़ आग, रोज़ आग, हद हो गई।”

    ‎“हाँ हद हो गई,” मुंशी अहमद दीन बोले। “हमारी ये उम्र होने को आई। और कैसा-कैसा ज़माना हमने देखा ‎मगर इतनी आगें कभी नहीं देखी थीं।”

    ‎“क्यों जी कुछ छोड़ेंगे भी या सब ही जला डालेंगे?”

    हाजी साहब तस्बीह फेरते-फेरते मुंशी अहमद दीन से मुख़ातिब हुए। “मुंशी साहब तुम्हें याद है जब पीली ‎हवेली में आग लगी थी?”

    ‎“याद है,” मुंशी अहमद दीन कहते-कहते काँप गए। “क्या क़यामत की आग लगी थी। लगता था कि सारी ‎बस्ती जल जाएगी।”

    ‎“हाँ,” हाजी साहब ने ठंडा साँस भरा, “वो हवेली क्या जली, बस्ती ही जल गई। बाज़-बाज़ इमारत इसी तरह ‎जलती है कि साथ में बस्ती की बस्ती राख का ढेर बन जाती है। अल्लाह बस अपना रहम करे।” हाजी ‎साहब ने फिर एक ठन्डा साँस भरा और चुप हो गए।

    हाजी साहब की बात का इतना असर हुआ कि थोड़ी देर के लिए बरकत और मुंशी अहमद दीन भी चुप हो ‎गए। मगर फिर मुंशी अहमद दीन ख़ामोशी से घबरा गए। पूछने लगे, “हाजी साहब, पीली हवेली तो ग़दर के ‎वक़्तों की थी।”

    ‎“हाँ उन्हें वक़्तों की इमारत थी। हज़रत मुहाजिर मक्की साहब ने वहाँ तीन शब क़ियाम फ़रमाया था।”

    ‎“अच्छा?”

    ‎“हाँ। तीसरे दिन अजब वाक़िया गुज़रा। मग़रिब का वक़्त था हज़रत साहब अस्तबल ही के अंदर चौकी पे ‎बैठे वुज़ू कर रहे थे।”

    ‎“अस्तबल के अंदर?” बरकत ने चकराकर सवाल किया।

    ‎“हाँ अस्तबल के अंदर। अस्ल में तो वो वहाँ खु़फ़ीया ठहरे हुए थे। ख़्याल था कि अस्तबल की तरफ़ किसी ‎का ध्यान नहीं जाएगा। मगर किसी बेदीन ने सी आई डी कर दी। कलैक्टर घोड़ा को दाता हुआ ऐन मग़रिब ‎की अज़ान के वक़्त आन धमका। बोला कि वेल नवाब साहब हम तुम्हारा घोड़ा देखना माँगता। अस्तबल ‎खोलो। नवाब के काटो तो ख़ून नहीं। मगर हुक्म-ए-हाकिम क्या करता। अस्तबल खोल दिया।”

    हाजी साहब बोलते-बोलते रुके और बरकत और मुंशी अहमद दीन का दम गले में आन अटका, “अच्छा... ‎फिर?”

    ‎“फिर ये कि कलैक्टर भनभनाता हुआ अंदर दाख़िल हुआ। क्या देखा कि पानी फ़र्श पे बिखरा हुआ जैसे ‎अभी-अभी किसी ने वुज़ू किया हो। लोटा ख़ाली। मुसल्ला बिछा हुआ। हज़रत साहब ग़ायब।”

    ‎“ग़ायब?” बरकत ने हैरत से सवाल किया।

    ‎“हाँ,” हाजी साहब ने इतमीनान के लहजे में कहा।

    ‎“कहाँ गए जी वो?”

    ‎“वो,” हाजी साहब मुस्कुराए। “हज़रत साहब? हज़रत साहब उस वक़्त तक मदीना मुनव्वरा पहुँच चुके थे।”

    ‎“सुब्हान-अल्लाह” मुंशी अहमद दीन की ज़बान से बेसाख़ता निकला।

    ‎“कमाल हो गया जी,” बरकत कहते कहते केतली की तरफ़ मुतवज्जा हुआ। केतली का पानी उबलने लगा ‎और ढक्कन भाप के ज़ोर से उड़ा जा रहा था। उसने केतली चूल्हे से उतार जल्दी से उसमें चाय की पत्ती ‎डाली और प्यालियों में चाय तैयार करने लगा।

    ‎“हज़रत साहब बड़ी हस्ती थे,” मुंशी अहमद दीन बोले।

    ‎“भाई उन्हीं के दम-क़दम की बरकत थी।” हाजी साहब कहने लगे कि “ग़दर में ख़ून की नदियाँ बह गईं ‎मगर पीली हवेली पे आँच नहीं आई।” चुप हुए ताम्मुल किया। फिर हँसे और बोले, “ख़ुदा की क़ुदरत जिस ‎हवेली का फ़िरंगी कुछ नहीं बिगाड़ सकता था उसे आगे चल कर अपनों ही ने आग लगा दी।”

    ‎“हमने तो सुना है कि वो आग भी अंग्रेज़ ही ने लगवाई थी,” मुंशी अहमद दीन बोले।

    ‎“अंग्रेज़ ही ने लगवाई थी। मगर लगी किस के हाथों से। अपने ही भाईयों के हाथों लगी थी ना।”

    ‎“ये तो है,” मुंशी अहमद दीन फ़ौरन ही क़ाइल हो गए।

    बरकत ने अब चाय बना ली थी। दो प्यालियाँ हाजी साहब और मुंशी अहमद दीन के सामने रखीं फिर दो ‎प्यालियाँ हमारी मेज़ पर लाकर रख दीं। मुंशी अहमद दीन ने प्याली अपनी तरफ़ सरकाई। एक घूँट लिया। ‎फिर प्याली रखते हुए बोले, “मगर साहब अंग्रेज़ का जवाब नहीं।”

    ये सुनते-सुनते बरकत ने झुरझुरी ली जैसे अचानक उसे कुछ याद गया हो। बोला, “मुंशी जी, वो जो एक ‎गोरी चमड़ी वाला दूसरी मंज़िल में नुक्कड़ वाले फ़्लैट में रहता था वो मुझे दिखाई नहीं दिया।”

    ‎“तुम मिस्टर जेम्ज़ की बात कर रहे हो?”

    ‎“हाँ जी उसी की। इस वक़्त सब फ़्लैटों वाले बाहर निकले खड़े थे। जाने वो कहाँ था। दिखाई तो दिया नहीं।” ‎ये कहते-कहते वो हमसे मुख़ातिब हुआ। “साहब जी, आपने उसे देखा था।”

    वो तो ख़ामोश बैठा रहा। मैंने सादगी से कहा, “भई नज़र नहीं आया।”

    ‎“यही तो मैं कह रहा हूँ। नज़र तो आया नहीं। गया कहाँ?”

    इतने में मुमताज़ गया। थका-थका सा, पसीने में शराबोर, मुँह पर और कपड़ों पे हल्की-हल्की सी ‎कालिस। ख़ामोशी से किसी क़द्र बेज़ारी के साथ एक हत्थे वाली अंजर-पिंजर कुर्सी मुंशी अहमद दीन के ‎क़रीब घसीट बैठ गया। फिर कुरते की जेब से अध-मैला रूमाल निकाल गर्दन पोंछने लगा।

    ‎“कुछ कम हुई?” मुंशी अहमद दीन ने किसी क़द्र ताम्मुल से पूछा।

    ‎“कम? वो तो बढ़ती ही चली जा रही है।” मुमताज़ चुप हुआ। फिर बड़बड़ाया, “लगता है कि पूरी बिल्डिंग ही ‎राख का ढेर हो जाएगी।

    हाजी साहब ने तस्बीह फेरते-फेरते मुमताज़ को ग़ौर से देखा। फिर सवाल किया। “मुख़तार साहब को तो ‎इत्तिला पहुँच गई होगी।”

    मुमताज़ ने बुरा सा मुँह बनाया। “हाजी साहब सुबह ही सुबह किस का नाम ले दिया।”

    हाजी साहब ने बहुत मितानत से कहा, “मियाँ मैं ये पूछ रहा हूँ कि मुख़तार साहब मौक़ा-ए-वारदात पे पहुँचे ‎या नहीं पहुँचे।”

    ‎“पहुँच गया जी। ऐसे जता रहा था जैसे उसे कुछ ख़बर ही नहीं है।”

    ‎“ख़बर तो किसी को भी नहीं थी। ख़बर हो जाती तो आग लगती ही क्यों,” मुंशी अहमद दीन बोले।

    ‎“उसे सब ख़बर थी।”

    ‎“मुख़तार साहब को ख़बर थी? ग़लत। ये इल्ज़ाम तराशी है,” मुंशी अहमद दीन ने बहुत ग़ुस्से से मुमताज़ को ‎देखा।

    मुमताज़ ने मुंशी अहमद दीन की बात का कोई जवाब नहीं दिया। उनकी तरफ़ से मुँह फेर कर बरकत से ‎मुख़ातिब हुआ, “बरकत, चाय पिलवाएगा?“

    ‎“हाँ जी। क्यों नहीं।” बरकत फुर्ती से चाय बनाने लगा।

    अख़बार फ़रोश साईकल पे पैडल मारता तेज़ी से आया। गुज़रते-गुज़रते उर्दू का एक अख़बार मेज़ की ‎तरफ़ उछाला और छलावा बन गया। मुंशी अहमद दीन ने अख़बार उठाकर एक वर्क़ हाजी साहब को ‎पकड़ा दिया। दूसरा वर्क़ मेज़ पर फैला कर ख़ुद पढ़ने लगे। बरकत ने चाय बनाकर प्याली बढ़ाई। मुमताज़ ‎ने थोड़ा उठकर प्याली पकड़ी। मेज़ पर रखी। पीने लगा। मुंशी अहमद दीन ने कोई ख़बर पूरी पढ़ी, कोई ‎आधी, किसी की सिर्फ सुर्ख़ी पर नज़र डाली। फिर वर्क़ हाजी साहब के हवाले किया। फिर कहने लगे, ‎‎“हाजी साहब मशरिक़ वुसता में हालात बिगड़ते ही जा रहे हैं। मेरा ख़्याल है कि लड़ाई फिर हो गई।”

    ‎“और फिर अरब मार खाएँगे मुमताज़ चाय पीते-पीते जले फुंके लहजे में बोला।

    बरकत ने टुकड़ा लगाया। “पाकिस्तान मैदान में जाए, फिर साले यहूदीयों का कबाड़ हो जाएगा।

    हाजी साहब ने अख़बार एक तरफ़ रखा एक ख़फ़ीफ़ से ज़हर खंदा के साथ बोले, “पाकिस्तान पहले घर की ‎लड़ाईयों को तो निबटा ले।”

    इस फ़िक़रे ने बरकत पे बहुत असर किया। दुख भरे लहजे में कहने लगा। “हाजी साहब जी, क्या बात है ‎कि मुस्लमान जहाँ भी हैं वहाँ आपस में लड़ रहे हैं। बस इसी में मारे जा रहे हैं।”

    हाजी साहब ने ताम्मुल किया। फिर बोले, “ये वक़्त मुस्लमानों के ख़िलाफ़ जा रहा है।”

    मुंशी अहमद दीन ने टुकड़ा लगाया, “ये अमरीका का ज़माना है।”

    बरकत ने तरदीद की, “अमाँ मुंशी जी, अमरीका की तो फ़ाख़्ता उड़ गई है। मैं जानूँ अब रूस का ज़माना ‎है।”

    ‎“एक ही बात है,” मुमताज़ ने फिर उसी जले लहजे में कहा।

    बरकत हाजी साहब से मुख़ातिब हुआ। “हाजी साहब जी मुस्लमानों का ज़माना कब आवेगा?“

    ‎“मुस्लमानों का ज़माना लंग गया,” मुमताज़ उसी लहजे में फिर बोला।

    ‎“बाश्शाओ मुड़ के आवेगा।” बरकत ने एतिमाद से ऐलान किया।

    ‎“ऐसे ही जैसे पाकिस्तान में मुड़ के आया है?”

    मुमताज़ के इस वार ने बरकत को बिलकुल ही निहत्ता कर दिया। लाजवाब हो कर वो दूध की कढ़ाई वाले ‎चूल्हे की तरफ़ मुतवज्जा हो गया और ज़ोर-ज़ोर से आग फूँकने लगा।

    मुमताज़ मुंशी अहमद दीन से मुख़ातिब हुआ। “मुंशी साहब, ये मुख़तार पहले क्या था?”

    ‎“पहले तो फांक था जी।” बरकत ने चूल्हे को उसके हाल पर छोड़ा और गर्मी में गया। “बस हमारे ‎देखते-देखते उसने महल खड़े कर लिए।”

    मुंशी अहमद दीन ने तोजा पेश की, “बहुत मेहनती आदमी है।”

    ‎“मेहनती आदमी,” मुमताज़ ज़हर भरी हंसी हंसा।

    बरकत बोला, “मुंशी साहब जी, मेहनत की कमाई में बस रूखी रोटी खाई जा सकती है, जायदादें नहीं ‎बनाई जा सकतीं।”

    रमज़ान कुछ उन हालों आया कि बोलते-बोलते सब चुप हो गए। मुँह झुलसा हुआ, कालिस पुती हुई। कपड़े ‎कुछ-कुछ जले हुए, कुछ धुएँ में रचे हुए। सर से पैर तक पसीना बहता हुआ।

    ‎“रमज़ान चाय बनाऊँ तेरे लिए?”

    ‎“नहीं। कोका-कोला।”

    बरकत ने जल्दी से एक कोकाकोला खोला। और रमज़ान के हाथ में पकड़ा दिया। जब दो तीन घूँट पी चुका ‎तो ख़ुद ही खुला। “मास्टर की बीवी ख़ुद तो निकल आई, बच्चे को अंदर छोड़ आई। बड़ी मुश्किल से ‎निकाला है।”

    मुंशी अहमद दीन ने बड़ी तशवीश से पूछा, “ख़ैरियत से था?”

    ‎“बस जी अल्लाह ने बचा लिया। जब मैं अंदर पहुँचा हूँ तो आग बिलकुल झूले के पास गई थी और सारे में ‎धुआँ भरा हुआ।” रमज़ान चुप हुआ। फिर बोला, “मगर बच्चे ने कमाल कर दिया जी चुसर चुसर चूसनी चूस ‎रहा था। बिलकुल नहीं रोया।”

    मुमताज़ ने दाँत पीसे आप ही आप बड़बड़ाने लगा, “साला यज़ीद की औलाद।”

    रमज़ान मुमताज़ को तकने लगा। फिर इत्तिलाअन कहने लगा, “अब फंस गया मुख़तार।”

    ‎“अच्छा?”

    ‎“हाँ। रहमत पकड़ा गया।”

    मुंशी अहमद दीन अफ़सोस के लहजा में कहने लगे, “मैंने मुख़तार साहब से कहा था कि ये आदमी तुम्हें ‎बदनाम कराएगा। वही हुआ।”

    बरकत बोला, “पर यार रमज़ान मुझे कुछ और शक पड़े है।”

    ‎“क्या?”

    ‎“यार वो जो सफ़ेद चमड़ी वाला था जो दूसरी मंज़िल के नुक्कड़ वाले फ़्लैट में रहता था...”

    ‎“हाँ हाँ। जेम्ज़।”

    ‎“वो एक दम से कहाँ ग़ायब हो गया।”

    ‎“हाँ बे बरकत तू कहवे तो ठीक है।” रमज़ान सोच में पड़ गया। फिर बड़बड़ाया, “वो गया कहाँ?”

    मुमताज़ ग़ुस्से में बड़बड़ाया, “सब साले मिले हुए हैं।”

    मुंशी अहमद दीन बैठे-बैठे उठ खड़े हुए, “हाजी साहब, फिर मैं ज़रा वहाँ जाके देखता हूँ।”

    हाजी साहब फिर ख़ामोशी से तस्बीह फेरने लगे थे। तस्बीह फेरते-फेरते उन्होंने मुंशी अहमद दीन को ‎देखा, आँखों ही आँखों में उन्हें अल-विदा कही और फिर तस्बीह फेरने लगे।

    मुमताज़ ने रमज़ान को मानी-ख़ेज़ नज़रों से देखा। “मैंने मुंशी के बारे में क्या कहा था।”

    ‎“मान गया जी तुम्हें मुमताज़ साहब।”

    ‎“बरकत तुमने देखा,” मुमताज़ बरकत से मुख़ातिब हुआ।” मुंशी जी कैसा उखड़ा है मेरी बातों से।” वो फिर ‎ग़ुस्से से बड़बड़ाया। “हराम-ज़ादे।

    वो बस बैठे-बैठे उठ खड़ा हुआ, “चलो।” मैंने कहा कि “कहाँ?” बोला, “कहीं भी।” हम दोनों वहाँ से उठे। ‎चल पड़े। ख़ामोश चलते रहे। अब अच्छी ख़ासी सुबह थी। धूप भी निकल आई थी। ऊंची मुंडेरों पर चमक ‎रही थी। इक्का-दुक्का आदमी भी चलता फिरता नज़र रहा था। सवारियाँ तो अच्छी ख़ासी ही चलनी ‎शुरू हो गई थीं। ख़ामोश चलते-चलते वो मुझसे दफ़्अ‘तन मुख़ातिब हुआ, “तुम्हें याद है कि हमने इस ‎शहर की गरमीयों की दोपहर मैं किस-किस तरह गुज़ारी हैं।”

    ‎“याद है,” ये कहते-कहते मेरे तसव्वुर में वो अन-गिनत जलती फुंकती दो-पहरें उमँड आईं जो मैंने और ‎उसने दरख़्तों के साए में बैठ कर, दरख़्तों से महरूम फ़ुटपाथों पर चल फिर कर एयर कंडीशनिंग से बे-‎नियाज़ चाय ख़ानों में सर जोड़ कर गुज़ारी थीं मगर उस वक़्त उनका क्या ज़िक्र था। हाँ वो उसके बाद कहने ‎लगा। “कभी-कभी दोपहर में चल-चल कर मैं थक जाता और सोचता कि घर जाकर आराम करूँगा मगर ‎बिजली के पंखे से महरूम वो कमरा दोपहर में तंदूर की तरह तपता था। मैं दोपहर को वहाँ लेट कर कभी ‎न सो सका।”

    इस बात का मैं क्या जवाब देता। सुनता रहा और चलता रहा। फिर वो कहने लगा, “तुम्हें पता है कि खाने ‎का अपना क़िस्सा तो बस ऐसा वैसा ही था तो मैंने इस छत के नीचे भूका रह कर भी बहुत रातें बसर की हैं ‎और भूक में तो यही होता है कि नींद भी जाती है और नहीं भी आती।” वो चुप हुआ और बोला, “मैंने इस ‎छत के नीचे बहुत दुख उठाए हैं। इसे गिरना नहीं चाहिए।”

    ‎“ये क्या मंतिक़ हुई,” मेरे मुँह से बे-साख़्ता निकला।

    उसने ताम्मुल किया। फिर बोला, “शेख़ अली हजवैरी ने देखा कि एक पहाड़ है। पहाड़ में आग लगी हुई है। ‎आग के अंदर एक चूहा है कि सख़्त अज़ीयत में है। और अंधा-धुंद चक्कर काट रहा है। चक्कर काटते-‎काटते वो पहाड़ से और पहाड़ की आग से बाहर निकल आया। और बाहर निकलते ही मर गया।” वो चुप ‎हुआ। फिर आहिस्ता से बोला, “मैं मरना नहीं चाहता।”

    यकायक फ़ायर ब्रिगेड की तुंद-ओ-तेज़ आवाज़ आने लगी। मुझे कुछ ताज्जुब सा हुआ। “फ़ायर ब्रिगेड अब ‎जा रहा है? इतनी देर बाद?” फिर मैंने सोचा कि शायद ये मज़ीद कुमक भेजी जा रही है। फ़ायर ब्रिगेड ‎अपने तुंद-ओ-तेज़ शोर के साथ सामने से गुज़रा चला गया। और अब अचानक लोग जाने कहाँ से उबल ‎पड़े थे। जहाँ-तहाँ खड़ी हुई टोलियाँ ख़ौफ़ भरी सरगोशियाँ, तबसरा आराईयाँ। “आग लग गई?”

    ‎“अब के कहाँ आग लगी?”

    ‎“कुछ बाक़ी भी बचेगा या सब कुछ जल जाएगा।”

    ठंडा साँस ... “अल्लाह हम पे रहम करे...” एक और ठंडा साँस... “बहुत बुरा वक़्त गया है।”

    मैंने यूँ ही पूछ लिया। “आग बुझ भी जाएगी?“

    उसने मुझे हैरत से देखा। “कौन सी आग?”

    ‎“यही जो लगी है।”

    ‎“अच्छा ये आग?” वो सोच में पड़ गया। फिर बोला। “तुम्हारा क्या ख़्याल है।”

    ‎“शायद बुझ ही जाये।” मैंने कहा , “फ़ायर ब्रिगेड तो पहुँच गया है।”

    वो ज़हर भरी हंसी हंसा, “हाँ फ़ायर ब्रिगेड तो पहुँच गया है।”

    हम फिर ख़ामोश चलने लगे। चल रहे थे कि वो बोला, “अगर आग बुझी तो ये सब लोग कहा जाऐंगे?“

    मैंने एक ख़ौफ़ के साथ उस सरासीमा ख़लक़त को याद किया जिसे मैं अभी घरों से बाहर निकला हुआ ‎देखकर आया था। मैंने कहा कि “ख़ुदा करे आग बुझ ही जाये।”

    वो चुप रहा। मैं भी चुप हो गया। हम दोनों चुप चलने लगे देर तक चुप चलते रहे। फिर मैंने किसी क़दर ‎झिजकते हुए कहा, “तुम मेरे घर जाओ।”

    ‎“तुम्हारे घर।” वो अजीब तरह से हंसा। मैं खिसयाना सा हो गया।

    हम देर तक ख़ामोश चलते रहे। मुझे ख़्याल हुआ कि शायद आग के ख़्याल ने उसे बहुत परेशान कर रखा ‎है। बात बदलने की नीयत सीमीं ने कोई बात कही। कोई उधर की बात कोई उधर की बात। फिर और और ‎ज़िक्र निकल आए। और दूर-दूर तक ध्यान गया। दिन गर्म था। धूप अच्छी ख़ासी तेज़ थी और वो और मैं घूम ‎रहे थे, बे-मक़्सद बेवजह, कभी इस सड़क पर कभी उस सड़क पर। गुमशुदा आवारगी की रिवायत ताज़ा ‎हो रही थी। अब हम पहले की तरह कहाँ इकट्ठे होते थे और अब तप्ती दो-पहरों और सुनसान रात में ‎आवारा फिरते थे अब अपनी-अपनी ज़िंदगी थी अपना-अपना धंदा था। आज अच्छे ख़ासे दिनों के बाद मिले ‎थे और अजब मिले कि कूचा गर्दी की सोती हुई रग फड़क उठी। सारे दिन घूमते रहे। रात गए तक इस चाय ‎ख़ाने से उठकर उस चाए-ख़ाने में, उस चाए-ख़ाने से उठकर इस ख़राबे में। आख़िर को रात ढलने लगी ‎और मैं और वो दोनों थक कर चूर हो गए। “अच्छा अब मैं घर चला।”

    ‎“घर?” मैंने उसे हैरत से देखा।

    ‎“हाँ घर।” वो बोला, “मैंने उस छत के नीचे बहुत दुख देखे हैं उसे गिरना नहीं चाहिए।”

    ‎“मगर...” जाने मैं क्या कहना चाहता था। कुछ उलझ सा गया।

    उसने बहुत मतानत से किसी क़द्र ग़ैर जज़्बाती लहजे में कहा, “तुम ठीक सोचते हो मगर मैं मरना नहीं ‎चाहता।”

    मैं देखता ही रह गया। वो चला गया। अपने घर की तरफ़, अपनी आग की तरफ़।

    स्रोत:

    Intizar Husain Ke 17 Afsane (Pg. 199)

    • लेखक: इन्तिज़ार हुसैन
      • प्रकाशक: मॉडर्न पब्लिशिंग हाउस, दरियागंज, नई दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1980

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