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बदन की ख़ूश्बू

इस्मत चुग़ताई

बदन की ख़ूश्बू

इस्मत चुग़ताई

MORE BYइस्मत चुग़ताई

    स्टोरीलाइन

    नवाबी ख़ानदान में अपने जवान होते बेटों के लिए लौंडी रख देने का रिवाज था। वे उनके साथ संबंध बनाते और फिर जब उन लौंडियों को हमल ठहर जाता तो उन्हें महल से निकाल दिया जाता। छम्मन मियाँ को जब पता चला कि हलीमा को महल से भेजा जा रहा है तो उन्होंने उसे रोकने के लिए हर किसी की ख़ुशामद की, मगर हर किसी ने उनकी बात सुनने से इंकार कर दिया। इससे छम्मन मियाँ को एहसास हुआ कि बात उनके हाथ से निकल चुकी है तो उन्होंने घर वालों के ख़िलाफ़ बग़ावत का ऐलान कर दिया।

    कमरे की नीम-तारीक फ़िज़ा में ऐसा महसूस हुआ जैसे एक मौहूम साया आहिस्ता-आहिस्ता दबे-पाँव छम्मन मियाँ की मसहरी की तरफ़ बढ़ रहा है।

    साये का रुख़ छम्मन मियाँ की मसहरी की तरफ़ था। पिस्तौल नहीं शायद हमलावर के हाथ में ख़ंजर था। छम्मन मियाँ का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। अंगूठे अकड़ने लगे। साया पैरों पर झुका। मगर इससे पहले कि दुश्मन उन पर भरपूर वार करता। उन्होंने पोल जंप क़िस्म की एक ज़क़ंद लगाई और सीधा टेटुए पर हाथ डाल दिया।

    “चीं” उस साये ने एक मरी हुई आह भरी और छम्मन मियाँ ने ग़नीम को क़ालीन पर दे मारा। चूड़ीयों और झाँजनों का एक ज़बरदस्त छनाका हुआ। उन्होंने लपक कर बिजली जलाई। हमला-आवर सट से मसहरी के नीचे घुस गया।

    “कौन है बे तू”, छम्मन मियाँ चिल्लाए।

    “जी में हलीमा।”

    “हलीमा? ओह!” वो एक दम भुस से क़ालीन पर बैठ गए।

    “यहां क्या कर रही है?”

    “जी कुछ नहीं।”

    “तुझे किस ने भेजा है। ख़बरदार झूट बोली तो ज़बान खींच लूँगा।”

    “नवाब दुल्हन ने?” हलीमा काँपी...

    “उफ़ प्यारी अम्मी और उनकी जान की दुश्मन!” एक दम उनका दिमाग़ क़ुलाँचें भरने लगा। कई दिन से अम्मी उन्हें अजीब-अजीब नज़रों से देखकर नायाब बो बो से कानाफूसी कर रही थीं। नायाब बो बो एक डायन है कम्बख़्त। भाई जान भी गुस्ताख नज़रों से देख देखकर मुस्कुरा रहे थे। उन सबकी मिली भगत मा’लूम होती है।

    नवाबों के ख़ानदान में क्या कुछ नहीं हुआ करता। चचा दादा ने कई बार अब्बा हुज़ूर को संकेहा दिलवाने की कोशिश की। बदमाश उनकी जान को लगा दिए कि जायदाद पर क़ब्ज़ा करके सब हज़म कर जातीं। रफ़ाक़त अली ख़ान को उनके सगे मामूँ ने ज़हर दिलवा दिया, ख़ुद उनकी चहेती लौंडी के हाथों, लानत है। ऐसी जायदाद पर।

    शायद प्यारी अम्मी अपनी सारी जायदाद बड़े साहबज़ादे को देना चाहती हैं कि अपनी भतीजी ब्याह कर लाई हैं ना, इसलिए उस की जान की दुश्मन हो रही हैं।

    छम्मन मियाँ को जायदाद से कोई दिलचस्पी ना थी। असामियों की ठुकाई करना। उन्हें घर से बे-घर करके जैसे-तैसे लगान वसूल करना, उनके ढोर डंगर नीलाम करवाना, उन्हें वहशत होती थी इन हरकतों से।

    उफ़ दुनिया में किसी का भरोसा नहीं। अपनी माँ अगर जान की दुश्मन हो जाएगी। वैसे ही हर वक़्त टोकती रहती हैं। ये ना करो, वो ना करो, इतना ना पढ़ो, इतना ना खेलो, इतना ना जियो।

    “चाक़ू कहाँ है?” छम्मन मियाँ ने कोहनियों के बल झुक कर पूछा।

    “चाक़ू।”

    “हैंड्स-अप”, छम्मन मियाँ ने जासूसी अंदाज़ में कहा।

    “ईं”, हलीमा चकराई।

    “उल्लू की पट्ठी हाथ ऊपर।”

    हलीमा ने हाथ ऊपर उठाए तो ओढ़नी फिसल गई। झेंप कर उसने हाथ दबोच लिए।

    “फिर वही बदमाशी। हम कहते हैं हाथ ऊपर।”

    “ऊँ काई को?” वो इठलाई।

    “काई को की बच्ची। चाक़ू कहाँ है!”

    “कैसा चाक़ू?” हलीमा चिड़ गई।

    “तो फिर क्या था तेरे हाथ में?”

    “कुछ भी नहीं, अल्लाह क़सम कुछ भी नहीं था।”

    “तो फिर... फिर क्यों है यहां?”

    “नवाब दुल्हन ने भेजा है”, हलीमा ने दबी ज़बान से कहा और आँखें झुकाकर अपनी नथनी का मोती घुमाने लगी।

    “क्यों?” छम्मन मियाँ सहम गए।

    “आपके पैर दबाने के लिए।” वो मसहरी से टिक गई।

    “लाहौल वला क़ुव्वा... चल भाग यहां से”, उन्होंने हलीमा की शरीर आँखों से घबराकर कहा।

    हलीमा का चेहरा लटक गया। होंट काँपे और वो क़ालीन पर घुटनों में सर दे कर फूट पड़ी।

    “ओहो, रो क्यों रही है। बेवक़ूफ़ गधी कहीं की।”

    मगर हलीमा और रोने लगी।

    “हलीमा प्लीज़ हलीमा... ख़ुदा के लिए रो मत और जा... हमें सुबह कॉलेज ज़रा जल्दी जाना है।”

    हलीमा फिर भी रोए गई।

    दस बरस हुए तब भी हलीमा इसी तरह रोये जा रही थी। उसका बाप औंधे मुँह लेटा था। उसके मुँह से ख़ून बह रहा था। मगर वो ख़ून बहुत लाल था। उसमें गुलाबी गुलाबी गोश्त के टुकड़े से मिले हुए थे। जो बाबा रोज़ बलग़म के ज़रीये उगला करता था।

    उसे कलेजे से लगाए झूम-झूम कर बैन कर रही थी। फिर सबने अब्बू को सफ़ेद कपड़ों में लपेटा और हस्पताल ले गए। लोग हस्पताल जाकर फिर नहीं लौटा करते।

    और उस दिन भी वो इसी तरह रोये जा रही थी जिस दिन उस की अम्माँ ने उसे नवाब दुल्हन की पट्टी तले डाल कर अनाज से झोली भर ली थी और जाते वक़्त पलट कर भी ना देखा था।

    ग़ुलाम गर्दिश के अहाते में हलीमा झूटन खाकर पलती रही। उसे नवाब दुल्हन के दालान तक रींग कर आने की इजाज़त ना थी। गंदगी और ग़लाज़त में वो मुर्ग़ियों और कुत्ते के पिल्लों के साथ खेल कूद कर बड़ी हुई।

    बे-हया मूई हलीमा जीती गई। नायाब बो बो का दस बारह बरस का लौंडा जब्बार क्या धुआँ धुआँ मूई को पीटा करता था। कभी चिमटे से पैर दाग़ देता, कभी आँखों में नारंगी का छिलका निचोड़ देता कभी ख़ाला की निसवार की चुटकी नाक में चढ़ा देता। हलीमा घंटों बैठी मेंढ़की की तरह छींकती रहती। सारा घर हंस हंसकर दीवाना हो जाता।

    अब भी सताने से बाज़ नहीं आता था। ड्योढ़ी पर कुछ देने गई। चुटकी भर ली, नथनी पकड़ के हिला दी। कभी चोटी खींच ली। बड़ी चलती रक़म था। नवाब साहब का तुख़्म था ना। उनका बड़ा मुँह चढ़ा था।

    नायाब बो बो एक बांदी थीं। किसी ज़माने में बड़ी धारदार,नवाब साहब यानी छम्मन मियाँ के वालिद उन पर बुरी तरह लट्टू हो गए। वक़्तन फ़-वक़्तन निकाह की धमकियाँ भी दे दिया करते थे मगर वो एक घाग थीं।

    बांदी का निकाह हो जाए चाहे ना हो, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। कोई सुर्ख़ाब के पर नहीं लग जाते। ख़ानदानी नवाब ज़ादियाँ मर जाएंगी साथ ना बिठाएँगी। क़ाज़ी के दो बोलों में इतना दम दुरूद नहीं कि चटानों में सुराख़ कर दें या दाल रोटी के सवाल को हल कर दें।

    नायाब बो बो के महल में बड़े ठाट थे। बजाय बेगम की सौत बनने के वो निहायत जा अफ़्शानी से कोशिश करके उनकी मुशीर-ए-ख़ास गोईयाँ बन गईं और नवाब साहब पर कुछ ऐसा जादू का डंडा घुमाया था कि उन्होंने उनके बेटे जब्बार के नाम माक़ूल अराज़ी और बाग़ात कर दिए थे। सारे नौकर उससे लरज़ते थे। बोक्सी की क़मीज़ और विलायती पतलून चढ़ाए डटा फिरता था। नाम को ड्राईवर था, मगर रौब सब पर जमाता था। अंदर बो बो और बाहर जब्बार जो नसीबों का मारा इन दो पाटों के बीच जाता, साबित बच कर ना जाता।

    हलीमा रोये चली जा रही थी।

    छम्मन ने डाँटा तो रेज़ा रेज़ा हो गई। थक कर चुमकारा तो बिलकुल ही बह गई। उसके सर्द हाथ पकड़ कर फ़र्श से उठाया तो डट कर उनके सीने से लग गई।

    अल्लाह जाड़ों की होशरुबा रातें, तूफ़ान की घन-गरज और छम्मन के ना तजुर्बा कार हाथों में बिखरी हुई हलीमा।

    यार लोगों ने लौंडियों को ठिकाने लगाने के कितने गुर बताए थे, मगर हिमाक़त कहिये या फूटे नसीब, छम्मन ने हमेशा लग़ो बात कह कर सुनी अन-सुनी कर दी। अपनी कोर्स की किताबों और क्रिकेट के अलावा उनकी किसी भी शय से गहरी शनासाई ना थी। कड़कड़ाते जाड़ों में रवे की डली हलीमा ने उन्हें झुलसा कर रख दिया। हाथ जैसे सरेश की थाली में चिपक गए।

    फिर ना जाने दिमाग़ के किस कोने में नश्तर सा लगा, उछल कर दूर जा खड़े हुए। ग़ुस्सा से थर-थर काँपने लगे।

    बाहर तूफ़ान रुकने का नाम नहीं ले रहा था और हलीमा की सिसकियाँ तलातुम बरपा किए दे रही थीं।

    “हलीमा मत रो, प्लीज़।” वो तंग आकर उस के सामने उकड़ूँ बैठ गए। जी चाहा उस के सीने पर सर रखकर ख़ुद भी दहाड़ें मार मार कर रोयें, मगर डर था कि फिर सर वहां से उठने का नाम ना लेगा। अपने कुरते के दामन से उसके आँसू पोंछे। उसे उठाया और इससे पहले कि वो कुछ समझ पाती, बाहर धकेल कर अंदर से कुंडी चढ़ाली।

    नींद तो हलीमा के आँसू बहा ले गई थी। सुबह तक छम्मन मियाँ लिहाफ़ में पड़े काँपते रहे। और ज़हर में बुझे आँसू बहाते रहे।

    बाहर झुंझलाई हुई हवा बिगड़ कर पेड़ों से लड़ती रही, कराहती रही।

    नायाब बो बो ने सलाम फेरा और दुआ के लिए हाथ उठाए, जा-ए-नमाज़ का कोना पलट कर वो उठीं और हौले-हौले से दरवाज़ा खोल कर जब्बार के कमरे में झाँका। बेटे के वजीहा जिस्म को देखकर मामता से उनकी आँखें भर आईं।

    दबे-पाँव वो अंदर आईं। छम्मन मियाँ के वालिद नवाब फ़र्हत और जब्बार के बाप की नई बांदी गुलतार चोरी छिपे रोज़ जब्बार के पास आती, निशानीयां छोड़ जाती थी। आज भी लिहाफ़ में से दुपट्टा लटक रहा था। उन्होंने दुपट्टा खींचा। ये ना-मुराद किसी दिन नाक चोटी कटवाएगी। अल्लाह जब्बार को नज़र-ए-बद से बचाए। हू-ब-हू बाप का नक़्शा पाया है।

    अचानक नायाब बो बो फ़िक्रमंद हो गईं। बाप की लौंडी माँ बराबर हुई कि नहीं? फ़तवा ले लिया जाये आलिम साहब से, तो जी का हौल कम हो। ये क्या कि दुनिया तो गई, उक़्बा में भी अँगारे ही अँगारे। निगोड़ी गुल बहार का भी क्या क़ुसूर, कहाँ वो बवासीर के मारे खूसट नवाब फ़र्हत और कहाँ ये कड़ियल जवान। रात क्या चहकी पहकी रोती थी। किवाड़ भेड़ने का भी होश नहीं इस लड़के को। बो बो की नींद कच्ची ना हो तो ना जाने किसी की नज़र ही पड़ जाये। अल्लाह पाक सब का रखवाला है।

    नायाब बो बो ने जब्बार के लिए बाक़ायदा बांदियाँ ख़रीदीं, एक जापे में जाती रही, दूसरी मेहतर के लौंडे के साथ निकल गई। इस हर्राफ़ा ने जी का चैन उड़ा दिया था। शरीफ़ घरानों की बांदियाँ ऐसी उछाल छक्का नहीं होतीं।

    कई बार चाहा कि बेगम से हलीमा मांग लें। मगर हिम्मत ना पड़ी।

    “नहीं, हलीमा तो मेरे छम्मन के लिए है”, बेगम को ज़िद है। आज उनकी ज़िद पूरी होगी वैसे जब्बार को मुसम्मा लौंडियाँ पसंद भी नहीं। बाप की तरह तुतिया मिर्च चाहिए।

    बड़बड़ाती हुई नायाब बो बो बाँदियों के कोठे में पहुंचीं तो उनका कलेजा धक से रह गया।

    हलीमा सरवरी की रज़ाई में दुबकी पड़ी थी। स्लीपर की नोक से उन्होंने हलीमा के छाँजन में ठोकर मारी और रज़ाई का कोना पकड़ कर खींच लिया।

    हलीमा घबराकर जाग पड़ी और ग़ाफ़िल सोई हुई सरवरी के नीचे से अपना दुपट्टा खींचने लगी।

    बो बो की चील जैसी आँखें हलीमा के जिस्म पर टाँकने भरने लगीं। हलीमा चोरों की तरह सर झुकाए मैली तोशक में लगे टाँके गिनने लगी।

    “हूँ!” बो बो ने कमर पर हाथ रखकर पूछा, “मैंने क्या कहा था तुझसे?”

    “जी बो बो।”

    “तो?”

    हलीमा चुप रही

    “अरी नेक-बख़्त मुँह से तो कुछ फूट क्या बोले?”

    “उनके पैरों में दर्द नहीं था”, हलीमा का सर झुक गया।

    “हूँ”, बो बो तस्बीह घुमाती हुई मुड़ गईं। दिल में आप ही आप कलियाँ खिलने लगीं। ख़ैर से बस अब तो नवाब फ़रहत का नाम चलाने वाला जब्बार रह गया। ख़ुदा की शान है बड़े साहबज़ादे का भी कोई क़ुसूर ना था। निगोड़ी सनोबर इतनी उम्र ही लेकर आई थी। मुश्किल से चौधवां साल लगा होगा। कि साहबज़ादे को पेश कर दी गई। क्या फूल सी बच्ची थी, हमेशा की धान पान। माँ बाप का प्यार मिलता एक ना एक दिन बाबुल का घर छोड़कर शहनाइयों के सुरीले कानों में बसाए ससुराल सिधार जाती। जहां दो दिल मिलते, एक घर बनता। एक दुनिया बस्ती।

    सनोबर को बचपन से ही दुल्हन बनने का अरमान था। जब देखो बांदियाँ जमा हैं। बड़ी सजल सी बच्ची थी। छोटी हड्डी, खिंचा हुआ बदन, छोटे हाथ पैर मुन-मुने छिदरे दाँत। देवी जैसी रोशन अँखड़ियाँ। कितना-कितना जब्बार के लिए चाहा। बेगम अड़ गईं, उनके मयके की बांदी है। मामूँ जान से बेटे के लिए मांग के लाई हैं।

    ये कौन कहता है। सनोबर दुल्हन नहीं बनी। बो बो पुश्तैनी बांदी थीं। उन्हें ख़ूब एहसास था कि हर औरत दुल्हन बनना चाहती है। बांदी है तो क्या औरत नहीं, उस के सीने में भी दिल है अरमान हैं। सर-ए-शाम ही से उन्होंने सनोबर को नहला धुलाकर साफ़ सुथरा प्याज़ी जोड़ा पहनाया, अपने हाथों से मेहंदी तोड़ कर पिसवाई, ख़ूब रची थी बदनसीब के हाथों पैरों में। ख़ुशबूदार तेल डाल कर चोटी गून्दी जिसमें टूल का मूबाफ़ डाला। सहेलियाँ कानों में उल्टी सीधी खुसर-फुसर करके उसे सताती रहीं। जब पैरों से उठाकर छम्मन मियाँ के बड़े भाई हश्मत मियाँ ने उसे कलेजे से लगाया तो निगोड़ी ने नन्हा सा घूंगट निकाल लिया था।

    चौदह बरस की सनोबर जिसने हशमत मियाँ का मुँह देखकर जानो मलक-उल-मौत का ही मुँह देख लिया साल के अंदर गाभन हो गई। फीकी कसैली मरघिल्ली सी बच्ची सारा दिन मुँह औंधे पड़ी उबकाईयां लिया करती। अल्लाह लोगों के कैसे कैसे नाज़ नख़रे होते हैं। मैके ससुराल वाले सदक़े वारी जाते हैं। जब अच्छी भली थी। नवाब ज़ादे से हाथ जुड़वा लेती थी तब ज़रा मुस्कुराती थी। एक एक प्यार के लिए नाक रगड़वाती थी। जब जी से उतरी तो मियाँ घिन खाने लगे,महल का दस्तूर था जब गाएँ भैंसें गाभन हो जाती थीं उन्हें गांव भेज दिया जाता था। दुधारी हुई कि वापस बुला ली गईं। लौंडियाँ बांदियाँ भी जब बेकार हो जाती थीं तो गाँव में डलवा दी जाती थीं बच्चा जन के वहीं मिलने को दे आती थीं ताकि महल वालों को काओं काओं से वहशत ना हो।

    बड़ा फ़ेल मचाती थीं ना-मुरादें, भैंस की तरह बछड़े की याद में अर्रातीं, दूध भर के बुख़ार चढ़ते, तब उन्हें किसी बेगम का बच्चा हिलगा दिया जाता। दूध पिला के ऐश उड़ाने को मिलते, अपना बच्चा भूका... और वो इसी से मानूस हो जातीं, मगर नवाब ज़ादियाँ गाय बकरियों की तरह थोड़े उनके लिए बच्चे जनने बैठेंगी। ज़्यादा-तर रो पीट कर ख़ुश्क हो जातीं और फिर काम से लगा दी जातीं... मगर सनोबर अड़ गई कि गाँव नहीं जाऊंगी। नायाब बो बो ने बहुतेरा समझाया पर बेगम के क़दमों से लिपट गई। बो बो दुनिया देखे हुए थीं। लौंडियों से उन्हें नफ़रत भी थी कि अपने वजूद से ही नफ़रत थी। मगर उनसे हमदर्दी भी थी।

    मगर सनोबर की घड़ी गई थी, ना मानी और हशमत मियाँ का मुँह कड़वा करती रही, कोई दूसरी समझाती तो उसका मुँह नोच डालती।

    एक दिन जाने किस बात पर ज़बान चलाने लगी। साहब-ज़ादे को ताव गया। एक लात जो कस के रसीद की तो गिरी जा के मोरी में। बे ढब पड़ गई लात। तीन दिन भैंस की तरह अर्राती रही। कोई डाक्टर बुलाते तो फ़ित्ना खड़ा हो जाता। पेट में बच्चा मर गया था। लोग वैसे ही दुश्मन हैं। ख़ैर से तीसरे दिन सनोबर ने ग़ुलाम गर्दिश की सबसे तारीक कोठड़ी में दम तोड़ दिया।

    सनोबर थी पूरम पूर जादूगरनी, जाने क्या कर गई कि चार साल हशमत मियाँ की शादी को हो गए। मगर औलाद का मुँह देखना नसीब ना हुआ। कैसे कैसे ईलाज हुए थे। तावीज़ गंडे हुए, मज़ारों पर मन्नतें चढ़ाईं, मंदिरों में दिए जलाए। दुल्हन बेगम का पैर भारी ना होना था ना हुआ। सच कि झूट दुश्मन बैरी कहते हैं साहबज़ादे ने भरी कोख लात मार दी थी। इस कारन ना-मुराद हो गए। जब ही तो बेगम दुल्हन को हिस्टीरिया के दौरे पड़ते हैं। और दौड़-दौड़ के मयके जाती हैं। वहां उनके ख़लेरे भाई सुना है बड़े उम्दा डाक्टर हैं। वही इनका ईलाज कर रहे हैं और सुना है कुछ और खटपट भी है दोनों में।

    नायाब बो बो ने ठंडी सांस भरी, बेगम नवाब का मुँह हाथ धुलाने के लिए गर्म पानी समोया और उनकी ख़्वाब-गाह की तरफ़ चल दीं।

    बेगम नवाब को पहले तो नायाब के वजूद से कोफ़्त हुई थी, मगर जब वो क़दमों में बिछ गई और यक़ीन दिलाया कि नवाब दूल्हा की बांदी नवाब दुल्हन की बांदी है। वो कोई रंडी ख़ानगी नहीं। ना टकों से ख़रीदी लौंडी हैं। जाने पुश्त हा पुश्त से कितने नवाबों का ख़ून उनकी रगों में मो’जज़न है। नाचार बेगम को मानना पड़ा। वैसे अब कुछ अंधेरा भी ना था। ख़ानदान के सब मर्द इधर उधर मुँह मार लेते हैं। ता हम नायाब बो बो ने भी कभी हद से आगे पैर ना निकाले। नवाब के मीठे बोल इस कान सुनती इस कान उड़ा देतीं, जब नवाब मुनव्वर मिर्ज़ा के चक्कर में फंसे तो उन्होंने बाक़ायदा बेगम के साथ मिलकर मोरचा सँभाला। बेगम की बे-दख़ली पर ख़ुश होने की बजाय आठ आठ आँसू रोईं। उनका और बेगम का नवाब से अटूट नाता था, मगर ये टखयाई कौन होती है जागीर के कूड़े करने वाली। वो तो चलती हवा का झोंका था। आज इस रुख़, कल उस रुख़।

    उन्होंने बेगम के साथ मिल कर महाज़ पर बहुत हिक्मत-ए-अमली से काम लिया। और सरदार ख़ान को राखी बांध कर बेगम नवाब का भाई बना दिया। तरहदार ख़ान मुनव्वर को साथ लेकर पैरिस चला गया। और जब मुनव्वर ग़ारत हुई तो नायाब ने अपने हाथों से सेज सजाई बेगम को अज़-सर-ए-नौ दुल्हन बनाया। उन्होंने बेगम को फूलों के गहने के साथ दो मोती भी कान में डाल दिए कि नवाब फ़र्हत को कैसे ख़ुश करना है। और ग़ुलाम गर्दिश की अँधेरी कोठड़ी में जब्बार को कलेजे से लगाए सारी रात आँखों में काट दी।

    वो दिन और आज का दिन, नायाब बो बो ने बेगम नवाब की ख़िदमत ना छोड़ी।

    बो बो को मुँह लटकाए देखकर बेगम नवाब का माथा भी ठनका।

    “ख़ैरियत तो है?”

    रुक रुक कर बो बो ने तमाम तफ़्सील बताई। बेगम के पैरों तले से ज़मीन खिसक गई। फ़ौरन जब्बार को मोटर देकर भेजा के हकीम को लादे। हकीम साहब बोले, “परेशान होने की कोई वजह नहीं। दुल्हन बेगम, बच्चा ना तजुर्बा कार है। कम-सिन है, फिर भी एहतियातन कुछ मुक़व्वियात मअ तफ़सील के ग़ुलाम, साहबज़ादे की ख़िदमत में भिजवा देगा। उसके अलावा सरकार हो सकता है कि किसी वजह से कराहियत आती हो। बा’अज़ वक़्त माहज़र कुछ इस ढंग से पेश किया जाता है कि रग़बत नहीं होती, उसका ये मतलब नहीं कि मेदा नाकाम हो चुका है।”

    “मैं पहले ही खटकी थी हुज़ूर, लौंडिया में कुछ खोट है, नवाब ज़ादों के मिज़ाज के लायक़ नहीं। सूखी मारी मरघिल्ली, मेरी मानिए तो सरकार इस ना-मुराद को बाक़िर नवाब को दे डालिए। कई बार कह चुके हैं उनके विलायती कुत्तों की जोड़ी हशमत मियाँ को पसंद है। वो ब-खु़शी तबदील कर देंगे।” बो बो बेगम की पिंडलियों को दबाने लगीं।

    “ए है नौज, में मूई को ज़हर दे दूंगी मगर उस कोढ़ी को ना दूँगी, मुआ सड़ रहा है सर पैर से।” ऐसा अंधेर तो ख़ानदान में कभी नहीं हुआ कि लौंडी जाये और सही सलामत लौट आए।

    तकल्लुफ़ात ख़्याल किए बग़ैर ही पेश-दस्ती कर बैठते हैं। कहीं भाई भाई मैं रक़ाबत ना ठन जाये। इसलिए सुघड़ बेगमें एहतियात से बटवारा कर देती हैं। फिर मजाल है जो दूसरे की बांदी पर कोई दाँत लगाए। बिलकुल क़ानूनी हैसियत होती है इस घरेलू फ़ैसले की।

    “मैं तो आजिज़ हूँ इस लड़के से, अठारह उन्नीस का होने को आया। क्या मजाल जो किसी लौंडी बांदी को छेड़ा हो कि चुटकी भरी हो। हमारे भाई तो उधर दस बारह के हुए और ख़र-मस्तियाँ शुरू कर दीं, सोलह सतरह के हुए और फैल पड़े। नायाब निगोड़ी ढंग से नहाई धोई भी थी कि तुमने हल्दी लहसुन में सड़ती हुई मेरे बच्चे की जान पर थोप दी”, बेगम नवाब बोलीं।

    “ए हुज़ूर मुझे अनाड़ी समझा है? अल्लाह की इनायत से उन हाथों ने ऐसी कैसी बांदियाँ सँवारी। लौंडिया की एड़ी देखकर मर्द ज़ात कोह-ए-क़ाफ़ की परी को ना पूछे। हशमत मियाँ फ़िरंगन से फंसने को हो रहे थे। मगर मेरी हाथ की सनोबर सौ रात हुई कि नहीं?” बो बो अपने फ़न पर आँच आते देखकर बड़ी चिराग़-ए-पा हुईं।

    “ए क़ुर्बान जाऊं बेगम, आपका लाल जवानों का जवान है। दिन भी तो अब ख़राब हैं। पिछले दिनों भारी क़ीमत देकर दो बांदियाँ अफ़ज़ल नवाब ने ख़रीदीं, पुलिस ने नातिक़ा बंद कर दिया। बहुत कुछ खिलाया पिलाया, बहुत कहा कि अल्लाह के नाम पर ग़रीब लड़कीयों की परवरिश कर रहे हैं। मगर लड़कियां किसी होम सोम में अल्लाह मारी पहुंचा दी गईं। डेढ़ हज़ार पर पानी फिर गया। अब नई बांदी मिलना भी तो मुश्किल है।”

    अगर तीसरी जंग शुरू होती तो भी महल में ऐसा तूफ़ान ना मचता। बात रेंगती हुई सारे ख़ानदान में पहुंच गई। जानो हर चहार तरफ़ संपोलिए छूट गए। एक से दूसरे मुँह तक जाने में कितनी देर लगती है, जिससे सुना, छाती कूट ली।

    “हय हय अच्छन मियाँ।”

    अफ़ज़ल मियाँ को पता चला, पाइंचा फड़काते, पीक का ग़रारा मुँह में सँभाले आन पहुंचे और सीधे छम्मन की जान पर टूट पड़े।

    “ऊई माँ हमें क्या मा’लूम था। ये क़िस्सा है, वर्ना तुम्हारी भाभी का फंदा काहे को गले में डालते। जान-ए-मन अब भी कुछ नहीं गया है, बंदा हाज़िर है।” किसी ज़माने में वो छम्मन पर बुरी तरह लट्टू हो गए थे बड़े सरकार ने गोली मार देने का अल्टीमेटम दिया, तब होश में आए। छम्मन उनसे बे-तरह चिड़ते थे।

    “बकवास मत कीजीये। ऐसी कोई बात नहीं, असल में मुझे ये बातें पसंद नहीं, मेरा मतलब है बग़ैर निकाह नाजायज़ है।”

    “बिलकुल जायज़ नहीं।”

    “इसका मतलब ये हुआ कि हमारे जद्द-ए-अमजद सब के सब हरामकार थे। एक आप पैदा हुए हैं मुत्तक़ी परहेज़गार।”

    “मेरा ख़्याल है कि...”

    “आपका ख़्याल साला कुछ नहीं, कभी अरकान-ए-दीन का मुतालेआ फ़रमाया है?”

    “नहीं तो, मगर... ये बात अक़्ल में नहीं।”

    “पत्थर पड़ गए हैं आपकी अक़्ल-ए-मुबारक पर, मा’लूम है नहीं कुछ और आएं बाएं शाएं हाँकने लगे।”

    “मगर कानूनन जुर्म है।”

    “हम ये काफ़िरों के क़ानून को नहीं मानते हम ख़ुदा-ए-ज़ुल’जलाल वल’इकराम के हुक्म पर सर-ए-तस्लीम ख़म करते हैं। हमारे हाँ लौंडी ग़ुलाम के साथ औलाद जैसा सुलूक किया जाता है। नायाब को देखो, मलिका बनी राज कर रही है। उनके बेटे को किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है, सब ही बांदियों पर चर्बी चढ़ रही है। हाँ तुम्हें सूखा मारा माल दिया गया है, तो मियाँ सरवरी ले लो। दुंबा हो रही है।”

    “हश्त।”

    “हम कहते हैं आख़िर मुआमला क्या है?”

    “कुछ मुआमला नहीं, आप मेहरबानी फ़रमाकर मेरा भेजा ना चाटिये।”

    “तुम्हारी मर्ज़ी, तुमको जग-हँसाई का शौक़ है तो कौन रोक सकता है, तुम्हारी मर्ज़ी और सरकार शायद आपको पता नहीं कि आपकी मंगेतर...”

    “मेरी कोई मंगेतर वंगेतर नहीं।”

    “अभी ना सही, हो तो जाएंगी। वो हर्बा ख़ानम उस लफ़ंडर से बहुत मेल-जोल बढ़ा रही हैं, मंसूर से।”

    “तो मैं क्या करूँ।”

    “बताऊं क्या करो, अभी सदर की तरफ़ को जा रहा हूँ मनिहारन को भेजे देता हूँ, भर कलाइयाँ चूड़ियाँ पहन लो और क्या”, उन्होंने पीक भरा क़ह-क़हा मारा।

    “जहालत, सब जहालत की बातें हैं।”

    “हमारे क़िब्ला-ओ-क’अबा जाहिल थे?”

    “होंगे मुझे क्या पता।”

    “अबे क्यों घास खा गए हो, बुज़ुर्गों ने कुछ सोच समझ कर ही रिवाज बनाया, अब तक हमारे ख़ानदानों में इसी पर अमल होता चला आया है। बांदी मिल जाये तो जवान लड़के बेराह नहीं होते बुरी लतों से बचते हैं, सेहत अच्छी रहती है।”

    “ये सब हरामकारी को जायज़ बनाने के हथकंडे हैं।”

    “तुम कुफ़्र बक रहे हो, मज़हब की तौहीन...”

    “अरे जाईये बड़े मज़हब वाले आए, मज़हब की बस एक ही बात दिल पर नक़्श है।”

    “नालायक़ भी हो और... बदतमीज़ भी। लाहौल वला, मेरी बला से तुम जहन्नुम में जाओ।”

    रात को ख़ासा चुना गया तो नायाब बो बो ने बड़े एहतेमाम से चांदी की चमची में माजून मुरक्कब जवाहर वाला चांदी के वर्क़ में लपेट कर पेश किया। हकीम साहब की हिदायात का पर्चा छम्मन से बे पढ़े फाड़ दिया था और सरवरी को डपट बताई थी। छम्मन का जी चाहा की क़ाब में डूब मरें। उन्होंने माजून को हाथ मार कर गिरा दिया। और पैर पटख़ते अपने कमरे में चले गए। सारी दुनिया उनको नामर्द समझ रही थी।

    उन्होंने अब तक जितनी इल्मी और अदबी किताबें पढ़ीं थीं, सब ही में बग़ैर शादी किए किसी औरत से ताल्लुक़ात रखने वाले को ज़ानी और बदकार कहा गया था।

    बाहर फिर आज हवा बिफरी हुई डायन की तरह हूंक रही थी, खिड़की के शीशे पर एक कमज़ोर सी टहनी बार-बार सर पटख़ रही थी, जैसे हवा से बच कर अंदर छुपने के लिए दस्तक दे रही हो। बड़ी मुश्किल से आँख लगी। ठंडी ठंडी बूँदें उनके पैरों पर रेंगें तो घबराकर जाग पड़े। दिल धक धक करने लगा।

    हलीमा उनके पैरों पर मुँह रखे सिसक रही थी। जल्दी से उन्होंने पैर खींच लिए फिर वही आँसूओं का तूफ़ान, ये लड़की तो दुश्मन से मिलकर उनके ख़िलाफ़ मोरचा बंदी पर तुली हुई थी। ये लोग उन्हें डुबोकर ही दम लेंगे।

    “क्या है?” उन्होंने डपटा।

    “क्या में इतनी घिनौनी हूँ कि सरकार के पैर भी नहीं छू सकती”, हलीमा कराही।”

    “भई ये क्या गधापन है। जाओ हमारे कमरे से।”

    “नहीं जाऊँगी, क्या समझा है मुझे, बाँदी हूँ, कोढ़न तो नहीं। सारा महल मेरे जन्म में थूक रहा है, मेरा मज़ाक़ उड़ाया जा रहा है कि आपको मुझसे घिन आती है। मैं आपके लायक़ नहीं। कल से सरवरी आपकी ख़िदमत गुज़ारी पर मुक़र्रर की जाएगी।”

    “हम उस सूअर को बहुत मारेंगे। हमें ख़िदमत गुज़ारी की कोई ज़रूरत नहीं।”

    “हो जाएगी ज़रूरत, हकीम साहब फ़रमाते हैं कि…”

    “झक मारते हैं हकीम साहब उल्लू के पट्ठे।”

    “तो मैं क्या करूँ?”

    “जाओ, सो जाओ बहुत रात हो गई।”

    “मेरे लिए कैसा दिन और कैसी रात, पर इतना तो एहसान कीजीये कि मुझे ज़हर ही ला दीजीये।”

    “हम क्यों ला दें ज़हर? बेवक़ूफ़, कैसी बातें कर रही है। ख़ुदकुशी गुनाह है।”

    “तो फिर बाक़िर नवाब की आग में जाकर जलूँ, उन्हें गर्मी की बीमारी है छोटे मियाँ।” हलीमा फिर दरिया बहाने लगी।

    “नवाब बाक़िर, उन कम्बख़्त का ज़िक्र क्या है।”

    “उन्ही का तो ज़िक्र है, आप सरवरी को क़बूल कर लीजीए, मुझे उनके हाथ बेचा जा रहा है... विलायती कुत्तों की जोड़ी के इवज़ जो अठारह सौ की थी।”

    “ओफ़्फ़ो क्या बकवास है।”

    “बाक़िर नवाब अंदर से सड़ रहे थे, महतरानी बो बो से कह रही थी। बो बो को तो मुझसे बैर है। मैंने जब्बार के मुँह पर जूती मार दी थी।”

    ठंडे दिल से हलीमा ने समझाया तो ग़ुस्से से काँपने लगे। उनका जी चाहा हलीमा के आँसू अपने दामन में समेट लें, मगर उसे हाथ लगाते जी काँप रहा था कि हाथ लगा तो छूटना मुश्किल हो जाएगा।

    “क्या तुम मुझसे शादी करना चाहती हो?” छम्मन मियाँ ने पूछा।

    “मेरे अल्लाह सारी दुनिया को मा’लूम है, हर्बा बिटिया बचपन की मांग है, आपकी।”

    “और तुम?”

    “मैं आपकी बांदी हूँ।”

    “तुम हमारी बांदी हो। तुम्हारी बांदी माँ तो बांदी नहीं थी। ना तुम्हारा बाप बांदी ज़ादा था। तुम तो सय्यदानी हो हलीमा। तुम्हारे अब्बा किसान थे।”

    “हलीमा... सुनो हलीमा... उसने उस के दोनों हाथ मुट्ठी में पकड़ लिए। सुनो तो हम प्यारी अम्मी से आज ही कहेंगे कि हम हर्बा से शादी नहीं करेंगे। हमारी शादी तुमसे होगी।”

    “शादी!” हलीमा ने झटके से दोनों हाथ छुड़ा लिए। “तौबा तौबा आप तो वाक़ई बच्चों जैसी बातें करते हैं। याद है अलिफ़ का अंजाम, सादिक़ नवाब निकाह कर रहे थे, ज़हर दिलवा दिया बड़ी बेगम साहब ने, हाय कैसी तड़पी है तीन चार दिन, दम ही निकलता था मुई का छोटे मियाँ, ऐसा ही है तो अपने ही हाथों से गला घोंट दीजीए”, हलीमा ने उनके दोनों हाथ अपने गले पर रख लिए।

    वही हुआ जिसका डर था, हलीमा का जिस्म गोंद का बना हुआ था। छम्मन के हाथ उलझ गए।

    “जाओ... जाओ हलीमा... प्यारी हलीमा... जा-जा... उन्होंने समेट लिया।”

    “उफ़ कितने ठंडे हैं तेरे हाथ... हलीमा...”

    “तो गर्म कर दीजीए मेरे सरकार”, उसने छम्मन मियाँ के कुरते के बटन खोल कर अपने छोटे-छोटे सर्द हाथ उनके बेक़रार उछलते हुए दिल पर रख दिए। रोते सिसकते दो मासूम ना-तजुर्बा कार बच्चे एक दूसरे में तहलील हो गए। बाहर हवा दबे पैर शरमाई हुई नई दुल्हन की तरह आहिस्ता-आहिस्ता झूम रही थी।

    छम्मन मियाँ की तो हर बात बे-तुकी और निराली हुआ करती थी।

    सब ही उन पर हंसते थे। खिलौनों से खेलते हैं, उनकी पूजा नहीं करने लगते। बेगम ने उस सुबह क्या इतमीनान की सांस ली थी। जब बो बो ने उन्हें झुक कर सलाम किया। और जी खोल कर मुबारकबाद दी थी। आठ बजे थे और माशा अल्लाह अभी तक दरवाज़ा बंद था।

    फिर जब साहबज़ादे कॉलेज चले गए तो बेगम ने अपनी आँखों से सबूत देखकर दो रक़ात नफ़्ल शुक्राने के पढ़े। हलीमा को हरारत हो गई थी। अपनी कोठड़ी में मुँह अंधाए पड़ी थी। बो बो आते-जाते गंदे मज़ाक़ कर रही थी। सारे महल में ग़लग़ला था कि छोटे मियाँ ने हलीमा को क़बूल कर लिया। दूसरी बांदियाँ किलसती फिर रही थीं। हलीमा क़िस्मत वाली थी कि ऐसा सजल मासूम दूल्हा मिला। अपनी बातचीत में बाँदियाँ दूल्हा कह कर ही दिल को सहारा दे दिया करती थीं।

    लड़कियों को देखकर छम्मन मियाँ के हमेशा हाथ पांव फूल जाया करते थे, मगर हलीमा को एक-बार छूकर वो किसी काम के ना रहे। ख़ाली घंटा मिला और भागे चले रहे हैं। यार-दोस्त छुट्टी इतवार के दिन आते हैं, मियाँ बहाना बना रहे हैं, मुझे पढ़ना है और पढ़ते भी तो हलीमा के ज़ानूँ पर सर रखा हुआ है हर फ़ुल स्टॉप पर प्यार का नुक़्ता।

    “गँवार लठ, काश ज़रा पढ़ लिया होता तो मेरे नोट फ़ेयर कर देती।” और हलीमा बैठी कोयले से ज़मीन पर ए, बी, सी, डी काढ़ रही है।

    “मेरे फ़ाउंटेन पेन में स्याही तो भर दो यार।”

    स्याही में दोनों हाथ, नाक, मुँह, ओढ़नी रंग गई और ऊपर से टिसवे, बिलकुल गधी है। बड़ा आला इंतेज़ाम हुआ करता था। मियाँ को एक हिस्सा अलग महल का दे दिया जाता था। बांदी से फिर किसी और काम की तवक़्क़ो नहीं की जाती थी। हलीमा तो नायाब बो बो की सधाई थी। बेगम का हाथ मुँह धुलाने पर ज़िद करती। पानदान पोंछने संवारने, ताज़ा कत्था चूने भरने और छोटे मोटे काम से मुँह ना मोड़ती।

    “ए भई बस अपने छोटे सरकार को सँभालो”, बेगम उसे टालतीं, मगर वो सर ढक्के गर्दन झुकाए ज़िद से उनके पैर दबाती। सास ही तो हुईं। उनका पोत भी तो लौंडी के पैर चूमता है।

    नए जोड़े, ज़ेवर सब ही कुछ दिया जाता था। बिलकुल अलैहदा घरदारी का सा लुत्फ़ जाता था। जी चाहा तो अपनी तरफ़ के बावर्ची ख़ाने में कोई ताज़ा चीज़ झटपट बघार ली। रोज़ मालन भर टोकरी फूल गजरे दे जाती। मगर सेज पर फूल छम्मन मियाँ को कभी ना भाए।

    “भई बड़ा दुख होता है, फूलों पर चढ़े लेटे हैं। बड़ी बेरहमी है।” वो सारे फूल समेट कर हलीमा की गोद में भर दिए।

    नायाब बो बो वही अपने तोते जैसी रट लगाए हुए थीं कि इधर मतलियाँ लगीं, उधर मोटी मुर्दार हुई। लोग ब्याहता तक को जी से उतार देते हैं तो बांदी की भली चलाई। छम्मन का जुनून और लगन देखकर बो बो सूरूर से आँखें नीम-बाज़ कर लेतीं।

    “सोचती हूँ कि अब के ख़ाली चांद में निकाह हो जाये मुझे कुछ फ़ीरोज़ा ख़ानम, उखड़ी उखड़ी लगीं।”

    बेगम नवाब अब छम्मन मियाँ की मर्दानगी से मुत्मइन हो कर बोलीं, “कहने वालों के मुँह में ख़ाक, सुनते हैं हर्बा बिटिया बड़ी आज़ाद हो गई हैं।” बो बो ने इत्तेला दी।

    “बेगम कहने वालों के मुँह में अँगारे कि कोई अरशद मियाँ का यार है, बहुत आना जाना है इस घर में।”

    “है है, तुमसे किस ने कहा।”

    “तरहदार की दुल्हन बहुत आती जाती रहती हैं, उनकी मुमानी लगती हैं जो सोज़न कारी सिखाने जाती हैं। मरयम बिटिया को कह रही थीं ख़ूब गेंद बल्ला होवे है। अल्लाह रक्खे अपने मियाँ की पढ़ाई में कौन से रोड़े अटकते हैं मेरी मानिए तो छम्मन मियाँ का हर्बा से निकाह हो जाए तो अच्छा है।”

    “मगर लड़का तो पुट्ठे पर हाथ नहीं रखने देता। कहता है कि हलीमा से ही निकाह पढ़वा दो। मैंने कहा है अब तो कहा है, फिर अगर ये ख़ुराफ़ात मुँह से निकाली तो क़सम से जान दे दूँगी।”

    “ए बेगम बकते हैं, इन नवाबों के क़ौल-ओ-फे़ल में कौन सी संगत, तेल देखिए तेल की धार देखिए। इसी अठवारे में सीधे तुक्का हो जाएंगे। लौंडिया मुझे कुछ मरी-मरी सी लगती है।”

    बो बो से महल का कोई राज़ पोशीदा ना था। गाय भैंस हत्ता कि शायद चूहों तक का पैर भारी हुआ कि बो बो ने ताड़ लिया। वो तो मुर्ग़ियों के मुँह लाल देखकर समझ जाती थीं कि कड़की उतर गई और अण्डा देने वाली है।

    “प्यारी अम्मी क्या हलीमा गांव जा रही है?” छम्मन ने आख़िर दू-ब-दू पूछ ही लिया। हलीमा कई रोज़ से टसर-टसर रो रही थी।

    “हाँ चंदा, नायाब बो बो भी साथ जाएँगी। अम्मी हुज़ूर से मैंने कहलवा दिया है कि तुम्हारे लिए नीबू का अचार ज़रूर इरसाल फ़र्माएं।”

    “मगर प्यारी अम्मी” छम्मन बोले, “हलीमा को क्यों भेज रही हैं। मेरे कपड़े की देख-भाल कौन करेगा।”

    “सरवरी है, लतीफ़ा है।”

    “सरवरी, लतीफ़ा ने मेरी किसी चीज़ को हाथ भी लगाया तो... मुझसे बुरा कोई ना होगा। हाँ, मगर हलीमा को क्यों भेज रही हैं?” छम्मन मिनमिनाए।”

    “हमारी मर्ज़ी। तुम इन मुआमलों में कौन होते हो दख़्ल देने वाले।”

    “मगर प्यारी अम्मी।”

    “मियाँ अभी तो हम जीते हैं। क़ब्र में थोप आओ। तब मन-मानी करना।” प्यारी अम्मी की आँखों में से चिंगारियाँ चटख़्ने लगीं। “अंदरून-ए-ख़ाना के मुआमले में तुम्हें क्या तुम्हारे बावा तक को दख़्ल नहीं, तुम्हें आज तक तकलीफ़ हुई है जो अब होगी। बांदियों के मुआमले में बो बो का फ़ैसला ही चलता है।”

    “प्यारी अम्मी, हलीमा बांदी नहीं मेरी जान है, सय्यद ज़ादी है। आपने ख़ुद बड़े शौक़ से इंतेख़ाब फ़रमाकर उसे मेरे दिल में भेजा है और कच्चे नाख़ुनों को गोश्त से जुदा कर रही हैं, क्यों? कौन सी चूक हुई मुझसे?” उन्होंने कहना चाहा मगर जज़्बात ने गला पकड़ लिया। हल्क़ में कांटे चुभने लगे। और वो सर झुकाए उठ गए।

    हलीमा अपने आँसूओं से ख़ाइफ़ थी। ये आख़िरी चंद दिन वो धूम धाम से गुज़ारना चाहती थी। फिर ज़िंदगी वफ़ा करे ना करे। अभी चार दिन बाक़ी थे ज़िंदगी के, इन चार सलोने दिनों के लिए उसने चार जोड़े निक-सक से तैयार किए थे। इत्र की बू से क़ै रही थी, मगर जी पर पत्थर रखकर उसने बिस्तर की हर तह को बसा दिया था। बाल धोकर मसाले की ख़ुशबू बसा ली थी। हाथ पैर की फीकी मेहंदी को उजागर कर लिया और फिर भर हाथ चूड़ियां चढ़ा ली थीं। क्योंकि छम्मन मियाँ को चट चट चूड़ियाँ तोड़ने में बड़ा मज़ा आता था। वो कितनी भी तोड़ डालें। सुहाग के नाम की दो-चार बच ही जाएँगी।

    “गांव जाने का ग़म नहीं”, छम्मन ने उसे फूल की तरह खिले देखकर पूछा। ख़ुद उन का दिल लहू हो रहा था।

    “नहीं”, बो बो ने टिसवे बहाने को मना कर दिया था।

    “क्यों?” उन्हें ताव गया।

    “जल्द ही तो जाउंगी।”

    “कितनी जल्दी।”

    “थोड़े दिनों बाद।”

    “कितने होते हैं थोड़े दिन।”

    “बस छः सात महीने।”

    “छः महीने।”

    “आहिस्ता बोलिये।”

    “हम मर जाएंगे हलीमा।”

    “अल्लाह ना करे, आपकी बलाऐं मेरे सर मेरे नौ-शाह। बुरे फ़ाल मुँह से ना निकालिये। अल्लाह अपने रहम-ओ-करम से मुझे आपकी ख़िदमत के लिए ज़रूर वापस लाएगा। सब ही तो नहीं मर जातीं। सनोबर की और बात थी। बड़े सरकार ने लात मार दी थी तो पेट में बच्चा मर गया। हाय मैं मर जाऊँ।” सहम कर उसने मुँह पर हाथ रख लिया। ये वो क्या बक रही थी।

    “बच्चा!” छम्मन तड़प कर उठ बैठे।

    “नहीं, नहीं छोटे मियाँ... मैं।”

    “मेरे सर की क़सम खा”, छम्मन मियाँ ने उसका हाथ अपने सीने पर रख लिया।

    “नहीं अल्लाह नहीं।”

    “झूटी हलीमा”, उन्होंने जल्दी से लैम्प जलाया। सहमी हुई नज़रों से तकने लगे। फिर मुजरिमों की तरह सर झुका लिया। गोद में हाथ रखे बैठे रहे।

    बच्चा, उनका बच्चा, ज़िंदा इन्सान का बच्चा। जी चाहा ना जाने क्या करें। ज़ोर से एक कुलाँच भरें, ये आसमान पर जो तारे जगमगा रहे हैं,सारे के सारे तोड़ कर हलीमा की गोद में भर दें।

    “कब होगा?” उन्होंने पूछा।

    “शायद छः महीने बाद”, हलीमा शरमा गई।

    “ओह तब तक तो मेरा रिज़ल्ट भी निकल आएगा”, वो टहलने लगे।

    हलीमा का दिल झोंके खाने लगा। गांव से इस बदनसीब के रोने की आवाज़ कैसे पहुँचेगी सरकार के कानों में। बे-हया और माँ की तरह सख़्त-जान हुआ तो शायद दूसरी लौंडी बच्चों के झुरमुट में पल जाएगा। बाप उसे पहचानेगा भी नहीं, बेटा नहीं ग़ुलाम होगा, कपड़ों पर इस्त्री करेगा। जूते पालिश करेगा। और अगर बेटी हुई तो किसी के पैर दबाने की इज़्ज़त हासिल करके गांव में ज़िंदगी का तावान अदा करने चली जाएगी।

    मगर हलीमा की ज़बान को ताला लगा हुआ था। बो बो ने कह दिया था, “मालज़ादी अगर साहबज़ादे को भड़काने की कोशिश की तो बोटियां करके कुत्तों को खुला दूंगी।”

    “हलीमा तुम गांव नहीं जाओगी।”

    “ऐसी बातें ना कीजीये।”

    “मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगा।”

    “लिल्लाह मेरे भोले सरकार।”

    मगर उन्होंने उसे बोलने ना दिया। बो बो कहती थीं पेट वाली औरत से मर्द ज़ात को घिन आती है। तो ये कैसा मर्द था कि बिलकुल वही पहले दिन का सा प्यार।

    दूसरे दिन छम्मन मियाँ ने कॉलेज को लात मारी और अपनी अकेली हस्ती का वफ़द लेकर हर दरवाज़े पर दुहाई दे डाली।

    “भाई जान, हलीमा को गांव क्यों भेज रहे हैं।”

    “मियाँ, महल का पुराना दस्तूर है।”

    “वो गाय भैंस नहीं, मेरे बच्चे की अमानत-दार है।”

    साहबज़ादे का चेहरा तमतमा उठा, “भई हद करते हो तुम भी। ये बातें हमारे सामने कहते हुए तुम्हें शर्म भी नहीं आती। लाहौल वला क़ुव्वा।” वो भन्नाकर उठ गए।

    महल की पॉलिटिक्स में मर्दों का कोई दख़्ल नहीं होता। प्यारी माएं जब मुनासिब समझती हैं, चाक़-ओ-चौबंद बांदी पैर दबाने को मुहय्या कर देती हैं। जब उसे सेहत के लिए मुज़िर और बेकार समझती हैं। दूसरे काठ किबाड़ की तरह मरम्मत के लिए भिजवा देती हैं। इवज़ पर दूसरी जाती है। बांदी से जिस्म का रिश्ता होता है। शरीफ़ आदमी दिल का रिश्ता नहीं कर बैठते।

    “अफ़ज़ाल भाई प्यारी अम्मी से कहिये हलीमा को गांव ना भेजें।” उन्होंने अपने चचा ज़ाद भाई की ख़ुशामद की।

    “अमां दीवाने हुए हो। पेट वाली औरत मर्द के लिए मुज़िर होती है। क्यों इतना सिट-पिटाते हो। दूसरा इंतेज़ाम हो जाएगा उन्होंने हंस के टाल दिया।

    “मुझे दूसरा इंतेज़ाम नहीं चाहिए।”

    “और फिर दिसम्बर में तुम्हारा निकाह है हर्बा बी-बी से।”

    “मैं हर्बा से शादी नहीं करूँगा।”

    “हलीमा गांव जाएगी तो मैं कॉलेज छोड़ दूँगा उन्हों ने ऐलान कर दिया।”

    “अच्छा जी साहब ज़ादे की ये मजाल”, बेगम का ख़ून ख़ौल गया। “उसे ज़िद करना आती है तो हमें भी जवाब देना आता है। अब तो चाहे मेरी मय्यत उठ जाये, ना-मुराद हलीमा यहां एक घड़ी नहीं रह सकती। परसों वरसों नहीं, नायाब तुम इसी वक़्त तैयार करो। क़सम जनाब की।”

    “नजम बिटिया भी अल्लाह रखे उम्मीद से है। फ़राग़त पाकर विलायत जाने का इरादा है।”

    “उसका क्या ज़िक्र है, ख़ुदा जीता रखे मेरी बेटी को”, नजम छम्मन मियाँ की बहन का नाम था।

    “आमीन, मगर गोद वाले को विलायत संग तो ना ले जाऐंगे। और वो दूल्हा नवाब का अकेला जाना भी दरुस्त नहीं, वो निगोड़ी फ़िरंगन फिर पीछे लग गई तो क़यामत ही जाएगी।”

    “ए है नायाब कहना क्या चाहती हो।”

    “नजम बेटी भी ज़हमत से बच जाएँगी। वो लंदन जाएँगी तो बाद में हलीमा उनके बच्चे को दूध पिला सकेगी। अच्छा पाक दूध भी बच्चे को मिलेगा।”

    “जो हुक्म सरकार।”

    “मगर गांव में अच्छी देख-भाल ना हो तो... हलीमा धान पान तो है ही, यहां नज़रों के सामने रहेगी। मेरे हाथ के नीचे, मुई को अच्छी तरह ठुसाउंगी और फिर साहब ज़ादे की ज़िद भी पूरी हो जाएगी।”

    “ज़िद ही तो नहीं पूरी करूँगी बस।” मगर बेगम ज़रा नर्म पड़ गईं।

    “आपकी मर्ज़ी, पर इतना अर्ज़ करूँगी, बस कुछ दिन जाते हैं कि मियाँ का जी भर जाएगा। अपना काम निकलेगा। उन पर एहसान अलग से होगा।”

    नायाब के पेट में जब जब्बार ने नुज़ूल फ़रमाया तो फ़रहत नवाब ठंडे पड़ गए। जब औरत हामिला हो जाती है तो मर्द की दिलचस्पी ख़त्म हो जाती है कि ये कानून-ए-क़ुदरत है।

    मगर छम्मन मियाँ कानून-ए-क़ुदरत और नायाब बो बो को झुटला रहे थे, क्योंकि वो दीवाने थे कि पैर की जूती को कलेजे से लगा रखा था। ऐसी बे-हयाई तो किसी नवाब ज़ादे ने किसी बेगम के मुआमले में नहीं लादी। सर झुकाए मारा मार ज़च्चा बच्चा के रख-रखाव पर किताबें पढ़ी जा रही हैं। सारा जेब ख़र्च बांदी के लिए विटामिन की गोलीयाँ और टॉनिक लाने पर ख़र्च हो रहा है।

    हलीमा सहन में बैठी छम्मन मियाँ के कुर्ते पर ज़री का काम कर रही थी। कच से सूंई उंगली में उतर गई। वो जानती थी, वो गांव क्यों नहीं भेजी गई थी मगर उसने छम्मन के ख़्वाब चकनाचूर ना किए थे।

    छम्मन मियाँ को हौल सवार हो रहे थे। उन्होंने इतने क़रीब से हामिला औरत कभी ना देखी थी। घड़ी-भर को सलाम किया, दूर भाग लिए।

    उन्हें डर लगता था कि हलीमा कहीं मेंढ़की की तरह फट ना जाये। किताबों से भी तसल्ली ना हुई तो फ़र्ख़ंदा नवाब के हाँ भाग गए।

    फ़र्ख़ंदा नवाब से सब ख़ानदान वाले फ्रंट थे, क्योंकि किसी ज़माने में वो ऊंट पटांग मुहब्बत करके हाथ जला चुकी थीं, मगर अशरफ़ साहब, उनके मियाँ पुलिस में थे, इसलिए सबको ग़रज़ पड़ती थी और उनकी चापलूसी करना पड़ती थी। वैसे भी बेगमें उनसे बहुत कटती थीं कि वो बहुत आलिम फ़ाज़िल थीं। उनके बेटे नईम से छम्मन की बहुत घुटती थी।

    छम्मन मियाँ के पुरखों को भी पता ना था कि प्यारी अम्मी ने उनकी दुल्हन के जे़वरात के बारे में सलाह लेने के लिए जुम’अ के रोज़ बुलाया है। फ़र्ख़ंदा जे़रे लब मुस्कुराईं और वा’अदा किया कि जुम’अ के रोज़ आयेंगी तो उनकी हलीमा को भी देख लेंगी।

    पोरटेस्को से उतर कर पहले वो छम्मन की तरफ़ चली गईं।

    फ़र्ख़ंदा नवाब ने उनकी बौखलाहट पर सरज़निश की, “हलीमा बिलकुल ठीक है। फटे वटेगी नहीं।”

    “इतना चर्बी वाला खाना ना खिलाओ, फल और दूध दो।”

    “तस्लीम फूफीजान, हलीमा ने चलते वक़्त ज़रा सा घूँघट माथे पर खींच लिया।”

    “जीती रहो मेरी गुड़िया”, फ़र्ख़ंदा जल्दी से गुड़िया के घरौंदे से निकल गईं।”

    उधर बेगम नवाब के कमरे में उन्होंने छम्मन की दुल्हन के जे़वरात देखे तो ग़ुम-सुम बैठी रहीं।

    “ए बे कुछ राय दो कि मुँह में घुनगुनियां डाले बैठी हो।”

    “भाभी जान ज़माना बदल रहा है। हर्बा बड़ी प्यारी बची है, मगर वो...”

    “हाँ हाँ कहो, वो बड़ी फ़ैशनेबल है, ज़ेवर गँवारू है तो मैं बंबई से मंगवा रही हूँ।”

    “अच्छा है खुल कर बात हो जाये...” फ़र्ख़ंदा बेगम कुछ उखड़ी उखड़ी बैठीं। फिर बहाने बनाने लगीं क्लब की मीटिंग है। उनके जाने के बाद बो बो और बेगम उनमें कीड़े डालती रहीं।

    नायाब ज़ेवर दिखाने को गईं तो पता चला फ़ीरोज़ा नवाब तो अपनी किसी मिलने वाली के हाँ गई हैं। हर्बा गेंद बल्ला खेल रही थीं।

    हर्बा धम धम करती आईं। नायाब बो बो ने जे़वरात का सन्दूकचा दिखाया और बोलीं, “जे़वरात, रानी बेटा पसंद फ़रमा लीजीए।”

    “ओह, मगर हलीमा बी-बी के लिए मेरी पसंद के ज़ेवरों की क्या ज़रूरत है।” हर्बा लापरवाही से मुड़ कर कटे बालों में ब्रश घसीटने लगी।

    “ऐ ख़ुदा ना करे, हलीमा बांदी है।”

    “अच्छा वो बच्चा छम्मन मियाँ का है ना।”

    “बच्चा!” बो बो को पसीने छूटने लगे। “कैसा बच्चा?”

    “फ़र्ख़ंदा ख़ाला कह रही थीं कि...”

    “ए नहीं बेटा... वो... तौबा है बच्ची झाड़ का कांटा हो गई। अम्माँ-जान नहीं, इसलिए कुछ बुढ़िया की गत बना रही हैं। वो होतीं तो मजाल नहीं यूं मेरे मुँह पर जूतियाँ मारतीं।”

    बो बो फनफनाती हुई उठ खड़ी हुईं।

    “कितना उछलता है पाजी?” छम्मन उस के चांदी जैसे तने हुए पेट पर हथेलियाँ रखे क़ुदरत की हंगामा आराईयों पर मुतहय्यर हो रहे थे।

    “इतनी ठंडी क्यों पड़ गई लीमो?” बहुत प्यार आता तो छम्मन मियाँ हलीमा से लीमा और लीमा से लीमो कहते।

    छम्मन ने उसे रज़ाई में समेट लिया और लंबी लंबी साँसें भर कर सूँघने लगे। कैसी महकती है लीमो जैसे पका हुआ दसहरी, जी नहीं भरता, पानी का छलकता कटोरा रोज़ पियो, रोज़ प्यास ताज़ा, मगर इतना प्यार करना ख़ुद-ग़र्ज़ी है। मुरझाई जाती है। नहीं अब वो उसे हाथ भी नहीं लगाएँगे। ये वक़्त यहीं ठहर जा, ना पीछे मुड़ कर देख, ना आगे नज़र डाल कर पीछे छोटा अंधेरा है और आगे? आगे क्या भरोसा है।

    “ग़ज़ब ख़ुदा का हलीमा ने कैसी दग़ा दी है।” बेगम ने नवासी के मुँह में शहद में उंगली डुबोकर दे दी। “नायाब तुम्हारा मुँह है कि नगोड़ा भाड़ कहती थीं दोनों साथ जनेंगी। नजम धुआँ-दार रो रही हैं। बच्ची को दूध छुआने की रवादार नहीं और तुम्हारी हलीमा है कि बच्चा नहीं जन पाई। तुम तो कहती थीं कि हलीमा का बच्चा गांव भिजवा कर नजम के बच्चे को उसके सपुर्द कर दोगी। अब क्या होगा?

    “नायाब की बात ना टले। चाहे दुनिया उधर की इधर हो जाए। दो टके की बांदी हलीमा की ये मजाल कि सारा प्रोग्राम चौपट किए देती है।”

    हलीमा बैठी नारंगियों का रस निकाल रही थी। अभी छोटे सरकार मैच जीत कर आते होंगे। बो बो उसे घूर रही थीं जैसे चील झपटा मारने से पहले अपने शिकार को ताकती है। आज बड़ी बे-रहम नज़र रही थीं।

    “हलीमा इधर आ”, उन्होंने करख़्त आवाज़ में पुकारा। हलीमा थर्रा उठी।

    “हूँ तो ये गुल खिलाया है”, उन्होंने उसको सर से पैर तक घूरा। “बोल हरामख़ोर ये किस का है?” जैसे उन्होंने आज पहली बार उस का पेट देखा हो।

    “ये... ये नारंगी...”

    “नारंगी नहीं, ना-मुराद ये तरबूज़।” उन्होंने उस के उमड़े हुए पेट पर पंखे से झपाका मारा। हलीमा दम-ब-ख़ुद रह गई। आज तक किसी ने उस के पेट के क़तर पर कोई बातचीत नहीं की थी। वो गुंग बस आँखें फाड़े सन्न रह गई।

    “अब बोलती है कि लगाऊँ एक जूती इस थोबड़े पर, हराम-ज़ादी, क़तामा।”

    मंझले नवाब की बांदी गोरी बी से जब नायाब ने यही सवाल किया था तो उसने फट से जवाब दे दिया था।

    हलीमा की ज़बान तालू से चिमट गई। कोई उस की बोटियां कर डालता। वो छोटे सरकार का नाम ना लेती। उनका गुनाह तो उसका सबसे प्यारा सवाब था।

    “मुँह से फूटती क्यों नहीं जनम जली?” उन्होंने चटाख़ से दिया एक थप्पड़ कि अँगूठी गाल में चुभ गई और ख़ून निकल आया।

    छम्मन मियाँ हिट पर हिट लगा रहे थे। सारा मैदान तालियों से गूंज रहा था।

    तालियों के शोर में छम्मन ने चांदी का कप दोनों हाथों से सँभाला तो ऐसा लगा हलीमा का चिकना रूपहली पेट धड़क रहा है।

    हस्ब-ए-आदत छम्मन मियाँ भागे हुए कमरे में दाख़िल हुए। हलीमा को पुकारा, जवाब ना पाया तो कप लिए पसीने में तर प्यारी अम्मी के पास दौड़ पड़े।

    “ए मियाँ ये लोटा कहाँ से उठा लाए अच्छा ख़ूबसूरत है।”

    “ये लौटा नहीं बो बो, कप है।”

    “ए बेटे जान, ज़रा हकीम साहब को फ़ोन करो कि टांगों में फिर से एंठन शुरू हो गई है।” प्यारी अम्मी कराहने लगीं।

    “जी बहुत अच्छा”,

    “बो बो, हलीमा से कहो बड़ी गर्मी है, सूती कुर्ता निकाले।”

    टेलीफ़ोन करके वापस लौटे तो बो बो ने इशारे से कहा सो रही हैं।

    “मेरे कपड़े?” बो बो ने इशारे से इतमीनान दिलाया।

    “हलीमा कहाँ है”, वो नहाकर निकले तो सरवरी पाजामे में इज़ारबंद डाल रही थी।

    “हम पूछते हैं हलीमा कहाँ है और तू बकवास किए जा रही है।” छम्मन ग़ुर्राए।

    “अल्लाह हमें क्या मा’लूम। शागिर्द पेशे में होंगी। सरवरी आज बड़ी बनी ठनी रही थी।”

    “शागिर्द पेशे में? जा बुला”, उन्होंने पाजामा उससे छीन लिया।

    सरवरी मुस्कुराई और मैले कुरते से बटन निकाल कर उजले में डालने लगी।

    “अरे सुना नहीं तूने चुड़ैल, चल भाग के जा”, उन्होंने उससे कुरता छीन कर फेंक दिया।

    “बो बो ने हमें भेजा है।”

    “तुझे भेजा है? क्यों?' सरवरी आँखें झुकाए हंस दी।”

    “उल्लू की पट्ठी!” छम्मन ने रैकट लतारा। सरवरी बड़े नाज़ से ठुमकती झाँजन बजाती चली गई।

    पाँच फिर दस मिनट गुज़र गए। छम्मन झल्लाए तौलिया बाँधे मैगज़ीन उलट-पलट करते रहे। जब पंद्रह मिनट गुज़र गए तो बेक़रार हो गए।

    “अरे है कोई?” वो हलीमा को इसी तरह आवाज़ देते थे।

    सरवरी इतराती ज़मीन पर एड़ीयां मारती, फिर नाज़िल हो गई। उसकी ज़हरीली मुस्कुराहट देखकर छम्मन का जी धक से रह गया।

    “चुड़ैल सच सच बता, नहीं तो...” उन्होंने उस की चुटिया कलाई पर लपेट कर मरोड़ी।

    “हई मैं मर गई, हाय मेरी मइया, सरकार उधर शागिर्द पेशे में है।”

    छम्मन ने उसकी चुटिया छोड़ दी और सारे बदन से काँपने लगे। जल्दी से स्लीपर पैर में डाले और भागे।

    “ए मियाँ ख़ुदा का वास्ता, कहाँ जा रहे हैं।” सरवरी पीछे लपकी। “मर्दों के जाने का वक़्त नहीं है।” मगर मियाँ कहाँ सुनते थे। बरामदे में नायाब मिल गई।”

    “बो बो, डाक्टरनी को फ़ोन कराओ।”

    “है है छोटे मियाँ कपड़े तो पहनो, मालज़ादी”, उन्होंने सरवरी को फटकारा। वो तो लतीफ़ा को भेज रही थीं पर सरवरी ने उनके पैर पकड़ लिए।

    “बो बो जब्बार को मोटर लेकर भेज दो, टेलीफ़ोन से काम नहीं चलेगा।”

    “ए मियाँ, काहै के लिए?”

    “हलीमा... उनका हल्क़ सूख गया... “हलीमा... वो...

    “डाक्टरनी नहीं, उस के लिए तो विलायत से मेम आएगी बे-हया, मुर्दार।”

    “लौंडियों-बांदियों का दिमाग़ सातवें आसमान पर चढ़ने लगा है इन बातों से। जाईए आपके दोस्त नईम मियाँ का फ़ोन आया है उनकी सालगिरह है, सरवरी की बच्ची ना-मुराद, मियाँ का वो चूड़ीदार पाजामा निकाल ओर शेरवानी।” वो चलने लगीं।

    “बो बो, हलीमा।”

    “ए मियाँ क्या कहने आई थी, आपने बिलकुल ही भुला दिया। आपकी प्यारी अम्मी की तबीयत ना-साज़ है। नईम मियाँ के जाते वक़्त ज़रा हकीम साहब के भी होते जाइएगा। मैं जब्बार से कहती हूँ मोटर निकाले।” वो धम धम करती चली गईं।

    छम्मन बौखलाए हुए कमरे में लौट आए, बैठे, फिर तड़प कर उठ खड़े हुए, फिर जल्दी से उल्टे सीधे कपड़े बदन पर डाले। उन्हों ने कितनी बांदियों की मौत देखी थी। सनोबर की लाश महीनों उन्हें ख़ाबों में नज़र आती रही थी। हलीमा भी तो फूल सी बची थी। ख़ून की कमी की वजह से दिक़ की मरीज़ा लगती थी। वो सीधे बड़े भाई की तरफ़ भागे।

    “भाई जान।”

    “क्या है?” वो अपने एक दोस्त के साथ शतरंज खेल रहे थे।

    “वो, वो... ज़रा आपसे एक बात कहनी है।” उन्होंने लरज़ते हाथों से उन की आसतीन खींची।

    “ठहरो मियाँ ज़रा ये बाज़ी देखो, क्या ठाठ जमाया है, भाई क़ुद्दूस शह बचिए वर्ना...”

    “भाई जान”, छम्मन का दम निकलने लगा।

    “बैठो ज़रा, हाँ भाई क़ुद्दूस।”

    कोई बीस मिनट लगे, मगर छम्मन पर बीस सदीयां गुज़र गईं।

    “अरे हाँ भई कप मार दिया तुम ने, मुबारक हो।” उन्होंने पलट कर बड़े जोश से कहा।

    “भाई जान हलीमा, वो... वो... प्लीज़ डाक्टरनी मंगवा दीजीए।”

    “हूँ। जाएगी अगर कोई ज़रूरत पड़ी तो...”

    “नहीं भाई जान हलीमा मर जायेगी। कुछ कीजिये।”

    “तो क्या मैं ख़ुदा हूँ। जो किसी की आई को टाल दूँगा, मगर शर्म नहीं आती एक बांदी के लिए हड़बड़ाए फिर रहे हो, कुछ तो लिहाज़ करो, एक आवारा छोकरी को सर पर चढ़ाना ठीक नहीं। हरामी पिल्ला जन रही है, आवारा नहीं तो, बड़ी पारसा है।”

    “भाई जान। वो... वो...”

    “अमां इतना हकलाते क्यों हो, निकाह नहीं तो औरत फ़ाहिशा है, ज़ानिया है, संगसार करने के क़ाबिल है, मर जाये तो अच्छा है। ख़स कम जहां पाक।”

    “मगर में भी तो गुनाहगार हूँ।”

    “तो में क्या करूँ, जाओ अपने गुनाहों की तौबा करो। मेरा सर क्यों चाट रहे हो।”

    इस क़दर कोढ़ मग़ज़ इन्सान से बात करना हमाक़त थी। कोई और होता उनकी जगह तो छम्मन मुंह तोड़ देते, मगर बचपन से बड़े भाई की इज़्ज़त करने की कुछ ऐसी आदत पड़ गई थी कि ख़ून के से घूँट पी कर गर्दन लटकाए चले आए।

    दीवानों की तरह छम्मन ने हर चौखट पर माथा पटख़ा। बाप के सामने गिड़गिड़ाए, मगर उन्हें गुल बहार-ए-ना-मुराद ने ऐसा जलाकर ख़ाक किया था कि बांदी के नाम से ही तीन फुट उछल पड़े।

    “तुम्हारी ये मजाल कि हमारे सामने अपनी बदकारियों का इस ढिटाई से इक़रार करो। एक तो मोरी में मुँह देते हो, फिर उसमें सारे ख़ानदान को लथेड़ना चाहते हो।”

    उन्होंने प्यारी अम्मी के तलवों पर आँखें मलीं, मगर उन्होंने हिस्ट्रिया का दौरा डाल लिया। ऐसी बात सुनने से पहले वो बहरी क्यों ना हो गईं। अंधी हो गई होतीं तो ये दिन तो देखना ना पड़ता।

    चचा अब्बा के सामने हाथ जोड़े।

    “लाहौल वला क़ुव्वा अमां मरने दो साली को, हम तुम्हें अपनी माहरुख़ दे देंगे। वल्लाह क्या पटाख़ा है एक चमरख़ सी बांदी के पीछे दम दिए दे रहे हो। ये सब तुम्हारी इन वाहियात किताबों की ख़ुराफ़ात है।”

    लोग मुस्कुरा रहे थे। उन पर लतीफ़े छोड़ रहे थे और वो शागिर्द पेशे के आगे सर्द और सैली ज़मीन पर बैठे रो रहे थे। अठारह बरस का लड़का दूध पीते बच्चों की तरह मचल रहा था। धारों धारों रो रहा था।

    अब्बा हुज़ूर ग़ुस्से से गरज रहे थे। अगर बेगम ने दौरा ना डाल लिया होता, तो वो इस नंग-ए-ख़ानदान की हंटर से खाल उधेड़ देते। जिस दिन उन्होंने सुना था कि फ़र्ज़ंद-ए-अर्जुमंद ने लौंडी ठिकाने लगादी तो उनकी गुफ्फे-दार मूँछें मुस्कुराहट के बोझ तले लरज़ उठी थीं। बड़े साहबज़ादे तो दग़ा दे ही गए। अगर छोटे भी इसी राह निकल गए होते तो जायदाद का वारिस कहाँ से आता।

    ऐसा तमाशा लोगों ने कभी ना देखा ना सुना, नौकर हंस रहे थे, बांदियाँ ठी ठी कर रही थीं।

    उधर बान के झिलंगे में पड़ी हलीमा मोरनी की तरह कूक रही थी। खुर्रे फांसों-दार बान से उसकी हथेलियाँ छिल गई थीं।

    “हाय सरवरी, वो फ़र्श पर बैठे हैं। उठा वहां से जनम जली। सर्दी लग जाएगी उनके दुश्मनों को।” अगर दर्द के बेरहम हमले उसे वक़्फ़ा देते तो वो उन्हें अपने सर की क़सम देकर ज़मीन से उठा लेती। नहीं क़सम ख़ुदा की, उनसे कोई शिकायत नहीं।

    मगर दर्दों की मुहीब मौजें उस के पसीने में डूबे बेडौल जिस्म को भंभोड़ रही थीं। उसने अपने होंट चबा डाले कि उसकी आवाज़ सुनकर छम्मन मियाँ दीवाने ना हो जाएं। पर दिल के कान सब सुन लेते हैं। छम्मन पर नज़’आ की कैफ़ियत तारी थी, जी चाह रहा था कि पत्थर पर सर दे मारें। कि ये खोलन पाश पाश हो जाए। अचानक दूर से किसी ने एक दम पुकारा। ग़म-ओ-अंदोह के गहरे कुँवें से उन्हें ऊपर खींच लिया। उन्होंने पोर्टीको से साईकल उठाई और वैसे ही कीचड़ में लत-पत तेज़ी से फाटक से बाल बाल बचते हुए निकल गए।

    “हाय मेरा लाल”, बेगम ने होश में आकर छाती पीट ली।

    “ए है छम्मन ख़ैर तो है।”

    कीचड़ में सर से पैर तक नहाए आँसू के दरया बहाते छम्मन हिचकियों से निढाल रो रहे थे।

    “हलीमा... फुफ्फो।”

    “अच्छी तो है।”

    “मर गई... मर रही है... फुफ्फो... कोई नहीं सुनता।”

    “भई बड़े बेवक़ूफ़ हो, मैंने तुमसे कहा था मुझे फ़ौरन इत्तेला करना, में अभी फ़ोन करती हूँ एम्बूलेंस के लिए। हस्पताल पहुंचा दिया जाये। वहां महल मैं तुम्हारे बड़ों से कौन लड़े जाकर।”

    “मैं करता हूँ”, अशरफ़ उनके शौहर ने फ़ोन उठाया।

    “मेरा आज फाईनल था फुफ्फो, वहां से आया तो... पता चला, फुफ्फो, मर जाएगी, मर भी गई होगी, अब तक तो।”

    “नहीं भई मरे वरेगी नहीं।”

    जब फ़र्ख़ंदा नवाब की मोटर आगे और पीछे एम्बूलैंस पहुंची तो महल में कोहराम मच गया। बेगम ने फ़िल-बदीह एक अदद दौरा डाला और लब-ए-दम हो गईं। नवाब साहब ने राइफ़ल में कारतूस डाले और फनफनाते हुए निकल पड़े। मगर एम्बूलैंस के पीछे पुलिस की जीप नज़र आई तो पलट पड़े। ख़ानदान की ऐसी थुड़ी थुड़ी तो जब भी नहीं हुई थी। जब मँझले नवाब की जागीर कोर्ट हुई थी।

    फ़र्ख़ंदा नवाब ने इधर देखा ना इधर, सीधी काल कोठड़ी में दनदनाती घुस गईं।

    छम्मन ने ख़ून में नहाई बांदी हलीमा को बाँहों में समेट लिया और महल में सफ़-ए-मातम बिछ गई। बेगम की बे-होशी जाकर लबों पर कोसने गए।

    अगले रोज़ एक क़लम की जुंबिश से छम्मन अपने हक़ से दस्त-बरदार हो गए। कौन सी गाड़े पसीने की कमाई थी जो दर्द होता। जवाबन हुज़ूर ने फ़रमाया। उन्होंने बे-दरीग़ दस्तख़त कर दिए और जायदाद से आक़ क़रार पा गए।

    छम्मन अब एक छोटी सी गली में एक सड़ियल से मकान में रहते हैं। किसी स्कूल में गेंद बल्ला सिखाते हैं। कॉलेज भी जाते हैं। साईकल के कैरीयर पर सौदा सलफ़ के दरमयान कभी कभी शरबती आँखों वाला एक बच्चा भी बैठा हुआ नज़र आता है। वो तो गए ख़ानदान से। इतना पढ़ लिख कर गँवाया। एक बांदी घर में डाल रखी है। पता नहीं बांदी से निकाह भी किया है कि नहीं। अल्लाह अल्लाह कैसे बुरे दिन आए हैं।

    स्रोत:

    Badan Ki Khushbu (Pg. 64)

    • लेखक: इस्मत चुग़ताई
      • प्रकाशक: रोहतास बुक्स, लाहौर
      • प्रकाशन वर्ष: 1992

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