aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

बीच भंवर नदिया गहरी

नूरुल हसनैन

बीच भंवर नदिया गहरी

नूरुल हसनैन

MORE BYनूरुल हसनैन

    इक़बाल साहब ने अख़बार की सुर्ख़ी पढ़ने के बाद पूरी ख़बर को पढ़ना भी ज़रूरी नहीं समझा और उसे ग़ुस्से से किताबों के रैकट की तरफ उछाल दिया, और सोचने लगे, हद हो गई अब तो ऐसा लगता है मुसलमानों से उनका अल्लाह बिल्कुल ही रूठ गया है और उन्हें आर एस एस के हवाले करके बेफ़िक्र हो गया है। ठीक उसी वक़्त उनका बेटा क्रिकेट का किट बैग पीठ पर लादे सूरत लटकाए दाख़िल हुआ, और उन्होंने बेताबी से पूछा, “क्या हुआ फ़रहान?”

    बेटे ने पीठ पर से किट बैग को उतारते हुए जवाब दिया, “कॉलेज की क्रिकेट टीम फाइनल हो गई और उसका स्लैक्शन नहीं हुआ।”

    उन्होंने बेटे के मायूस चेहरे की तरफ़ देखा।

    ”बाबा मुझसे कमज़ोर खिलाड़ी विनोद पांडे को टीम में शामिल कर लिया गया लेकिन मुझे...”

    वो क्या कुछ कहता रहा, उसकी आवाज़ उनके कानों तक नहीं पहुंची अलबत्ता उनका ज़ेहन सोच रहा था कि इस मुल्क में अब मुसलमानों के मुस्तक़बिल का क्या होगा? हर जगह तास्सुब, हर जगह एक ही ज़ेहनियत... कॉलेज की टीम में अगर उसका स्लैक्शन होजाता तो क्या वो नेशनल खिलाड़ी बन जाता था? तास्सुब करना ही है तो वहाँ... उस सतह पर करते। लेकिन नहीं वो तो आग़ाज़ ही से मुसलमानों को बेदख़ल करना चाहते हैं। वो अपनी जगह से उठे और स्कूल की जानिब रवाना हो गए।

    वो एक सरकारी स्कूल में हैड मास्टर थे और रियाज़ी के निहायत क़ाबिल उस्ताद माने जाते थे। दीगर असातिज़ा की तरह अगर वो चाहते तो ट्यूशन क्लास शुरू करके हज़ारों रुपया कमा सकते थे लेकिन उन्होंने कभी ये काम नहीं किया, बल्कि अगर किसी तालिब इल्म ने ये ख़्वाहिश भी की तो उनका जवाब था,Your teacher is not for sale वो चौबीस घंटों के उस्ताद थे। उनके पास ज़ात जमात की कोई तफ़रीक़ नहीं थी। जिन बच्चों को क्लास में रियाज़ी का कोई मसला समझ में नहीं आता वो बे धड़क उनके घर चले आते और वह उन्हें इस क़दर अपनाइयत और ख़ुलूस से घंटों पढ़ाते कि कभी कभी तो उनकी बीवी भी नाराज़ होजाती कि ये घर है या स्कूल? लेकिन उनके रवय्ये में कभी तब्दीली नहीं आई, यही वजह थी कि उनकी बड़ी इज़्ज़त थी और उनके शागिर्द उन पर जान छिड़कते थे।

    “जनाब इक़बाल साहब!”

    उन्होंने पलट कर देखा, मोअज़्ज़िन साहब के हाथों में अख़बार था, “अब तो गोश्त खाने पर भी पाबंदी आइद हो गई है। अदालत का फ़ैसला भी आगया है?”

    इक़बाल साहब के चेहरे पर कोई तास्सुर नहीं था, “तो छोड़ दीजिए उसे खाना...” और फिर वो बिना रुके तेज़ तेज़ क़दमों से स्कूल के बड़े दरवाज़े में दाख़िल हो गए और मोअज़्ज़िन साहब उन्हें देखते रह गए।

    आफ़िस की दीवार से लग कर कुछ असातिज़ा मसरूफ़-ए-गुफ़्तगू थे। उन्हें देखते ही वो सब एक लम्हे के लिए चुप हो गए लेकिन सबके हाथ सलाम के लिए बुलंद हुए और उन्होंने सिर के इशारे से जवाब दिया और आफ़िस में दाख़िल हो गए।

    “लगता है साहब ने आज का अख़बार नहीं देखा।” रहमत साहब ने सबकी जानिब देखा।

    “आप लोग ये बात अच्छी तरह जानते हैं कि वो स्कूल में, स्कूल से हट कर कोई बात नहीं करते।” प्रशांत साहब ने आहिस्ते से कहा।

    “अरे सर, ये सब दिखावा है, हुक्काम की चापलूसी है।” फ़िरोज़ साहब ने बुरा सा मुँह बनाया, “वरना हेड मास्टरी पर मेरा हक़ था।”

    आवाज़ें इक़बाल साहब के कानों तक भी पहुँच रही थीं।

    “भई हमें तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।” इरफ़ान साहब ने अपने टीचिंग एड्स को सँभालते हुए कहा, “हेडमास्टर ख़ाह कोई रहे हमें तो बच्चों को पढ़ाना है। अब रहा आपकी असल गुफ़्तगू का मुद्दआ कि गोश्त बंद हो गया तो क्या खाएंगे? तो साहब बंदा सब्ज़ी तरकारी से भी अपना काम चला सकता है।”

    रहमत साहब ने इरफ़ान साहब की जानिब घूर कर देखा, “यहाँ बात खाने की नहीं हो रही है, बल्कि ज़ेहनियत की हो रही है कि अब तो अक़ीदत भी क़ानून से बाला तर हो गई है।”

    सबकी नज़रें प्रशांत साहब पर जम गईं, और प्रशांत साहब ने अवीनाश साहब की जानिब देखा, अभी नज़रें कुछ कह भी नहीं पाई थीं कि ठीक उसी वक़्त चपरासी ने घंटी बजाना शुरू की और ड्रील मास्टर की सीटियाँ शुरू हो गईं और स्कूल के तमाम बच्चे नज़्म ख़्वानी के लिए अपनी अपनी क़तारों में खड़े हो गए।

    रियासत का ये एक ऐसा ज़िला था जिसमें तालीमी सरगर्मीयां सबसे ज़्यादा थीं। जगह जगह ख़ानगी स्कूल भी थे लेकिन ये शहर का वाहिद स्कूल था जहाँ बैकवक़्त उर्दू और मरहटी मीडियम के तलबा एक ही इमारत में तालीम हासिल करते थे। यहाँ पांचवीं जमात से मैट्रिक तक की तालीम का इंतज़ाम था, और सरकारी स्कूल होने के बावजूद अपनी उम्दा तालीम के लिए शोहरत रखता था। जिसका सारा क्रेडिट इक़बाल साहब के सर बंधता था। मरहटी ज़बान पर भी उन्हें पूरी तरह उबूर हासिल था।

    रियाज़ी का पीरियड लेने जूंही वो क्लास में पहुंचे तो मामूल के मुताबिक़ सारे लड़के उनके इस्तिक़बाल के लिए खड़े हो गए थे लेकिन उन्होंने देखा मक़ामी विधायक का लड़का सुभाष खड़ा नहीं हुआ था बल्कि वो नीचे झुका हुआ था, गोया उनकी नज़रों से बचने की कोशिश कर रहा था। इक़बाल सर का माथा ठनका, अख़बार की सुर्ख़ी, फ़रहान का टीम में मुंतख़ब होना, फ़िरोज़ साहब का तंज़, और सुभाष की हरकत... वाक़ई मुल्क में हालात तेज़ी से बदल रहे हैं और ये लीडर... अपने बच्चों को भी ज़हरीला बना रहे हैं। ग़ुस्से की गर्मी उनके दिमाग़ में चढ़ने लगी थी और उसी आलम में उन्होंने बच्चों के होमवर्क की कापीयां चेक करना शुरू किया, जमात में सन्नाटा छाया हुआ था क्योंकि आज इक़बाल साहब के चेहरे पर शगुफ़्तगी नाम को नहीं थी। बारी जब सुभाष की आई तो वो उसी तरह अपनी जगह पर खड़ा था। उन्होंने उसकी जानिब ग़ुस्से से देखा लेकिन वह उनके टेबल तक नहीं पहुंचा। वो ज़ोर से गरजे, “क्या तुम्हारा होमवर्क चेक करने मुझे तुम्हारे पास आना पड़ेगा?”

    सुभाष ने घबराई हुई नज़रों से उनकी तरफ़ देखा।

    “क्या समझते हो तुम?” वो ग़ुस्से में कहे जा रहे थे, “तुम होंगे किसी एम.एल.ए के बेटे, लेकिन मैं कोई चापलूस नहीं हूँ, यहाँ तक अपनी सलाहियतों पर पहुँचा हूँ। कहाँ है तुम्हारी होमवर्क की नोट बुक?”

    “सर, सुभाष होमवर्क नहीं लाया है।” बाज़ू में बैठे हुए लड़के ने अदब से कहा।

    “ओह... तो बिना होमवर्क किए भी ये ठाठ हैं तुम्हारे।” इक़बाल साहब का पारा और भी चढ़ गया और वो दाँत पीसते हुए दहाड़े, “बेंच पर खड़े हो जाओ।”

    सुभाष बेंच पर खड़ा हो गया। वो क्लास का एक होनहार तालिब इल्म था। ये बे इज़्ज़ती उस से बर्दाश्त नहीं हुई और उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। इक़बाल साहब ने एक बार फिर उसकी तरफ़ ग़ुस्सैली नज़रों से देखा और फिर ब्लैक बोर्ड पर सवाल लिखना शुरू किया ही था कि चपरासी क्लास के दरवाज़े के क़रीब पहुंचा और आहिस्ते से कुछ कहा और वह फ़ौरन क्लास से बाहर निकले। जूंही आफ़िस के दरवाज़े के क़रीब पहुंचे तो उनके सामने विधायक जी मौजूद थे। उन्होंने सलाम के लिए जूंही अपना हाथ उठाया, विधायक जी ने आगे बढ़कर उनके हाथ को अपने हाथों में थाम लिया, “ये आप क्या कर रहे हैं। आप गुरूजी हैं। आपका आदर करना हमारा कर्तव्य है।”

    उन्होंने बड़ी मुहब्बत के साथ उन्हें उनकी कुर्सी पर बिठाया और इससे पहले के इक़बाल साहब कोई सवाल करते उन्होंने कहना शुरू किया, “बात ये है गुरूजी कि कल से सुभाष की तबियत बहुत ख़राब है, अब भी उसे बुख़ार है। उसकी मम्मी ने उसे रोकना चाहा था किन्तु वो रुका नहीं, आपके विद्यार्थी आपके दीवाने हैं, आपके बिना एक दिन भी नहीं रह सकते।”

    इक़बाल साहब के चेहरे पर मुस्कुराहट थी लेकिन वो अपने आप में एक अजीब सी पशेमानी महसूस कर रहे थे। उन्हें रह-रह कर अपने आज के रवय्ये पर नदामत सी हो रही थी, सुभाष का आँसू भरा चेहरा बार बार उनकी आँखों में घूम रहा था, “सर अगर आप उसे अपने साथ ले जाना चाहें तो मैं उसे...”

    “नहीं नहीं...” विधायक जी ने इक़बाल सर को जुमला भी पूरा करने नहीं दिया, “मुझे तो पार्टी की मीटिंग में जाना था किन्तु उसकी मम्मी ने मुझे यहाँ भेजा है, ये कहने के लिए कि बुख़ार के कारन, वो अपना होमवर्क भी नहीं कर सका, कहीं ऐसा हो कि उसे लापरवाह जान कर उसके इंटरनल मार्क्स कट जाएं।”

    “सर अपने बेटे के तालीमी करियर में आपकी बेदारी क़ाबिल-ए-तारीफ़ है।” बेसाख़्ता इक़बाल सर की ज़बान से निकला, “काश ये बेदारी हर माँ-बाप में पैदा हो जाए तो हमारे मुल्क में एक इन्क़िलाब आजाएगा।”

    “हम क्या इन्क़िलाब लाएंगे गुरूजी, वो तो आप जैसे निष्ठावान गुरु ही लासकते हैं। इस देश की राजनीति देश को कहाँ ले जा रही है? इस पर किसी का ध्यान ही नहीं है। जातीवाद, झूट, भ्रष्टाचार, आस्था के नाम पर नयायालय मुँह चिढ़ा रहे हैं, शिक्षा के नाम पर कमाई की दुकानें खुली हुई हैं, दंगे, पक्षपात, इस देश की सभ्यता और संस्कृति को दीमक की तरह चाट रहे हैं।” विधायक जी की गर्दन झुक गई, “मुझे शर्म आती है, किन्तु क्या कहूं... गुरूजी, मैं भी इसी राजनीति का एक मोहरा हूँ, कभी सीधी राह पर चलने का ध्यान भी आया तो पार्टी का एजंडा ज़बान बंद कर देता है।” उन्होंने इक़बाल साहब की जानिब देखा, “आप सोच रहे होंगे कि मैं आज ये कैसी बातें कर रहा हूँ, तो गुरूजी इस विद्यामंदिर का पवित्र वातावरण बुरे से बुरे इंसान को भी सच बोलने पर मजबूर करता है। आप और आपका ये स्कूल दोनों जाती में इंसान पैदा करने का कर्तव्य निभा रहे हैं। मैं फिर कहता हूँ, देश में यह परिवर्तन लाने की इच्छा और साहस अब किसी लीडर में नहीं है, कोई ला सकता है तो केवल वो आप जैसे गुरु ही ला सकते हैं।” वो अपनी जगह से उठे, “हम लोग तो माया मोह और सत्ता के भिकारी बन गए हैं।” एक नज़र उन्होंने दीवारों पर आवेज़ां पेश-रौ लीडरों की तस्वीरों की जानिब देखा, उनकी अजीब कैफ़ियत थी, और फिर वो तेज़ी से बाहर निकल गए।

    उस दिन के बाद से इक़बाल साहब एक अजीब से तज़ब्ज़ुब में मुब्तला हो गए थे। अपने स्कूल को वो जब भी देखते उनके दिल में बार-बार ये ख़्याल आता कि ये सिर्फ़ निसाबी उलूम के तकमील की जगह नहीं है, ये एक ऐसा मक़ाम है जहाँ से सिर्फ़ क्लर्कों, और फ़ैक्ट्रीयों में काम करने वाले वर्करों को पैदा करना नहीं है बल्कि इंसानों को पैदा करना है। जिनमें एहसास-ए-ज़िम्मादारी, ईमानदारी, रवादारी, फ़राख़ दिली के साथ ही साथ हर क़िस्म के ज़ेहनी तास्सुब से पाक-ओ-साफ़ मुहिब्ब-ए-वतन पैदा करना है, लेकिन अख़बार और टेलीविज़न की ख़बरें देखकर वह उदास भी होजाते, और उनकी आँखों के सामने मुसलमानों की ज़बूँ हाली की तस्वीरें गर्दिश करने लगती, दिन-ब-दिन ज़वाल की जानिब झुकती हुई क़ौम, उजाड़ होती हुई डेवढ़ियाँ और झोंपड़ पट्टीयों की बढ़ती हुई तादाद, बेरोज़गार नौजवान, मआशी बदहालियाँ और ग़लत रास्तों की तरफ़ बढ़ते हुए रुजहान... और फिर वही एक सवाल उनके ज़ेहन पर कचोके लगाता, इस मुल्क में मुसलमानों का मुस्तक़बिल क्या होगा?

    इक़बाल साहब बहुत ज़्यादा मज़हबी इंसान नहीं थे लेकिन फिर भी उनकी सुबह का आग़ाज़ फ़ज्र की नमाज़ से होता और वो घर से उस वक़्त तक बाहर नहीं निकलते थे जब तक कलाम पाक की तिलावत नहीं करलेते। दाढ़ी उन्होंने कभी नहीं रखी, मिज़ाज में बड़ी नफ़ासत थी, सूट उनका पसंदीदा लिबास था लेकिन टाई का इस्तेमाल नहीं करते थे। मग़रिब और इशा की नमाज़ बाक़ायदगी से अपने मुहल्ले की मस्जिद में अदा करते थे।

    ऐसे ही एक रात वो नमाज़ इशा की अदायगी के बाद मस्जिद से बाहर निकलना ही चाहते थे कि कुछ लोगों ने उन्हें घेर लिया, “साहब, दीवान देवढ़ी के अपने स्कूल, मिल्लत-ए-इस्लामिया हाईस्कूल में अंग्रेज़ी के एक उस्ताद की जगह निकली है।” ख़ादिम उद्दीन ने उम्मीद भरी नज़रों से इक़बाल साहब की जानिब देखा, “सबका कहना है कि सोसाइटी के सदर मौलाना उमर फ़ारूक़ी से आपका बड़ा याराना है। आप अगर उसकी सिफ़ारिश कर दें तो...”

    “भाई साहब...!”

    “देखिए जनाब इनकार कीजीए।” ख़ादिम उद्दीन गिड़गिड़ाने लगे, “वो आपका ही शागिर्द है। हर इम्तिहान उसने अच्छे नंबरों से कामयाब किया है।”

    “लेकिन इससे पहले कहीं...”

    “अरे साहब कहाँ नहीं उसने दरख़ास्त दी है। वो इंटरव्यू भी कामयाब कर लेता लेकिन नौकरी को ख़रीदने की रक़म हमारे पास नहीं है।” ख़ादिम उद्दीन की सूरत पर मिस्कीनी टपक रही थी, “बस आप ज़रा...”

    इक़बाल साहब ने निहायत मुहब्बत से अपने दोनों हाथ उनके कंधों पर रखा, “भाई उमर फ़ारूक़ी का ज़ाहिर कुछ है और बातिन कुछ है, दौलत उनकी कमज़ोरी है, आपको कैसे समझाऊँ, रुपये ने सब रिश्ते भुला दिए हैं और मैं ठहरा दोस्त, दौलत के मुक़ाबिल एक दोस्त की सिफ़ारिश क्या असर दिखाएगी?” उन्होंने उनसे आँखें चुराईं और ख़ामोशी से आगे बढ़ गए। वहाँ मौजूद सारे लोग एक दूसरे का मुँह देखने लगे और ख़ादिम उद्दीन ने तक़रीबन चिल्लाते हुए कहा, “हेडमास्टर साहब... आप तो सरकार के आदमी हैं, इस भ्रष्टाचार के बारे में हुकूमत को क्यों नहीं लिखते कि वो सारे ख़ानगी स्कूलों को अपनी तहवील में ले-ले, ग़रीबों को कम अज़ कम नौकरी तो मिलेगी?”

    लेकिन इक़बाल साहब ने एक बार भी पलट कर उनकी तरफ़ नहीं देखा, वो कैसे हुकूमत को ये बात लिख पाते? और किस हैसियत से लिखते? जबकि सारे ख़ानगी स्कूल और कॉलेजेस या तो मंत्रियों के हैं, या फिर मंत्रियों के क़रीब के लोगों के हैं।

    उनके पीछे अब भी एक शोर था।

    सरकारी मुलाज़मतें तो निकलती नहीं और जो निकलती हैं उन पर रिश्तेदारों का क़ब्ज़ा होजाता है।

    मुसलमानों के लिए सरकार क्या कर रही है?

    अरे सरकार की बात छोड़ो, ख़ुद अपने लोग भी लालची हो गए हैं।

    बिना पाँच दस लाख लिये तक़र्रुर ही नहीं करते।

    तो आख़िर हम ग़रीब मुसलमान कहाँ जाएं?

    हमारे बच्चों का मुस्तक़बिल क्या होगा?

    घर पहुँचने के बाद भी इक़बाल सर के कानों में वही आवाज़ें गूंज रही थीं। एक अजीब तरह का बोझ उन के दिल-ओ-दिमाग़ पर सवार था, सदीयों से इस मुल्क की ख़िदमत करते आए हैं हम लोग, इसकी आज़ादी और हिफ़ाज़त के लिए हमने ख़ून बहाया है, और आज... आज हमारा कोई पुरसान-ए-हाल नहीं? रात तमाम वो बेचैन रहे। जूं तूं रात कटी और वो फ़ज्र की नमाज़ के लिए उठे तो तब भी उनके कानों में वही आवाज़ें थीं, इस मुल्क में ग़ैर तो ग़ैर अपनों ने भी रोज़ी के सारे ही रास्ते मस्दूद करदिए हैं? मुसलमानों की बेबसी और उनकी मजबूर ज़िंदगियां उनकी आँखों में गर्दिश कर रही थी। उन पर एक अजीब सी कैफ़ियत तारी थी। इस मुल्क में मुसलमानों का मुस्तक़बिल क्या होगा? बार-बार यही एक सवाल उनके दिमाग़ पर हथौड़े बरसा रहा था। फ़ज्र की नमाज़ का वक़्त हो रहा था उन्होंने वुज़ू किया, नमाज़ पढ़ी और तिलावत शुरू की कुछ ही देर में उनके बदन में कपकपी सी होने लगी और कागज़ पर फैली हुई सूरत राद की आयतें उनके कानों में गूँजने लगीं,

    “जो लोग अल्लाह से पुख़्ता अह्द करके उसे तोड़ डालते हैं और जिन रिश्तों को जोड़े रखने का अल्लाह ने हुक्म दिया है क़ता कर देते हैं और मुल्क में फ़साद करते हैं ऐसों पर लानत है और उनके लिए बुरा अंजाम है।”

    इक़बाल साहब की आँखों से बेइख़्तियार आँसू बहने लगे। ख़ौफ़ से उनकी आँखें बंद हो गईं तो सारा आलम-ए-इस्लाम उनकी आँखों में था। वो सज्दे में गिर गए। बेशक माबूद हम ही ख़ताकार हैं, हम ही ने अपने वादों से मुकर कर इस अज़ाब को अपने आप पर मुसल्लत कर लिया है। ख़ताओं को माफ़ करने वाले, मेहरबान रब तू ही हमको बचा सकता है, तु ही हमारी रहनुमाई कर सकता है। इस अज़ाब से निकलने का रास्ता दिखा दे, रास्ता दिखाने वाले।

    वो अभी सज्दे में गिड़गिड़ा ही रहे थे कि फ़रहान ने उन्हें इत्तिला दी कि पंडित हरी प्रशाद जी दीवानख़ाने में बैठे आपका इंतज़ार कर रहे हैं।

    इक़बाल साहब ने सज्दे से सर उठाया और बिना बेटे की तरफ़ देखे आहिस्ते से कहा, “उनसे कहिए अभी हाज़िर होता हूँ।”

    पंडित जी बेचैनी के आलम में कमरे में टहल रहे थे।

    “नमस्ते पंडित जी।”

    पंडित जी ने हाथ जोड़ कर जवाब दिया।

    “तशरीफ़ रखिए... आज कैसे रास्ता भटक गए आप?” इक़बाल साहब के चेहरे पर मुस्कुराहट थी।

    “बात ये है मास्टरजी, इस शेत्र में गनित में आपसे बड़ा दूसरा कोई महारथी नहीं है।”

    “ये आपकी मुहब्बत है जो ऐसा समझते हैं।”

    “नहीं मास्टर जी, ये मुहब्बत नहीं सबका विश्वास है।” पंडित जी ने फ़ख़्रिया नज़रों से उनकी तरफ़ देखा, “हमारे स्कूल में इसी गनित, आप क्या कहते हैं उसे... हाँ रियाज़ी... रियाज़ी के टीचर के लिए इंटरव्यू है। मेरी आपसे बिनती है कि आप हमारे लिए किसी अच्छे रियाज़ी के उस्ताद का चयन कर दें।”

    “कब है ये इंटरव्यू?”

    “आते सोमवार को।”

    “जी हाज़िर हो जाऊँगा।”

    “धन्यावाद... चलता हूँ, नमस्ते...”

    “पंडित जी चाय तो पीते जाइए?”

    पंडित जी ने हाथ जोड़े, “मास्टर जी छमा चाहता हूँ, ब्रहमन हूँ, मेरा धर्म इसकी इजाज़त नहीं देता।”

    और फिर वो तेज़ी के साथ दरवाज़े से बाहर निकल गए और इक़बाल साहब उन्हें देखते रह गए। उनके ज़ेहन में उनका बचपन गर्दिश करने लगा, वो और कृष्णा स्वामी साथ साथ खेलते थे, साथ साथ स्कूल जाते थे कृष्णा की माता जी पूजा के लिए हमारे घर से फूल ले जाती थीं, उन्होंने जाने कितनी बार हम दोनों को एक ही प्लेट में खाना खिलाया था। दोनों किस आज़ादी के साथ एक दूसरे के घर आते-जाते थे। आज भी जब वो अपनी बीवी और बच्चों के साथ यहाँ आता है तो एक दिन ज़रूर मेरे घर में गुज़ारता है, लेकिन... उन्होंने ठंडी आह भरी... अब तो ये सारी बातें गोया ख़्वाब हो गईं हैं।

    इक़बाल साहब अजब तनाव भरी ज़िंदगी जी रहे थे लेकिन पूरी कोशिश करते कि उनके मिज़ाज में तंगनज़री पैदा हो वो एक उस्ताद थे और हमेशा इस बात का ख़्याल रखते थे कि उस्ताद को फ़राख़ दिल होना चाहिए। यह उसी का मन्सब है कि वो निसाबी उलूम के साथ ही साथ अपने शागिर्दों में आला सिफ़ात भी पैदा करता है। लेकिन आए दिन की ख़बरें उनके सामने कई सवालात भी खड़ा कर देतीं, कभी सिंगापुर के मुसलमानों की बिप्ता, कभी गल्फ़ के हालात, कभी दादरी का सानिहा, कभी तंगनज़र सियासतदानों के बयानात और कभी उनके अपने बच्चों का मुस्तक़बिल उन्हें बेचैन कर देता।

    वो वादे के मुताबिक़ रियाज़ी के एक्सपर्ट की हैसियत से स्वास्तिक हाई स्कूल पहुंचे। उनके सामने तक़रीबन पचास उम्मीदवार थे। इंटरव्यू शुरू हुआ, उन्होंने मुख़्तलिफ़ सतहों पर उम्मीदवारों को परखा, हर राउंड में कच्छाकुछ उम्मीदवार छूटते चले गए। जब उन्होंने आख़िरी राउंड मुकम्मल किया तो उनकी लिस्ट में सिर्फ़ तीन उम्मीदवार थे। स्कूल के सेक्रेटरी पंडित हरी प्रशाद जी के हाथों में लिस्ट थमाते हुए उन्होंने कहा, “पंडित जी इन तीन नामों में हालाँकि सबसे उम्दा उम्मीदवार शेख़ हनीफ़ है लेकिन मैंने उस का नाम तीसरे नंबर पर लिखा है, सीधी सी बात है आपके इदारे में उसे नौकरी तो मिलने वाली नहीं, आप ऊपर के दो नामों में से किसी को भी मुंतख़ब कर लें।”

    पंडित जी निहायत ग़ौर के साथ उनकी बातें सुन रहे थे, उनके चेहरे पर मुस्कुराहट बिखरी हुई थी, “मास्टर जी, आपने ये कैसे सोच लिया कि हम शेख़ हनीफ़ को नौकरी नहीं देंगे, लीजिए मैंने उसके नाम पर दस्तख़त कर दिए हैं, अब एक्सपर्ट की हैसियत से आप भी कर दें।”

    इक़बाल साहब हैरत भरी नज़रों से उनकी तरफ़ देखने लगे, “लेकिन ये इदारा तो आर.एस.एस तंज़ीम का है ना?”

    “जी... सौ फ़ीसद दुरुस्त।”

    “तो फिर...” इक़बाल साहब अब भी मुजस्सम हैरत बने हुए थे।

    “यही अंतर है आपकी और हमारी सोच में मास्टरजी।” पंडित जी निहायत ठहरे हुए लहजे में कह रहे थे, “आप बहुत नज़दीक देखते हैं और हम बहुत दूर तक देखते हैं, हमने भी महसूस किया, शेख़ हनीफ़ आपकी तरह बहुत अच्छा उस्ताद साबित होगा, वो कम से कम हमारे स्कूल में पच्चीस बरस तक काम करेगा, इन पच्चीस बरसों में हमारी पच्चीस पीढ़ियों को उत्तम गनित सिखाएगा, उसकी वजह से हमारे बच्चों में जाने कितने इंजीनियर और डाक्टर बनेंगे, इसलिए एक मुसलमान को नौकरी देना हमारे लिए बहुत छोटी सी बात होगी। दूसरे वो जब तक भी यहाँ काम करेगा, अच्छा ही काम करेगा। हम ऐसा समझते हैं।”

    इक़बाल साहब के चेहरे पर मुस्कुराहट दौड़ गई, जिस रास्ते के लिए वो कभी अल्लाह से गिड़गिड़ा कर दुआएं मांग रहे थे, वो रास्ता उन्हें अल्लाह ने दिखा दिया था। उन्होंने दिल ही दिल में उसका शुक्र अदा किया।

    इशा की नमाज़ के बाद उन्होंने सबको एक मिनट के लिए रोक लिया और मेम्बर पर बैठते हुए कहना शुरू किया, “भाइयो, मैं बहुत दिनों से परेशान था कि इस मुल्क में ऐसे तास्सुब भरे माहौल में हमारा मुस्तक़बिल क्या होगा? हमारे बच्चों की रोज़ी रोटी का क्या बनेगा? आज मुझे उसकी कलीद मिल गई है, और वो ये है कि हमें मेहनत मज़दूरी से ले कर हुनरमंदी की आख़िरी हद तक यानी हर मैदान में नंबर वन बनना होगा, हम उनकी ज़रूरत बनें, अपनी मोहताजी के असीर नहीं, हमें अपने बच्चों के तालीमी करियर पर भी पूरी तवज्जो देना होगी कि वो ग़लत रास्तों से कामयाबी हासिल करें, बल्कि उनके नताइज मेरिट में आएं। अगर हम ऐसा करने में कामयाब हो जाएं तो यक़ीन करें हमसे हमारे शानदार मुस्तक़बिल को कोई नहीं छीन सकता।”

    वो मेम्बर से उतर गए और उन्होंने देखा सबके चेहरों पर एक अजीब तरह का इत्मीनान क़ौस-ए-क़ुज़ह की तरह रंग बिखेर रहा था।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए