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बाबा लोग

MORE BYग़यास अहमद गद्दी

    “बाबा लोग सब कमरे में जाओ— अम तुमको कहानी सुनाएगा!”

    फिर बाबा लोग ये सुनते ही कमरे में गये और बुड्ढे अंकल के मोंढे को यूं घेर लिया, जैसे अकमस की नन्ही नन्ही मोमबत्तियां हों जो बड़े से केक के चारों तरफ़ इस्तादा कर दी गई हों।

    बुड्ढे अंकल ने एक-बार निगाह उठा कर सातों बच्चों का जायज़ा लिया। फिर जेब से आध जला सिगार निकाला। सिगार को जलाने से पहले क़रीब खड़े हुए सबसे छोटे बच्चे को गोद में उठा लिया, और उसके सुर्ख़ फूले हुए गालों को चूमते हुए बोला,

    “हो डोली डार्लिंग तुम क्या माफिक है?”

    “अच्छा माफिक है, अम को कहानी सुनाओ, अबी... वर्ना अम मारेगा! सुनाएगा?”

    “ज़रूर सुनाएगा।” बुड्ढे अंकल ने आहिस्ता से बच्चे को गोद से उतार दिया। लबों से लगे हुए सिगार को जेब में रख लिया। फिर उसके होंटों पर मुस्कुराहट आगई और उसका बुझा-बुझा चेहरा चमक उठा, जैसे इका एकी चांद पर से बदली हट गई हो।

    “बाबा, तुम लोग अम को एक बात बताएगा। फिर कहानी सुनाएगा।”

    “बताएगा, बताएगा।” बाबा लोग ने एक ज़बान हो कर कहा।

    “तो बोलो ये दुनिया इतनी ब्यूटीफुल क्यों है?”

    बच्चे, जिनसे कई बार ये सवाल दुहराया गया है वो हस्ब-ए-दसतूर एक ज़बान हो कर चांद की तरफ़ इशारा करने लगे, “मून से!”

    “वेरी गुड, मून ऐसा चमकता है जैसे।” बुड्ढा अंकल एक लम्हे के लिए रुक गया एक नज़र उसने सब बच्चों पर डाली। फिर सबसे ख़ूबसूरत बच्ची के सर पर हाथ फेरते हुए बोला, “जैसे अपना बेबी डोली। फिर उसने चांद की तरफ़ नज़रें गाड़ दीं, “जैसे अपना बेबी मार्गेट....!”

    सब बच्चों ने मिलकर तालियाँ बजादीं, जिसको सुन को बुड्ढा अंकल जो दूर आसमान के फैलाव में चमकने वाले चांद पर कमंदें डाल रहा था, अपनी जगह वापस गया।

    “बुड्ढा अंकल, कहानी मांगता.... कहानी मांगता.....” बाबा लोग तालियाँ बजा बजा कर शोर कर रहे थे।

    फिर कहानी शुरू हो गई।

    “....... जब किंग बाहर से शराब पी कर आता तो ख़ूब शोर करता, क्वीन को गालियां बोलता, उस को ख़ूब मारता, नोचता; कुत्ता माफिक, और बोलता। अम बेबी मांगता, सन मांगता.... क्वीन कुछ नहीं बोलता। वो बहोत रोता। धीरे-धीरे रोता, ऐसा माफिक जैसे टाइम पास होता क्वीन रोता इस टाइम उसका एक ख़ानसामां होता। बाबा लोग ख़ानसामां जानता। अमारा माफिक ख़ानसामां।”

    फिर बाबा लोग जो सैंकड़ों बार दुहराई हुई कहानी सुनते-सुनते उकता चुके थे शोर करने लगे, “नहीं मांगता। ये कहानी नहीं मांगता.......ये ओल्ड कहानी नहीं मांगता......न्यू लाओ,न्यू...”

    उस वक़्त बुड्ढे अंकल की आँखों में आँसू गये। “किदर से लाएगा। किदर से न्यू लाएगा, बाबा लोग...”

    वो बरसों का भूका बैल माज़ी के चटियल मैदान में हस्ब-ए-दस्तूर मुँह मारने लगा। शायद कोई पौदा मिल जाये..... शायद कोई हरियाली नज़र जाये। अपना तो सब कुछ लुट गया। एक छोटा सा पौदा था, उसके आस-पास कितना बड़ा बड़ा कांटा वाला तार लगा दिया है। दुनिया वाला, तुम को कैसे बोलेगा। कैसे बताएगा....?”

    “ए बुड्ढा! तुम आपसे आप क्या बकता है?” बुड्ढा अंकल हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ, गोया सुलगता हुआ सिगार उसके कपड़ों पर गिर गया हो!

    “बेबी कुछ नहीं बकता।” वो इधर-उधर देखते हुए मुस्कुराया। “अबी बाबा लोग था, कहानी सुनता था...”

    उसकी तेवरियाँ चढ़ गईं। “अम तुमको बहोत बोला। तुम बाबा लोग को मत खराब करो। बुड्ढा तुम सुनता क्यों नहीं?”

    “अब नहीं खराब करेगा। बेबी एसक्यूज़ मी, बेबी....” उसका हाथ आपसे आप गर्दन और सर को सहलाने लगा। “अब कभी नहीं कहानी सुनाएगा...”

    मारग्रेट मुँह ही मुँह में बड़बड़ाती अपने नये दोस्त जॉर्ज की बाँहों से लगी आगे बढ़ी। बुड्ढे अंकल की आँखों में आँसू गये। उसने हिम्मत कर के मारग्रेट को देखा।

    “पर बेबी एक बात सुनेगा?”

    “क्या बोलना मांगता?”

    बुड्ढा अंकल हँसने लगा। बेबी, जब तुम छोटा था, बहोत कहानी सुनता था...अपना डाली माफिक....!”

    “शेट अप, यू नॉन सेंस....”

    फिर वो चुप-चाप अपने मैले जैकेट वास्कट की जेब में अध जले सिगार को टटोलता अपने कमरे में चला गया। वो अपनी छोटी सी चारपाई के झेलंग में धँस गया.... डूबता चला गया। वक़्त कितनी तेज़ी से भागता है, जैसे..... जैसे बाबा लोग की गेंद। बेबी किस तरह उसकी गोद में बैठ कर अपने नन्हे-नन्हे हाथों से उसकी मूंछ को पकड़ कर खींचती थी। “अंकल कहानी मांगता..... कहानी सुनाओ अम को...!”

    मगर अब बेबी कहानी नहीं मांगता। इस पौदे के तने मोटे हो गये हैं। क़द लंबा हो गया है। पहले वो कहानियों के झूले में झूलने के लिए कैसे मचला करती थी मगर अब ख़ुद चाहती है कि कोई उसके तने में रस्सियों का झूला लगा कर लंबी लंबी, पेंग खाए......और कहीं वो तना टूट गया तो? ख़म खा गया तो?.....बेवक़ूफ़ बच्ची, फिर ज़िंदगी का बार-ए-गराँ तू कैसे उठा सकेगी?बोल...बोल ....नादान मारग्रेट?

    मारग्रेट के कमरे से क़हक़हे की आवाज़ रही थी..... रात तारीक है, घर में साहिब नहीं, मेम साइब नहीं.... और बेबी कमरे में एक नौजवान के साथ... उसने अ’क़ीदत से सीने पर सलीब बनाई। “युसु मसीह! मेरे नन्हे पौदे को इस बाद-ए-समूम से बचाओ...”

    उसने पलट कर देखा बेबी के कमरे में जलती बुझती रौशनियों में दो साये आपस में ख़लत-मलत हो रहे हैं। फिर वो उठ बैठा। पैरों में फ़ुल बूट पहना, खूँटी से पुरानी, तेल से दाग़दार फ़ेल्ट उठा कर आहिस्ता से सर पर रख ली। बरामदा तय करते हुए सीधा बेबी के कमरे के पास रुक गया।

    “बेबी, मारग्रेट बेबी! दरवाज़ा खोलो।”

    कमरे में अचानक अबतरी फैल गई...

    “क्या है बुड्ढा, क्या मांगता...?”

    “बेबी, साइब आता। अभी उदर में अम जीप का लाईट देखा...”

    दोनों जल्दी जल्दी ड्राइंगरूम में बैठे। बेबी ने अपने उलझे हुए बालों को जल्दी जल्दी दुरुस्त कर लिया। फिर दोनों ने अपने अपने सामने मेज़ पर ताश की पत्तियाँ यूं फैला लीं, गोया खेल घंटों से हो रहा है।

    बुड्ढा अंकल ने दुबारा सलीब बना ली। युसु मसीह बेबी को बचाओ.... मन ही मन में उसने शुक्रिया अदा किया और बरामदे में सरकंडे की कुर्सी में धँस गया।

    वो जो पत्थर सा था आप ही आप खिसक गया। फिर जब काफ़ी देर हो गई और साहिब नहीं आया तो ड्राइंगरूम से बेबी पांव पटकती हुई बाहर आई। और बुड्ढा अंकल को कुर्सी पर ऊँघता हुआ देखकर उसने सैंकड़ों गालियां दीं.... “यू ब्लाडी फ़ूल तुम झूट बोलता।उल्लू, गधा, तुम किदर को जीप देखा? तुमको नया मेम साइब ठीक गाली देता। धक्का मारता..... उल्लू..... ।”

    “देखा, बाई गॉड, बेबी! अबी और मैं लाईट देखा। अम से भूल हुआ। वो दूसरा जीप होगा।”

    मारग्रेट गालियां बकती फिर ड्राइंगरूम में चली गई। हसरत से बुड्ढा अंकल ने एक लंबा सांस लिया। “युसु मसीह! बेबी को बचाओ। अपना बेबी बहोत छोटा है। कुछ नहीं जानता। बाई गॉड वो हंड्रेड तक गिनना नहीं जानता। वो बहोत मुश्किल में फंसे जाता। उसका हेल्प करो। युसु मसीह उसका हेल्प करो....” वो रोने लगा। सिसक सिसक कर रोने लगा। फिर वो चुप हो गया, और हस्ब-ए-आदत बैठा बैठा ऊँघने लगा।

    वक़्त बूँद बूँद कर के गिरता है, और ख़ुश्क ज़मीन पर गिर कर कैसा सूख जाता है। बस देखते-देखते नज़रों से ओझल हो जाता है। फ़र्श पर सिर्फ़ उसका निशान रह जाता है, जिससे सोंधी-सोंधी ख़ुशबू निकलती है...निकलती ही रहती है। कभी बंद नहीं होती, और अब बुड्ढे अंकल की बेमस्रफ़ ज़िंदगी में बजुज़ इस बू के सूँघते रहने के और कुछ नहीं रह गया है, कुछ काम नहीं। कमीनों की तरह नई मेम साहब की गालियां सुनकर भी रोटी का ख़ुश्क टुकड़ा गले से उतारते हुए उसके हलक़ में कुछ नहीं फँसता। वो मज़े से गर्दन झुकाए खाता रहता है। पहले जब अभी चिराग़ गुल नहीं हुआ था वो भड़क उठता और पुराने सख़्त फ़ुल बूट को घसीटता दहलीज़ को भी उ’बूर कर जाता, मगर साहिब फिर उसे वापस बुला लेता। साहिब नहीं उसके अंदर से एक जानी-पहचानी मगर वक़्त की बूंद में जज़्ब होती आवाज़ उसके पैरों से चिमट जाती। फिर उस वक़्त उसका दिल धक-धक करने लगता। वो सोंधी सोंधी बू उसके नन्हे से होती हुई सारे आ’साब पर छा जाती। और अब उसकी बेमस्रफ़, बेकार ज़िंदगी में बजुज़ इस बू को सूँघते रहने के रह ही क्या गया है। मारग्रेट बेबी तुम भी तो एक क़तरा हो, जिसमें तुम्हारी माँ की ख़ुश्बू रची हुई है।

    “मैं उस ख़ुश्बू के बग़ैर कैसे ज़िंदा रह सकता हूँ बेबी? कैसे ज़िंदा रह सकता हूँ....?”

    बाहर एक हिचकोले के साथ जीप के रुकने की आवाज़ सुनाई दी। बुड्ढा अंकल ने हड़बड़ा कर आँखें खोल दीं। अभी कुछ पाते पाते उसने खो दिया। फिर उसके कानों में जूते की आवाज़ सुनाई दी। वो चौंक कर उठ खड़ा हुआ। कीच भर हुई आँखों के किनारे आँसूओं से नम हो रहे थे। उसने हाथ उठा कर आसतीन से आँखें पोंछ लीं।

    बरामदे को उ’बूर कर के नई मेमसाहब उसके सामने गई। “यू बुड्ढा, तुम इदर में क्या करता?” उसने नफ़रत से बुड्ढा अंकल को घूरा। “क्या चोरी करना मांगता?”

    “नो मेम साइब ऐसा माफिक नहीं। उदर बेबी है ना....” वो रुक गया। क्या वो सच्च कह दे? नहीं! नई मेम साइब अभी बेबी को बहोत गालियां देगी। बहोत झगड़ा करेगी। सौतेली माँ है ना! बहोत तकलीफ़ देगी..... उसका दिल लरज़ गया।

    “बेबी है तो तुम क्या करता बुड्ढा? नई मेम साहब ने चेस्टर उतार कर अपने हाथ पर रखते हुए पूछा।

    “कुछ नहीं, वो अपने फ्रेंड के साथ रमी खेलता....” और वो गर्दन झुकाए वहां से टल गया।

    फिर एक दिन बुड्ढे की निगरानी और ढिटाई से तंग आकर बेबी ने शिकायत कर दी। “पप्पा डार्लिंग! उस कमीने कुत्ते को बाहर निकाल दो। वो मुझे बहोत डिस्टर्ब करता— मुफ़्त की रोटियाँ तोड़ता है...”

    पप्पा पाइप में तंबाकू भरते हुए मुस्कुराए। फिर बेबी के कंधे पर हाथ फेरते हुए प्यार से बोले, “नहीं बेबी! तुम ऐसा माफिक कहा करो। वो बुड्ढा बहुत अच्छा आदमी है। वो अमारी तुमारी ख़िदमत करते इस उम्र को पहुँचा है। वो बहोत नेक है...” और कहते कहते पप्पा अपने आप में गुम हो गए। “तुम नहीं जानतीं, बेबी डार्लिंग! जब तुम अभी नहीं आई थीं, और मैं शराब के नशे में तुमारी माँ को महज़ इसलिए ज़द-ओ-कूब करता कि वो मुझे एक बच्चा देने से मजबूर थी, तो बुड्ढा तुमारी मदर के सामने खड़ा हो जाता और फिर बेद पूरा उसके जिस्म पर टूट जाता। वो उफ़ तक करता। सिर्फ़ उसके चेहरे पर तकलीफ़ के बाइ’स लकीरें बनतीं, बिगड़तीं और आँखों से पानी झरझर बहता। वो चुप-चाप सह जाता। फिर बेबी तुम आईं और तुमारी मदर उसी रात मर गई, तो वो कैसा रोया कैसा तड़पा था मैं वो मंज़र कभी नहीं भूल सकता....”

    “मगर पप्पा वो कमबख़्त मेरे आगे पीछे साये की तरह लगा रहता है। गोया मैं उसकी क़ैद में हूँ...”

    “नो बेबी वो तुझे बहोत चाहता, बहोत चाहता है..... बिल्कुल अपना बेबी समझता है।” पप्पा हंस दिए, “बेबी जब तुम बहुत छोटी थीं ता’ज्जुब तब भी वो इसी तरह तुम्हारे पीछे साये की तरह लगा रहता था। जब तुम बहोत रोतीं और आया तुम पर ग़ुस्सा होती तो वो चिड़ कर उससे छीन लेता.... आया जब तुम्हें दूध पिला रही होती वो कहीं से छुप कर देख रहा होता। मैंने एक दिन पूछा। ऐसा माफिक क्यों? बोला, आया बेबी का दूध पीना मांगता....” पप्पा क़हक़हा लगा कर हंस पड़े। “फिर जब वो ईद के रोज़ नमाज़ पढ़ने जाता तो जाने से क़ब्ल तुम्हें अपने हाथों से नहलाता, बहोत अच्छा अच्छा कपड़ा पहनाता.... नमाज़ से वापस आता तो कोई कोई तोहफ़ा ज़रूर लाता, और तुम्हें गोद में उठाकर प्यार करते वक़्त पता नहीं क्यों फूट फूटकर रोने लगता और उस वक़्त तक रोता और तुम्हें प्यार करता जब तुम्हारी स्टेप मदर आकर उसे गालियां देती। एक रोज़ मैंने इससे रोने का सबब पूछा तो बूढ्ढा बुझे हुए लहजे में बोला, ‘अमारा भी ऐसा माफिक एक बेबी है, एकदम अपना बेबी माफिक.....’ मगर मैं जानता हूँ उसका कोई बच्चा नहीं था। वो चौदह साल की उ’म्र से तो मेरे पास है....”

    “मगर पप्पा, वो तो बचपन की बात है। अब अगर वो मेरे जिस्म को छूए तो मैं जब तक तीन बार नहाऊँ नहीं, मुझे चैन नहीं आएगा...”

    “नो बेबी, ऐसा नहीं बोलना चाहिए।”

    “नो पप्पा, आप इस ब्लाडी को डाँट दीजिए। वो मेरे मुआ’मलात में दख़ल दे।”

    “अच्छा अच्छा में उसे मना कर दूँगा। तुम ग़ुस्सा करो, मगर बेबी, उस दिन बुड्ढा तुम्हें वाक़ई कहीं लेकर चला जाता और वापस आता तो जानती हो आज तुम उसकी बच्ची कहलातीं...” पप्पा हँसने लगे। “बेबी ये बुड्ढा एक दिन तुम्हें लेकर कहीं भाग गया था...”

    “हाय पप्पा?” उसने कुछ समझते हुए ता’ज्जुब से कहा।

    “हाँ बेबी, जब तुम बहोत छोटी थीं। तुमारी नई माँ आई तो उसने पैसे की बचत के ख़्याल से तुमारी आया को हटा दिया और ख़ुद तुमारी देख-भाल करने लगी मगर...” पप्पा ने दरवाज़े की सिम्त देखते हुए आहिस्ता से कहा, “मगर स्टेप मदर अपनी माँ कहाँ हो सकती है। वो तुम्हें बहोत तकलीफ़ देने लगी। तुम दूध के लिए चिल्लाती रहतीं और वो ड्रेसिंग टेबल से उठतीं। तुमारे कपड़े पेशाब से तर रहते और तुम उसमें पड़ी रहतीं..... शायद यही सब देखकर बुड्ढा अंकल ने एक रोज़ मुझसे शिकायत की मैंने नई मेमसाहब की शिकायत सुनकर उसके एक तमांचा रसीद किया, और कमरे से बाहर निकाल दिया। जिसके बाद दो दिनों तक वो ख़ामोश रहा, मगर एक दिन पता नहीं क्यों तुम्हें उठा कर कहीं ले गया...”

    “फिर में कैसे लाई गई पप्पा?” बेबी दिलचस्पी महसूस करने लगी।

    “वो आप ही गया। दिन भर अम लोग बहोत परेशान रहे। लोकेलिटी का चप्पा चप्पा छान मारा, मगर पता चला। पूरे शहर में तलाश किया। थाने में रपट दी। लेकिन शाम होते ही देखा वो तुम्हें गोद में लिए हस्ब-ए-दस्तूर ठहर ठहर कर चलता हुआ गया। अम लोग दंग रह गये उस की ढिटाई पर। तुम्हें बेड पर डाल कर वो कोने से मोटा बेद ले आया और क़मीज़ उतार कर मेरे पैरों पर झुक गया...”

    “फिर आपने बहोत पीटा होगा उसे?” बेबी अंदरूनी तौर पर क़दरे ख़ुश हुई।

    “नहीं बेबी, मैंने ऐसा नहीं किया। उसे कुछ बोल सका। ज़बान ही खुली जैसे तुम्हारी मम्मी मेरा हाथ रोक रही हो। इस घर में ये बुड्ढा ही तो उसका हमदर्द था ना, उसने ज़रूर मेरा हाथ रोक लिया होगा...”

    “मगर पप्पा! ये बुड्ढा तो ख़राब....

    “नहीं बेबी ऐसा नहीं। वो बहुत अच्छा आदमी है। ज़रूर अच्छा आदमी है। युसु मसीह इस पर मेहरबान है। तुमारी स्टेप मदर इसके साथ कुत्ता जैसा बीहैव करता, मगर तुम ऐसा मत करो। वो बहुत अच्छा बुड्ढा...”

    तीसरे दिन सुबह जब पुराने चर्च की मुनहदिम दीवारों की ओट से भी ज़र्द सूरज उभर रहा था, और ज़र्द प्यारी धूप क्यारियों के नन्हे नन्हे पौदों को धीरे-धीरे चूम रही थीं, बुड्ढा अंकल मुर्ग़ीयों के बड़े से पिंजड़े के क़रीब बैठा उन्हें दाना खिला रहा था, साहिब ने उसे टोका, “बुड्ढा अंकल किया करता उदर में?”

    वो उठ खड़ा हुआ। सर से फेल्ट उतार कर एक ज़रा गर्दन झुका कर गुड मॉर्निंग किया। “इदर मैं अपना मुर्ग़ी लोग को दाना खिलाता साइब। अपना काला वाला मुर्ग़ी बीमार मा’लुम पड़ता, उसको लहसुन देता। ये मुर्ग़ी बहोत अच्छा है, साइब, बाई गॉड बहोत अच्छा वाला है...!”

    “बुड्ढा अंकल तुम भी बहोत अच्छा वाला है। बाई गॉड बहुत अच्छा वाला।” साहिब खिलखिला कर हंस पड़ा। “पर अंकल अपना बेबी तुमारा शिकायत करता। तुम उसको डिस्टर्ब करता। ऐसा मत करो।”

    “पर साइब, अम भी एक बात बोलना मांगता...” वो अचानक बात काट कर कहने लगा, “सुनेगा साइब?”

    “ज़रूर सुनेगा बुड्ढा अंकल..... बोलो।”

    “साइब...अपना बेबी....मारग्रेट बेबी...और वो जॉर्ज...वो जॉर्ज को जानता साइब! अपना बेबी का फ्रेंड होता... ।”

    “हाँ हाँ जानता, तुम बोलो क्या उसके बारे में बोलना मांगता?”

    बुड्ढा अंकल कुछ देर ख़ामोश ज़मीन को तकता रहा। फिर बोला, “साइब वो जॉर्ज अच्छा नहीं। वो अपना लोकेल्टी का एक बेबी को...वो बहोत ख़राब साइब अम जानता...”

    साहिब की तेवरियाँ चढ़ गईं, “तुम क्या बोलना मांगता...अंकल...वेरी बैड....तुम सर्वेंट, सर्वेंट माफिक रहेगा। अमारा घर का बात में कुछ नहीं बोलेगा.... अपना बेबी अच्छा.... अपना जॉर्ज अच्छा...तुम झूट बोलता...ऐसा माफिक नहीं बोलेगा कभी...”

    बरसों बाद आज साहिब के मुँह से सख़्त अलफ़ाज़ सुनकर उसका दिल भर गया। उसने एक-बार नज़र उठा कर साहिब को देखा जो सामने खड़ा अ’जीब नज़रों से उसे देख रहा था।

    “अमारा बात समझा?”

    “समझा साइब, अब कभी नहीं बोलेगा.... एसक्यूज़ मी साइब।”

    वो फिर झुक कर मुर्ग़ीयों के जालदार डरबे में दाना फेंकने लगा। “अपना बेबी अच्छा...अपना जॉर्ज अच्छा...अपना कुत्ता भी अच्छा। फ़क़त ये बुड्ढा नहीं अच्छा। बुड्ढा बहोत ख़राब..... युसु मसीह, ये दुनिया कैसा माफिक है। कैसा माफिक है।”

    बड़ी मोहरी वाली ख़ाकी पतलून, मलगजी क़मीज़, पुराने बूट और छोटे-छोटे स्याह बालों से भरे सर पर तेल और सड़क की धूल से दाग़दार फेल्ट.... सुबह को उसने खाने के बाद ड्रेस किया और दस बजे से क़ब्ल वो साहिब के सामने खड़ा हो गया।

    “गुड मॉर्निंग साइब....!”

    “ओह, गुडमार्निंग बुड्ढा अंकल! आज मॉर्निंग को ड्रेस किया। किदर जाना मांगता?”

    “साइब आज जुमा होता। आज अम शहर जाना मांगता। उदर मैं मस्जिद में नमाज़ पढ़ना मांगता.... ख़ुदा से दुआ करना...”

    साहिब ने आहिस्ता से उसके कंधे पर हाथ रख दिया। “मगर अंकल, आज तुम क्या जाना मांगता। उदर शहर में दंगा होता। हिंदू-मुस्लमान का झगड़ा होता। उदर मैं तुमको कोई मार दिया तो। क्या तुम नहीं जानता?”

    “नो साइब अम जाना मांगता। उदर मस्जिद में दुआ, माँगना मांगता। उदर में अम को कोई नहीं मारता। युसु मसीह अमारा हेल्प करता।” उसने उंगलियों से सलीब बनाई। “साइब अमको आर्डर दो। अम जल्दी जाएगा...?”

    “तुम नहीं मानेगा बुड्ढा अंकल, जाएगा।” साहिब मुस्कुराने लगा। “तो जाओ पर होशयारी से अपने आपको बचा कर...”

    फिर बुड्ढे अंकल ने साहिब को झुक कर सलाम किया और हस्ब-ए-दस्तूर इ’लाक़े के हर राहगीर को गुड मॉर्निंग करता, जब चर्च के सामने पहुंचा तो उसने आहिस्ता से झुक कर सर से फेल्ट उतार ली। सीने पर सलीब बनाई—“युसु मसीह अपना बेबी का हेल्प करो। अपना बेबी कुछ नहीं जानता। वो बाई गॉड हंड्रेड तक गिनना भी नहीं जानता। युसु मसीह अम जानता, वो लड़का वेरी बैड...उसने हिक्क साहिब की लड़की को ख़राब किया...बेबी का ज़रूर हेल्प करो...... युसु मसीह अमारा भी हेल्प करो। अम मस्जिद जाता। अपना गॉड के पास बेबी के वास्ते दुआ करने। उदर में हिंदू लोग मुसलमान को मारता। अमारा हेल्प करो। अम को कोई नहीं मारेगा।” फिर उसने उंगलियों से कंधे और सीने में सलीब बनाई और आगे बढ़ गया।

    वापसी पर वो बहुत ख़ुश था। उसने नमाज़ पढ़ने के बाद दुआ मांग ली थी, और अब उसे यक़ीन हो चला था कि बेबी जॉर्ज के जाल से बहुत जल्द सही सलामत बच निकलेगी। ख़ुदा ने उसकी आवाज़ ज़रूर सुनी होगी। उसको यक़ीन था इसलिए बुड्ढा अंकल आज बहुत ख़ुश था। सह पहर को जब वो शहर से वापस आया तो चुप-चाप अपने कमरे में चला गया। वहां से सिगार लिया, माचिस ली और अपना पुराना मोंढा लिये बाहर लॉन पर गया, और इधर उधर देखकर हस्ब-ए-दस्तूर मुँह पर उंगली देकर सीटी बजाई। जिसको सुनकर आस-पास के क्वार्टरों के सेहन और बागीचों में खेलने वाले छोटे छोटे बच्चे दौड़े आये और बुड्ढे अंकल के क़रीब घास पर बैठ गये। फिर ज़ोर ज़ोर से तालियाँ बजाने लगे। बूढ्ढा अंकल कहानी सुनाओ। बूढ्ढा अंकल कहानी सुनाओ.....

    “पहले एक बात बोलेगा, फिर कहानी सुनाएगा। अच्छा बोलो ये दुनिया ब्यूटीफुल क्यों है?”

    बच्चों ने कोई जवाब नहीं दिया। सभों ने एक-बार आसमान की तरफ़ देखा। फिर एक दूसरे का मुँह देखने लगे।

    “बाबा लोग बोलो।” बुड्ढा अंकल ने हैरत से घूरा, “बोलता क्यों नहीं?”

    “पर बुड्ढा अंकल मून किदर है?” बाबा लोग ने यकबारगी कहा जिसे सुनकर बुड्ढा अंकल बे-तहाशा हँसने लगा।

    “ठीक बोलता। अभी मून किदर है...फिर उसने छोटी-छोटी आँखों को धूप से बचाने के लिए हाथ से साया कर के बेबी के कमरे की तरफ़ देखा, जिसकी खिड़की बंद थी।

    “अभी मून नहीं है, पर बाबा लोग अभी मून आएगा....” और ये कहते-कहते इका एकी कुछ सोच कर वो उदास हो गया, “अपना मून पर गरहन लगना मांगता है...”

    “क्या लगना मांगता है बूढ्ढा अंकल?” हैरत से बच्चों ने उसकी तरफ़ देखा।

    “गरहन!” वो चौंक उठा। “बाबा लोग गरहन नहीं जानता....?”

    “नहीं जानता।”

    बुड्ढा अंकल ये जवाब सुनकर मुस्कुराने लगा। “तो आओ बाबा लोग आज गरहन और मून का कहानी सुनाएगा।”

    ख़ामोश चुप-चुप ! जैसे हिक्क साहिब का बड़ा सा ख़ूँख़ार कुत्ता गर्दन झुकाए ज़मीन सूँघता हुआ गुज़रता है, किसी को कुछ नहीं बोलता, वक़्त भी किसी से बोले बग़ैर पहलू बचा कर निकल जाता है और जब कभी कोई उसके सामने जाता है हिक्क साहिब के ख़ूँख़ार कुत्ते की तरह उस पर झपट पड़ता है, लहूलुहान कर देता है। अब कोई अपना ज़ख़्म लिये लाख चीख़ता चिल्लाता रहे ये ख़ूँख़ार कुत्ता पलट कर देखता तक नहीं, चुप-चाप गुज़र जाता है।

    लेकिन बेबी तो चीख़ भी नहीं सकती, चिल्ला भी नहीं सकती। वो अपना गहरा ज़ख़्म किसी को दिखाने से भी मजबूर होगी। बेबी...माई डार्लिंग बेबी! तुम ठहर जाओ....ऐसा सरपट भागो। यूं आँख बंद कर के दौड़ने से सड़क पर औंधे मुँह गिर भी सकती हो। फिर ये बूढ़ा ख़ूँख़्वार कुत्ता तुम्हें कभी नहीं छोड़ेगा। ऐसा ज़ख़्मी करेगा बेबी कि तुम शायद उठकर चलने के क़ाबिल भी रह सकोगी। फिर मैं बुड्ढा। तुमारा बुड्ढा अंकल, पूरे क्रिश्चन लोकेलिटी का बुड्ढा अंकल जो तुमारे सुडौल और ख़ूबसूरत जिस्म में तुमारी माँ की सोंधी महक पाता है, कैसे ज़िंदा रह सकेगा? ठहर जाओ बेबी..... ठहर जाओ बेबी..... ठहर जाओ...”

    मगर बेबी नहीं ठहरी....बेबी चली गई। रात तारीक तर हो गई थी। लोकेलिटी के शीशों की खिड़कियों से छन-छन कर आने वाली ब्लू रोशनी बुझ चुकी थी। फिर बाग़ के वसीअ’ वीरानों में झिंगुरों की आवाज़ गहरे सन्नाटे को मुसलसल नोच रही थी, जैसे घुप अंधेरे में जुगनू लगातार टिमटिमाए जा रहा हो। गोया अकेले में दिल धड़के ही चला जा रहा हो, धक धक.... धक धक..... बुड्ढे अंकल ने बुझे हुए सिगार को दाँतों से नोच कर हौले से थूक दिया और बे-ताब सा हो कर धीरे से दिल पर हाथ रख लिया। ये दिल....ये दिल कैसा धक धक करता है, कैसा धड़कता है, गोया अपनी अकेली मुहब्बत के पीछे बूढ़े ख़ूँख़्वार कुत्ते को मुँह फाड़े देख लिया हो, ठहर जाओ.... ठहर जाओ.... तुम्हारे पीछे वक़्त का बूढ़ा कुत्ता सरपट भाग रहा है, ....दूर सुनसान सड़क पर काँपते हुए साये ने दुबारा सीटी बजाई... जिसे सुनकर बेबी के कमरे की खिड़की खुली, और एक दूसरा साया धप्प से बुड्ढे अंकल की छाती पर गिरा, और वो अपनी जगह से उठ भी सका। उसके मुँह से आवाज़ तक निकल पाई कोई दिल के वीराने में कराहता रहा...बेबी ठहर जाओ...ठहर जाओ...बेबी...ठहर जाओ ...मगर बेबी निकल गई। बगटुट, जैसे कोई उसे खींचे लिये जा रहा हो।

    फिर रात जो झाग की तरह पूरे अहवाल पर छा गई थी, धीरे धीरे नीचे बैठने लगी। तब बहुत देर बाद सेहन के एक गोशे में अपने पुराने मोंढे पर बैठे हुए बुड्ढा अंकल के कान में उलझती सुलझती साँसों के दरमियान किसी की बेहद धीमी चाल सुनाई दी। वो हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ। “कहीं चोट तो नहीं आई बेबी, तुम्हें कहीं ज़ख़्म तो नहीं लगा..... डार्लिंग...?”

    धीमे से बुड्ढे अंकल के मोटे और करख़्त लबों से आवाज़ निकली, जिसे सुनकर बेबी जो धीरे धीरे खिड़की पर चढ़ने की कोशिश में बार-बार फिसल कर ज़मीन पर रही थी, सहम कर खड़ी हो गई। एक साअ’त के लिए बीबी के जिस्म में एक सर्द सी लहर दौड़ गई, मगर वो सँभल गई। आख़िर बुड्ढा ही तो है। मुफ़्त की रोटियाँ तोड़ने वाला बीमार कुत्ता...... उसने आहिस्ता से मगर सख़्त लहजे में कहा, “तुम इदर में क्या करता सुअर?

    मिट्टी का एक लोथा आख़िर इस उबलते हुए सोते के मुँह पर पड़ा, “कुछ नहीं करता बेबी, कुछ नहीं...”

    “अच्छा अच्छा इदर आओ, अमारा हेल्प करो।”

    “तुम्हारा हेल्प युसु मसीह करेगा बेबी...” बुड्ढा अंकल उसके क़रीब खड़ा हुआ।

    “ओह बुड्ढा! तुम ऐसा माफिक बात करता। अमारा हेल्प करो। अम ऊपर जाना मांगता।”

    बुड्ढे अंकल ने कुछ नहीं कहा। एक रोती बिलकती हुई नज़र से उसने बेबी की तरफ़ देखा और आहिस्ता से खिड़की के नीचे बैठ गया। बेबी जल्दी से जूते समेत अपने दोनों पांव उसके कंधे पर रखकर खिड़की के नीचे कूद गई।

    ये पांव...ये फूल से पांव...कितने भारी लगे आज, जैसे वो मनों मिट्टी के नीचे धँस रहा हो। वो कपड़े झाड़कर उठ खड़ा हुआ। बेबी पाँच का एक नोट उसके हाथों में थमाती हुई मुस्कुराई, पप्पा सच्च कहता, “तुम बहुत अच्छा बूढ्ढा। बहोत वफ़ादार...”

    “पर बेबी एक बात बोलना मांगता।”

    “क्या? बोलो...” उसके तेवर चढ़ गये।

    बुड्ढे अंकल की आँखों में आँसू गये। उसने उंगलियों में काँपते हुए नोट को खिड़की पर आहिस्ता से रख दिया। एक-बार बेबी को नज़र उठा कर देखा और चुप-चाप वहां से हट गया। “कुछ नहीं बोलना मांगता...कुछ नहीं...”

    बेबी की आँखें फटी रह गईं। बुड्ढा आख़िर क्या चाहता है...? पहली बार उसके दिल में बुड्ढे अंकल के लिए कुछ नर्मी सी महसूस हुई। पप्पा कहते हैं बुड्ढा अंकल बहोत अच्छा आदमी है...बुड्ढा नहीं होता तो वो शायद खिड़की पर चढ़ भी नहीं सकती, लेकिन बुड्ढा क्या बोलना चाहता है...?

    “बुड्ढा तुम कमरे में है...” दूसरे रोज़ शाम को मारग्रेट बुड्ढे अंकल के दरवाज़े पर खड़ी थी।

    आफ़ताब कहीं डूब गया। धुंदलका फैल रहा था। आस-पास की चीज़ें रफ़्ता-रफ़्ता आँखों से ओझल होना शुरू हो गई थीं। कमरा काफ़ी तारीक था। बुड्ढे अंकल ने सुबह से बाहर क़दम नहीं निकाला था। वो औंधा मुँह बिस्तर पर यूं पड़ा हुआ था, गोया उसके जिस्म पर भारी बोझ रख दिया गया हो। उसकी आँखें जल रही थी और दिल धड़कते धड़कते थम सा जाता था। फिर उसने महसूस किया गोया उसे बहुत दूर से पुकार रहा हो। जैसे बेबी के पैर को बूढ़ कुत्ते ने जबड़ों में दबा लिया हो, और वो बे-चारी चीख़ भी सकती हो....किसी को पुकार भी सकती हो... बुड्ढा तुम किदर है...बुड्ढा तुम किदर है...

    “बुड्ढा तुम किदर...?”

    वो हड़बड़ा कर उठ बैठा। सामने खड़ी बेबी उससे कुछ पूछ रही थी। “कौन बेबी...तुम अम को मांगता बेबी....वो...वो हिक्क साइब का कुत्ता तुमको किदर में काटा....? बोलो अम उसको जान से मार डालेगा किदर...”

    मारग्रेट हंस पड़ी, “किदर में कुत्ता काटा...यू बुड्ढा पागल तुमको कौन बोला। अम को हिक्क साहिब का कुत्ता काटा....” वो अन्दर चली आई. होश सँभालने के बाद ग़ालिबन पहली बार बेबी उसके कमरे में आई थी। बुड्ढा अंकल बे-ताबी से उठ खड़ा हुआ। उसने अपने फ़ेल्ट से मोंढे को साफ़ किया। स्विच दबा कर बत्ती जलाई। “बेबी तुम उदर में बैठो.... बेबी, कल रात अम युसु मसीह को बोला। बेबी को एक-बार भेज दो। तुम फिर अभी इवनिंग को युसु मसीह ने तुमको अमारा पास टॉक करने को भेज दिया...!”

    बेबी उकता गई....कमरे में चारों तरफ़ एक अ’जीब सी बदबू फैल रही थी। उसने जेब से रूमाल निकाल कर नाक पर रख लिया। “बुड्ढा तुम बहोत बात करता। थोड़ा बोलो। कल रात में तुम कुछ बोलना मांगता...?”

    “हाँ बेबी, कल रात में अम कुछ बोलना मांगता.... बेबी अपना लोकेलिटी का लंबा सड़क देखा। उस पर कितना जीप जाता, कार जाता। साइब लोग और मेम साइब लोग वाक करता...पर बेबी अपना दिल कोई लोकेलिटी का सड़क नहीं, इस पर से कोई जाता तो बहोत तकलीफ़ होता। बहोत तकलीफ़....” उसकी आँखों से आँसू बहने लगे.... “बाई गॉड बेबी बोलता, बहोत तकलीफ़ होता!”

    बूढ्ढा अंकल, तुमको फीवर है। तुम आराम करो। अमारा टाइम बर्बाद मत करो। अम जाता...”

    “नहीं बेबी...ठहरो ज़रा...ठहरो...बाई गॉड अम झूट नहीं बोलता। युसु मसीह जानता जब जॉर्ज...जॉर्ज अपना दिल पर से गुज़रता तो अम को बहोत तकलीफ़ होता, ऐसा माफिक।” उसने सीने पर-ज़ोर से घूंसा मारते हुए कहा।

    मारग्रेट समझ गई। “बुड्ढा कमीना.... दफ़अ’तन वो चिराग़ जो कल रात पिछली पहर बुड्ढा अंकल के नोट वापस करते वक़्त जल उठा था अचानक भड़क कर बुझ गया... “बुड्ढा कमीना! तुम अमारा पर्सनल बात में क्यों टांग अड़ाता है...कुत्ता अम तुमारा आँख फोड़ देगा....सुअर...” वो उठ खड़ी हुई।

    “नहीं सच्च बोलता बेबी! जॉर्ज अच्छा नहीं, बहोत ख़राब, अम जानता अपना राबर्ट साइब की बेबी को ख़राब किया...वो कुत्ता...सुअर...बेबी उसका साथ छोड़ दो...वो... कुत्ता...

    तड़प कर मार्ग्रेट ने एक भरपूर तमांचा उसके गाल पर जड़ दिया। “कमीना!”

    बुड्ढा अंकल थप्पड़ की ताब ला कर फ़र्श पर गिर गया। “सच्च बोलता, बाई गॉड बेबी सच्च...”

    मारग्रेट ने ज़ोर से एक लात रसीद की और गालियां देती कमरे से निकल गई।

    फिर बुड्ढे अंकल ने जो दिन-भर बुख़ार में सुलग रहा था, यूं महसूस किया कि दीवार पर लगा हुआ बल्ब धीरे धीरे मद्धम हो कर बुझ गया और वो ख़ुद फ़र्श के नीचे डूबता चला गया...डूबता ही चला गया...फिर बहुत देर बाद वो फ़र्श की अथाह गहराइयों से उभरा तो उस वक़्त आधी से ज़्यादा रात गुज़र चुकी थी। सर्द हवा के तेज़ झोंके बाहर दरख़्तों के पत्तों से उलझ उलझ कर गुज़र रहे थे और वो अकेला कमरे में पसीने में शराबोर फ़र्श पर पड़ा हुआ था। उसके गाल पर से अभी तक वो जलता हुआ तवा चिमटा हुआ था उसने आहिस्ता से इस पर हाथ फेरा..... “बेबी तुम अमको मारा..... बेबी तुम अमको थप्पड़ मारा ऐसा माफिक मारा...” बुड्ढा अंकल की आवाज़ रुँध गई ।उसकी आँखों से आँसूओं का तार बंध गया। फिर वो फूट फूटकर यूं रोने लगा जैसे बेबी की माँ आज फिर मर गई हो जैसे पुरानी मेमसाहब जो दिल के किसी गोशे में कराह रही थी आज फिर मर गई हो। “बेबी तुम अमको मारा.... अपना बुड्ढा अंकल को मारा...” कमरे में उसकी सिसकियाँ भटकी हुई रूह की तरह फिर रही थीं।...वो इसी हालत में उठा...लकड़ी के बड़े से संदूक़ में से फटे पुराने कपड़े, पुरानी बेकार फ़ुल बूट और टूटे हुए चमड़े के बेल्ट के नीचे से एक मैले कपड़े की पोटली निकाली। फिर काँपते हुए हाथों से उसने पोटली खोली, उसमें रेशम के दो पैंट, छोटे छोटे फ़्राक, एक प्लास्टिक का तुड़ा मुड़ा झुनझुना और दो तीन रबड़ की शहद वाली चूसनी निकाल कर बाहर फैला दीं और एक एक चीज़ को उठाकर आँखों से लगाता जाता और फूट फूटकर रोता जाता... “बेबी तुम अमको मारा... बेबी डार्लिंग तुम अपना...बुड्ढा अंकल को मारा... थप्पड़ मारा...”

    थोड़ी देर बाद आप ही आप चुप हो गया। पोटली को उसी तरह बांध कर संदूक़ में रखा। फिर उसने मैली क़मीज़ की आसतीन से अपनी आँखें पोंछीं, फेल्ट को झाड़कर सर पर रख लिया। ताक़ से माचिस और एक बहुत पुराने डिब्बे से अगरबत्ती निकाली और धीरे से यूं उठ खड़ा हुआ जैसे वो सारा बोझ जो बहुत देर से उसके शाने पर पड़ा था ज़मीन के सपुर्द कर के सुबुकदोश हो गया.... “युसु मसीह! बेबी ने अम को मारा उसको माफ़ करो, बेबी अपना...बूबुड्ढा अंकल को मारा, उसको एसक्यूज़ करो। युसु मसीह वो कुछ नहीं जानता, एक दम से बेबी है...”

    उसके काँपते हुए क़दम आप ही आप इलाक़े के बीच दर बीच गलियों को उ’बूर करते हुए आधी रात को सन्नाटे में डूबे हुए क़ब्रिस्तान में ले आये, फिर वो एक जगह रुक गया और एक बहुत पुरानी क़ब्र की टूटी फूटी दीवार के पीछे बैठ कर अगरबत्ती जलाई। फिर अपने गाल पर हाथ फेरने लगा ... मेम साइब सच्च बोलता...अपना बेबी आज मारा गाल पर मारा...बाई गॉड मारा...फिर वो रोने लगा। “अम इस दुनिया में नहीं रहना मांगता...मेम साइब अब इस दुनिया में अम नहीं रहना मांगता... अम तुमारे पास आएगा.... तुम अमको अपने पास बुलालो....बेबी बोलता, अमारा पर्सनल बात में टांग मत अड़ाओ। वो अमको सुअर बोलता। युसु मसीह उसका हेल्प करे.... वो अब बहुत बड़ा हो गया मेम साइब.... अब उसको अमारा ज़रूरत नहीं। ज़रा भी ज़रूरत नहीं.... अब अम उसका पर्सनल बात में टांग नहीं अड़ाएगा.... अब अपना बेबी बहोत बड़ा हो गया....अब कभी नहीं डिस्टर्ब करेगा.... बाई गॉड कभी नहीं डिस्टर्ब करेगा...”

    फिर बहुत देर हो गई, और रात को सर्द हवा उसकी हड्डीयों में घुस कर सीटियाँ सी बजाने लगीं, तो बुड्ढे ने खड़े हो कर दोनों हाथ उठा कर दुआ पढ़ी। फिर उंगलियों से सीने पर सलीब बनाई और सर्दी से काँपते हुए हाथों से अपने आँसू ख़ुश्क करता और मुँह ही मुँह में बुदबुदाता घर वापस गया। “अब कभी नहीं डिस्टर्ब करेगा.....अपना बेबी बहुत बड़ा हो गया। उसको अमारा कोई ज़रूरत नहीं। अब कभी नहीं कुछ बोलेगा.... युसु मसीह! उसका हेल्प करो।”

    सात दिनों तक स्याह आंधियां और झक्कड़ चलते रहे। तेज़ और सर्द आंधियां.... सात दिनों तक वो बुख़ार की शिद्दत में तड़पता रहा, और ख़ुदावंद युसु से दुआ करता कि आंधियों की ज़द में जलता हुआ चिराग़ बुझ जाये, मगर चिराग़ नहीं बुझा....सात दिन तक चिराग़ की डूबती उभरती लौ थर थराती रही...थरथराती रही...

    और अब कई महीने हो गये। वो दिन-भर चुप-चाप कमरे में औंधे मुँह बिस्तर पर पड़ा रहता। आँखें खोले और दीवार को तकता रहता। वो अब हर सुबह नहा धो कर साहिब को गुड मॉर्निंग कहने नहीं जाता, बल्कि हफ़्ते दो हफ़्ते में एक-आध बार जाता और ज़रूरत की चीज़ों के लिए पैसे लेकर गर्दन झुकाए वापस चला आता। हत्ता कि ख़्वाहिश होने पर भी ख़िलाफ़-ए-मा’मूल बेबी के कमरे की तरफ़ आँख उठा कर भी नहीं देखता। इलाक़े के लोगों को ता’ज्जुब होता कि अब बुड्ढा अंकल ठहर कर चलने वाला,ढीले ढाले पतलून और मैले फ़ेल्ट पहने हुए बुड्ढा अंकल जो रास्ता तय करते वक़्त हर आने जानेवाले साहिब को गुड मॉर्निंग और गुड इवनिंग कहने से चूकता था, अब यूं गर्दन झुकाए हुए सामने से गुज़र जाता है गोया वो यहां का रहने वाला ही हो। बा’ज़ लोग बुड्ढा अंकल कह कर उसे पुकार भी लेते तो आहिस्ता से गर्दन उठा कर मुस्कुरा देता और फिर ठहर ठहर कर चलता हुआ अपने कमरे में जाता....साहिब को तशवीश हुई। “बुड्ढा अंकल तुमारा तबीयत अच्छा नहीं रहता?”

    “नहीं साइब, अच्छा रहता है। अम सर्वेंट है, सर्वेंट माफिक रहता!”

    फिर जिस दिन उसके सामने से नई मेम साहब गुज़र गई और उसने अपनी जगह से उठकर सलाम करने की बजाय गर्दन झुकाए हस्ब-ए-दस्तूर जूते से मैल उतारता रहा तो नई मेम साइब बिगड़ गईं।

    “यू ब्लाडी बुड्ढा! तुम अमको अब सलाम भी नहीं बोलता। बुड्ढा तुम कुत्ता...सुअर....बिल्कुल सुअर...”

    बुड्ढा अंकल आहिस्ता से उठ खड़ा हुआ, “सच्च बोलता मेम साइब अम कुत्ता, अम सुअर.... उसने सर से फ़ेल्ट उतार ली और झुक कर सलाम किया,ये सुअर तुमको सलाम करता मेम साइब, अम से भूल हुआ..... अम को एसक्यूज़ करो।” ये कहता हुआ वो अपने कमरे में चला गया, लेकिन उसकी बे-हिसी बढ़ती गई...बढ़ती गई। तह दर तह गोया सीमेंट का प्लास्टर चढ़ाया जा रहा हो, और उस प्लास्टर के अंदर से बुड्ढे अंकल की कीच भरी आँखें टुकुर टुकुर तक रही थीं बे-हिस, बे-असर ...सर्द और बे-जान आँखें...उसकी बे-हिसी बढ़ती गई...बढ़ती गई...और अचानक उस रात तड़ख़ गई जिस रात ड्राइंगरूम से बेबी की चीख़ों की आवाज़ मुसलसल आती रही, और उसके एहसास पर नश्तर चुभोती रही, उस रात वो तड़प उठा। वो बे ताबाना उठकर दहलीज़ तक गया। फिर कुछ याद कर के वापस गया। नहीं, सर्वेंट को नहीं बोलना चाहिए। नहीं ये उनका पर्सनल बात है, इसमें दख़ल नहीं देना चाहिए....मगर बेबी? बेबी छः साला बच्चों की तरह चीख़ रही थी, और गिड़गिड़ा कर पप्पा और मम्मी से माफ़ी मांग रही थी।“ नो पप्पा.... नो पप्पा.... एसक्यूज़ मी..... पप्पा पप्पा .....”

    बुड्ढा अंकल के क़दम रुक गये.....पप्पा पप्पा..... गोया बेबी बहुत दूर से उन्नीस बरस की दूरी से उसे पुकार रही है... “नो पप्पा, नो पप्पा.....एसक्यूज़ मी, एसक्यूज़ मी..... पप्पा पप्पा..... माई पप्पा....” बुड्ढा अंकल के लब हौले हौले काँपने लगे....धुआँ की तरह पेच खाई हुई एक उलझती हुई आवाज़ उसके दिल की गहराईयों से उभर कर उसके हलक़ में फंस फंस जाती थी....उसके लब हिल रहे थे।

    “पप्पा पप्पा...माई पप्पा....” गोया हिक्क साहिब का कुत्ता, बेबी की नाज़ुक टांग को अपने जबड़े मंप दबाए हुए है, और वो ज़ोर से उसे पुकार रही हो। फिर वो अचानक पलट पड़ा... “बेबी...ई ई... अम आता है। बेबी...माई बेबी...” बरसों की दबाई हुई आवाज़ उसके हलक़ से यूं निकली गोया आतिश-फ़िशाँ का दहाना फट पड़ा हो। वो लपकता हुआ ड्राइंगरूम के दरवाज़े पर आकर रुक गया। फिर दौड़ता हुआ साहिब के सामने झुक कर खड़ा हो गया। “नहीं साइब! नहीं साइब!! बेबी कुछ नहीं जानता.... अम बोला वो जॉर्ज कुत्ता...वो जॉर्ज सुअर.....”

    साहिब ने बेद दूर फेंक दी। “बूढ्ढा, तुम जाओ अभी.... फ़ौरन जाओ...अभी अम नहीं मांगता...”

    “जाता साइब....अभी जाता....” बेबी उसके सामने औंधे मुँह फ़र्श पर पड़ी सिसक रही थी। उसमें रोने तक की सकत नहीं थी। बुड्ढा अंकल ने प्यार से उसकी पुश्त पर हाथ फेरा.... “जाता है साइब, पर बेबी को अब नहीं मॉरो साइब। बेबी कुछ नहीं जानता..... युसु मसीह जानता अपना बेबी एक दम अच्छा वाला...”

    “अम बोलता सुअर तुम रुम से बाहर जाओ... फ़ौरन जाओ।”

    “अभी जाता साइब....अभी जाता...” उसने फिर एक-बार बेबी के जिस्म पर हाथ फेरा...फिर वो एक साअ’त के लिए खो गया। भटकता हुआ बहुत दूर निकल गया...जहां उफ़ुक़ और ज़मीन आपस में मिल जाते हैं और बजुज़ एक मोटे कच्चे बेद से कुचले हुए जिस्म की हर चीज़ नज़रों से ओझल हो जाती है। फिर बुड्ढा अंकल ने चौंक कर अपनी हथेली को देखा और आहिस्ता से बड़े आहिस्ता से जैसे गुलाब की पंखुड़ीयों से शबनम चुन रहा हो, हथेली को अपने होंटों से लगाता हुआ बाहर निकल गया। फिर अपने बिस्तर पर गिर के रात-भर यूं तड़पता रहा गोया साहिब ने बेबी को नहीं पुरानी मेम साइब को मारा हो गोया उसके दिल के नाज़ुक तरीन हिस्से पर मुसलसल बेद की बारिश कर दी हो..... “नहीं साइब.... नहीं साइब, अब नहीं....अब नहीं...!”

    दूसरे दिन साहिब दोपहर मैं ख़ुद बुड्ढा अंकल के कमरे में आया और रात के सुलूक के लिए माफ़ी मांगी, “अम को माफ़ कर दो बुड्ढा अंकल...तुम सच्च बोलता जॉर्ज सुअर...वो बिल्कुल सुअर...अम उस को शूट कर देगा...वो कुत्ता यहां से भाग गया। पर अपना बेबी का क्या करेगा...? उस का मैरिज का बात कलकत्ता में एक लड़का के साथ पक्का किया। लड़का बहुत अच्छा...वो चार-सौ रुपये पाता...और विल्सन साइब का वाइफ़ का ऑंटी होता, उसको केस मा’लूम हो जाने से अमारा इज़्ज़त मिट्टी में मिल जाता...वो लड़का एक महीने बाद इदर में आना मांगता...पर बेबी... बेबी...” वो रोने लगा.... “बेबी ने अमारा मुँह पर कैसा माफिक थप्पड़ मारा बोलो...कैसा माफिक थप्पड़ मारा...” वो सुबुक सुबुक कर रोने लगा। बुड्ढा अंकल की आँखों से भी झरझर आँसू गिरने लगे।

    फिर उस के बाद वो क़हर की रात भी आई, जब फ़सादात की वजह से सारे शहर में कर्फ्यू नाफ़िज़ था और नादान बेबी एक नाजायज़ बच्चे को जन्म दे रही थी और फ़ित्रत की तरफ़ से शायद ये सबसे बड़ी सज़ा थी कि मेज़ पर वो तार भी पड़ा हुआ था, जिसमें बेबी के होने वाले शौहर ने कलकत्ता से अपनी आमद की इत्तिला थी!

    बुड्ढा अंकल ने दूसरी बार महसूस किया कि आज की रात उस बेमस्रफ़ दुनिया की आख़िरी रात है और कल के बाद शायद कोई ज़िंदा बाक़ी बचेगा। फिर उसने नज़र उठा कर आसमान की तरफ़ देखा, जहां चमकता हुआ ख़ूबसूरत चांद कभी बादल में डूब जाता कभी उभरता... बुड्ढे अंकल के दिल में आया कि वो आस-पास के बंगलों में सोए हुए बच्चों को झिंझोड़ कर उठाए और एक एक से पूछे कि दुनिया उतना ब्यूटीफुल क्यों है? और जब बच्चे मून की तरफ़ इशारा कर दें तो उनसे ये भी पूछ डाले कि बाबा लोग अगर आज अपना मून को गरहन लग गया तो...?

    “बाबा लोग बोलो...?”

    “बाबा लोग... बाबा... लो...”

    “क्या बोलता बुड्ढा अंकल?”

    “कुछ नहीं साइब... कुछ नहीं...” वो उठ खड़ा हुआ... “अम बाबा लोग से पूछता अपना मून वो बादल में डूब गया तो फिर क्या होगा। अम एस अंधेरा दुनिया में बाबा लोग को किदर से किंग का कहानी सुनाएगा। कैसा माफिक कहानी सुनाएगा साइब?”

    “अभी ऐसा माफिक मत बोलो अंकल... अभी कुछ नहीं बोलो... अभी आसनसोल से साहिब का फ़ोन आया।” वो बोला... “उदर में रॉबसन साहिब कलकत्ता से आया। इदर में कर्फ्यू है। वो कल मोर्निंग को आएगा... कल मोर्निंग... तुम अमारा एक काम करो बुड्ढा अंकल... अम तुमारा बहोत थैंक्स बोलेगा... बाई गॉड अपना बेबी के लाइफ़ के वास्ते एक काम करो... करेगा अंकल?”

    “करेगा साइब... अपना बेबी के वास्ते अपना लाइफ़ देदेगा, बोलो साइब...ज़रूर करेगा...”

    “अमारा साथ ऊपर आओ...” साहिब ने अ’जीब नज़रों से एक-बार बुड्ढा अंकल का जायज़ा लिया और ऊपर चला गया। “इदर आओ बूढ्ढा अंकल...” बूढ्ढा अंकल सीढ़ीयां चढ़ता हुआ ऊपर पहुंच गया।

    फिर जब उसने साहिब के हुक्म के मुताबिक़ गंदे ख़ून आलूद चिथड़े में लिपटे हुए मुर्दा बच्चे को मेज़ से उठा कर अपने सीने से लगाया तो ऐसा लगा जैसे एक भारी बोझ उसके हाथो में पड़ा हो। फिर यका-य़क उसका दिल बड़े ज़ोर से धड़का और धड़क कर अचानक रुक गया। गोया उसने मारग्रेट के जिस्म को नोच कर ये लोथड़ा अलग कर लिया हो। उन्नीस बरस क़ब्ल जब उसने बेबी के गर्म जिस्म को अपने बाज़ुओं पर लिया था तो उस के सारे जिस्म में एक गर्म लहर दौड़ गई थी उसकी गर्दन फ़ख़्र से तन गई थी, फिर उसने यूं महसूस किया था जैसे सारी दुनिया उसके तवाना बाज़ुओं में लेटी हो। एक गुलाब के फूल की तरह हल्की हो कर, ख़ूबसूरत हो कर... मगर आज ये बोझ कितना भारी है... आज की दुनिया कितना गिराँ-बार हो गई है... उन्नीस बरस में इस फूल की तरह नर्म-ओ-नाज़ुक दुनिया का वज़न कितना बढ़ गया है... उसने आहिस्ता से लोथड़े को मेज़ पर रख दिया। “नहीं साइब! अम इतना भारी नहीं उठा सकेगा... अपने पास इतना ताक़त नहीं...नहीं उठा सकेगा!”

    फिर साहिब जो बुड्ढा अंकल को हैरत से तक रहा था, बदहवास हो गया और उसने लपक कर बे-इख़्तियाराना तौर पर उसके पांव पकड़ लिये। “मॉर्निंग में रॉबसन साहिब आता...” वो बहुत देर तक बुड्ढा अंकल के पांव पकड़े उसे ऊंच-नीच समझाता रहा... “अपना बेबी... अपना बेबी कुत्ता माफिक मर जाएगा। अपना बेबी... अपना बेबी...”

    “अपना बेबी...”

    “अपना बेबी...कुत्ता माफिक मर जाएगा...कुत्ता माफिक मर जायेगा... कुत्ता माफिक।”

    जैसे पुरानी मेम साहब बहुत दूर से घिघिया रही हो। “अपना बेबी...अपना बेबी...कुत्ता माफिक मर जाएगा।”

    उसने हड़बड़ा कर मेज़ से लोथड़े को उठा लिया... “नहीं...नहीं ऐसा माफिक नहीं मरेगा...” उसने अपने सीने पर सलीब बनाई... “ऐसा माफिक कभी नहीं होगा... युसु मसीह अमारा हेल्प करो...” वो तड़पता हुआ कमरे से भी बाहर निकल गया। बरामदे में साहिब ने उसे रोक कर फिर ताकीद की।

    “उदर से नहीं अंकल, उदर पुलिस होता...इस तरफ़ से।” साहिब ने पिछवाड़े की तरफ़ इशारा किया जहां लोकेलिटी के गंदे पानी बहने के लिए एक बड़ा सा नाला बहुत दूर निकल गया था। “उदर इतना दूर फेंक आओ कि लोकेलिटी से बहुत दूर...”

    ये क़हर की रात, ये हू का आ’लम...बुड्ढे अंकल ने निगाहें उठा कर देखा। चारों तरफ़ गहरी ख़ामोशी और बला का सन्नाटा छा रहा था। आसमान पर स्याह बलोल मुसल्लत थे। गंदे नाले के किनारे किनारे चलता हुआ जब कर्फ़यू की इस भयानक रात में पुलिस की निगाहों से बचते बचाते शहर के हुदूद-ए-अर्बआ’ में क़दम रखा तो सर्द हवा के तेज़ झोंकों के बाइ’स उसके पिंडलियां बर्फ़ की तरह सिल हो रही थीं। दिल धड़क रहा था, और उसके बाज़ू पर पड़ा हुआ बोझ लम्हा लम्हा भारी होता जा रहा था। उसने एक झाड़ी के किनारे इस लोथड़े को रख देना चाहा... लेकिन कल पुलिस की नज़र पड़ गई... और वो लोकेलिटी मैं पूछता पूछता गया तो...? विटसन साहिब की बीवी ज़रूर इशारा कर देगी...फिर बेबी!

    ऐन उसी वक़्त टार्च की तेज़ रोशनी उसके जूते को छूती हुई आगे निकल गई। वो हड़बड़ाता हुआ ख़ारदार झाड़ियों में लुढ़क गया...टार्च की रोशनी एक-बार फिर उसके इर्द-गिर्द घूम फिर कर सफ़ेद ख़ून आलूद चिथड़े पर रुक गई...फिर बुझ गई... ज़रा तवक़्क़ुफ़ के बाद फिर जल उठी और चिथड़े पर जमी रही... बूढ्ढा अंकल का दिल धड़क कर फिर अचानक रुक गया। उसकी सांस थम गई और उसका सारा वजूद खींच कर गोया आँखों में गया हो... बत्ती बुझ चुकी थी...और क़रीब की वाटर टंकी के नज़दीक बैठे हुए सिपाहियों के दरमियान मक्खियों सी भनभनाहट शुरू हो गई थी। लेटे लेटे बुड्ढा अंकल ने लोथड़ा को पकड़ा, जेब से अपना सफ़ेद रूमाल निकाल कर वहां रख दिया और लेटा लेटा कांटों पर से गुज़रता गंदे नाले के किनारे-किनारे रेंगता हुआ कुछ दूर निकल गया। दस क़दम चलने के बाद फिर टार्च की तेज़ रोशनी आई और उसके सारे जिस्म को छूती हुई गुज़र गई। वो हड़बड़ा कर ज़मीन में झुक कर दौड़ने लगा। जैसे कोई जानवर तेज़ी से भाग रहा हो। उसका दिल डूब रहा था। टांगें थर-थर काँप रही थीं।

    “कौन है...कौन आदमी है?” ड्यूटी पर खड़े सिपाही ने चीख़ कर कहा। बुड्ढा अंकल के क़दमों की रफ़्तार और तेज़ हो गई। “कौन आदमी है...ठहर जाओ...ठहर जाओ...वर्ना शूट कर दिए जाओगे।”

    उसके पांव अचानक थम गये। सर्द हवा का तेज़ झोंका तपता हुआ सा उसकी कनपटियों से छूता हुआ निकल गया जिसके बाइ’स उसकी कनपटियां पसीने से भर गईं मगर बेबी... बेबी...!

    वो बे-इख़्तियारी तौर पर दौड़ पड़ा...दौड़ता गया...दूर से फिर आवाज़ आई, “कौन सुअर का बच्चा दौड़ता है। अम अभी शूट कर देगा... ठहर जाओ... वन?”

    लेकिन बुड्ढा अंकल लोथड़े को सीने से लगाए ब-दस्तूर दौड़ता गया... “टू!”

    उसके पांव सुस्त पड़े...सारे जिस्म में चिनगारियां सी दौड़ गईं। “थ्री!” वो फिर झुके-झुके जानवरों की तरह तेज़ी से दौड़ने लगा। ऐन उसी वक़्त तड़ाख़ से एक आवाज़ ख़ामोश फ़िज़ा में उभरी और उसकी बाएं पिंडली में दहकता हुआ एक अंगारा घुस गया। इस के मुँह से चीख़ निकलते निकलते रुकी फिर लम्हा भर में वो अंगारा उसके सारे जिस्म में यहां से वहां तक दौड़ता हुआ फिर बाएं पिंडली में आकर फंस गया। एक साअ’त में सब कुछ हो गया। सारा जिस्म पसीने से तर हो गया। मुर्दा बच्चा हाथ से गिर पड़ा। आँधियों की ज़द में रखा हुआ चिराग़ बुझने लगा...थरथराने लगा। “युसु मसीह... युसु मसीह...अपना बेबी...” फिर अचानक उसने अपने आपको सँभाला...गंदे कपड़े में लिपटे हुए बच्चे को लपक कर उठा लिया...बाएं पिंडली पर आहिस्ता से हाथ फेरा। फिर धीरे से गंदे नाले में उतर गया...नाले में किसी ने ख़ामोशी से इसके वजूद को थाम लिया। जैसे उसका वजूद अचानक रुई के गाले में बदल गया हो। कोई उखड़ती हुई गर्म सांस उसके चेहरे को छू गई, कोई जाने पहचाने हाथों ने उसके जिस्म में पता नहीं कहाँ से बला की ताक़त भर दी। बुड्ढा अंकल ने नज़र उठा कर देखा...तक़रीबन तीन फ़र्लांग के बाद नाला बाएं तरफ़ मुड़ गया था। उसने आहिस्ता से सीने पर सलीब बनाई। “युसु मसीह अमारा हेल्प करो...युसु मसीह अम को थोड़ा देर बाद मौत देना। अभी अपना बेबी का आख़िरी काम करता...अभी नहीं मरना मांगता...”

    फिर उसने बच्चे के चिथड़े को ज़ख़्म में भर लिया और तेज़ी से नाले में बाएं तरफ़ घिसटने लगा। जब काफ़ी देर हो गई और हो तीन फ़र्लांग तय कर के मोड़ के क़रीब पहुंचा जहां नाले के ऊपर थोड़ी दूर तक पुल के लिए लंबे लोहे की शीट डाल दी गई थी तो ऐन उस शीट पर चंद मुसल्लह सिपाहियों को देखकर वो काँप गया। उस चदरे के नीचे नाला इंतिहाई तंग हो गया था। गंदा पानी छलछल करता उस के जिस्म को भिगोता हुआ गुज़र रहा था। लोहे की चद्दरों पर भारी बूटों की आवाज़ बराबर रही थी उसका जिस्म रफ़्ता-रफ़्ता अपनी ताक़त खो रहा था। सर्दी इंतिहा को पहुंच गई थी। उसका जिस्म बर्फ़ की सिल की तरह सर्द होता जा रहा था। गर्दन आहिस्ता-आहिस्ता एक तरफ़ को झूलने लगी...ऊपर बूटों की आवाज़ रुक गई फिर धीरे-धीरे यूं कई मिनट गुज़र गये, उसे एहसास तक हुआ। फिर बुड्ढे अंकल के क़रीब बेबी मारग्रेट औंधी फ़र्श पर पड़ी चीख़ चीख़ कर कह रही थी...नो पप्पा... नो पप्पा... एसक्यूज़ मी... पप्पा। पप्पा...!” उसने हड़बड़ा कर बंद होती हुई आँखें खोल दीं। ज़ोर से गर्दन को झटका दिया। गंदा पानी काफ़ी जमा हो गया था।जो अब उसकी गर्दन को छूता हुआ गुज़र रहा था। थोड़ी सी जगह में कपड़े में लिपटा हुआ मुर्दा बच्चा सतह पर चक्कर काट काट कर उसकी ठोढ़ी से टकरा रहा था... गोया उसके हाथों से निकल भागना चाहता हो। उसने लपक कर उसे पकड़ लिया।

    ऐन उसी वक़्त ऊपर आयरन शीट पर कई जूतों की आवाज़ उभरी। मच मच...चर चर... चराक... चराक...चर चर...जैसे कोई उसके सर पर चल रहा हो...फिर आवाज़ रुक गई और ऊपर से बातों की आवाज़ आने लगी। बुड्ढा अंकल ने अपने आपको संभाला और उस तंग रास्ते में घिसटता घिसटता घूम गया...दम साधे नाले के इस मोड़ को उ’बूर कर के वो बाहर फैलाव में आया तो उसका दिल अचानक डूबने सा लगा। पानी में शराबोर कपड़े उसे बहुत भारी मा’लूम हुए। क़रीब एक भारी पत्थर पड़ा था। बुड्ढा अंकल ने उस पत्थर को आहिस्ते से हटाया। उसके नीचे की मिट्टी गीली थी। धीरे धीरे उसने गीली मिट्टी को हटा कर एक गड्ढा सा बनाया। छोटे से बच्चे को गड्ढे में रखने से पहले चिथड़ा हटा कर उसने चेहरा देखना चाहा... मगर रात बेहद तारीक थी। अंधेरा बेहद घना था। उसकी आँखें उस घुप-अँधेरे में पथरा के रह गईं। फिर उसने आहिस्ते से अपनी उंगलियां मुर्दा बच्चे के चेहरे पर फेरना शुरू कर दीं। रफ़्ता-रफ़्ता दिल के वीराने में फूल से खिलने लगे। गोया उन्नीस बरस क़ब्ल वाली नन्ही मारग्रेट उसकी गोद में हो और वो मोम के सुर्ख़ गालों पर उंगलियां फेर रहा हो... फिर अचानक बाएं टांग में एक टीस उठी और उसके जिस्म की सारी रगों को खींचती हुई निकल गई। बुड्ढे अंकल ने जल्दी से बच्चे को गड्ढे में रखकर उस पर से चट्टान रख दिया और वो चट्टान जो दो तीन घंटे से उस के वजूद को कुचले हुए थी, आप ही आप उतर गई।

    “बाई गॉड अम मरना मांगता...एक दम मरना मांगता...युसु मसीह मगर वो फिर रुक गया। लेकिन इदर में नहीं...उदर में अपना रुम में...अपना रुम में...अपना बेबी के सामने में...!” वो लपकता हुआ नाले के किनारे चलने लगा...फिर एक बड़े से पत्थर का सहारा लेकर बाहर गया और दाहिनी तरफ़ इलाक़े के बंगलों की क्यारियों के किनारे किनारे चलता अपने आपको पुलिस से छुपाता हुआ साहिब के बँगले के गेट पर आया तो उसके होंटों पर मुस्कुराहट गई। उसने अपनी ज़ख़्मी टांग पर हाथ फेरा उसी वक़्त बड़ी ज़ोर की उबकाई आई जिसे उसने मुँह पर हाथ रखकर रोकना चाहा मगर अंदर से गर्म-गर्म पानी के साथ रोटी के टुकड़े उबल ही आये। सर चकराया फिर ज़ोर से एक-बार क़ै हुई और धड़ाम से ज़मीन पर गिर गया... फिर बुड्ढे अंकल ने महसूस किया गोया नाले का गंदा पानी उसके ऊपर से गुज़रने लगा हो और मुर्दा बच्चा चिथड़े में लिपटा हुआ उसके सर के पास नाच रहा हो और वो उसके नीचे प्यास की शिद्दत से तड़प रहा है, उसके हलक़ में आग सी लगने लगी। फिर वो सो गया। बड़ी गहरी नींद सो गया।

    बहुत देर बाद जागा तो उसने देखा नाले का गंदा पानी गुज़र गया है और वो गहरी तारीक रात...वो क़हर की रात...आख़िरी रात भी गुज़र चुकी है...और वो मरा नहीं, बदस्तूर ज़िंदा है। डाक्टर ने तीसरा इंजेक्शन दिया, उसकी आँखें खुल गईं।

    “बुड्ढा अंकल, अब कैसा है?”

    “अपना बेबी कैसा माफिक है साइब...? अपना बेबी को हिक्क साइब का कुत्ता काटा...बाई गॉड अम को भी काटा और देखो। उसने अपनी ज़ख़्मी टांग पर हाथ फेरा जो सफ़ेद पट्टियों से बंधी हुई थी। देखो इदर में काटा...”

    “अपना बेबी अच्छा है... बुड्ढा अंकल तुम दूध पियो।” उसने गिलास बढ़ाया, “तुमको कोई कुत्ता नहीं काटा...बेबी को भी नहीं काटा...युसु मसीह बहोत ठीक करता...”

    “बेबी को भी नहीं काटा। अम को भी नहीं काटा... अपना बेबी अच्छा...” उसने अक़ीदत से आँखें बंद कर लीं। सीने पर सलीब बनाई और उंगलियों को चूम लिया.... “युसु मसीह ठीक करता। सब ठीक करता...”

    फिर डाक्टर साहिब चले गये और वो बहुत देर तक गर्दन घुमा-घुमा कर खिड़की से मारग्रेट के कमरे की तरफ़ देखता रहा, जहां खिड़की पर पड़ा सुर्ख़-रंग का रेशमी पर्दा आहिस्ता-आहिस्ता हवा में हिल रहा था। पुरसुकून अंदाज़ में गोया घंटों लड़ने के बाद बूढ़ा बैल थक कर बैठ रहा हो और धीरे-धीरे हांप रहा हो। अभी बेबी दूध पी रही होगी... अभी बेबी बिस्कुट खा रही होगी...अभी उसने बिस्तर पर लेट कर आँखें बंद कर ली होंगी...अब वो सो रही होगी। बेबी आँखें बंद किए सो रही है। गहरी नींद का ग़लबा हो चुका है। उसके नथुने आहिस्ता-आहिस्ता फड़फड़ा रहे हैं...जैसे खिड़की का रेशमी पर्दा हिल रहा हो...उसके दिल में आया कि वो एक-बार बेबी की पेशानी पर हाथ फेरे... “बहोत थक गई हो मेरी बची...बहोत जागी होना... महीनों से सो नहीं पाई हो। इसलिए अब ये आराम की नींद बहोत प्यारी लग रही है। मुझे भी बहोत प्यारी लग रही है, तुमारी ये नींद बेबी...बहोत प्यारी...मैं तुमारी पेशानी पर हाथ फेरूंगा तो क्या तुम जाग पड़ोगी? क्या तुम जाग पड़ोगी। नहीं जागोगी ना, नहीं जागना...” उसके दिल में क़तरा-क़तरा कर के शबनम गिरती रही। “मेरे पौदे की जड़ों में ये कैसी ख़राश पड़ गई ख़ुदावंद... कैसी ख़राश...?”

    बुड्ढा अंकल आहिस्ते से उठ खड़ा हुआ। बाएं पांव में आग सी सुलग उठी उसने रानों पर हाथ फेरा...फिर वो थरथराने लगा तो पलंग पर बैठ गया, “युसु मसीह! अम उदर में जाना मांगता... अमारा हेल्प करो... उदर में बेबी के माथे पर हाथ फेरना मांगता... बेबी सोता...उसको किस करना मांगता...”

    मगर बुड्ढा अंकल का ज़ख़्मी पांव बदस्तूर दुखता रहा और थर थराता रहा।

    लेकिन सह पहर हुई और कलकत्ता वाले रॉबसन साहिब ने अपनी आंटी के हमराह दहलीज़ में क़दम रखा तो वो ग़ैर इख्तियारी तौर पर उठ खड़ा हुआ और दीवारों का सहारा लेता हुआ मारग्रेट के कमरे में दाख़िल हो गया। जहां मेहमानों के साथ साहिब और नई मेमसाहब भी मौजूद थे।

    “बेबी बीमार है। तीन हफ़्ते से उसे बुख़ार था। कल ही तो बुख़ार छुटा है।” साहिब ने मेहमानों से कहा।

    ऐन उसी वक़्त साहिब की नज़र पलंग के नीचे गई। जहां ख़ून से लत-पत एक तौलिया पड़ा हुआ था और जिसे रॉबसन साहिब की आंटी बड़े ग़ौर से देख रही थीं।

    “ये तौलिया...?” आख़िरश आंटी ने तौलिए की तरफ़ इशारा किया।

    “कौन सा तौलिया...? अरे ये तौलिया कहाँ से आया और...?” साहिब घबरा कर नई मेमसाहब से मुख़ातिब हुआ। उसका चेहरा फ़क़ हो रहा था। ख़ुद बेबी जो धीरे-धीरे मुस्कुरा रही थी ज़र्द पड़ गई।

    ऐन उसी वक़्त बुड्ढा अंकल ने गर्दन झुका कर तौलिया की तरफ़ देखा और लपक कर गिरते गिरते तौलिया को झपट लिया। “...ये अमारा होता साइब... ये अमारा होता।” उसने अपनी ज़ख़्मी टांग के पायंचे को ऊपर खींच कर पिंडली वाले ज़ख़्म को सामने कर दिया। सफ़ेद पट्टी चलने के बाइ’स ख़ून से भर गई थी।

    मेमसाहब ने बुड्ढे अंकल को ज़ोर से एक लात मारी। “सुअर तुम अपना गंदा कपड़ा इदर में काय फेंकता।”

    ज़रब की ताब ला कर वो औंधे मुँह फ़र्श पर गिर गया... उसकी आँखों के सामने स्याह धब्बे उभरने डूबने लगे। फिर उसने अपने आपको सँभाला। उंगलियों को फ़र्श पर टेक कर खड़ा हो गया।

    “बोलो तुम गंदा कपड़ा काहे को इदर लाया...?” साहिब ने भी बनाओटी ग़ुस्से सेकहा।

    बुड्ढा अंकल ने पलट कर साहिब को देखा। उसकी आँखों में अ’जीब सी चमक थी, अ’जीब सी बेचारगी जैसे उसने अगर जवाब नहीं दिया तो साहिब फिर अपना सर उसके क़दमों पर रख देगा और गिड़गिड़ा कर कहेगा। “बोलो अंकल...बोलो...अपना बेबी के लाइफ़ के वास्ते बोलो...

    अम नहीं लाया साइब...” उसने घिघियाते हुए कहा, “अम नहीं, अपना टाइगर लाया... अपना कुत्ता अमारा रुम से लाया।”

    फिर बुड्ढा अंकल घिसटता हुआ तौलिया लिये कमरे से निकल गया... खिड़की से गुज़रते हुए उसने नई मेम साहब की आवाज़ सुनी जो साहिब से कह रही थी... “साहिब को कितनी बार कहा। इस हराम का खाने वाला कुत्ता को निकाल दो। मगर पता नहीं साहिब क्यों इसे नहीं निकालता...बेबी तो इससे बेहद नफ़रत करती...बेहद नफ़रत...”

    फिर वो क़रीब वाले सोफ़े पर बैठ गये। बुड्ढा अंकल ने देखा कि सभों के चेहरों पर इत्मिनान की लहर दौड़ गई है और बेबी के होंटों पर हल्की हल्की मुस्कुराहट चमक उठी है। जैसे घनघोर घटा बरसे बग़ैर छट गई हो और ज़र्द हल्की धूप चारों तरफ़ फैल गई हो।

    फिर चुपके से वो दिन भी आया जब छोटे से गार्डन की कलियाँ मुस्कुरा रही थीं। आस-पास के सारे माहौल से ज़िंदगी फूटी पड़ रही थी और बेबी बड़े से सफ़ेद गौन में मलबूस गुलाब और बेले की कलियों से लदी पुराने चर्च में रॉबसन साहिब के बाज़ू में बाज़ू दिये अ’क़ीदत से आँखें बंद किए दो ज़ानू हो कर बैठी हुई थी।

    मरे ख़ुदावंद

    मरे ख़ुदावंद

    मुझे नई ज़िंदगी दे

    मुझे नई ख़ुशगवार ज़िंदगी दे (इंजील मुक़द्दस)

    फिर बुड्ढे अंकल ने इलाक़े के छोटे-छोटे बच्चों को टॉफ़ीयां तक़सीम कीं और बँगले के वसीअ’ दालान में बच्चों के साथ मिलकर रक़्स करता रहा और ज़ोर-ज़ोर से गाता रहा। वही अकेला गीत जो उसने बेबी के बचपन में याद किया था।

    ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार

    हाउ आई वंडर व्हाट यू आर

    ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार

    बहुत देर तक वो ख़ुशियां मनाता रहा। लेकिन जब धीरे धीरे सब बच्चे भाग गये और वसीअ’ दालान में वो तन्हा रह गया तो एका एकी रौशन-दान से एक कबूतर फड़फड़ाता हुआ उड़ा और चारों तरफ़ दालान में चक्कर काटता हुआ दरवाज़े से बाहर निकल गया। बुड्ढा अंकल ने अचानक ऐसा महसूस किया कि इस वसीअ’ दालान में वो एक दम से तन्हा है और तन्हाई ने दूर दूर तक होंटों पर उंगली रखे चुप साध ली हो। यूं गोया अब कभी बोलेगी। ये मोहर-ए-सुकूत कभी टूटेगी। वो उदास हो गया। बड़बड़ा कर बाहर निकल आया। जहां साहिब खड़ा जीप से सामान उतरवा रहा था।

    “हैप्पी मॉर्निंग साइब...!” ज़िंदगी में पहली बार उसने अपना हाथ बढ़ा दिया। “शेक हैंड...”

    “ओह!बुड्ढा अंकल...श्योर श्योर... हैप्पी मॉर्निंग...” साहिब ने गर्मजोशी से हाथ मिलाया। फिर बुड्ढा अंकल अलग हो कर खड़ा हो गया... “साइब अम फ़िफ्टी रुपया मांगता।”

    “फ़िफ्टी रूपीज़...? इतना रुपया क्या करेगा बुड्ढा अंकल...?”

    “अबी नहीं बोलेगा साइब। मगर अम को दो ज़रूर साइब...फिर कभी नहीं माँगेगा। देने सकता साइब...?”

    ज़रूर देने सकता। फिर बूढ्ढा अंकल ने रुपया लेकर साहिब को गुड मॉर्निंग किया और बाज़ार से एक सोने का ख़ूबसूरत हार लाकर बेबी के कमरे में दाख़िल हो गया। जहां एक तरफ़ तालियाँ बजा बजा कर चंद जवान लड़कीयां झूम-झूम करगा रही थीं। एक तरफ़ मारग्रेट मेहमानों के दरमयान बैठी मुस्कुरा रही थी। बूढ्ढा अंकल की आँखें चौंधिया गईं, उस के दिल में दूर तक फूल ही फूल खुलते चले गए उस के दिल में आया कि वो भी लड़कीयों के साथ तालियाँ बजाय और झूम कर नाचे.... लड़कीयां नाचते नाचते रुक गईं। सबकी सब बूढ्ढा अंकल को ठिठक कर देखने लगीं।

    क्या मांगता बूढ्ढा.... उदर क्या मांगता......?

    वो चौंक पड़ा..... कुछ नहीं मांगता...... कुछ नहीं..... अपना बेबी को बाई बाई करना मांगता..... और...... उसने जेब से हार निकाल कर आगे बढ़ा दिया। और बेबी को अपने हाथ से निकलस देना मांगता.... वो मारग्रेट के गले में हार पहनाने की ग़रज़ से बढ़ा। मारग्रेट हड़बड़ा कर उठ खड़ी हुई। क्या करता बूढ्ढा..... उदर में रहो..... उदर में रहो.....

    वो रुक गया। बेबी अपना निकलस नहीं मांगता.....?

    नहीं मांगता....! इस की तेवरियाँ चढ़ गईं। नफ़रत से इस का मुँह बिगड़ गया। बूढ्ढा अंकल ठिठक गया चलते चलते उस का दिल अचानक रुक गया...... नहीं बेबी ऐसा माफिक मत बोलो.... ऐसा माफिक मत बोलो..... उस की आवाज़ रुँध गई..... बेबी उम तुमसे कभी कुछ नहीं

    बोला। अम्मारा रुको सट मानो..... निकलस ले लू बेबी..... उम तुमारा.... बूढ्ढा अंकल..... तुमारा अपना सर विण्ट रुको सट करता है बेबी..... वो मारग्रेट के क़दमों पर झुक गया। मारग्रेट....

    एक लम्हा में पता नहीं कहाँ से एक साया-ए-सा मारग्रेट के दिल में आया और सारे वजूद को नरम करता हुआ गुज़र गया। वो कुछ लम्हे ख़ामोश रही। फिर आहिस्ता से गर्दन झुका ली.....अच्छा बूढ्ढा! उम तुमारा निकलस क़बूल करता...... पलट कर क़रीब खड़ी हुई आया से मुख़ातब हुई, आया बुड्ढे से निकलस ले लू और डीटोल में धो कर अम्मारा संदूक़ में रख दो....

    बूढ्ढा अंकल ये सुनकर चौंक उठा। फिर उसने ज़बत किया। इस के होंटों पर अजीब मुस्कुराहट उभरी। उसने आहिस्ता से हार आया के हाथ में रख दिया और कमरे से बाहर निकल गया....... बेबी बहोत नफ़रत करता.... अपना बेबी...... बहोत नफ़रत करता..... बाई गॉड.....! दूसरी सुबह दोपहर को एक छोटी सी कार में बैठ कर बेबी रॉबसन साहिब के साथ कलकत्ता चली गई। बूढ्ढा अंकल सड़क के किनारे बबूल के बे-बर्ग-ओ-बार दरख़्त तले खड़ा नज़रों से ओझल होती हुई कार को घूरता रहा। जब कार चली गई और सड़क की सुर्ख़ बजरी सारी फ़िज़ा पर छाई गई तो उसने इक्का अक्की महसूस किया जैसे पास से कोई कबूतर फड़फड़ाता हुआ निकल गया हो और वो इस वसीअ दुनिया में बेकार-ओ-तन्हा रह गया। आस-पास इलाक़े के चारों तरफ़ ख़ामोशी मुसल्लत थी। यूं गोया हुआ भी साकित हो गई थी। जब वो अपने कमरे में पहुंचा और दागदार फ़्लैट को पलंग पर फेंक कर बैठना चाहा तो वो कबूतर उस के कान के पास से फड़फड़ाता हुआ उड़ गया। उसने चौंक कर चारों तरफ़ देखा। कहीं कुछ नहीं था। दोपहर बीत रही थी। बाहर सख़्त धूप थी और चारों सिम्त गहिरी ख़ामोशी मुसल्लत थी। दरख़्तों की पत्तियाँ तक ख़ामोश थीं। सारा इलाक़ा एक बड़े से सुनसान क़ब्रिस्तान की तरह महसूस हो रहा था। फिर बूढ्ढा अंकल इस तन्हाई से घबरा कर कमरे से बाहर निकल गया। और इलाक़े की पेच दर पेच गलीयों में घंटों फिरता रहा। कहीं कोई शोर नहीं कहीं कोई आवाज़ नहीं बजुज़ एक ऐब सी फड़ फड़ाहट के जो ख़ामोशी को और भी गहिरी, पुर-असरार और हज़ीं त्रिकुर रही थी। क्या कुछ खो गया? क्या घट गया इस भरी परी दुनिया से कि अचानक सारा आलम कंगाल सा हो कर रह गया है? जब उसे फिरते फ़िराते शाम होने लगी। आफ़ताब डूब गया। इस की हड्डी हड्डी में दर्द की लहरें उठने लगें तो वो अपने कमरे में घुस गया और चेहरे पर हाथ रखकर फूट फूटकर रोने लगा...... अपना सब कुछ छीन गया यसवा मसीह..... अपना सब कुछ लुट गया.....!

    फिर जब रात हो गई और आया ने हसब-ए-दसतूर दो जली हुई रोटियों पर आलू के क़त्ले रखकर चीनी की ज़र्द ऊपर पुरानी प्लेट में ला कर मेज़ पर पटक दिया तो पहली बार ये मोटी ख़ुशक रोटी उस के गले में फंस गई... उसने पूरा गिलास पानी गुट गुट चढ़ा लिया और रोटियों को हथेली पर मसल कर मुर्ग़ीयों के डरबे में डाल आया। सामने बेबी की खिड़की बंद थी। रात स्याह से सियाह-तर हो रही थी और वो लम्हा बह लम्हा उदास होता जा रहा था। वो चुप-चाप अपने कमरे में गया और आँखें बंद कर के बिस्तर पर फैल कर सो रहा, मगर नींद कहाँ.....! पता नहीं वक़्त के किस अनजाने मोड़ पर रह गई है। पता नहीं उसे किस का इंतिज़ार है। बाहर तारीकी गहिरी होती जा रही है। हुआ साएँ साएँ गुज़र रही है और दिल ना मालूम क्यों बच्चों की तरह बिलक बिलक कर रो रहा है। बूढ्ढा अंकल इक्का अक्की उठ बैठा, संदूक़ खोल कर कपड़ों के नीचे से वो पोटली निकाली, उसे खोल कर रोशनी में देखा। फिर काँपते हुए हाथों से उसे चूम लिया..... बेबी उदर में अपना कोई नहीं होता.... उदर में कैसा माफिक रहेगा.....? बोलो..... बोलो.....? उसने अपने पैरों में फ़ुल बूट पहना। पोटली को बांध कर बग़ल में दाबा और घिसटता हुआ बाहर निकल गया।

    दुनिया कितना बैड मालुम पड़ता अब.... ऊपर आसमान तारीक था। गहरे स्याह झूमते हुए बादल उमड रहे थे, और मुनव्वर चांद बादलों के आगे भागता हुआ निकला जा रहा था, कभी मद्धम सा, कभी रोशन, मगर दौड़ता हुआ। उसने निगाहें उठा कर आसमान की सिम्त देखा.... अपना मौन कदिर को जाता..... ऐसा माफिक कदिर को दौड़ता.....?

    फिर वो ख़ामोश गर्दन झुकाए, लंगड़ाता हुआ चलने लगा। लोकेलिटी की ख़ामोश गली में एक लैम्पपोस्ट के क़रीब आहिस्ता-आहिस्ता चल रहा था। इस के कानों में किसी उड़ते हुए कबूतर के परों की फड़ा फड़ाहट थी।

    तुम कदिर में चला गया बेबी.....उम तुमको कदिर में ढ़ूढ़ने जाएगा..... कदिर में? यसवा मसीह उम कदिर में जाएगा, बोलो...... बोलो.....?

    उसने चलते चलते आँखें मैच लें। आँसूओं के दो क़तरे रुख़्सार पर पड़े। आसमान की तरफ़ देखते हुए उंगलीयों से सीने पर सलीब बनाई। कदिर में जाएगा, यसवा मेह , बोलो.... बोलो.....?

    (ग़ियास अहमद गद्दी के अफ़साने अज़ ग़ियास अहमद गद्दी (8

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