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बरगद का पेड़

सादिक़ हुसैन

बरगद का पेड़

सादिक़ हुसैन

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    गांव के मैदान में, कच्चे रास्ते के पास, बरगद का पेड़ यूं खड़ा है जैसे कोई अह्द साज़ मुफ़क्किर, हिक्मत के सरमाए तले झुका माहौल का जायज़ा ले रहा हो। वक़्त ने उसकी जटाओं में अनगिनत लम्हात गूँध डाले हैं। गर्मियों की आमद से पहले उसके दूरअँदेश पत्ते अपने अंदर पानी जमा कर लेते हैं। सर्दियों में हर पत्ते की डंडी पर बरगदयूं के जूड़े की नुमूद एलान करती है कि यगानगत फ़ित्रत का हुस्न निखारती है। बरसों की जिगर सोज़ से उस के तने में घाव गया है। उसके पत्ते ज़र्ब खा कर आँसुओं के सफ़ेद क़तरे बहाते हैं तो उसकी चोटी सदा देती है, शांति! शांति! आओ ये दुख हम आपस में बांट लें।

    गांव में मशहूर है कि बरगद का पेड़ कलाम करता है। बुज़ुर्ग फ़रमाते हैं कि बरगद का पेड़ नहीं बल्कि उसे देखकर ख़ुद गांव के बासियों की याददाश्त बोलती है।

    गांव का नामी पहलवान कच्चे रास्ते से गुज़रता है तो बरगद का पेड़ कहता है, कुम्हार के फ़र्ज़ंद! बचपन में तू मेरे छत्र के नीचे, नंगे पाँव, सात-समुंदर, खेला करता था। ताक़त के नशे में तू क्यूं अपने आबा-ओ-अज्दाद के आवे और चाक तोड़ रहा है?

    पहलवान सीना तान कर जवाब देता है, मैं जो उस वक़्त था अब नहीं हूँ, मेरा हाल मेरे माज़ी पर हावी है।

    तहसीलदार, घोड़े पर सवार, शहर से गांव आता है तो बरगद के पेड़ से आवाज़ आती है, तेली के बेटे! लड़कपन में तू मेरी छाँव में, चोर मंडली, खेला करता था, मुझे तेरे पैवंद लगे कपड़े याद हैं। अब तेरी पगड़ी का शिमला बहुत ऊंचा हो गया है।

    तहसीलदार गरजता है, मैं अपने बच्चों का मुस्तक़बिल महफ़ूज़ कर रहा हूँ। ये मेरा फ़र्ज़ है। मैं इस तहसील का मालिक हूँ। मैं अगर चाहूँ तो तुझे आरे से कटवा डालूं और तेरा नाम-ओ-निशान मिट जाये, फिर मुझे अपना बचपन याद आए।

    पेड़ के ज़र्द पत्ते झड़ कर ज़मीन पर बिखर जाते हैं तो मस्जिद का इमाम आगाह करता है, कल जो पत्ते सब्ज़ थे आज उन्हें पामाल होते देखकर इबरत पकड़ो।

    इलाक़े का बदनाम डाकू दिल ही दिल में सोचता है कि ये बातें हम बरसों से सुन रहे हैं मगर ज़र्द पत्ते झड़ते हैं तो उनकी जगह नए पत्ते निकल आते हैं। पेड़ जूं का तूं खड़ा है और पेड़ उसका मददगार है, तारीक रातों में इसी पेड़ के नीचे बैठ कर उसने डाका ज़नी के कामियाब मंसूबे बनाए। ज़र्द पत्ते तो उन किसानों की तरह हैं जो सर झुकाए खेतों में हल चलाते, बीज बोते और दरांतियों से फ़सलें काटते हैं। वो तो जीते जी मर जाते हैं। इसलिए कि उनका उगाया हुआ अनाज थोक का ब्योपोरी औने-पौने ख़रीद लेता है। थोक के ब्योपोरी के पास एक लंबी मोटर कार है। उसके ख़ानदान के अफ़राद ऐसे कपड़े पहनते हैं कि इन्सान देखा करे। डाकू ने तहय्या कर लिया है कि वो उस वक़्त तक मंसूबे बनाता और उन्हें अमली जामा पहनाता रहेगा जब तक थोक के ब्योपारी की लंबी मोटर कार के हिस्से बख़रे नहीं हो जाते।

    गांव का नौजवान दीवाना बार-बार कहता है कि वो ख़िज़ां का गला घोंट देगा इसलिए कि इस मौसम में उसकी बाँसुरी के सीने में नग़्मों के चश्मे मुंजमिद हो कर रह जाते हैं। बहार में जब वो बाँसुरी बजाता है तो सब्ज़ पत्ते झूम-झूम उठते हैं, कोंपलें रक़्स करती, जटाएं धमाल मचाती और छाल थिरकती है। आलम-ए-इस्तिग़राक़ में बरगद का पेड़ आँखें नीम वा कर के सरगोशी करता है, दीवाने! बाँसुरी की लय तेज़ कर दे, माया की काली घटाएं गांव पर मंडला रही हैं।

    नंग धड़ंग, शोर मचाते बच्चे दीवाने का तआक़ुब करते हैं तो वो दौड़ कर बरगद के पेड़ के पास चला जाता है और उसे यूं महसूस होता है जैसे पेड़ बाँहें फैला कर कह रहा हो, दीवाने! मैं तेरा दुख जानता हूँ, देख मेरे सीने में भी घाव है। ये मेरे वजूद को खोखला कर देगा। मैं उस दिन का इंतिज़ार कर रहा हूँ, जब मैं टूट कर गिर पड़ूँगा। वो दिन मेरी तकमील का दिन होगा। उस रोज़ मेरा जिस्म ज़मीन से हमकनार होगा और ज़मीन से मुझे मुहब्बत है।

    बरगद के पेड़ को याद है कि एक दिन तीन शहरियों ने उसके छत्र के नीचे बैठ कर धरती से मुहब्बत की बातें की थीं। उनकी गुफ़्तगू ने रुख बदला तो कारख़ानों के मेहनतकशों का ज़िक्र छिड़ गया। चिमनियों से निकलते धुंए ने फेफड़े झिंझोड़ कर रख दिए। थके-माँदे चेहरों से पसीने के क़तरे टप टप गिरने लगे। बातों बातों में बहस बढ़ गई, मुँह से झाग उड़ने लगे।

    एक शहरी ने अपने ख़यालात का इज़हार किया, रिवायात मुआशरे की जड़ें हैं। ये जड़ें खोखली हो जाएं तो मुआशरा ज़ेर-ओ-ज़बर हो जाता है।

    दूसरे शहरी ने ख़त-ए-तंसीख़ खींचा, ये जड़ें हमारी तरक़्क़ी की राह में रुकावट बन गई हैं। हम इन्हें काट देंगे। हम पुरानी इमारत गिरा कर उस की जगह नया महल तामीर करेंगे।

    तीसरे शहरी ने पत्थर मारा, तुम दोनों ग़लत कहते हो। हम भूके हैं। हमें रोटी दो और हमारी सोच ले लो।

    तीनों शहरी गांव की गली में दाख़िल हुए तो पहला शहरी एक छबीली नार को देखकर बे इख़्तियार बोल उठा, क्या क़ियामत है!

    दूसरे शहरी ने डाँट पिलाई, इन्सान बनो, गांव की बेटी है।

    तीसरे शहरी ने दो टूक फ़ैसला सुनाया, वो क़यामत है गांव की बेटी, वो महज़ एक औरत है।

    गांव का कड़क बांका शहरियों की बातें सुनकर ग़ुस्से के मारे भूत हो गया। कड़क कर बोला, चले जाओ वापस नहीं तो हड्डी पसली तोड़ दूँगा।

    शहरी ख़ून के घूँट पी कर रह गए। उल्टे पांव भागे। रास्ते भर इस बात का रोना रोते रहे कि गांव के लोग ग़ैर मुहज़्ज़ब हैं।

    दिन की रौशनी में चमगादड़ें, बरगद के पेड़ की टहनियों से लटकी रहतीं और रात के अंधेरे में उड़ जाती हैं।

    गांव के शायर को देखकर बरगद के पेड़ से सदा निकलती है, तू जानता है कि दो टांगों वाली चमगादड़ें की तादाद बढ़ती जा रही है। तू अपने गीतों की आग से चमगादड़ों को जला कर राख कर दे।

    शायर जवाब देता है, मैं तो ख़ुद अपनी आग में जल रहा हूँ। ये रौशनी बड़ी अज़ियत-नाक है।

    बरगद के पेड़ की गंभीर आवाज़ सुनाई देती है, ये आग ही तो ज़िंदगी का राज़ है। ये रौशनी अज़ियत-नाक नहीं, मक़्सद-ए-हयात है।

    गांव का एक बुज़ुर्ग जलालुद्दीन, फ़ज्र की नमाज़ पढ़ कर मैदान में टहलता है। बरगद का पेड़ गवाह है कि बरसों पहले जलालुद्दीन ने एक दोशीज़ा... करम जान को अपनी मुहब्बत का यक़ीन दिला कर झूट बोला था। एक तारीक रात में, बरगद के पेड़ के नीचे जलालुद्दीन ने क़ौल दिया एक दिन जलालुद्दीन अचानक रुपोश हो गया। करम जान अपने माहिए की जुदाई में ढोलक पर गीत गाती। उसकी आवाज़ दुख में डूब कर उभरती तो पेड़ों में बैठे पंछी पर समेट कर गुम हो जाते। गिलहरियाँ फुदकना भूल कर दम-ब-ख़ुद हो जातीं और आँखों में कुंवारियां, काम काज छोड़कर किसी गहरी सोच में डूब जातीं।

    करम जान इंतिज़ार करते करते, हुस्न-ए-जवानी और गीतों से बिछड़ गई। यूं जैसे कोई हसीन लम्हा वक़्त से जुदा हो कर दर्द की राहों में भटक रहा हो।

    नट-खट, मुँह-फट, गांव के बच्चे, करम जान के पीछे भागते। 'पगली! पगली!' की आवाज़ें पथराव करतीं। करम जान हाँफती काँपती, आँखों के ढेले घुमाती, दौड़ कर बरगद के घाव में छुप जाती और पेड़ का जी चाहता कि करम जान के सर पर हाथ रखकर उसके सारे दुख अपने अंदर जज़्ब करले।

    मुद्दत के बाद जलालुद्दीन शहर से लौट कर गांव आया तो उसके साथ उस की शहरी बीवी थी जिसने उठी एड़ी की जूती पहन रक्खी थी। सर पर मस्नूई बालों का इंडवा था। रुख़्सारों पर रूज़ और पाउडर की बोहतात थी और होंटों पर लिपस्टिक की चीख़-ओ-पुकार। जलालुद्दीन को जब पता चला कि करम जान मर चुकी है, तो कलेजा पाश पाश हो गया। अब जलालुद्दीन गांव में जलाल शाह के नाम से पुकारा जाता है। लोग कहते हैं कि जलाल शाह के चेहरे पर नूर बरसता है। वो दम करता और तावीज़ लिखता है। उसके मुरीदों का दायरा वसीअ होता जा रहा है।

    बारातें बरगद के पेड़ के नीचे पड़ाव डालती हैं। बराती पेटियां दुरुस्त करके मूंछों को ताव देते हैं। ढोल की धमक गूँजती है। शहनाइयाँ बजती हैं। दूल्हा सहरा बांध कर घोड़े सर सवार होता है। बरात चढ़ती है। बरगद के पेड़ की चोटी, दूल्हा को आंग कर, जुंबिश करती है। कभी इस्बात में कभी नफ़ी में और कभी गो मगो के आलम में। गांव की बेटी, डोली में उकड़ूं बैठ, जानी-पहचानी राहों, पगडंडियों, खेतों खलियानों से जुदा हो कर एक अजनबी दुनिया का रुख करती है तो बरगद का पेड़ मराक़बे में चला जाता है। तब आवाज़ आती है, गांव की बेटी एक बहन भी थी, अब वो बीवी का रूप धार लेगी। जब वो माँ बन जाएगी तो उसका वुजूद फ़ित्रत की दिलकशी में जज़्ब हो कर निहाल हो जाएगा।

    नूर के तड़के, टीलों टब्बों के उस पार, खेतों में तीतर बोलते हैं तो ऊँघते पत्ते चौंक पड़ते हैं। बरगद के पेड़ के ध्यान में खेत आते हैं तो वो उदास हो जाता है। उसने जब ज़िंदगी का पहला सांस लिया तो फ़ित्रत ने उसके कान में कहा था, ज़मीन का मालिक ख़ुदा है मगर इन्सान कहते हैं कि खेतों के मालिक ख़ुद इन्सान हैं। गांव वाले तो ज़मीन के चप्पे चप्पे की ख़ातिर कट मरते हैं। बरगद का पेड़ अक्सर सोचता है कि खेत किसी के भी नहीं और सब के हैं। अनाज किसी का भी नहीं और सबका है मगर थोक का ब्योपॉरी किसी को सोचने की मोहलत ही नहीं देता।

    डुगडुगी की आवाज़ सुनकर गांव के बच्चे बरगद के पेड़ के नीचे जमा हो जाते हैं। डोरी से बंधी, सुर्ख़ रंग का घाघरा पहने बंदरिया, तूत की छड़ी के इशारे पर नाचती है। बंदरिया नचाने वाला, डोरी को झटकता, खींचता, ढील देता और गीत गाता है। कच्चे रास्ते पर गाड़ियां रुक जाती हैं। गाड़ीबान, नस्वार की चुटकी मुँह के गोशे में दबा, बंदरिया के नाच के मज़े उड़ाते हैं। ये तमाशा देखकर गांव का शायर आँसू बहाता और तन्हाई में बरगद के पेड़ से कहता है! बंदरिया नचाने वाला, डुगडुगी, बंदरिया, बिप्ता के इन तीन अनासिर को तुम समझते हो या मैं।

    गर्मियों में भैंसें, जोहड़ के गदले पानी से निकल कर बरगद के पेड़ की छाँव में चली जाती हैं। एक बेचैनी की हालत में दुम हिलाती, कान फड़ फड़ाती, पांव धब धब ज़मीन पर मारती हैं मगर उनके जिस्मों से चिम्टी जोंकें टस से मस नहीं होतीं। गांव का मुदर्रिस कहता है कि जोंकें किसी की दुश्मन नहीं, ख़ून चूसना उनकी फ़ित्रत है।

    बहार के मौसम में गांव के नौजवान खड़तालें बजा बजा, सिमी खेलते हैं। लड़कियां गीत गाती हैं। लहलहाते खेतों की ख़ुश्बू फ़िज़ा में मचलती है। ये मंज़र देखकर गांव का शायर बरगद के पेड़ से हमकलाम होता है, ये लम्हात जा कर वापस नहीं आएँगे, मैं इन साअतों के बांकपन से शे'रों की महफ़िल सजाऊँगा।

    गांव के मैदान में, कच्चे रास्ते के पास बरगद का पेड़ यूं खड़ा है जैसे कोई अह्द साज़ मुफ़क्किर हिक्मत के सरमाए तले झुका, माहौल का जायज़ा ले रहा हो।

    गांव में मशहूर है कि बरगद का पेड़ कलाम करता है। बुज़ुर्ग फ़रमाते हैं कि बरगद का पेड़ नहीं बल्कि उसे देखकर गांव के बासियों की याद दाश्त बोलती है।

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