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बहुवा

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    स्टोरीलाइन

    नारी की पीड़ा, पुरुष की हिंसा व अत्याचार और औरत को उसके न किए गए पाप की सज़ा देने वाले समाज की दर्दनाक कहानी। मेहरदीन और बहुवा निम्न श्रेणी से हैं। बहुवा सुंदर भी है लेकिन मेहरदीन उसे सिर्फ इसलिए घर से निकाल देता है कि शादी के तीन साल गुज़रने के बाद भी वो माँ नहीं बन सकी थी। उसके विपरीत भैया समृद्ध और शिक्षित हैं। उनकी शादी एक ऐसी लड़की से हो जाती है जो ख़ूबसूरत नहीं है। थोड़े दिनों में ही वो गर्भवती हो जाती है, भैया को यह बहुत बुरा लगता है और उसे मायके भेज देते हैं। मायके भेजने का आधार यह प्रस्तुत करते हैं कि मेहरदीन जब बहुवा जैसी ख़ूबसूरत औरत को निकाल सकता है तो क्या मैं पागल हो गया हूँ कि इसके साथ गुज़ारा करता रहता। पहले एक की चाकरी ही क्या कम थी कि अब उसके बच्चों को भी पालता फिरूँ।

    बहुवा के जाने के तीसरे दिन भय्या की नई-नवेली दुल्हन भी मैके चली गई। अब हक़ीक़त तो ख़ुदा को या बहुवा को बेहतर मालूम है लेकिन उसके अचानक चले जाने से हमारे घर में अजब क़िस्म की ख़ामोशी छा गई है। भय्या अपना फ़ुट भर लंबा सिगार लेकर लॉन में बैठ जाते हैं और फिर किसी से कुछ नहीं कहते। हत्ता कि उनके मुँह से मुन्ने के मुताल्लिक़ भी कोई बात नहीं निकलती... अब आप ही बताईए पहले भी कभी यूं हुआ था।

    बहुवा के जाने से पहले तो भय्या छीन छीन कर मुन्ने को बहुवा से ले जाते थे। कभी उसके लिए हवाई जहाज़ बनाते, कभी उससे सर्कस कराते... थक कर उनकी गोद में लेट जाता तो गालियों की मश्क़ कराते लेकिन अब वो तो कुर्सी में धंसे यूं बेनियाज़ हो गए हैं गोया मुन्ना इस घर का नहीं, हमसाए का बच्चा है जो भूल कर यहां गया है...

    मुन्ना उनकी कुर्सी से लग कर आहिस्ते से कहता है, “झा चाचा... झा चाचा।” लेकिन मुस्कुरा कर देखने के इलावा उनके मुँह से कोई बात नहीं निकलती और मैं सोचती हूँ कि आख़िर बात क्या है... दुल्हन मैके से आती क्यों नहीं? बहुवा को मेहर दीन क्यों नहीं ढूंढ लाता?

    बहुवा थी तो घर आँगन सभी सजा हुआ था... कांगड़े के ये मुहाजिर हमारे घर में नौकर थे। बहुवा मुन्ने को खिलाती थी और कपड़े वग़ैरा धोती थी। मेहर दीन बावर्ची का काम करता था और दोनों की ख़ूब गुज़रान होती थी... बहुवा की बूढ़ी सास जिसका चेहरा झुर्रियों से अटा हुआ था, सारा दिन नौकरों के क्वार्टरों के सामने नीम के पेड़ तले गुड़-गुड़ी पीती और बहुवा के काम में कीड़े निकालती थी।

    ये भय्या की बरात से एक दिन पहले का ज़िक्र है, बहुवा पिछले आँगन में तार पर धुले हुए कपड़े निचोड़ निचोड़ कर डाल रही थी। मैं मुन्ने के छोटे से सुर्ख़ पाइजामे में इज़ारबंद डाल रही थी। हर बार जब बहुवा कपड़ा निचोड़ती तो मुँह को भी आस्तीन से पोंछ लेती। कुछ देर तो मुझे ख़्याल आया। फिर मैं उसके क़रीब चली गई।

    बहुवा रो रही थी। उसकी बड़ी बड़ी शरबती आँखें लाल हो रही थीं और नाक की मोटी सी तीली पर एक झिलमिलाता आँसू फिसल रहा था। मैं क़रीब पहुंची तो बहुवा और भी तनदही से काम में मशग़ूल हो गई।

    “बहुवा, हुआ क्या है आख़िर?”

    “बीबी जी, अब कभू तक उनकी बाताँ बर्दाश्त करूँ जी?”

    “किन की बाताँ?” मैंने पूछा।

    “मेहर दीन और उसकी माँ...”

    “आख़िर बात क्या है? कुछ बताओ तो सही...”

    “अब जी मेहरा कहवे जे कि जातक क्यों हुआ अभै तक हाँ...”

    ये कह कर बहुवा फ़िसक़ फ़िसक़ रोने लगी। मैं उसे उस वक़्त तक तसल्ली देती रही जब तक अम्मां ने मुझे अंदर बुला लिया।

    बहुवा की शादी को तीन साल हो चुके थे लेकिन रूपवान औरत अभी तक बच्चे को तरस रही थी। मुन्ने को सारा दिन लिए फिरती और मेरा ख़्याल है अगर मैं उसे इजाज़त देती तो शायद वो मुन्ने को रात भी अपने साथ ही सुलाती।

    कुछ तो बहुवा की बदनसीबी थी और कुछ मेहर दीन और उसकी माँ ने उसका दिल छलनी कर दिया था। जब कभी वो अकेली बैठी मुझे नज़र आई, उसकी आँखों में हमेशा आँसू होते।

    बरात की वापसी पर सब थक-हार कर सो चुके थे। सिर्फ़ दूसरी मंज़िल में दूल्हा-दूल्हन के कमरे में बत्ती रोशन थी। मुझे नींद आरही थी। ख़ुदा जाने क्यों मेरा दिल सरे शाम से घबराया हुआ था। भय्या ने दुल्हन को पहली मर्तबा आज ही देखना था और दुल्हन की सूरत वाजिबी और रंग गहरा साँवला था। वो बेचारी जब ख़ामोशी से सर झुकाए बैठी थी तो भी लगता था कि जैसे मुस्कुराए जा रही है।

    नन्हा सा एक दाँत निचले लब पर कुछ इस अंदाज़ से टिका हुआ था कि उसकी सारी संजीदगी को चाटे लिए जाता था। फिर ऊपर वाली मंज़िल से कोई भाग कर नीचे उतरा तो मैं मुन्ने को सोता छोड़कर बरामदे की तरफ़ चली। भय्या का सांस फूला हुआ था और वो ड्रेसिंग गाउन की डोरियां बाँधने में मशग़ूल था।

    मुझे देखते ही बोला, “तुम लोगों ने मेरे लिए अच्छा नगीना तलाश किया...”

    मेरा दिल सीने में ज़ोर ज़ोर से उछलने लगा, “क्यों क्या बात हुई?”

    “भाबी, कुछ देख तो लिया होता... तुम्हें अपने देवर पर ज़रा भी तरस ना आया।” भय्या की आँखों में कुछ ऐसे आँसू थे और आवाज़ में ऐसी दुख-भरी तड़प थी कि मेरा अपना जी दुख गया... लेकिन जो होना था हो चुका था। अब वावेला करने या गिला करने से कुछ हाथ सकता था।

    मैंने मिन्नत समाजत कर के भय्या को ऊपर भेजा और जी ही जी में दुआएं मांगने लगी कि या अल्लाह भय्या दुल्हन की तबीयत के असीर हो जाएं... भय्या और दुल्हन की यूं बने कि सारा घराना जले... लेकिन सुबह की अज़ान हो गई और मेरी आँख लगी।

    सुबह गजर दम जब बहुवा मुन्ने के लिए दूध की बोतल लाई तो उसने झुक कर मेरे कान में कहा, “बीबी भय्या तो लॉन में घूम रवे हैं... क्या दुल्हन मन को नहीं लगी उन के?”

    ये उस रोज़ का ज़िक्र है जब अम्मां ने पहले दिन दुल्हन का क़दम भारी जान कर सारे में मिठाई बाँटी थी... हम सब दुल्हन से हंसी-मज़ाक़ कर रहे थे और वो पलंग पर बैठी कभी भय्या की तरफ़ देखती थी और कभी अपने पैरों की तरफ़।

    फिर सर्वेंट क्वाटर्रज़ की तरफ़ से रोने-पीटने की आवाज़ें आने लगीं। मैं और अम्मां भागी भागी उधर को लपकीं। नीम के दरख़्त के नीचे मेहर दीन की माँ गुड़गुड़ी लिए बैठी थी और मेहर दीन के हाथ में बुझी हुई छोटी सी लकड़ी थी और वो बढ़ बढ़कर बहुवा को पीट रहा था।

    मैंने मेहर दीन की बस एक ही बात सुनी और फिर वो हमें देखकर अपने कमरे में जा छुपा। वो कह रहा था, “देखती नहीं, दो महीने आए को नहीं हुए और दुल्हन उम्मीद से भी हो गई। तुझ ऐसी कोख जली से मैं कब तक निबाह करूँगा... जा यहां से जा...”

    उसीसी रात ख़ुदा जाने बहुवा कहाँ चली गई? पुलिस में रपट लिखवाई। मेहर दीन के तमाम रिश्तेदारों में तलाश किया लेकिन बहुवा का सुराग़ मिला और फिर बहुवा के जाने के तीसरे दिन अचानक दुल्हन बेगम ने तांगा मंगवाया और अपने मैके रुख़सत हो गईं। मैंने भय्या से पूछा तो वो बोले, “तुमने बहुवा को देखा था? इतनी ख़ूबसूरत औरत मेहर दीन जैसा निकाल सकता है तो मैं ही ऐसा पागल रह गया हूँ कि तुम्हारी दुल्हन के साथ गुज़ारा करता रहता।”

    मैंने झुँझला कर कहा, “भय्या देखते नहीं अल्लाह ने दुल्हन पर कैसी रहमत की है।”

    भय्या चबा-चबा कर बोले, “जी हाँ... एक इन ही को इस रहमत की ज़रूरत रह गई थी? पहले जो माशा अल्लाह बहुत ख़ूबसूरत थीं, अब और भी चार चांद लग जाऐंगे।”

    “भय्या, ये कुफ़रान-ए-नेअमत है। तौबा तौबा, डरो उसके क़हर से।”

    “क़हर तो जी उसका मुझ पर नाज़िल हुआ ही है... पहले कम अज़ कम अपने जामे में तो रहती थी... अब तो वो भी इतराने लगी थीं... एक इतराती हुई बदसूरत औरत तो मुझसे बर्दाश्त नहीं हो सकती।”

    “भय्या...!” मैंने चिल्ला कर कहा।

    “पहले उसकी चाकरी ही क्या कम थी जो अब उसके बच्चों को भी पालता फिरूँ... ठीक है उसे वहीं रहने दो जी...!”

    मैं ख़ामोश हो गई। मुझे यूं लगा जैसे बहुवा और दुल्हन दोनों हाथ पकड़े और वापस आने की क़सम खा कर धरती तले उतर गई हों।

    स्रोत:

    Aatish-e-Zerpa (Pg. 55)

    • लेखक: बानो कुदसिया
      • प्रकाशक: संग-ए-मील पब्लिकेशन्स, लाहौर
      • प्रकाशन वर्ष: 1988

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