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बिगड़ी घड़ी

इन्तिज़ार हुसैन

बिगड़ी घड़ी

इन्तिज़ार हुसैन

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    स्टोरीलाइन

    "मास्टर नियाज़ की दूकान के पास अब्बू नुजूमी की दूकान है। मास्टर नियाज़ के पास लोग घड़ी ठीक कराने और अब्बू नजूमी के पास अपनी क़िस्मत का हाल पूछने आते हैं। मास्टर नियाज़ खुले विचारों का आदमी है, कहता है कि, अब सितारे इंसान की क़िस्मत के मालिक नहीं रहे, इंसान सितारों की क़िस्मत का मालिक होगा। लेकिन अब्बू नुजूमी इंकार करता है, आख़िर में जब मास्टर नियाज़ अपनी घड़ी ठीक करने में नाकाम हो जाता है तो सोचता है कि सचमुच इंसान मजबूर है। ख़ुद अब्बू नुजूमी का भी यही दुख है कि वो दूसरों की क़िस्मत संवारने की उपाय बताता है लेकिन ख़ुद अपनी हालत बेहतर करने से असमर्थ है।"

    सामने वाली दुकान से रहीम जो इस बहस पर मुस्तक़िल कान लगाए हुए था मोती चूर के लड्डू गूँधते-गूँधते ऊँची आवाज़ में बोला, अबू नुजूमी तेरा इल्म क्या कहवे है।

    गुम मथान सींक सलाई अबू नुजूमी ने कि देर से उकडूँ बैठा स्लेट पर ख़ाने बनाए और मिटाए जा रहा था हाथ को रोका, आँखें बंद कर लीं, फिर आँखें खोलीं, और उसी तरह घुटनों में सर दिए स्लेट पर नज़रें जमाए बोला, उतारिद-ओ-मुश्तरी-ओ-क़मरओ-ज़ुहरा सा'द जिनको शुभ ग्रह कहते हैं और आफ़ताब-ओ-मिर्रीख़ ज़ंब जिनको पाप ग्रह कहते हैं, और इस ज़ुहल कि बा'ज़ हालत में सा'द यानी नेक और बा'ज़ हालत में नहस यानी मकरूह होते हैं और जब ख़ाना मीज़ान में आफ़ताब और ख़ाना जदी में मुश्तरी, और ख़ाना संबला में ज़ुहरा और ख़ाना हमल में ज़ुहल और ख़ाना क़ौस में रास हो तो मनहूस है। पाकिस्तान का सितारा मिर्रीख़ है कि बुलंद इक़बाल है, पर शुभ ग्रह नहीं, जानना चाहिए कि इस साअत वो ख़ाना सरतान में है, पस अगर ख़ाना सरतान से साअत ख़त्म होने से पहले निकल आया तो भला है, और अगर दूसरी साअत लग गई तो अंदोह-नाकी बे गुमाँ है, जान का ज़ियाँ है।

    अबू नुजूमी चुप हो गया, आँखें बंद कर लीं, हाजी तुराब अली गुम सुम हो गए थे और मास्टर नियाज़ सियाह रंग मैग्नीफ़ायर आँख से चिपकाए ढक्कन खुली घड़ी के बंद पुर्ज़ों को यकसूई से देखे जा रहे थे। मैंने मेज़ पर पड़ी हुई किताब खोल ली थी और बिला वजह एक सफ़ा पर नज़रें जमा ली थीं। सामने की दीवार घड़ी जो तीन दिन से शाम को दोपहर का और दोपहर को सुबह का वक़्त बता रही थी, यकायक हरकत में आई और टन-टन नौ बजा डाले। रहीम ऊँची आवाज़ में बोला, हाजी साहब, अबू नुजूमी का तो अपना इल्म है, मैं तो कोई इल्म वाला नहीं पर मैंने जूती उछाल के बता दिया था कि हिंदुस्तान-पाकिस्तान लड़ाई होगी। और ये तो अभी की बात है, पूछ लो अबू नुजूमी से, इसके सामने मैंने जूती उछाली थी, जूती चित गिरी, मैंने साफ़ कह दिया कि लो भैया लीग चित हो गई।

    हाजी तुराब अली ठंडा साँस भरते हुए अफ़्सुर्दगी के लहजे में बोले, मियाँ कोई चित नहीं हुआ, चित तो पाकिस्तान हुआ है। चुप हुए, कुछ सोचने लगे, फिर बोले, मौलवी अकबर अली अल्लाह उन्हें करवट-करवट जन्नत नसीब करे, नुजूमी-वुजूमी तो थे नहीं, आमिल थे, हाँ इबादत गुज़ार बहुत थे, उनकी कही हुई एक-एक बात पूरी हो रही है, मैंने एक मर्तबा सवाल किया कि मौलवी साहब मुझे हज भी नसीब होगा। फ़रमाया कि जो क़दम जहाँ से उठेंगे वहाँ वापस नहीं आएंगे। चुनाँचे ऐसा ही हुआ हज से हमारे वापस होते-होते सारा क़बीला याँ पहुँच चुका था, पाकिस्तान के बारे में मैंने उनसे सवाल किया तो चुप से हो गए, फिर फ़रमाने लगे कि जो चीज़ बहुत है, थोड़ी रह जाएगी। जो चीज़ थोड़ी है बहुत हो जाएगी, उस वक़्त तो नहीं मगर अब ये बात समझ में रही है, गेहूँ यहाँ कितना होता था। मगर अब... अब देख लो, और रही थोड़ी के बहुत होने की बात तो भाई एक बेपर्दगी को ही ले लो। हमारे ज़माने में बस ख़ान साहब वाले थे जिनकी लड़की ने पर्दा छोड़ दिया था, अब जिसे देखो बे पर्दा।

    मास्टर नियाज़ ने ख़ामोशी से पीछे वाली शीशे की अलमारी खोल दूसरी घड़ी निकाली। ढक्कन खोला कि उसके खुलते ही नन्हे नाज़ुक पुर्ज़ों का तेज़ बारीक शोर होने लगा, फिर उसे बंद किया, चाबी घुमाई, कान से लगाया, फिर उसे हाजी तुराब अली को दिखाते हुए कहने लगे, हाजी साहब मैं तो ये जानता हूँ कि ये घड़ी है, मेरे पास दुरुस्ती के लिए आई है, अगर मैं ये काम जानता हूँ और ईमानदार हूँ तो घड़ी दुरुस्त कर दूंगा, अगर नहीं... तो फिर मेरे हाथ में आकर ये घड़ी और बिगड़ जाएगी, ये है मोटी बात। रहा आपका नुजूम, आपके आलिमों की बातें तो मैं मानता नहीं।

    रहीम चिल्ला कर बोला, अबू नुजूमी सुनता है, मास्टर साहब तेरे इल्म को नहीं मानते। अबू नुजूमी ने इक वक़ार से घुटनों से सर उठाया और वीरान आँखों से मास्टर नियाज़ को घूरते हुए बोला, माशटर हम अंधे ख़ुदा हैं, बस हमने कह दिया। मास्टर नियाज़ ने जवाब में फिर मैग्नीफ़ायर आँख से चिपका लिया और घड़ी का ढक्कन खोल पुर्ज़े देखने लगे। अबू नुजूमी मास्टर नियाज़ को बदस्तूर घूरे जा रहा था, मास्टर ये अंधा इल्म है, हम अंधे ख़ुदा हैं, अब सोचो चांद याँ से कितनी दूर है। मास्टर नियाज़ ने घड़ी के पुर्ज़ों को उसी तरह देखते-देखते बात काटी, अब ज़्यादा दूर नहीं रहा।

    अबू नुजूमी ने मास्टर नियाज़ की बात सुनी अनसुनी की और फिर कहना शुरू किया, चाँद याँ से कोसों दूर है, मगर हम याँ बैठे-बैठे बता सकते हैं कि चाँद गरहन कब पड़ेगा, तो जब चाँद गरहन का वक़्त बताया जा सकता है तो आदमी कि ज़मीन पे चलता फिरता है और ख़ाक का पुतला है और भूल चूक से बना है, उसकी बातों का क्या पता नहीं चलाया जा सकता। और जानते हो माशटर हमारे पास हज़रत आदम की जन्म पत्री बनी रखी है, तो जब हज़रत आदम की जन्म पत्री बन सकती है तो फिर कौन सा आदम है कि उसकी जन्म पत्री तैयार नहीं हो सकती। हाजी तुराब अली ने डाढ़ी पे हाथ फेरा, फुरेरी ली, अल्लाहु अकबरऔर चुप हो गए।

    मास्टर नियाज़ ने आँख से मैग्नीफ़ायर हटाया और घड़ी को मेज़ की दराज़ में एहतियात से रखते हुए बोले, अबू नुजूमी तुम्हारा इल्म अहद-ए-क़दीम की यादगार है, साइंस बहुत आगे बढ़ गई है, अब सितारे इंसान की क़िस्मत के मुख़्तार नहीं रहे, इंसान सितारों की क़िस्मत का मुख़्तार होगा।

    सींक सलाई अबू नुजूमी की घूरती हुई वीरान आँखों में जो ग़ुस्से की कैफ़ियत पैदा हुई थी, ग़ायब हो गई और किसी गहरी सोच की सी कैफ़ियत पैदा हो गई कि उसने उन वीरान आँखों को और वीरान बना दिया, उसने बड़ी संजीदगी से इनकार में सर हिलाया, और किसी क़दर अफ़्सुर्दा लहजे में बोला, माशटर, सितारों की अपनी चाल होती है, उसमें आदमी कुछ नहीं कर सकता... आदमी बहुत मजबूर है, कुछ नहीं कर सकता वो। अबू नुजूमी ने आँखें बंद कर लीं और फिर घुटनों में सर दे सारी गुफ़्तगू से बे तअल्लुक़ और बे नियाज़ हो गया।

    हाजी तुराब अली अपनी खिचड़ी दाढ़ी पे हाथ फेरते-फेरते ख़्यालात में खो से गए, फिर झुरझुरी के साथ अल्लाह अकबर कहा, ताम्मुल किया, फिर मास्टर नियाज़ से मुख़ातिब हुए, नियाज़ साहब, आपकी साइंस ने आप कहते हैं कि बहुत तरक़्क़ी करली है, मगर क्या किसी साइंस-दाँ ने आज तक चाँद को दो टुकड़े करके दिखाया है? मास्टर नियाज़ ने हाजी तुराब अली को देखा और जवाब में सामने रखी हुई टाइम पीस को उठाया और चाबी घुमानी शुरू कर दी। हाजी तुराब अली ने झुरझुरी ली। अल्लाहु अकबर क्या शान है, क़मर की तरफ़ उंगली उठाई शिक़ हो गया, सूरज की तरफ़ इशारा किया, ठिटक गया, कंकरियों को उठाया, कलमा पढ़ने लगीं और वहूश-ओ-तुयूर... हाजी तुराब अली की आँखों में एक ख़्वाब सा तैरने लगा। चेहरे के ख़ुतूत में नर्मी गई और लहजा धीमा हो गया।

    साहब, क्या मंज़र होता है रोज़ा-ए-पाक पर, टुकड़ियों पे टुकड़ियाँ चलती हैं जैसे बादल घिर के आए हों, मदीना पाक की छतों पे छाँव फैल जाती है और गलियों में पुरवा चलने लगती है, दिन भर गुंबद पाक पर बैठे रहते हैं, क्या मजाल कि एक बीट भी कहीं नज़र आजाए... अल्लाह-अल्लाह परिंदे तो एहतिराम करें और हम इंसान कलमा गो कहें कि मआज़ल्लाह... हाजी तुराब अली की ज़बान रुक गई, जिस्म में एक थरथरी दौड़ी और आँखों से आँसू जारी हो गए।

    मास्टर नियाज़ ने आहिस्ते से टाइम पीस का ढ़क्कन खोला और पहले आँखों के क़रीब लाकर देखा, फिर कान के बराबर कर लिया, कैसा ही संजीदा मसला हो, मास्टर नियाज़ अपने काम के तसलसुल में फ़र्क़ नहीं पड़ने देते, उनकी दुकान में चारों तरफ़ घड़ियाँ दिखाई देती हैं, फिर भी यहाँ बैठ कर वक़्त से आगाह रहना सख़्त मुश्किल है कि छोटी बड़ी घड़ियों में हर घड़ी एक से बारह तक सब बजते नज़र आते हैं, मास्टर नियाज़ की दुकान में हर वक़्त औक़ात का बलवा रहता है।

    बराबर में सड़क के किनारे अबू नुजूमी अपनी मैली दरी बिछाए, टूटी सी एक संदूक़ची सामने धरे, संदूक़ची के आस-पास गत्ते के टुकड़े सजाए कि किसी पे पंजा बना है, किसी पे नक़्श-ए-रूहानी, किसी पे हिदायात-ओ-अमलियात, सर न्योढ़ाए, पीले काग़ज़ों वाली किसी पुरानी धुरानी किताब पे नज़रें जमाए बैठा रहता है, आसमान के सितारों को घड़ी की सुईयाँ समझता है और स्लेट पे चाक से नक़्श बना कर बताता है कि किसी शख़्स की क़िस्मत की घड़ी क्या बजाएगी।

    दूसरे दिन मैं घर से सवेरे निकला, हाजी तुराब अली अभी तशरीफ़ नहीं लाए थे, मास्टर नियाज़ दुकान अकेली छोड़ कर जाने कहाँ चले गए थे, मास्टर नियाज़ दुकान से हिलें तो सारा दिन हिलें, उठते हैं तो घंटों ख़ाली पड़ी रहती है। मैंने कुर्सी दरवाज़े के क़रीब घसीटी और बैठ गया, अबू नुजूमी अपने एक देहाती गाहक से लगा हुआ था, दुकानदार और गाहक दोनों गुम थे, एक मुराक़बे में दूसरा उम्मीद-ओ-बीम के धुंदलके में, फिर अबू नुजूमी ने अचानक बोलना शुरू कर दिया, अत्तारद मुश्तरी ज़ुहरा सा'द कैफ़ियत अतारुद की ये है कि जब बाहम सा'द के एक ख़ाने में हो, तब समरा नेक और जब बाहम सितारा नहस के हो तब समरा बद ज़ुहूर में आता है। तेरा सितारा मुश्तरी है कि शुभ गृह है, पर इन दिनों वो ख़ाना जदी में है कि नतीजा इसका अंदोह-नाक होगा।

    देहाती बहुत घबराया, तब अबू नुजूमी ने बड़ी बे नियाज़ी से हिदायत की, जा बाबा, इस वक़्त कुछ नहीं हो सकता, जुमा की सुबह को सोलह गज़ लट्ठा और आध पाव लोबान और डेढ़ छटाँक ज़ाफ़रान ले के आइयो, नक़्श-ए-रूहानी लिखेंगे और तेरा सितारा कि शुभ है पर इस वक़्त ख़ाना जदी में है, ख़ाना जदी से निकल आएगा। जब देहाती चला गया तो मैंने यूँही पूछ लिया, अबू नुजूमी तुम हर गाहक से जो सोलह गज़ लट्ठा लेते हो उसका क्या करते हो? अबू नुजूमी ने बड़े वक़ार से घुटनों से सर उठाया, मुझे घूरते हुए बोला, बाबू तेरी समझ में ये बात नहीं आएगी। और फिर स्लेट पर नक़्श बनाने में मसरूफ़ हो गया।

    अबू नुजूमी जो नक़्श बनाता है मेरी समझ में वो कभी आए, मेरी समझ में तो ये बात नहीं आती कि आख़िर स्लेट पर बार-बार क्यों नक़्श बनाए जाएँ और मिटाए जाएं। अबू नुजूमी जब कई नक़्श चाक से बना और बिगाड़ चुका तो उसने ग़ौर से मेरी तरफ़ देखा बोला, बाबू! ये दुनिया ढोल है, ख़ाली ढोल, हर शख़्स बिसात के मुताबिक़ इस ढोल को पीटता है। में उसे भी स्लेट पर बना हुआ एक नक़्श समझा और चुप हो रहा।

    नियाज़ साहब की मेज़ पर एक किताब पड़ी थी, ठाली से बेगार भली, मैंने ये किताब उठाई और उलट-पलट कर देखने लगा, लेकिन उसकी ख़ुश्क इबारत ने जल्द ही बेज़ार कर दिया और आँखों में तिर मिरे गए, मैंने किताब बंद की और एक लंबी सी जमाही ली। अबू नुजूमी के सामने एक औरत बैठी ज़ार-ओ-क़तार रो रही थी और अबू नुजूमी कह रहा था, औरत तेरा सितारा तीसरे आसमान पे है, उसका सितारा पाँचवें आसमान पे है, दोनों का मिलाप अभी नहीं होगा।

    बाबा जी कुछ करो। वो सिसकियाँ ले-ले के रोने लगी। अबू नुजूमी ने ख़ामोशी से काग़ज़ पे नक़्श बनाया, उंगली पे हन्दसे गिने, आँखें बंद कीं, फिर खोलीं और बड़बड़ाने लगा, दो सितारे कि मुक़ाबिल एक दूसरे के हैं, सरतान नरसौर मादा, नूर सूरत-ए-गाओ, सरतान सूरत केकड़ा, एक दूसरे के क़रीब आते हैं और हट जाते हैं कि बीच में एक तीसरा सितारा सूरत हूत मछली के मौजूद है, जो उनमें तफ़्रिक़ा डालता है, जानना चाहिए कि नक़्श-ए-रूहानी औरत गले में डाले तो ये तीसरा सितारा बीच में से हट जाए और दोनों सितारों का एक बुर्ज में मेल हो। फिर उसने औरत से ख़िताब किया, औरत! इस वक़्त तू चली जा, जुमा की सुबह को सोलह गज़ लट्ठा और आध पाव लोबान और डेढ़ छटाँक ज़ाफ़रान ले के आइयो। नक़्श-ए-रूहानी लिखेंगे और इंशा-अल्लाह तेरी मुराद बर आएगी।

    औरत चली गई, मैं फिर बोल पड़ा, ये बेचारी औरत तो बहुत रोती थी।

    याँ जो आता है रोता हुआ आता है। उसने घुटने पे ठोड़ी टिकाई और चाक हाथ में ले स्लेट पे नक़्श बनाना शुरू कर दिया, ठोड़ी को उसी तरह घुटने पर टिकाए, स्लेट पे नज़रें जमाए नक़्श बनाते-बनाते बोला, एक लौंडिया थी, वो तो बात ही नहीं करती थी, बस रोती थी। उसने नक़्श को अधूरा छोड़ दिया। हाथ को रोक कर मेरी तरफ़ देखा, मैं समझा कि आगे कोई बात करेगा, मगर उसने और ही सवाल कर डाला, बाबू, ये तुम्हारा माशटर सितारों की चाल को नहीं मानता?

    नहीं।

    और साइंस भी सितारों की चाल को नहीं मानती?

    मानती भी है और नहीं भी मानती।

    क्या मतबल।

    मतलब ये कि इस तरह नहीं मानती जिस तरह इल्म नुजूम मानता है, साइंस की कोशिश तो ये है कि आदमी ख़ुद सितारों में पहुँच जाए।

    अबू नुजूमी की आँखें फटी की फटी रह गईं। फिर उसके साकित जिस्म को जुंबिश हुई और वीरान आँखों से तहय्युर का रंग ग़ायब होकर अफ़्सुर्दगी की कैफ़ियत पैदा होने लगी। बाबू सितारों की अपनी चाल है, आदमी मजबूर है, वो इसमें कुछ नहीं कर सकता। उसने बाएँ घुटने पे मुट्ठी रखी, मुट्ठी पे ठोड़ी टिकाई, सीधे हाथ से स्लेट सरकाई और फिर नक़्श बनाना शुरू कर दिया।

    रोज़ वो जाती, और आकर चुपचाप बैठ जाती और बैठी रहती। उसने बग़ैर नोटिस दिए बोलना शुरू कर दिया था और मैंने भी दरमियान की सारी गुफ़्तगू को भूल कर सिरे से सिरा मिलाया, वो घुटने पे मुट्ठी रखे मुट्ठी पे ठोड़ी टिकाए नज़रें स्लेट पे जमाए बोल रहा था, पहले तो मैंने ध्यान नहीं दिया, पर उसकी भोली-भोली सूरत देख के मेरा जी डूबने लगा, पूछा कि बीबी क्या चाहती है तो वो रो पड़ी। बहुत रोई, पर कुछ बताया, क्या बताती, बिज़्ज़ात दग़ा दे गया। दूसरी से ब्याह रचा लिया, बस उस रोज़ से बैठना, बोलना चालना, बस रोते रहना, गोरे गाल सारे भीग जाते, जुगनू आँखें सुर्ख़ बूटी हो जातीं, फिर ख़ुद ही आँचल से भीगे गाल तर बतर आँखें पोंछती और बे कहे-सुने उठ कर चली जाती, जब वो चली जाती तो फिर मैं... वो बोलते-बोलते चुप हो गया।

    नक़्श-ए-रूहानी नहीं बनाया उसके लिए?

    नहीं।

    क्यों?

    वो चुप सा हो गया, फिर बोला, दुनिया ढ़ोल है, ख़ाली ढोल, हर शख़्स उसे अपनी बिसात के मुताबिक़ पीटता है, सितारों का इल्म है, सितारों की अपनी चाल है, इसमें हम कुछ नहीं कर सकते, किसी पे बिपता पड़ती है और दुख लेकर हमारे पास आता है, तो हम उसे तसल्ली दे देते हैं, कुछ देते हैं, कुछ लेते हैं... उससे हमने कुछ नहीं लिया... और कुछ दिया भी नहीं, बहुत ख़राबी होने लगी तो साफ़ कह दिया कि सरतान नर सौर मादा। तीसरा सितारा हूत मछली की सूरत दरमियान में गया। तफ़्रिक़ा डाल दिया, तेरा उसका मेल नहीं, क्यों ख़राब होती है, और क्यों ख़राब करती है, हमारे अमल में ख़लल आता है... उसकी आवाज़ आहिस्ता से आहिस्ता तर हो गई, वो चली गई, फिर नहीं आई।

    उसने चाक उठाया और जो नक़्श अधूरा छोड़ दिया था, उसे मिटाकर नए सरे से नक़्श बनाना शुरू कर दिया।

    हाजी साहब नहीं आए अभी? मास्टर नियाज़ अचानक साइकिल से उतर दुकान में दाख़िल हुए।

    नहीं। और साथ ही मैं उठ खड़ा हुआ, अंगड़ाई ली और चलने लगा।

    कहाँ चले?

    अभी आया। और मैं दुकान से बाहर निकल बे सोचे-समझे चल पड़ा। अभी थोड़ी देर हुई तो मैं घर से निकला ही था, फिर भी मुझे ऐसा लग रहा था कि थक गया हूँ, और मैं थका-थका अफ़्सुर्दा देर तक बाज़ार में बे-मक़सद बे-मतलब घूमता रहा हूँ क्योंकि हर घड़ी अलग वक़्त बता रही थी और मास्टर नियाज़ की कुर्सी के ऐन ऊपर टँगी गर्द-आलूद दीवार घड़ी आज भी पिछले तीन दिनों की तरह नौ बजा रही थी मगर बहस की गर्मी से ये ज़रूर अंदाज़ होता था कि ख़ासी देर से महफ़िल गर्म है।

    हाजी तुराब अली बहुत गर्मी में थे और कह रहे थे, तुम कहते हो कि आदमी चाँद में पहुँच जाएगा। चलो मान लिया, मिर्रीख़ में पहुँच जाएगा, ये भी मान लिया, यानी तुम्हारी साइंस की मेराज मिर्रीख़ है, अब अगर मैं ये कहूँ कि अब से सैंकड़ों बरस पहले जब तुम्हारी साइंस मस्ख़री पैदा भी नहीं हुई थी, इंसान चाँद और मिर्रीख़ से बहुत बुलंद यानी अर्श तक...

    अबू नुजूमी, आज दुकान सवेरे बढ़ा दी है। रहीम अबू नुजूमी को दुकान बढ़ाते देख कर हाजी तुराब अली की बात से तवज्जो हटा कर अबू नुजूमी की तरफ़ मुतवज्जे हो गया, अबू नुजूमी अपना फटा-टूटा सामान समेटने में मसरूफ़ रहा, और रहीम की बात का कोई जवाब दिया, अलबत्ता मास्टर नियाज़ की गर्द-आलूद घड़ी यकायक हरकत में आई और टन-टन बारह बजा डाले।

    लो जी आपकी घड़ी ने शाम पड़े बारह बजा दिए। रहीम मास्टर नियाज़ से अपनी उसी बुलंद आवाज़ के साथ मुख़ातिब हुआ, अजी मैं कहूँ हूँ कि आप सबकी घड़ियों की मरम्मत करें हैं, अपनी घड़ी की मरम्मत क्यों नहीं कर लेते, इस खट बिगड़ी घड़ी की सुईयें हमेशा ग़लत वख़्त बतावें हैं।

    मास्टर नियाज़ ने आँख पर मैग्नीफ़ायर लगाया और कलाई की एक घड़ी का ढ़क्कन खोल कर उसके पुर्ज़ों को देखना शुरू कर दिया। अबू नुजूमी ने दरी लपेट कर मास्टर नियाज़ की दुकान के तख़्ते के नीचे रखी, संदूक़चा बग़ल में दाबा, फिर चलते-चलते मास्टर नियाज़ की तरफ़ रुख़ करके खड़ा हुआ और ग़ुस्से से बोला, माशटर तुम्हारी साइंस का इल्म अंधा है, सितारों की अपनी चाल है, इसमें आदमी कुछ नहीं कर सकता, आदमी मजबूर है।

    अबू नुजूमी आगे बढ़ लिया और चार क़दम चल कर अपनी गली में मुड़ गया। मास्टर नियाज़ की आँख से मैग्नीफ़ायर ब-दस्तूर चिपका रहा और हाथ में थामी हुई कलाई की घड़ी के पुर्ज़ों में औज़ार से हरकत करता रहा। हाजी तुराब अली के पूरे जिस्म में थरथरी दौड़ गई। बे शक आदमी बहुत मजबूर है। और उनकी आँखों से आँसू जारी हो गए।

    स्रोत:

    Intizar Husain Ke 17 Afsane (Pg. 157)

    • लेखक: इन्तिज़ार हुसैन
      • प्रकाशक: मॉडर्न पब्लिशिंग हाउस, दरियागंज, नई दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1980

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