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बर्दा फ़्रोश

ग़ुलाम अब्बास

बर्दा फ़्रोश

ग़ुलाम अब्बास

MORE BYग़ुलाम अब्बास

    स्टोरीलाइन

    नारी की अनादिकालीन बेबसी, मजबूरी और शोषण की कहानी। माई जमी ने बर्दा-फ़रोशी का नया ढंग ईजाद किया। वो किसी ऐसे बुड्ढे को तलाश करती जो नौजवान लड़की का इच्छुक होता और फिर रेशमाँ को बीवी के रूप में भेज देती। रेशमा चंद दिन में घर के ज़ेवर और रुपये पैसे चुरा कर भाग आती और नए गाहक की तलाश होती। लेकिन चौधरी गुलाब के यहाँ रेशमाँ का दिल लग जाता है और वो जाना नहीं चाहती। माई जमी बदले की भावना से पुराने गाहक या शौहर करम दीन को ख़बर कर देती है और वो आकर गुलाब चंद को सारी स्थिति बताता है। गुलाब चंद आग बबूला होता है। मिल्कियत के अधिकार के लिए दोनों में देर तक मुक़ाबला होता है। आख़िर दोनों हाँप कर इस बात पर सहमत हो जाते हैं कि आपस में लड़ने के बजाय लड़ाई की जड़ रेशमाँ का ही काम तमाम कर दिया जाये। ठीक उसी वक़्त टीले के पीछे से माई जमी नुमूदार होती है और दोनों को इस बात पर रज़ामंद कर लेती है कि दोनों का लूटा हुआ पैसा वापस कर दिया जाये तो वो रेशमाँ को छोड़ देंगे। दोनों राज़ी हो जाते हैं और फिर वो दोनों जो चंद लम्हे पहले एक दूसरे के ख़ून के प्यासे थे, बे-तकल्लुफ़ी से मौसम और मंहगाई पर बात करने लगते हैं।

    पंजाब के अज़ला में ऐसे कई छोटे-छोटे क़स्बे हैं जिनकी आबादी तो चंद सौ नफ़ूस से ज़्यादा नहीं मगर जिनको रेलवे स्टेशन होने का शरफ़ हासिल है। इन स्टेशनों पर उमूमन एक वीरानी की सी कैफ़ियत रहती है। क्योंकि मेल और एक्सप्रेस क़िस्म की गाड़ियाँ तो यहाँ ठहरना कस्र-ए-शान समझ कर आँधी के तेज़ झक्कड़ की तरह गुज़र जाती हैं। अलबत्ता सुस्त रफ़्तार गाड़ियाँ चार-चार पाँच-पाँच घंटे के बाद इन स्टेशनों पर आके रुकती और घड़ी दो घड़ी के लिए उनकी रौनक़ बढ़ा जाती हैं, मगर उनके जाते ही यहाँ पर उल्लू बोलने लगता है।

    जमालपुरा पंजाब का एक ऐसा ही रेलवे स्टेशन है। असवज का महीना, सह पहर का वक़्त, चार-पाँच बजे हैं। ठीक सैंतालीस मिनट के बाद एक डाउन पसंजर ट्रेन आने वाली है। स्टेशन पर चहल पहल शुरू हो गई है। स्टेशन का बाबू जो देर से जाने कहाँ ग़ायब था, अब बार-बार अपने कमरे से निकलता और अंदर जाता हुआ दिखाई देने लगा है। आस-पास के गाँव के मुसाफ़िर जो गाड़ी से घंटों पहले आके स्टेशन की ड्योढ़ी में या टिकट घर की खिड़की के आस-पास लम्बी ताने पड़े थे, अंगड़ाइयाँ लेते हुए उठ बैठे हैं और स्टेशन के नल के इर्द-गिर्द बड़ी फ़राग़त के साथ जो शायद सिर्फ़ देहातियों ही को नसीब होती है, हाथ मुँह धोने में मसरूफ़ हैं। एक ख़्वांचे वाला भी प्लेटफ़ार्म पर हाँक लगाता हुआ फिरने लगा है। एक सूखा हुआ खुजली का मारा कुत्ता उसकी झुलनी की ज़द से दूर-दूर रह के उसका तआक़ुब कर रहा है। जिस जगह वो ख़्वांचा लगाता है कुत्ता भी वहीं उससे गज़ सवा गज़ परे हट के बैठ जाता है।

    स्टेशन मास्टर के कमरे के बाहर प्लेटफ़ार्म की वाहिद बेंच पर दो औरतों ने क़ब्ज़ा जमा रखा है। उनमें से एक अधेड़ उम्र है और एक जवान। अधेड़ एक गठरी सर के नीचे रखे लेटी हुई है और जवान उसके पाएंती बैठी है। अधेड़ उम्र अपनी सीधी-सादी वज़्अ और कपड़ों से साफ़ देहातन मालूम होती है। मगर जवान का लिबास निचले तबक़े की शहरी लड़कियों का-सा है जो किसी मेले या शादी-ब्याह में आई हों। हाथ-पाँव में मेहदी रची हुई। बड़े-बड़े फूलों वाली उदे रंग की छींट की शलवार और क़मीस। सर पर मलमल का दुपट्टा सुर्ख़ रंगा हुआ जिसके किनारों पर झूटा सुनहरी गोटा टका हुआ। नाक में सोने की कील। कान में चाँदी की बालियाँ। होंटों पर दनदासे से सियाही माइल गहरा सुर्ख़ रंग चढ़ा हुआ। तीखे नक़्श। नज़र में हद दर्जे की शोख़ी और बेबाकी। जवानी उसके अंग-अंग से उमडी पड़ती है। वो बाज़ू फैलाए दोनों हथेलियों को गद्दी के नीचे रखे बेंच से टेक लगाए बैठी है और हर आते-जाते को ग़ौर से देख रही है। लेकिन चूँकि प्लेटफ़ार्म पर सवारियाँ कम हैं, इस लिए स्टेशन के कव्वे और कुत्ते ही हिर फिर कर उसकी तवज्जो का मरकज़ बनते हैं।

    स्टेशन का बाबू सर पर तेल चुपड़े पट्टियाँ जमाए मुँह में सिगरट दबाए अपने कमरे से बाहर निकला और जवान लड़की पर एक छिछलती हुई नज़र डाल के प्लेटफ़ार्म पर टहलने लगा। लड़की उसे देखते ही बेंच से उठ खड़ी हुई और गँवारपने से मुस्कुराती हुई उसके पास पहुँची।

    बाबू साहब, एक सिगरट और पिला दो। बाबू ने घबरा कर चारों तरफ़ देखा कि कोई सुन तो नहीं रहा।

    भाग जाओ, सिगरट नहीं है।

    पिला भी दो बाबू साहब। अभी-अभी सो के उठी हूँ। अल्लाह की सों बड़ी तलब लगी है। मगर बाबू ने कुछ जवाब दिया और तेज़-तेज़ क़दम उठाता हुआ प्लेट फ़ार्म पर दूर निकल गया। लड़की खिसियानी सी होकर कुछ दूर उसके पीछे-पीछे चली। रास्ते में उसे एक कुत्ता लेटा हुआ नज़र आया और उसने शरारत से उसकी दुम पर पाँव रख दिया। कुत्ता हड़बड़ा कर भौंक पड़ा और लड़की ख़्वांचे वाले पर गिरते-गिरते बची। पल भर के बाद वो ख़्वांचे वाले से कह रही थी, ख़्वांचे वाले क्या है तेरे पास?

    पकौड़े, गुड़ की रेवड़ियाँ।

    हश्त!

    झाड़ी बूटी के बेर।

    हश्त!

    मूंगफली, मीठे चुने।

    ला एक आने की मूंगफली दे।

    मूंगफली अपने दुपट्टे के पल्लू में डलवा के वो वापस चल दी।

    बीबी पैसे तो देती जाओ।

    कैसे पैसे?

    मूंगफली जो दी है इकन्नी की।

    इकन्नी तो मेरे पास नहीं है।

    तो लाओ रूपये का नावां दे दो।

    रूपया भी नहीं है।

    तो फिर मूंगफली ही फेर दो।

    वाह, वो तो मैं नहीं फेरने की।

    ख़्वांचे वाले के सब्र का पैमाना लबरेज़ हो चुका था और क़रीब था कि वो चिल्ला उठता। मगर ऐन उस वक़्त उस लड़की के साथ वाली अधेड़ औरत आपहुंची। वो एक ही नज़र में मामले को ताड़ गई।

    घबराओ नहीं भैया, कितने पैसे हैं तुम्हारे?

    चार।

    ये लो। और वो लड़की का बाज़ू पकड़ कर उसे वहाँ से ले गई।

    रेशमां! उसने प्यार और मलामत के मिले-जुले लहजे में कहा, मैंने बहुत दफ़ा तुम्हें समझाया है कि पैसा पास हो तो कोई चीज़ ख़रीदा करो।

    ऊँह! रेशमां ने अल्हड़पन से कहा, दुकानदार को पैसे तो मिल ही जाते हैं माई जमी!

    कोई घंटा भर के बाद वो दोनों औरतें तीसरे दर्जे के एक ज़नाना डिब्बे में सफ़र कर रही थीं। डिब्बा सवारियों से खचाखच भरा हुआ था। मगर उन्होंने जैसे तैसे एक कोने में जगह हासिल कर ही ली थी। दोनों सर जोड़ कर चुपके-चुपके बातें कर रही थीं। माई जमी कह रही थी, और फिर रेशमां! ये चौधरी है बड़ा खाता पीता। इसके पास पहली बीवी का बहुत सारा ज़ेवर है, जो उसने कहीं छुपा रखा है। तुम्हें अल्हड़पन की बातें छोड़ कर उसका दिल मुट्ठी में लेना होगा। ख़ूब उससे प्यार मोहब्बत की बातें करना। हुक़्क़ा ख़ूब ताज़ा करके भरा करना। रात को हाथ-पाँव दाब दिया करना। बस उसको तुमपर भरोसा हो जाएगा। और वो घर की कुंजियाँ तुम्हारे हवाले कर देगा। इस तरह जब दो-तीन महीने में सारी चीज़ें तुम्हारे क़ब्ज़े में जाएंगी तो में तुम्हें उसके घर से निकाल ले जाऊँगी।

    उस बुड्ढे खूसट करम दीन के बारे में भी तो तुम यही कहती थीं कि है तो कंजूस मगर बड़ा पैसे वाला है। ख़ाक भी निकला कमबख़्त के घर से।

    उसने सबको धोका दिया। बड़ा फ़रेबी दग़ाबाज़ था। अच्छा हुआ मैंने जल्द ही उसके घर से तुम्हें निकाल लिया।

    कमबख़्त मेरी कैसी चौकसी करता था। मुहल्ले वालों से अलग कह रखा था, और एक बुढ़िया देख-भाल के लिए अलग रख छोड़ी थी। एक दिन मुझपर शक हुआ। मुझे कोठरी के अंदर ले गया। छवि दिखा के कहने लगा,याद रख! तूने कभी भागने की कोशिश की तो इस छवि से दो टुकड़े कर दूंगा। बस उसी दिन से मुझे उससे नफ़रत हो गई।

    ख़ैर उससे तो ख़ुदा ने तुम्हारा पीछा छुड़ा दिया। मगर ये चौधरी है बड़ा नमाज़ी परहेज़गार। जब से बीवी मरी है, घर बसाने के सिवा और कोई फ़िक्र ही नहीं।

    ज़्यादा बूढ़ा तो नहीं?

    नहीं ऐसा बूढ़ा नहीं।

    क्या उम्र होगी भला?

    यही कोई पचास-पचपन बरस।

    रात के कोई पौने बारह बजे गाड़ी उस क़स्बे के स्टेशन पर रुकी जहाँ उन औरतों को जाना था। ाड़ी से उतर कर स्टेशन के मुसाफ़िरख़ाने में पहुंचीं और रात वहीं गुज़ारी। सुबह को अभी अंधेरा ही था कि माई जमी ने रेशमां से उसका सुर्ख़ दुपट्टा ले लिया, और उसे ओढ़ने के लिए एक सफ़ेद चादर दे दी ताकि वो भी देहातन मालूम हो। नए गाँव का मामला था। एहतियात शर्त थी। जितने कम लोगों की नज़र उनपर पड़े उतना ही अच्छा। दोनों ने लम्बे-लम्बे घूँघट निकाल लिये और पैदल क़स्बे की तरफ़ चल दीं।

    रेशमां को चौधरी गुलाब के घर में रहते हुए पन्द्रह-बीस रोज़ हो चुके थे, मगर वो अभी तक नहीं समझ सकी थी कि इस नए घर में उसे क्या रवैया इख़्तियार करना चाहिए। पहले दिन जब वो आई थी तो उसका दिल धड़क रहा था। जाने उसे किन हालात से वास्ता पड़ेगा। चौधरी किस क़िमाश का आदमी है। करम दीन की तरह ज़ालिम तो नहीं। उससे ज़्यादा काम तो नहीं लेगा। उसे मारे पीटेगा तो नहीं। उसकी रखवाली कौन लोग करेंगे। ताहिल की क़ुर्बतें किन नाख़ुशगवार फ़राइज़ की हामिल होंगी और क्या एक मर्तबा फिर वो ज़िंदगी को मुसलसल फ़रेब बनाए रखने में कामयाब हो सकेगी? मगर चंद ही रोज़ में उसके ये सारे अंदेशे ग़लत साबित हुए, और उसमें फिर उसकी फ़ित्री चूँचाली और अल्हड़पन पैदा हो गया।

    चौधरी गुलाब एक सीधा सादा, कम गो और बेआज़ार इंसान था। इसमें शक नहीं कि उसकी उम्र साठ बरस से कम थी, मगर वो देहाती ज़मींदारों की तरह लम्बा चौड़ा था और अभी उसके हाथ-पाँव ख़ूब मज़बूत थे। ये और बात है कि उसकी उम्र का वो दौर शुरू हो गया था जब जोश सर्द पड़ जाता है और एहसास को बेदार करने के लिए कचोकों की ज़रूरत होती है। अमल की जगह ज़ेहनी आसूदगी और इतमीनान-ए-क़ल्ब ले लेते हैं और लज़्ज़त कशी में कोई कमी रह जाती है तो उसे तख़य्युल पूरा कर देता है।

    फिर चूँकि वो नमाज़ी और परहेज़गार था, इसलिए हमेशा साफ़-सुथरा रहता था। रेशमां को उसके कपड़ों और जिस्म के किसी हिस्से से बदबू नहीं आती थी। उसकी सफ़ेद लम्बी दाढ़ी थी, जिसमें वो हर रोज़ कंघी किया करता था। सर पर इक्का-दुक्का ही बाल रह गए थे। आँखों में सुबह-शाम सुरमा लगाता। उसके तौर तरीक़ों में एक अजीब तरह का भोलापन था, जिसने उसे एक प्यारा-प्यारा बूढ़ा बना दिया था। पहली बीवी से उसकी दो बेटियाँ थीं जो मुद्दत हुई ब्याही जा चुकी थीं। औलाद-ए-नरीना कोई थी जिसकी उसे आज भी हसरत थी। रेशमां अक्सर उससे अल्हड़पन में पूछती,चौधरी तुम नमाज़ के बाद क्या दुआ माँगा करते हो? चौधरी मुस्कुराने लगता।

    अल्लाह से बेटा माँगते हो? चौधरी हँस पड़ता।

    ये भी तो दुआ माँगा करो कि रेशमां की बड़ी-सी उम्र हो। इसके जवाब में चौधरी गुलाब बड़े प्यार से उसका गाल थपथपा देता। रेशमां को दो वक़्त की हँडिया के सिवा घर का और कोई काम नहीं करना पड़ता था। उपले थापना, झाड़ू बहारू, गाय-भैंसों की सानी, दूध दूहना, ये सब काम गाँव की एक बुढ़िया किया करती थी, जिसे चौधरी मुआवज़े में अजनास और सब्ज़ियाँ दिया करता था। इसके अलावा कई किसान थे जो चौधरी के खेतों में काम करते थे। ख़ुद चौधरी भी ज़्यादा तर खेतों ही पर रहा करता। उसने पहले ही दिन से घर का सारा इंतज़ाम रेशमां के सुपुर्द कर दिया था। चुनाँचे वो हँडिया रोटी से फ़ारिग़ हो कर दिन भर मज़े से पलंग पर पड़ी बुढ़िया पर हुक्म चलाया करती। करम दीन के घर में और इस घर में कितना फ़र्क़ था। वहाँ वो सचमुच ज़रख़रीद लौंडी थी और यहाँ घर की मालिका। वहाँ वो ख़ुद अपनी नज़रों में ज़लील थी और यहाँ सब लोग उसका अदब करते थे। यहाँ तक कि ख़ुद चौधरी भी उसको इज़्ज़त की निगाह से देखता था।

    रेशमां की उम्र पाँच बरस की थी कि कोई शख़्स उसे शहर के एक मुहल्ले से उठा ले भागा था। उसने मुख़्तलिफ़ देहात में परवरिश पाई थी। यहाँ तक कि उसकी उम्र शादी के लायक़ हो गई। एक औरत ने अपने को उसकी चची ज़ाहिर करके एक खाते पीते घर में अच्छी क़ीमत पर उसे बेच डाला। पहले पहल वो जिस शख़्स के पल्ले पड़ी, वो था तो कम उम्र मगर बिल्कुल सौदाई था, जिससे कोई बाप और बेटी ब्याहने को तैयार था। सौदाई होने के साथ-साथ वो हद दर्जा ज़ालिम भी था। जब वहशत उठती तो बिला क़सूर रेशमां को मारने पीटने लगता। एक दफ़ा इस ज़ोर से रेशमां का गला घोंटा कि उसकी आँखें बाहर निकल आईं। क़रीब था कि रेशमां दम तोड़ दे, मगर ऐन उस वक़्त एक नौकरानी ने देखकर शोर मचा दिया और वो डर कर भाग गया।

    रफ़्ता-रफ़्ता रेशमां ने उस वहशी से बचाओ की एक तरकीब सोच ली। जिस दिन रेशमां को उसके तेवर ज़रा भी बदले हुए नज़र आते वो ख़ुद भी सौदाई बन जाती और फुकनी, चिमटा, गड़वी जो भी हाथ लगता मियाँ के दे मारती। ये हर्बा कारगर साबित हुआ, और वो फ़ौरन टल जाता। यूँही चार साल गुज़र गए। लेकिन इस क़िस्म की ज़िंदगी जिसमें हर वक़्त जान का ख़ौफ़ लगा रहता हो, आख़िर कब तक गुज़ारी जा सकती थी। चुनाँचे वो भागने की तरकीबें सोचने लगी। उसकी जान पहचान एक बुढ़िया से हो गई जिसका तअल्लुक़ बरदा फ़रोशों के एक गिरोह से था, ये बुढ़िया रेशमां को थोड़े ही दिनों में वहाँ से भगा ले जाने में कामयाब हो गई और उसने उसे माई जमी के हाथ बेच डाला।

    सौदाई के साथ चार साल गुज़ार के वो ख़ुद भी नीम वहशी हो चुकी थी। उसमें अच्छे बुरे की तमीज़ रही थी। मगर माई जमी ने तीन-चार महीने अपने साथ रखा। उसे ख़ूब खिलाया पिलाया, और आख़िर प्यार मोहब्बत से उसे राम कर लिया। अब इसने उसे अपने पेशे की तालीम देनी शुरू की। माई जमी का बरदा फ़रोशी का तरीक़ा सबसे जुदा था और एक फ़न की सी हैसियत रखता था। वो हमेशा बुड्ढों-बुड्ढों को फाँसा करती, जो ख़ास कर जवान लड़कियों के आरज़ूमंद रहते, और जिनसे उनकी अच्छी क़ीमत मिल जाती। फिर जब लड़कियाँ ज़ेवर और रूपया लेकर भाग जातीं तो वो बदनामी और जग हँसाई की वजह से उसका ज़्यादा चर्चा करते और बुढ़ापे की वजह से दौड़ धूप और पीछा करने की भी उनमें हिम्मत होती। इस तरह चंद ही माह में ये वाक़िआ रफ़्त गुज़श्त हो जाता और फिर कहीं दूर नए शिकार की तलाश अज़ सर-ए-नौ शुरू हो जाती।

    रेशमां ने जराइम पेशा लोगों के साथ जिस क़िस्म की ज़िंदगी गुज़ारी थी, इससे वो ज़िंदगी को एक ख़ौफ़नाक खेल समझने लगी थी, जिसमें खिलाड़ी हर वक़्त जान की बाज़ी लगाए रखता है और आख़िर एक दिन उसे जान से हाथ धोने पड़ते हैं। रेशमा की मुहिम पसंद तबियत को ये खेल, जिसमें एक तरह से मर्दों से इंतक़ाम लेने का जज़्बा भी शामिल था, भा गया था। मगर बदक़िस्मती से अब तक उसे तकलीफ़ें ही तकलीफ़ें उठानी पड़ी थीं और वो लज़्ज़त मिल सकी थी जो किसी ख़ौफ़नाक खेल की कामयाबी पर खिलाड़ी को हासिल होती है। चौधरी गुलाब के घर बस कर उसे पहली मर्तबा ज़िंदगी की क़दर-ओ-क़ीमत मालूम हुई। इस घर में कैसी आफ़ियत थी और बाहर कैसे-कैसे ख़तरे। जिन लोगों को फ़रेब दिया गया, उनके ग़ज़बनाक चेहरों का हर वक़्त आँखों के सामने फिरते रहना, अजनबी शक्लों पर ख़्वाहमख़ाह उनका धोका होना, रह-रह के चौंक पड़ना, सोते-सोते चीख़ उठना।

    दिन गुज़रते गए। यहाँ तक कि रेशमां को चौधरी गुलाब के घर में बसे तीन महीने हो गए। इस दौरान में वो आराम और आफ़ियत की और भी ज़्यादा आदी हो गई। उधर चौधरी रोज़ रोज़ उसका पहले से ज़्यादा गिरवीदा होता जा रहा था और आए दिन उसके लिए छोटे-छोटे ज़ेवर लाने लगा था। एक दिन वो घर में अकेली थी कि एक बुढ़िया भीक माँगने आई। जब रेशमां आटे की मुट्ठी फ़क़ीरनी की झोली में डाल रही थी तो उसने चुपके से कहा,मुझे पहचाना? मुझे माई जमी ने भेजा है। कहो कब चलना है? उसने बुढ़िया को पहचान लिया और यक बारगी काँप उठी। चेहरे का रंग फ़क़ हो गया मगर फिर जल्द ही सँभल गई। बोली,माई जमी से कहना अभी नहीं। अभी मुझे ज़ेवरों का पता नहीं लगा, एक महीना और ठहर जाए। फ़क़ीरनी बड़बड़ाती हुई चली गई।

    एक महीना और गुज़र गया। अबके माई जमी ख़ुद आई और सुबह को ऐसे वक़्त आई जब चौधरी घर में मौजूद था। वो उसे रेशमां की ख़ाला समझता था, जो ग़ुरबत की वजह से अपनी बहन की निशानी को बेच देने पर मजबूर हो गई थी। उसने माई जमी को इज़्ज़त से घर में बिठाया। उसकी मिज़ाज पुरसी की। फिर दोनों को तन्हा छोड़ कर खेतों पर चला गया।

    कहो ज़ेवरों का पता लगा? माई जमी ने पूछा।

    मुझे कुछ कहने सुनने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। वो एक-एक करके ख़ुद ही मुझे ज़ेवर दे रहा है, लो देखो।

    अरी इन दो अँगूठियों और कान के बुंदों को तू ज़ेवर कह रही है। पगली ज़ेवर तो होता है, सत लड़ा माला, कड़े, झूमर, चम्पा कली। लेकिन बस अब हमें कुछ नहीं चाहिए। मैं तुझे लेने आई हूँ। आज रात को तैयार रहियो। मैंने घोड़ी का इंतज़ाम कर लिया है।

    नहीं माई जमी अभी नहीं। उसने सहम कर लजाजत से कहा,मुझे इस घर में बहुत आराम मिल रहा है। मैं अभी नहीं जाना चाहती।

    अच्छा तो ये बात है। मुझसे कम्मो ने भी यही कहा था कि उसके तौर बदले हुए हैं। मगर मैंने यक़ीन नहीं किया। फिर वो तहक्कुमाना लहजे में कहने लगी,सुन लड़की, बेवक़ूफ़ी की बात कर। तुझे मेरे साथ जाना है, और आज ही रात को। एक बड़ा अमीर नंबरदार तेरा गाहक पैदा हुआ है, जो तुझे सोने से लाद देगा और मैं उससे बात पक्की कर आई हूँ।

    माई जमी! रेशमां ने और भी गिड़गिड़ा कर कहा,मैं तेरे आगे हाथ जोड़ती हूँ। मुझे इसी घर में रहने दे। मैं तुझे ये सारा ज़ेवर देदूँगी। और चौधरी और जो कुछ देगा वो भी तेरा ही होगा, मुझे यहीं छोड़ दे।

    माई जमी के होंटों पर ज़हरीली मुस्कुराहट नमूदार हुई,अरी अभी तूने देखा ही क्या है। बुड्ढे पर क्या मरना, ज़िंदगी का मज़ा लेना है तो किसी जवान पर मर। इस बुड्ढे में रखा ही क्या है।

    नहीं-नहीं मुझे किसी मर्द की ज़रूरत नहीं। मुझे ये बूढ़ा भी नहीं चाहिए। मैं तो फ़क़त आराम से ज़िंदगी गुज़ारना चाहती हूँ।

    देख रेशमां! माई ने बड़े गंभीर लहजे में कहा,जो तू चाहती है वो तो होने का नहीं और अगर तू सीधी तरह नहीं मानेगी तो फिर मैं दूसरा गुर भी जानती हूँ। तुझे मालूम नहीं कि करम दीन अभी तक छवि लिये तेरी तलाश में फिर रहा है। उसे ये मालूम नहीं कि मैंने तुझे भगाया था। अब मैं भी उसके पास जा सकती हूँ और तेरा पता बता सकती हूँ। माई जमी की ज़बान से ये अल्फ़ाज़ मुश्किल से निकले होंगे कि ऐसा मालूम हुआ जैसे यक बारगी भूंचाल गया हो। रेशमां ने बिफरी हुई शेरनी की तरह माई को दबोच लिया, और नाख़ूनों से उसका चेहरा लहूलुहान कर दिया। फिर पेट पर इस ज़ोर की दो-तीन लातें मारीं कि थोड़ी देर के लिए बुढ़िया का साँस बंद हो गया।

    हरामज़ादी, कुटनी, बदमाश, डाइन। निकल जा मेरे घर से, नहीं तो ख़ून पी लूँगी तेरा। ये कहते-कहते उसने मारे तैश के माई जमी के मुँह पर थूक दिया। रेशमां के चेहरे से उस वक़्त ऐसा वहशीपन टपक रहा था कि मालूम होता था जो कुछ कह रही है वो सचमुच कर गुज़रेगी। उसके पहले ही हमले ने माई जमी की ऐसी सिट्टी गुम कर दी थी कि वो अपनी मुदाफ़अत भी कर सकी थी। वो उठ खड़ी हो गई। कपड़े झाड़े। चादर से चेहरा पोंछा, जो उस वक़्त नफ़रत से सख़्त घिनौना हो रहा था। वो बग़ैर एक लफ़्ज़ मुँह से निकाले चली गई। उसके जाते ही रेशमां ने ख़ुद को पलंग पर पटख़ दिया और फूट-फूट कर रोने लगी। दोपहर को जब चौधरी गुलाब खाना खाने आया तो वो पहली की तरह हश्शाश बश्शाश पलंग से उठी, और खाना निकालने के लिए चूल्हे की तरफ़ गई।

    तुम्हारी ख़ाला चली गईं? चौधरी ने पूछा।

    हाँ!

    खाना तो खिला दिया होता।

    उनके पेट में अचानक सख़्त दर्द उठा और वो अपने गाँव के हकीम के पास दवा लेने चली गईं।

    इस वाक़िए को एक हफ़्ते गुज़र गया, मगर इस अरसे में रेशमां के दिल का चैन मफ़क़ूद हो चुका था। हर आहट पर उसे किसी के क़दमों का गुमान होने लगा था। वो बार-बार दरवाज़े की तरफ़ जाती और वापस जाती। दो-चार ही दिन में उसकी आँखों के गिर्द गड्ढे पड़ गए और चेहरे पर ज़र्दी छा गई। जैसे यक बारगी किसी मुह्लिक मरज़ ने लिया हो। वो चौधरी से कुछ कहना चाहती तो मुँह से बात निकलती। चौधरी उससे कुछ कहता तो वो बेख़्याली में कुछ सुनती और चौधरी को एक-एक बात तीन-तीन,चार-चार बार दोहरानी पड़ती। चौधरी ने इस तब्दीली को महसूस किया और कहा,तुम्हारा जी अच्छा नहीं है। चलो,मैं तुम्हें हकीम के पास ले चलूँ।

    नहीं, मुझे कुछ नहीं हुआ। उसने कहा,बचपन ही से मेरी हालत कभी-कभी ऐसी होजाया करती है। मगर चंद ही दिनों में आपही आप ठीक हो जाती हूँ।

    दिन पर दिन गुज़रते गए मगर उसकी हालत में फ़र्क़ आया। इस दौरान उसका जी चाहा कि वो चौधरी से सारा हाल कहदे और अपनेको उसके रहम-ओ-करम पर छोड़ दे, मगर उसका एहसास-ए-ख़ुदी जिसे ख़ुद चौधरी के हुस्न-ए-सुलूक ने उसमें पैदा कर दिया था, इसकी इजाज़त देता था। क्या वो चौधरी के सामने एतराफ़ कर ले कि वो परले दर्जे की मक्कार और झूटी है और इन चार माह में जो उसने इस घर में गुज़ारे हैं, उसकी ज़िंदगी का एक-एक लम्हा फ़रेब से पुर था और फिर इस बात की क्या ज़मानत थी कि चौधरी पर ये हक़ीक़त खुलने पर कि वो एक जराइम पेशा गिरोह से तअल्लुक़ रखती है, जो कई घरों को लूट चुका है और अनक़रीब उसको भी लूटने वाला था, उसे बेइज़्ज़त करके घर से निकाल देगा। चुनाँचे उसने ख़ामोश ही रहना मुनासिब समझा और अपने मामले को तक़दीर पर छोड़ दिया।

    उसे इस बात का अफ़सोस नहीं था कि उसने माई जमी के साथ ऐसा दुरुश्त सुलूक किया। अगर वो ज़माना साज़ी से काम लेती तो शायद माई जमी को दो तीन महीने तक और टाल सकती थी, मगर उम्मीद-ओ-बीम में रह कर जीना उसकी आज़ाद सरिश्त के लिए मौत से बदतर था। वो चाहती थी कि जो बात भी होनी हो दो टूक हो जाए। और वो ख़ुश थी कि उसने माई जमी से अपना बदला ले लिया था। वो सब्र के साथ उस आने वाली घड़ी का इंतज़ार करने लगी। उसे ज़्यादा ज़हमत उठानी पड़ी और वो घड़ी ही पहुँची।

    शाम का वक़्त था। घरों में दीये जल चुके थे। वो चूल्हे के पास बैठी चौधरी को खाना खिला रही थी कि एक किसान खाँसता हुआ घर के आँगन में दाख़िल हुआ।

    चौधरी साहब! उसने कहा, कोई शख़्स आपसे मिलने आया है।

    कौन है?

    कोई बूढ़ा ज़मींदार है। सफ़ेद दाढ़ी वाला, नाम नहीं बतलाया। कहता है बहुत ज़रूरी काम है, बड़ी दूर से आया हूँ।

    अच्छा उसे बाहर चारपाई पर बिठाओ और हुक़्क़ा भर के पिलाओ। मैं अभी आता हूँ।

    रेशमां का सर चकरा गया और उसने सहारा लेने के लिए अपना एक हाथ ज़मीन पर टेक दिया। मगर ये कैफ़ियत लम्हा भर से ज़्यादा रही। वो सँभल गई और ख़ामोशी से चौधरी को खाना खाते देखने लगी। रफ़्ता-रफ़्ता उसके इरादे में मज़बूती पैदा होती जा रही थी। उसने महसूस किया कि वो हर ख़तरे का मुक़ाबला करसकेगी। खाना खा के चौधरी ने कुल्ली की, दाढ़ी मूँछ पर हाथ फेरा। फिर तहमद के पल्ले से मुँह पोंछता हुआ बाहर निकल गया। एक मिनट, दो मिनट, पाँच मिनट, पन्द्रह मिनट गुज़र गए मगर चौधरी आया। रेशमां ने सोचा कि अभी वो इधर-उधर की बातें कर रहे होंगे और अस्ल वाक़िआ अभी नहीं छेड़ा होगा, क्योंकि वो बराबर हुक़्क़े की गुड़गुड़ाहट सुन रही थी। आख़िर कोई आध घंटे के बाद चौधरी वापस आया। उसकी हालत इंतहाई इज़तराब की थी। उसकी आँखें भिंची हुई थीं। हाथ काँप रहे थे और दाढ़ी कफ़ आलूद थी।

    क्यों री! उसने लरज़ती हुई आवाज़ में पूछा,तू करम दीन को जानती है?

    एक ऐसी आवाज़ में जो सरगोशी से ज़रा ही ऊँची थी, रेशमां ने कहा, हाँ!

    तो फिर वो सब सच है जो वो कहता है?

    बग़ैर ये जानने की ख़्वाहिश किए कि वो क्या कहता है रेशमां ने कहा, हाँ! और इसके साथ ही उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे यक बारगी बड़ा भारी बोझ उसके सीने से उठ गया।

    बद ज़ात, बेहया औरत। ये पहले सख़्त लफ़्ज़ थे जो चौधरी गुलाब की ज़बान से उसने अपने बारे में सुने थे। ये अजीब बात थी कि उन लफ़्ज़ों ने उसके एहसास-ए-ख़ुदी को सदमा नहीं पहुँचाया बल्कि उसे मज़ा आया और एक ख़फ़ीफ़ सी मुस्कुराहट उसके होंटों पर खेलने लगी। चौधरी ने ग़ुस्से से एक-दो मर्तबा ज़मीन पर पाँव पटके। कोठरी के अंदर गया, आँगन में घूमा, जैसे नहीं जानता कि क्या करे। आख़िर वो बाहर निकल गया। रेशमां अब अपने को पहले की तरह फिर बे-ख़ौफ़ और आज़ाद महसूस कर रही थी। हर क़िस्म के बंधनों से आज़ाद जिनमें अख़लाक़, इज़्ज़त-ए-नफ़्स और ख़ुद्दारी के बंधन भी शामिल थे। इन बंधनों में उसने अपने को ख़्वाहमख़ाह जकड़ लिया था मगर अब वो मसर्रत के साथ हर तमाशा देखने के लिए तैयार थी। ख़्वाह वो अंजामकार उसकी अपनी ज़िंदगी का अलमिया ही क्यों साबित हो।

    वो आहिस्ता-आहिस्ता क़दम उठाती हुई आँगन में गई और दरवाज़े की ओट में खड़े हो के उनकी बातें सुनने लगी। वो दोनों चारपाई पर आमने-सामने बैठे थे। चौधरी गुलाब बड़े जोश में कह रहा था,नालिश दावे करना, अदालत में जाना तो नामर्दों का काम है। मर्दों का तरीक़ा दूसरा है। अगर तुम्हें मंज़ूर है तो अभी चल के फ़ैसला किए लेते हैं।

    मुझे मंज़ूर है। करम दीन ने ताव खा के कहा,मैं भी गीदड़ नहीं हूँ।

    इसके थोड़ी ही देर बाद चौधरी गुलाब, करम दीन और रेशमां तीनों खेतों की पगडंडियों पर चलते हुए क़स्बे के उस तरफ़ जा रहे थे जिधर घना जंगल था और आबादी के आसार थे। ये माघ के आख़िरी दिन थे। सर्दी ज़ोरों पर थी। तेरहवीं या चौदहवीं का चाँद निकला हुआ था। जूं-जूं वो बुलंद होता जाता, ख़ुनकी बढ़ती जाती। उन्होंने गाढ़े की चादरों में अपने को लपेट रखा था। दोनों मर्द आगे-आगे थे और रेशमां पीछे-पीछे। वो ख़ामोश चलते चले गए। यहाँ तक कि वो जंगल में पहुँच गए। मगर उनके क़दम अब भी नहीं थमे। वो चाँद की किरनों की रौशनी में जो दरख़्तों के पत्तों से छन-छन कर पगडंडी पर पड़ रही थी, बराबर चलते रहे। आख़िर वो जंगल भी ख़त्म हो गया और एक ऐसी जगह गई जहाँ हर तरफ़ टीले ही टीले थे, ख़ारदार झाड़ियाँ थीं और मुर्दा जानवरों के पिंजर पड़े थे। ये जगह ऐसी उजाड़ थी कि रात तो रात, दिन के वक़्त भी किसी इंसान का इधर गुज़र नहीं होता था। एक ऊँचा सा साफ़ और हमवार क़ित्आ ज़मीन देख कर चौधरी गुलाब ठहर गया।

    बस ये जगह ठीक है। उसने कहा। ये पहला फ़िक़रा था जो पिछले दो घंटे की मुसाफ़त के दौरान उनमें से किसी की ज़बान से निकला था।

    जैसी चौधरी साहब की मर्ज़ी। करम दीन ने जवाब दिया। दोनों के चेहरों पर तनाव था और अब्रू चढ़े हुए। दोनों ने अपनी-अपनी चादरें, पगड़ियाँ और कुरते उतार कर ज़मीन पर रख दिए और तहमद को लँगोट की तरह कस लिया। फिर दो छवियाँ चाँदनी में चमकने लगीं और दोनों मैदान में उतर आए। रेशमां चलते-चलते थक गई थी। वो उनसे ज़रा फ़ासले पर एक पत्थर पर बैठ गई। उसके चेहरे पर एक तहक़ीर आमेज़ मुस्कुराहट खेल रही थी। वो दिलचस्पी से उनकी लड़ाई देखने लगी। ऐसा मंज़र उसने अपनी उम्र में पहले कभी देखा था। उसके दिल में अब ज़र्रा भर भी ख़ौफ़ बाक़ी रहा था। इसकी फ़िक्र थी कि उन दोनों में से कौन फ़तहयाब होकर उसकी क़िस्मत का मालिक बनता है। वो बड़ी मसर्रत और चूँचाली के साथ उन बुड्ढों की जंग देख रही थी, जैसे बच्चे रीछों की कुश्ती का तमाशा देखते हैं।

    कुछ देर तो दोनों छवियाँ ताने बेहरकत आमने-सामने खड़े रहे। उसके बाद उन्होंने पैंतरे बदले, चाँदनी में उनकी चांदें चमक रही थीं और सफ़ेद दाढ़ियाँ जो उस वक़्त और भी सफ़ेद दिखाई देती थीं, हिल रही थीं। वो पाव घंटे तक उसी तरह बराबर पैंतरे बदला किए। मगर अभी तक एक की छवि ने दूसरे के जिस्म को नहीं छुआ था। सिर्फ़ एक मर्तबा चौधरी गुलाब की छवि करम दीन की छवि से टकरा गई थी। मगर उसके बाद दोनों पीछे हट गए। इसी में वो दोनों हाँफने लगे थे।

    रेशमां को इस तमाशे से जल्द ही उकताहट महसूस होने लगी थी। उसने जमाइयाँ लेनी शुरू करदीं। उसे अब सर्दी भी लगने लगी थी। उसने टीलों के उस पार देखना शुरू किया। शायद दूर कोई नाला बह रहा था जिसका हल्का-हल्का शोर इस हू के आलम में बड़ा तस्कीन बख़्श मालूम होता था। अचानक करम दीन ने हाथ से इशारा किया कि ज़रा थम जाओ। उसके तहमद का पल्लू जिसको उसने लँगोट की तरह पीछे उड़स रखा था, बाहर निकल आया था। उसे एक हाथ में छवि और दूसरे में लँगोट थामे देख कर रेशमां ज़ब्त कर सकी और उसने बेइख़्तियार क़हक़हा लगा दिया। दोनों मर्द पलट कर उसकी तरफ़ देखने लगे। रेशमां हँसे जारही थी। हरचंद उसे एहसास था कि ऐसे नाज़ुक वक़्त में उसका हँसना बड़ा ख़तरनाक साबित हो सकता है मगर उसे परवा थी।

    अगर मैं ज़िंदा बच रहा...करम दीन ने खिसियाना सा हो कर कहा,...तो सबसे पहले इस छिनाल के टुकड़े करूंगा।

    इस बेहया को तो अब मैं भी घर में नहीं बसाऊँगा। चौधरी गुलाब ने कहा,बस नाक काट के छोड़ दूंगा।

    तो चौधरी आओ पहले क्यों इसी का क़िस्सा पाक करें। हम भी कैसे बेवक़ूफ़ हैं कि इस फ़ाहिशा के पीछे जानें दिए देते हैं। इसका क्या है कल किसी और की बग़ल गर्म कर रही होगी।

    चौधरी गुलाब ने कुछ जवाब दिया। करम दीन ने उसकी ख़ामोशी को रज़ा तसव्वुर किया और वो यक बारगी छवि लेकर रेशमां की तरफ़ झपटा मगर जल्दी में कपड़ों के ढेर में उसका पाँव उलझ गया और रेशमां को भागने का मौक़ा मिल गया। वो तेज़ी से दौड़ कर एक टीले पर चढ़ गई। करम दीन भी उसके पीछे भागा। उसे देख कर वो फिर दौड़ी। करम दीन ने उसका पीछा छोड़ा। दोनों देर तक टीलों पर इधर-उधर भागते रहे। करम दीन दौड़ते-दौड़ते बेदम होगया था, मगर इंतक़ाम की आग ने उसे ऐसा बावला बना दिया था कि वो गिरता पड़ता उसका तआक़ुब किए जा रहा था। ये सिलसिला आध घंटे तक जारी रहा। बिलआख़िर रेशमां के कपड़े एक झाड़ी के कांटों में उलझ गए और दूसरे लम्हे करम दीन ने आके उसे चुटिया से पकड़ लिया, और घसीटता हुआ ले चला। रेशमां ने दाँतों से उसके हाथों को काट-काट के लहूलुहान कर दिया, मगर इसने चुटिया छोड़ी।

    दोनों उस जगह पहुँचे, जहाँ चौधरी गुलाब उनका इंतज़ार कर रहा था। इस दौरान में वो कपड़े पहन चुका था। इस बला की सर्दी में नंगे रहने पर उसका जिस्म अकड़ गया था, मगर अब गाढ़े की चादर की बुक्कल मारे वो बहुत मगन मालूम होता था। करम दीन ने कहा,बेहया भागना चाहती थी, मगर मैं भी पाताल तक इसका पीछा छोड़ता। क्यों चौधरी जी लगाऊँ एक हाथ। ये कह कर उसने छवि उठाई। चौधरी गुलाब जवाब देने पाया था कि एक आवाज़ टीलों में गूँज उठी,ओ चौधरियो ठहर जाओ।

    ये माई जमी थी जो उनके पीछे-पीछे चलती रही थी और एक टीले के खड में छुप के दूर से सारा माजरा देखती रही थी।

    बरदा फ़रोश चुड़ैल तू कहाँ से गई? करम दीन ने ग़ुस्से में कहा,ये सब तेरे ही करतूत हैं। इसके साथ तेरी ज़िंदगी का भी क़िस्सा पाक करें।

    चंद लम्हों में माई जमी उनके पास पहुँच गई।

    लो मार डालो। उसने बेख़ौफ़ी से अपना सीना आगे करते हुए कहा,मगर याद रखो तुम भी फाँसी से नहीं बचोगे। मेरे कुनबे वाले थाने में फ़ौरन इत्तिला कर देंगे। और सिपाही आके तुम्हें हथकड़ियाँ लगाके ले जाएंगे।

    क्या बकती है कुटनी! चौधरी गुलाब ने कहा। वो अब तक इस क़िस्से में ख़ामोश रहा था मगर जमी की इस ज़बान दराज़ी को बर्दाश्त कर सका। कुछ लम्हे ख़ामोशी रही। उसके बाद जमी ने फिर ज़बान खोली, मगर अबके उसका लहजा मसालहत आमेज़ था।

    सुनो! उसने कहा, अगर तुम्हें वो सारा रूपया मिल जाए जो तुमने इसपर ख़र्च किया है, तो क्या तुम इसे मुझे देदोगे?

    दोनों शख़्स कुछ देर सोचते रहे। उसके बाद करम दीन ने कहा,अगर मेरे चार सौ रूपये मुझे वापस मिल जाएं तो फिर वो चाहे भाड़ में जाए, मेरी बला से।

    तुम चार सौ छोड़ पाँच सौ लेना। और चौधरी गुलाब तुम क्या कहते हो?

    अगर करम दीन को एतराज़ नहीं तो मुझे भी एतराज़ नहीं। चौधरी ने धीमे लहजे में कहा।

    तुम्हें भी तुम्हारा सात सौ रूपया मिल जाएगा चौधरी गुलाब। बात ये है कि यहाँ से कोई दस कोस पर एक नंबरदार रहता है जो रेशमां जैसी लड़की के दो हज़ार रूपये देने को तैयार है। तुम मुझे एक दिन की मोहलत दो और रेशमां को भी अपने पास रखो। कल शाम को जब मैं तुम्हारा रूपया लौटाऊँगी तो तुम इसे मेरे हवाले करना।

    रेशमां ने गर्दन उठाई। माई जमी की तरफ़ देखा और एक झुरझुरी ली। चौधरी गुलाब ने माई जमी की बात का कुछ जवाब दिया। माई जमी ने इसकी ज़रूरत समझी। इसके लिए इसकी ख़ामोशी ही काफ़ी थी। अब करम दीन भी कपड़े पहन चुका था। वो चारों वापस चल दिए। पहले की तरह मर्द आगे-आगे और औरतें पीछे-पीछे। सर्दी अब पहले से बढ़ गई थी, जिसकी वजह से अब उनके क़दम आपही आप तेज़-तेज़ उठ रहे थे। कुछ देर तो ख़ामोशी से चलते रहे। आख़िर करम दीन ने चौधरी गुलाब से कहा,बड़ी ख़ुश्क सर्दी पड़ी है अबके साल। हमारी फ़सलों का तो नास ही हो गया। यहाँ क्या हाल है चौधरी साहब?

    यहाँ भी बारिश की एक बूँद नहीं पड़ी। चौधरी गुलाब ने जवाब दिया।

    फिर ये ख़ुश्क सर्दी बीमारियाँ भी तो लाती है। ख़ास कर ढोर डंगर के लिए। मेरी एक भैंस पाला खाके मर गई।

    ओहो...

    कुछ देर ख़ामोश रही।

    चावल का क्या भाव है यहाँ? करम दीन ने फिर पूछा।

    बेगमी सवा दो सेर। चौधरी गुलाब ने जवाब दिया।

    हमारे हाँ ढाई सेर का भाव है। करम दीन ने कहा।

    रेशमां इस ख़ुनुक चाँदनी में एक ख़्वाब के से आलम में चली जा रही थी, तो उसके कान कुछ सुन रहे थे, आँखें कुछ देख रही थीं और ये ख़बर थी कि क़दम कहाँ पड़ रहे हैं।

    स्रोत:

    Kulliyat-e-Ghulam Abbas (Pg. 299)

    • लेखक: ग़ुलाम अब्बास
      • प्रकाशक: रहरवान-ए-अदब, कोलकाता
      • प्रकाशन वर्ष: 2016

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