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चाँदी के तार

महेनद्र नाथ

चाँदी के तार

महेनद्र नाथ

MORE BYमहेनद्र नाथ

    स्टोरीलाइन

    यह एक ऐसे लड़के की कहानी है, जो अपनी माशूक़ा की किसी और से शादी हो जाने के बाद उसे ख़त लिखता है। उस ख़त में वह उसे हर उस बात का जवाब देता है, जो उसने उससे कभी पूछा भी नहीं था। एक ज़माना वह भी था जब वह उससे टूट कर मोहब्बत करती थी मगर वह नज़र-अंदाज़ कर देता था। उनकी शादी की बात भी चली थी और उसने इंकार कर दिया था।

    अब जबकि तुम्हारी शादी हो चुकी है और तुम एक दूसरे शख़्स की आग़ोश में जा चुकी हो, मुझे तुम्हें ख़त लिखने का हक़ हासिल हो गया है। गोया एक अजीब सी बात है कि जब तुम ख़त लिखती थीं तो मैं जवाब देने से क़ासिर था और अब मैं तुम्हें ख़त लिख रहा हूँ लेकिन तुम इस ख़त का जवाब देने से माज़ूर होगी, मेरे लिए ये बोझ भी ना क़ाबिल-ए-बर्दाश्त है कि मैं एक शादी शुदा औरत को ख़त लिखूँ क्योंकि मैं जानता हूँ कि इस ख़त का तुम्हारे ख़ावंद पर क्या असर होगा। अगर-चे मैं इस अमर की पूरी कोशिश करूंगा कि ये ख़त सीधा तुम्हारे पास पहुँचे और तुम्हारे ख़ावंद को इस ख़त का इल्म ही हो लेकिन ये भी मुमकिन है कि ये ख़त तुम्हारे शौहर को मिल जाए, यूं ही डाकिया ग़लती कर सकता है और उसके बाद जो कुछ होगा उसका तसव्वुर भी कर सकता हूँ, क्योंकि एक हिंदुस्तानी शौहर ये बर्दाश्त नहीं कर सकता कि कोई दूसरा मर्द उसकी बीवी को ख़त लिखे।

    और फिर ये हक़ीक़त उसपर आशकार हो कि उसकी बीवी किसी और से मोहब्बत करती है और अब तक ये राह-ओ-रस्म जारी है, इस भेद का किसी हिंदुस्तानी ख़ावंद पर खोलना, क्वेटा के भूँचाल के मुतरादिफ़ होगा, वो अपने शबाब की ग़लतियों को नज़र अंदाज कर सकता है, आख़िर हर शख़्स शादी से पहले मोहब्बत करना चाहता है और करता है, अगर उसे मौक़ा मिल जाए लेकिन ये हक़ शायद औरत को हासिल नहीं, वो तो महज़ एक जानवर तसव्वुर की जाती है जो माँ-बाप की कड़ी निगाहों में मुक़य्यद रहती है, ऐसी औरतों के लिए शौहर एक मुक़द्दस चीज़ है, अजनता की तस्वीर की तरह महज़ एक देवी जिसपर जज़्बात का असर नहीं हो सकता, जिसपर माहौल कभी हावी नहीं हो सकता, जिसपर ज़माने के नशेब-ओ-फ़राज़ का कोई असर नहीं, आज कल की लड़कियाँ इस अमर की गवाह हैं कि ज़माने की बदलती हुई रोने, हालात और माहौल ने उनपर क्या असर किया है और अगर बातों को लोग समझ जाएं तो शायद दुनिया में ख़ुदकुशी करने वालों की तादाद आधी रह जाए, ख़ावंद औरतों को पीटना छोड़ दें और हर घरेलू झगड़े के बाद तलाक़ की धमकी दिया करें।

    ख़ैर ये तो एक जुमला मोअतरिज़ा है, दर अस्ल बात ये है कि अगर ये ख़त तुम्हारे ख़ावंद को मिल जाए और तुम्हें वो लानत मलामत करे या पीटे तो इन बातों को नज़र अंदाज कर देना और इन तकलीफ़ों को माज़ी के ख़ुशगवार लम्हों की ख़ातिर सह लेना, गो मैं समझता हूँ कि इस क़िस्म की तवक़्क़ो करना महज़ बेवक़ूफ़ी है क्यों कि तुम मुझे गालियाँ दोगी, लानत भेजोगी और कहोगी कि क्यों बैठे बिठाए एक फ़ितना उठा दिया लेकिन मैं इस फ़ितने को हमेशा के लिए ख़त्म करना चाहता हूँ, गो तुम्हारे लिए ये फ़ितना उसी दिन ख़त्म हो गया जिस दिन तुम्हारी शादी हुई।

    लेकिन मैं अभी तक कुंवारा हूँ और ये फ़ित्ना सो-सो कर जाग उठता है और मुझे बार बार परेशान करता है, ये मेरी परेशानियाँ मेरी नश्व नुमा के लिए अच्छी नहीं, ये कसक जो दिल में बार बार उठती है उसे एक बार क्यों नेस्त-ओ-नाबूद कर दूँ, तुम्हारी मोहब्बत का क़िस्सा मेरे लिए उतनी ही अहमियत रखता है जितना कि एक साइंसदाँ के लिए जरासीम की एक नई स्लाइड, जो उसने अभी-अभी तैयार की और ख़ुर्द-बीन के नीचे रख कर उसे निहायत इन्हिमाक से देख रहा हो, गो तुम्हारी मोहब्बत का क़िस्सा पुराना हो गया और उसपर शादी का रंग चढ़ गया, लेकिन मेरे पास चंद ऐसी चीज़ें हैं जो मुझे बार बार तुम्हारी याद दिलाती हैं, तुम्हारी चंद मुस्कुराहटें, तुम्हारे ख़त, तुम्हारा रेशमी रूमाल जो तुमने दीवाली के रोज़ अपनी नन्ही बन्नो के हाथ बतौर तोहफ़ा भेजा था, गो तुम्हारी मुस्कुराहटों की जगह अब नई मुस्कुराहटें चुकी हैं, उनकी जगह अब और दिल फ़रेब होंटों ने ले ली है और उनका असर मेरे कमज़ोर आसाब पर ज़्यादा पड़ता है लेकिन उन मुस्कुराहटों में बनावट है और उनमें वो शय लतीफ़ नहीं जो तुम्हारे तबस्सुम में थी, तुम्हारा तबस्सुम बिल्कुल अलबेला, अनोखा और निराला था।

    शायद तुमने पहली बार मुस्कुराना सीखा था, उस मुस्कुराहट में एक नया पन था, जिसमें आने वाले शबाब की सुबह थी, एक अनजान मासूम मुस्कुराहट, बनावट से कोसों दूर, एक भीगी हुई सुबह की तरह शगुफ़्ता, तरो ताज़ा, शबनम की तरह ठंडी और चमकदार, शोला की तरह सुर्ख़ और आग लगाने वाली... व... र... लेकिन मैं अब उन मुस्कुराहटों को भूल चुका हूँ, अब सिर्फ़ उनका तज्ज़िया कर सकता हूँ, बिल्कुल एक डॉक्टर की तरह जो एक मरज़ को दूसरे मरज़ से तशख़ीस कर लेता है।

    अब भी कोई कोई मेरी तरफ़ देख कर मुस्कुरा लेता है और ये मुस्कुराहट बिजली के कौंदे की तरह मुझपर हमला करती है, हमला निहायत शदीद होता है, सर ता पा एक झुरझुरी सी जाती है, लेकिन दूसरे लम्हे में मैं संभल जाता होता हूँ और मुस्कुराहट का तज्ज़िया करने लगता हूँ।

    हम एक मशीनी दौर से गुज़र रहे हैं, हम उस ज़माने में पैदा हुए जब पानी और हवा पर इंसान ने क़ाबू पा लिया है, हम वक़्त, रफ़्तार और फ़ासले पर हावी हो चुके हैं, अब रूहानी बातों का ज़माना नहीं, बिल्कुल माद्दी चीज़ों का तज़्किरा होता है और इसलिए मुस्कुराहटें भी माद्दी हो गई हैं और जब कोई मेरी तरफ़ मुस्कुरा कर देखता है, सोचने लगता हूँ कि इस मुस्कुराहट का क्या मतलब है, अगर मैं भी मुस्कुरा दूँ तो मुझे क्या फ़ायदा पहुँचेगा और अगर मुस्कुराऊँ तो क्या नुक़सान होगा।

    आज कल हर चीज़ नफ़ा और नुक़सान के मयार पर परखी जाती है, लेकिन तुम्हारी मुस्कुराहटों में वो बात थी, अगर होती तो आज मुझे यूँ याद आती। तुम उसी बात को लो कि सिर्फ़ एक मुस्कुराहट पर कितना झगड़ा चल रहा है, आज कल तो बाल की खाल उतारी जाती है, हर चीज़ का नफ़सियाती पस-ए-पर्दा तलाश करना पड़ता है और इसका असर आसाब पर देखना पड़ता है और फिर तज्ज़िया, अब ये मोहब्बत नहीं है, महज़ सिर दर्दी है, एक बहाना है अपने आपको ख़त्म करने का, लेकिन कोई कुछ नहीं कह सकता।

    शायद ये अक़दार पुरानी अक़दार से अच्छी हैं, हो सकता है, अगर हम इन अक़दार को अपने आप पर हावी होने दें, आहिस्ता-आहिस्ता अमल-पज़ीर होने दें, तो शायद ज़माना बदल जाए और हम एक नई दुनिया बसा लें। लेकिन मुझे इस क़िस्म के रूहानी फ़लसफ़े से कोई सरोकार नहीं और ही मुझे आज इन sms पर बहस करनी है कि फ़ुलां चीज़ अच्छी है या बुरी है, मेरी मरकज़-ए-निगाह तो आज तुम हो और तुम्हें भूल कर आज ख़ुश्क बेजान फ़लसफ़ों पर बहस करना बेवक़ूफ़ी है। शायद मुझे कुछ दिन और ज़िंदा रहना है क्योंकि एक ज्योतिषी ने चंद दिन गुज़रे मुझे बताया कि मैं जल्द मर जाऊँगा, मैं ज्योतिषी के चेहरे की तरफ़ बरसों से झूट बोलने से उसके ख़द्द-ओ-ख़ाल मस्ख़ हो गए थे, चेहरे पर एक क़िस्म की नहूसत बरस रही थी।

    और उस पथरीली सड़क पर बैठे हुए जाने उसे कितने बरस हो गए थे और कौन जानता है कि उसने कितनों के हाथ देखे और उनकी क़िस्मत का जाइज़ा लिया, कितनों को उसने उस ना उम्मीदी को सर करने की तरकीबें बताईं लेकिन सड़क पर गुज़रने वाले ने कभी ये सोचा, कि वो क्यों बीस साल से उस ख़ाक-आलूद सड़क पर बैठा हुआ है, जहाँ गंदगी और ग़लाज़त के अंबार लगे हुए हैं और पेशाब की बू से फेफड़े झुलस जाते हैं, क्या इन बीस सालों में उसकी क़िस्मत का सितारा कभी बुलंद हुआ, क्या वो तरकीबें तज्वीज़ें जो वो दूसरों को बताता था, कभी उसने अपने ऊपर नहीं आज़माईं, क्यों ये पथरीली ज़मीन उसकी बंजर ज़िंदगी का एक अहम जुज़्व बन गई।

    क्या सड़क यूँ ही पथरीली रहेगी और इसपर चलने वालों का सितारा कभी बुलंद होगा, मैंने चाहा कि इस ज्योतिषी को खरी-खरी सुनाऊँ और उसे कह दूँ कि वो क्यों झूट बोल कर अपनी रूह को गज़ंद पहुँचाता रहा है, लेकिन ज़िंदगी में सिर्फ़ रूह ही होती तो मैं उससे ये बात पूछ लेता, लेकिन ज़िंदगी में रूह के अलावा पेट भी है, जो रूह से ज़्यादा अहमियत रखता है, रूहानी तसल्ली को ख़ैर-बाद किया जा सकता है लेकिन पेट की भूक को ख़ैर-बाद कहना मुश्किल है।

    मगर तुम्हें उन ज्योतिषियों और राहगीरों से क्या फ़ायदा? ये लोग तो उन इंसानों के लिए वक़्फ़ हैं जिन्हें और कोई काम नहीं होता, तुम्हें तो इस ज़िंदगी से बहुत काम लेने हैं और एक काम ये भी करना है कि तुम्हें मेरा ये बे-सर-ओ-पा ख़त भी पढ़ना है, ये एक अहमक़ाना बात है कि क़िस्सा तो मोहब्बत का शुरू हुआ और मैं पेट का क़िस्सा ले बैठा, दर अस्ल ये दोनों चीज़ें एक ही ज़ंजीर की कड़ियाँ हैं। इन दोनों पर अफ़सानी ज़िंदगी का दार-ओ-मदार है, अगर इंसानी ज़िंदगी का दार-ओ-मदार नहीं तो कम-से-कम मेरी ज़िंदगी का इन्हिसार इन ही दो चीज़ों पर है, अगर मैं तुम्हें अपना बना सका तो इसमें तुम्हारी मोहब्बत का क़सूर नहीं, बल्कि उन हालात का जिनपर क़ाबू पा सका और अगर हालात पर क़ाबू पा लेता तो आज शायद तुम मेरी आग़ोश में होतीं और मुझे ये ख़त लिखने की ज़हमत उठानी पड़ती।

    मैंने तुम्हें पहली बार उस वक़्त देखा, जब तुम पांचवीं जमाअत में पढ़ती थीं, यूँ ही तुम एक दिन मेरे कमरे में गईं, यूँ ही नहीं बल्कि तुम्हें एक काम था, उस वक़्त गो तुम्हारा क़द छोटा था, पतला सा जिस्म और ख़द-ओ-ख़ाल निहायत तीखे। तुम्हारे ख़द्द-ओ-ख़ाल ने मुझे बिल्कुल नहीं उकसाया, बल्कि उस बेबाकी, उस बे-तकल्लुफ़ी ने जो तुमने मेरे साथ बरती, तुमने बग़ैर किसी झिझक के कह दिया, कि बहन जी इंग्लिश रीडर माँगती हैं, मैं तुम्हारी सूरत का जाइज़ा ले रहा था।

    तुमने ख़ुद ही अलमारी खोली और किताब तलाश करने लगीं, मैं तुम्हारी बेबाकी पर और भी हैरान हुआ, तुम्हारे सर से दुपट्टा सरक गया था और तुम्हारे सियाह बाल मेरी नज़रों में उलझने लगे, उस दिन मुझे तुम्हारे बाल अच्छे लगे थे, कितने सियाह और लम्बे थे, तुमने जल्दी ही किताब ढूंढ ली और फिर चली गईं, ये थी पहली मुलाक़ात, कितनी बेजान, बे लज़्ज़त और फ़ुरूई, जिसका ज़िक्र करना निहायत फ़ुज़ूल मालूम होता है, सिर्फ़ एक लफ़्ज़ में उस मुलाक़ात के असर को बयान किया जा सकता है और वो ये कि तुम उस दिन निहायत बेबाक थीं और तुम्हारे बाल सियाह और लम्बे थे और दो साल के बाद जब तुम मुझे मिलीं तो मैं तुम्हें पहचान सका।

    इन दो साल में तुम क्या से क्या हो गई थीं, उस दिन मुझे तुम्हारे बाल अच्छे लगे थे, आज तुम्हारा क़द बँच की तरह लांबा और नाज़ुक अंदाम। मैंने सरो से इसलिए तश्बीह नहीं दी कि ये तश्बीह पुरानी हो चुकी और ज़्यादा इस्तेमाल से इस लफ़्ज़ की ख़ूबसूरती मिट चुकी है, बँच का दरख़्त तुमने नहीं देखा होगा, क्योंकि शहरों में बँच के दरख़्त नहीं होते, सरो बहुत होते हैं और मैं तुम्हारे तसव्वुर को बहुत दूर ले जाना चाहता हूँ ताकि शादी के माहौल से निकल कर तुम चंद साअतों के लिए इस दुनिया में जाओ जहाँ मैं साँस ले रहा हूँ ताकि तुम भी माज़ी के वाक़िआत से मेरी तरह लुत्फ़-अंदोज़ हो सको।

    तुम अगर अकेली होतीं तो मैं तुम्हें ज़्यादा इन्हिमाक से देखता और एक नक़्क़ाश की हैसियत से तुम्हारे ख़द्द-ओ-ख़ाल का जाइज़ा लेता, लेकिन तुम्हारे साथ एक और लड़की थी जिसका हुस्न-ए-सुबह तुम्हारी मोहिनी सूरत पर हावी हो रहा था, उसका खिला हुआ चेहरा, ग़िलाफ़ी आँखें और रस भरे होंट तुम्हारे लंबोतरे चेहरे और छोटी-छोटी आँखें और पतले-पतले होंटों के मुक़ाबले में ज़्यादा अच्छे लगे, तुम उस दिन शर्म-ओ-हया से सिमटी हुई थीं और वो ज़्यादा बेबाक नज़र रही थी, उसे अपने जिस्मानी हुस्न का एहसास था, इसीलिए वो इठला-इठला कर चलती थी।

    और उसका उभरा हुआ सीना मुझे ज़्यादा पसंद आया। जिसमें शबाब की सारी ताज़गी पिन्हाँ थी, ऐसा मालूम होता था कि जवानी एक सैल-ए-आतिशीं की सूरत में उन बुलंदियों के नीचे करवटें ले रही है और यकायक उस दिन मुझे मालूम हुआ कि इस मशीनी दौर में भी औरत का शबाब ज़िंदा है, अज़ल से लेकर अबद तक उस शबाब में कोई तब्दीली नहीं आई। इंसानों की हरकात, सकनात, उनका नस्ब-उल-ऐन उनकी मुआशरत उनकी अख़्लाक़ी, सियासी क़द्रें बदलती रही हैं, लेकिन औरत का शबाब उसी शिद्दत से महसूस किया जाता है। सदियों का आहनी चक्कर शबाब की रानाइयों, लिताफ़तों और कैफ़ियतों को नहीं कुचल सका।

    अब भी बीसवीं सदी में एक मर्द एक औरत के लिए पागल हो सकता है, एक औरत के लिए तख़्त-ओ-ताज छोड़ सकता है। लेकिन तुम्हारी सहेली को इस बात का एहसास था कि उसका हुस्न इतने तबाह-कुन नताइज पैदा कर सकता है, वो ऐसे चलती थी गोया उसे लोगों की कोई ख़ास परवाह थी, अगर लोगों की नज़रें उसके सीने पर पड़ती थीं तो पड़ती रहें और अगर उसका कुरता ज़रूरत से ज़्यादा उभरा हुआ है तो उसमें उसका कोई क़सूर नहीं और तुम... तुम्हारा क़द लंबा था, जिस्म पतला सा तर नारी की बेल की तरह लचकता हुआ और फिर तुम कुछ हद से ज़्यादा शर्मीली हो गई थीं, तुम्हारे चलने का अंदाज़ ही भद्दा था, गर्दन नीचे करके कभी-कभी मुड़ कर देखना कभी छुप कर कनखियों से, कभी लबों पर मुस्कुराहट है तो कभी लब जामिद हैं, कभी तुम्हारा सर हिलता था तो कभी हाथ और अपनी सहेली के साथ खुसर-पुसर करना और उसके साथ लिपट-लिपट के चलना मुझे अच्छा मालूम नहीं हुआ और जब तुम गली के मोड़ पर पहुंचीं तो तुमने मुझे हाथ से नमस्ते की, मुझे उम्मीद थी कि तुम इस तरह करोगी।

    तुम ऐसी लड़कियाँ निहायत ही जज़्बाती होती हैं। तुम पूछ सकती हो कि मुझे क्यों कर मालूम हुआ कि तुम ऐसा ही करोगी, महज़ तजुर्बे की बिना पर मुझे मालूम है जो लड़की ज़्यादा शर्मीली और ख़ामोश होती है वो अक्सर तसव्वुर की दुनिया में डूबी रहती है, उसे ख़ुद नुमाई की ज़्यादा ज़रूरत नहीं होती, उसके ख़्यालात ज़्यादा हसीन और रंगीन होते हैं। लेकिन जो लड़की ज़्यादा हँसती है, जिसे अपने हुस्न का ज़रूरत से ज़्यादा एहसास होता है वो जज़्बाती कम और कारोबारी ज़्यादा होती हैं, ऐसी लड़कियाँ इशारे कम किया करती हैं, ख़त कम लिखती हैं, शायद वो समझ जाती हैं कि आख़िर उन्हें एक दिन शादी करना है तो फिर इन झंझटों से क्या हासिल। इन इशारों और ख़तों से क्या मिलेगा, छुप-छुप कर मिलना, मुड़-मुड़ कर देखना, निगाहों से मुस्कुराना, ऐसी बातें उन्हें फ़ुज़ूल लगती हैं, वो जी भर के हंस लेती हैं, वो मर्दों से कम डरती है और शर्म, डर और झिझक के ग़िलाफ़ की पनाह नहीं लेतीं। उनकी जिंस का इज़हार उनकी ख़ुद नुमाई में होता है और शायद ये तरीक़ा दूसरे तरीक़ों से बेहतर है।

    लो... मैं फिर नफ़सियाती चक्कर में उलझ गया, मुझे इससे क्या कि फ़ुलाँ औरत जज़्बाती है, फ़ुलाँ नुमाइश परस्त है या फ़ुलाँ औरत ऐसी हो सकती है या हो जाएगी। इन बातों के लिए मेरे पास वक़्त नहीं है, तो हाँ उस मुलाक़ात के बाद तुम्हारी आदात बदल गईं, मुझे ऐसा मालूम हुआ कि जैसे तुमने अपने आपको और ज़्यादा सुकेड़ लिया है। बिल्कुल लाजवंती की बेल के पत्तों की तरह जो ज़रा से लम्स से सिकुड़ जाते हैं, अगर-चे तुम्हारा क़द लम्बा होता जा रहा था और तुम्हारी आँखों में एक नई चमक पैदा हो रही थी लेकिन तुम ज़रूरत से ज़्यादा घुटी-घुटी नज़र आने लगीं।

    ऐसा मालूम होता है कि तुम्हारे ज़ेहन पर एक बोझ सा है जिसका एहसास तुम्हें निहायत शिद्दत से हो रहा है, मुझे क्या मालूम कि घर वालों से तुम्हारा क्या रवैया था, शायद तुम घर में हँसती होगी, खुल कर बातें करती होगी लेकिन मैं कामिल वुसूक़ से कह सकता हूँ कि उस मुलाक़ात के बाद जब भी तुम गली में मिलीं तो तुम मुझे देख कर घबरा गईं और फिर मुझे देख कर भाग गईं और एक दिन मैंने तुम्हारा तआक़ुब भी किया कि मालूम करूँ कि तुम मुझे देख कर क्यों भागती हो। लेकिन किसी नतीजे पर पहुँच सका, तुमने दो तीन बार इस तरह किया और मैं बहुत सिटपिटाया कि आख़िर ये क्या माजरा है, तुम्हारी ये हरकतें क्या मानी रखती हैं, इन चंद महीनों में क्या कुछ हो गया कि तुम मुझे देख कर ठिटक जातीं या फिर जल्दी से भाग जाती हो और फिर एक दिन उक़्दा खुला। जब माँ ने मुझसे कहा कि बड़े चौधरी के घर से सगाई के लिए कह रहे हैं। तुम्हारी क्या राय है। फिर मैं समझ गया कि तुम क्यों झेंप जाती हो और मुझे देख कर घबरा जाती हो और मेरी नज़रों से ओझल हो जाती हो, तुम्हारे हुस्न-ए-तख़य्युल की मैं दाद देता हूँ कि मिनटों ही मिनटों में तुम मुझे कहाँ से कहाँ ले गईं।

    अम्मां ने फिर पूछा कि तुम्हारी क्या राय है। उनका मतलब था कि मैं हाँ कर लूँ। मैं उन दिनों बी.ए. फ़ेल हो चुका था और अपने चचा की दुकान पर बैठा करता था, मेरे चचा शहर के मशहूर डॉक्टर थे और उनकी ये राय थी कि मैं भी उस दुकान पर काम करूँ और उसी तरह डॉक्टरी सीख लूँ और फिर उस शहर में डॉक्टरी की दुकान खोल लूँ, तजवीज़ कितनी माक़ूल थी, लेकिन मुझे बिल्कुल ना पसंद थी। अस्ल बात ये है कि मुझे अताइयों से नफ़रत है, गो मैं ये बात जानता हूँ कि अगर मैं डॉक्टरी सीख लेता तो इस वक़्त तक काफ़ी रूपये कमाए होते, डॉक्टर गिरधारी लाल और डॉक्टर तारा सिंह दोनों ने मेरे सामने ही प्रेक्टिस शुरू की, दोनों ने डॉक्टरी का इम्तिहान कहीं से पास किया था लेकिन जाहिल लोगों को जाहिल तर बनाना कोई मुश्किल काम नहीं। चंद दवाएँ एक छाती देखने का आला और थर्मा मीटर ख़रीद कर इंसान एक मुकम्मल डॉक्टर बन जाता है और उसके बाद वो मरीज़ों को जहन्नुम में भेजे या जन्नत में,लेकिन मुझे ये तरीक़े पसंद नहीं, मैं हर चीज़ को मुकम्मल तौर पर देखना चाहता हूँ इसलिए मैंने डॉक्टर बनने का ख़्याल तर्क कर दिया।

    लेकिन तुम्हारे वालिद का इसरार बढ़ता गया और वो सगाई पर ज़ोर देने लगे, तुम्हारे पैग़ाम भी मुझे मिलते रहते थे और जो कुछ तुमने अपने रिश्तेदार हरीश से कहलवा दिया, वो मुझे याद है, उनसे कहो कि वो सगाई कर लें। मैं इस बेबाकी की दाद देता हूँ कि तुमने मुझे हमेशा के लिए मुंतख़ब कर लिया और तुमने हर मुमकिन तरीक़े से कोशिश की कि सगाई हो जाए और आख़िर ये बातें शहर में फैल गईं और शहरियों की ज़बान पर चर्चा होने लगा, उस छोटे शहर में तुम्हारे वालिद का काफ़ी रसूख़ था, इसलिए इस बात ने काफ़ी अहमियत इख़्तियार करली और अक्सर दोस्तों ने मुझसे कहा, भई सुना है तुम्हारी सगाई हो गई है, भई ख़ूब है अच्छी निभेगी, मेरे दोस्तों ने तुम्हें अक्सर देखा होगा और तुम्हारे हुस्न की बेबाकियों ने उन्हें परेशान भी किया होगा।

    उनके तारीफ़ी फ़िक़रे जो वो हम दोनों पर कसते थे, उनमें उनकी जिन्सी भूक का वहशियाना इज़हार था, अब तुमने हमारे घर आना बंद कर दिया, क्योंकि माँ ने हाँ कर दी थी और तुम्हें इस बात का पूरा यक़ीन हो गया था कि अब तुम्हारी शादी इस घर में होगी। तुम्हारे पैग़ाम मेरे पास पहुँचते थे, घर का दरवाज़ा ज़रा ऊँचा करा लो, मैं रोज़ बरोज़ लम्बी होती जा रही हूँ। परसों आप निहायत ही गंदे कपड़े पहने हुए थे। क्या शहर में नाई कोई नहीं। आपने मेरी तरफ़ देखा नहीं और मेरे क़रीब से गुज़र गए। मैं अक्सर छः बजे शाम को गली वाले दरख़्त के क़रीब खड़ी होती हूँ और अपनी सहेलियों से बातें करती हूँ, तुम भी अपने दोस्तों के साथ वहाँ से गुज़रा करो और इस तरह कई और अहकाम जो मैं कभी बजा ला सका। उसकी बहुत सी वजह हैं, मुझे कुछ इस क़िस्म के इश्क़ से नफ़रत हो गई है, गो मैं समझता हूँ कि तुम्हारे लिए ये बात नई थी बिल्कुल नई, क्योंकि तुम्हारे जिस्म की तश्कील ये ज़ाहिर कर रही थी कि ये जोश बिल्कुल नया है, ये उबाल शायद पहला उबाल है, इसकी उठान ही निराली होती है और इंसान इस हालत में इतना बेक़ाबू हो जाता है कि उसे ऊँच नीच की परवाह नहीं रहती।

    अगर मेरी भी अव्वलीन मोहब्बत होती तो शायद मैं भी यही करता और हम दोनों जाने क्या कर बैठते, लेकिन मैं इससे पहले एक औरत से मोहब्बत कर चुका था और वो भी एक शादी-शुदा औरत से। अगर-चे ये पढ़ कर हँसोगी कि एक मुजर्रद इंसान एक शादी शुदा औरत से क्यों कर मोहब्बत कर सकता है, तुम्हारी तरह मेरे दोस्त भी मुझपर हँसते हैं, हिंदुस्तान में मोहब्बत की क़द्रें अभी पुरानी हैं, यहाँ एक शादी शुदा औरत की तरफ़ देखना फ़े'ल-ए-बद समझा जाता है, समाज कहता है, वो औरत तो दूसरे की हो चुकी, अब तुम्हारा उसपर क्या हक़ है। अब तुम उसकी तरफ़ क्यों देखते हो, शादी शुदा औरत की शख़्सियत तो एक शख़्स की मिल्कियत हो चुकी, अब तुम क्यों झक मारने पर तुले हुए हो, लेकिन ये सच है कि मुझे उस औरत से मोहब्बत थी और उसके बाद आज तक किसी और से मोहब्बत कर सका, अगर तुम उस औरत को देखतीं तो उस औरत को देख कर मुँह फेर लेतीं। वो ख़ूब सूरत थी, लेकिन मैंने उससे जी भर कर मोहब्बत कर ली। ये मेरे शबाब का अव्वलीन अक्स था, जिस शिद्दत से मैंने उस औरत को चाहा, वो गर्मी, वो तड़प, वो इज़्तिराब मेरे जिस्म मेरी रूह में फिर कभी सका।

    ये एक लम्बी सरगुज़श्त है, जिसका अंजाम निहायत भयानक है, उस औरत के लिए मैं बदनाम हुआ और उसे भी मेरे लिए काफ़ी ज़िल्लत उठानी पड़ी, पाँच साल हुए वो मर गई। लेकिन उसकी याद अभी तक ज़िंदा है, उसकी मोहब्बत की तपिश बाक़ी है जिससे मैं अक्सर बेचैन हो जाता हूँ। हाँ तो मैं ये कह रहा था कि जिस तरह तुम अपने आपको मेरे लिए परेशान करती रही हो उसी तरह मैं अपने आपको उस औरत को पाने के लिए परेशान करता रहा हूँ। मैं तो ख़ैर बामुराद रहा, मगर तुम मेरे हाथों के लम्स से बेगाना रहीं, लेकिन मोहब्बत और शादी में फ़र्क़ है, मैं उस औरत से मोहब्बत कर सकता था शादी नहीं और तुम्हारे साथ शादी कर सकता हूँ मोहब्बत नहीं। मैंने कोशिश की मैं तुमसे मोहब्बत कर सकूँ लेकिन ऐसा कर सका, अक्सर तुम्हारे ख़द्द-ओ-ख़ाल मेरी आँखों के सामने जाते और मैं निहायत बारीकी से उनका तज्ज़िया कर सकता और उनमें तरह-तरह के नुक़्स निकालता और ये सोचता कि क्या ही अच्छा होता अगर तुम्हारी आँखें बड़ी-बड़ी होतीं और तुम्हारी ठोड़ी ज़रूरत से ज़्यादा लम्बी होती और अगर तुम्हारा निचला होंट ज़रा मोटा होता तो ज़्यादा ख़ूबसूरत होता।

    और अगर तुम्हारी आँखों की पलकें ज़्यादा घनी होतीं तो तुम्हारी आँखों की चमक ज़्यादा नुमायाँ हो जाती और फिर तुम निहायत बे-ढ़ँगे पन से लम्बी होती जा रही थीं, कूल्हों और कमर में कोई तनासुब था, अगर कमर पतली थी तो कूल्हे मुतनासिब थे और बाक़ी जिस्म पर भी इतना गोश्त था कि तुम्हारे आज़ा ज़्यादा मुतनासिब हो जाते। इस क़िस्म के घिनौने ख़्याल जो शराफ़त से क़त्अन कोई तअल्लुक़ नहीं रखते, मुझे सताया करते। इस अमल को रोकना मेरे बस में था, लेकिन इन ख़ामियों के बावजूद तुममें जाज़िबीयत थी, इतनी जाज़िबीयत कि मैं तुमसे शादी कर सकता था, लेकिन मोहब्बत नहीं, मोहब्बत के लिए कुछ और चाहिए, एक ख़ास क़िस्म का हुस्न... एक क़िस्म का... क्या कहूँ...!

    तुम तो मुझे पसंद थीं, सिर्फ़ पसंद, मैं तुम्हें पसंद कर सकता था और तुम्हें पसंद कर सकता हूँ और शादी भी कर लेता, अगर हालात इजाज़त देते। हाँ, हालात... शायद तुम हंस दो और कहो कि हिंदुस्तान में हर इंसान शादी कर लेता है ख़्वाह उसके हालात अच्छे हों या बुरे, शादी तो उनके लिए उतनी ही ज़रूरी है जितनी कि मौत, लेकिन ज़िंदगी में मौत गवारा नहीं की जाती, मेरे तमाम दोस्तों ने शादियाँ कर ली हैं, गो उनके इक़्तिसादी हालात मुझसे बेहतर थे तो क्या मैं शादी कर सकता था, अब तो मैंने बी.ए भी कर लिया था और अगर चाहता तो किसी बैंक या गवर्नमेंट के किसी महकमे में नौकर हो जाता और तुम्हारे दिल की आरज़ुओं को पूरा कर देता, लेकिन मैं उन चीज़ों से बहुत घबराता हूँ, तुम्हारे वालिद ने मुझे सिगरेटों की एजेंसी लेने के लिए कहा था, कहने लगे कि सिगरेटों की एजेंसी में बहुत फ़ायदा है, गवर्नमेंट की नौकरी में क्या धरा है। ये एजेंसी ले लो और काम करते जाओ, सारी दुनिया सिगरेट पीती है और ख़ास कर इस शहर के लोग तो सिगरेट और नसवार का ख़ूब इस्तेमाल करते हैं और एजेंसी के साथ नसवार का भी ठेका ले लो तो वारे-न्यारे हो जाएंगे, चंद ही बरस में मेरी तरह एक आलीशान मकान बनवा लोगे और लड़कों और बच्चों के दरमियान एक बाइज़्ज़त इंसान बन जाओगे, सिगरेट की एजेंसी और... नसवार... नसवार से मुझे नफ़रत है, लेकिन मैं सिगरेट पीता हूँ और जब कभी हद से ज़्यादा मग़्मूम हो जाता हूँ तो कमरे में बैठ कर सिगरेट का धुआँ फ़िज़ा में बिखेरता रहता हूँ, फ़िज़ा में धुआँ फैलता रहता है, बिखरता रहता है और मेरे परेशान आवारा ख़्यालात धुएँ की सफ़ेद लहरों में तहलील होते रहते हैं।

    कुछ इस तरह मुझे तस्कीन हो जाती है, यूँ ही छोटी सी फ़ुरूई बातों से तस्कीन हो जाती है, जाने क्यों, लेकिन एजेंसी लेने से तो रहा... नसवार... तौबा-तौबा... मकान बनाने की ख़्वाहिश नहीं और बा इज़्ज़त इंसान बनना मैंने कभी क़बूल नहीं किया। उन दिनों मैं ख़ुद भी नहीं जानता था कि मैं क्या कर सकता हूँ और क्या करूंगा, एक बे कैफ़ सी आवारगी, मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में बसी रहती, कोई चीज़ पसंद आती थी, दुकान पर काम करते-करते तंग गया था, जी चाहता था कि शहर छोड़ कर भाग जाऊँ, आख़िर मैं क्या चाहता हूँ, इस मुतअल्लिक़ में सोचता रहता। काश मैं कहीं क्लर्क ही भरती हो गया होता और साठ रूपये माहवार लेकर तुमसे शादी कर ली होती और इन छः सालों में कम-अज़कम छः बच्चे पैदा किए होते।

    शायद मुझे तस्कीन होती और लोगों से कह सकता कि मैंने भी दुनिया में कुछ काम किया है। आख़िर मैं अपने दोस्तों के नक़्श-ए-क़दम पर क्यों चलूँ, अगर उन्हें हक़ हासिल है कि वो हर साल हिंदुस्तान की आबादी में एक फ़र्द का बग़ैर सोचे-समझे इज़ाफ़ा कर दें तो मैं क्यों दरिया के किनारे खड़ा रहूँ, क्यों इस बहती गंगा में हाथ धो लूँ, लेकिन मैं ऐसा कर सका और मैं अक्सर सोचता रहता कि मैं क्या चाहता हूँ, मैं क्यों परेशान हूँ और आहिस्ता-आहिस्ता मुझपर ये बात आश्कार होने लगी कि मुझे क्लर्की से नफ़रत है, मुझे उन साठ रूपों से नफ़रत है, मुझे उन बच्चों से नफ़रत है, मुझे इंसानों की कमीनगी से नफ़रत है, ये क्यों हर तरफ़ ग़लाज़त ही ग़लाज़त नज़र आती है, क्यों हर तरफ़ अंधेरा ही अंधेरा होता है, छतों पर अंधेरा, तनों पर अंधेरा, चूल्हे पर अंधेरा। रोटियों पर अंधेरा और आहिस्ता-आहिस्ता ये अंधेरा बढ़ता जाता है, कायनात के ज़र्रे-ज़र्रे पर छा जाता है, इंसान के रेशे-रेशे में समाए जाता है।

    आहिस्ता-आहिस्ता मुझे उस निज़ाम से नफ़रत होने लगी, जहाँ इस क़िस्म का अंधेरा फैला रहता है। क्यों मैं उस अंधेरे को चीरों, उस अंधेरे की क़बा को फाड़ दूँ, ताकि रौशनी का मंबा-ए-आज़म फूट पड़े। कम से कम उन छोटे मकानों में रौशनी तो जाए, उन छोटे कमरों में जहाँ एक जगह मियाँ-बीवी और बच्चे होते हैं चमक जाए, जहाँ महीने में साठ रूपये मिलते हैं और खाने वाले अफ़राद आठ होते हैं, जहाँ शादी के बाद औरतें जल्द बूढ़ी हो जाती हैं, जहाँ उनकी आँखों की चमक बहुत जल्द ग़ायब हो जाती है और उनकी मुलायम मख़रूती उंगलियाँ बरतन साफ़ करते-करते टेढ़ी-टेढ़ी हो जाती हैं, जहाँ उनके चेहरे की हड्डियाँ बाहर निकल आती हैं और हड्डियों पर चमड़ा इतना सख़्त और खुरदरा हो जाता है कि देखने को जी नहीं चाहता।

    जहाँ उनके गालों के गड्ढे इतने गहरे हो जाते हैं कि उनमें जिन्सी भूक कसी हुई चमगादड़ों की तरह कराहती है, वो सियाह बाल जिनपर उनका ख़ावंद जान छिड़कता था, आज बूट पोलिश के ब्रश की तरह ख़ुश्क और खुरदरे हो गए हैं, आँखों की ताबानी कहाँ गई, वो मीठी शहद जैसी आवाज़ कहाँ ग़ायब हो गई और इंसान क्यों गँवार और हैवान बन जाते हैं, बे रूह, सिर्फ़ चलती-फिरती टाँगें और उनपर कपड़ों के खोल और अंदर कुछ भी नहीं... दिखाई देने वाला इंसान और आहिस्ता-आहिस्ता ये हक़ीक़तें मुझपर बार-ए-गिराँ हो गईं, दिल में उस निज़ाम के ख़िलाफ़ एक जज़्बा भड़कने लगा लेकिन इस दौरान में चंद लम्हे ऐसे भी आए कि मैं अपने आपको कोसने लगा।

    तुम्हारी याद का जाल आहिस्ता-आहिस्ता मज़बूत हो रहा था और शहर में रहते हुए ये ना मुमकिन था कि मैं तुम्हें भूल जाता या नज़र अंदाज़ कर देता, तुम्हारी बातें अक्सर मुझ तक पहुंचतीं, तुम अक्सर मुझे कहीं कहीं मिल जातीं, कभी-कभी अपने नौकर के साथ कभी सहेलियों के साथ और कभी अम्मां के साथ, तुम्हारी आँखों का हुज़न-ओ-मलाल तुम्हारी निगाहों की ज़रा सी जुंबिश मुझे कभी-कभी परेशान कर देती और फिर तुम्हारे वालिद ने कुछ अरसे से मुख़्तलिफ़ तहाइफ़ हमारे घर भेजना शुरू कर दिए थे, वो समझते थे कि सगाई की बात पक्की हो गई लेकिन मैं जानता था कि ये काम होने वाला नहीं, घर वाले अक्सर मुझे नौकरी के लिए मजबूर करते, लेकिन मैं घर वालों को ये कह कर टाल देता कि नौकरी अच्छी मिलती नहीं और इस तरह आने वाले ख़तरे को टालता रहा। आख़िर तुम्हारे वालिदैन ने मुझसे तंग आकर पूछ ही लिया... कि मेरी क्या राय है? कब तक शादी करने का इरादा है। पहले पहल मैंने सोचा कि मैं उन्हें गोल मोल जवाब दे दूँ, क्यों कि मैं तुमसे रिश्ता नाता तोड़ना चाहता था।

    कौन चाहता है कि इस सुनहरी जाल को तोड़ दिया जाए जिसमें आरज़ुओं, तमन्नाओं और ख़्वाहिशों का ताना-बाना लगा रहता है, कम-अज़कम मैं तो नहीं चाहता था कि तुम मेरा कोरा जवाब सुन कर मुझसे रूठ जाओ और मैं तुम्हारी मुस्कुराहटों से इतनी जल्दी महरूम हो जाऊँ, तुम्हारी निगाहों की नवाज़िश से महज़ूज़ हो सकूँ, तुम्हारी बातें अक्सर मुझ तक पहुँच जाती थीं, जिनसे मेरे जज़्बा-ए-मर्दानगी को कुछ तक़वियत मिलती थी, लेकिन मैं ये भी चाहता था कि तुम्हारे वालिदैन को हमेशा के लिए तारीकी में रखूँ। अगर मैं शादी करना नहीं चाहता तो कम-अज़कम हिंदुस्तान में और नौजवान मौजूद हैं, जो तुम्हारे लबों को चूमने के लिए बेक़रार हैं, इसलिए मैंने तुम्हारे वालिद से साफ़-साफ़ कह दिया कि जब तक मैं अपने लिए कोई अच्छा सा काम तलाश कर लूँ ;शादी नहीं करूँगा। तुम्हारे वालिद ने कहा, शादी कर लो और शादी के बाद लड़की हमारे घर में रहेगी और जब तक तुम किसी अच्छे ओहदे पर फ़ाइज़ नहीं होते, लड़की के अख़राजात के हम ज़िम्मेदार होंगे।

    तजवीज़ कितनी माक़ूल थी कि ख़र्च तो तुम्हारे वालिद करें और बच्चे मैं पैदा करता जाऊँ, लेकिन ये कब तक हो सकता था, आख़िर एक एक दिन मुझे अपने बच्चों का बाइज़्ज़त बाप बनना पड़ेगा। मेरा ज़मीर इस ज़िल्लत को बर्दाश्त कर सका, क्योंकि इस निज़ाम में एक अच्छी जगह हासिल करना एक मुहिम सर करना है और चूँकि मैं एक मुतवस्सित तबक़े से तअल्लुक़ रखता हूँ और तबक़ाती कश्मकश की बहीमियत और शक़ावत हर रोज़ बढ़ती जा रही है। हर शख़्स एक दूसरे का गला घोटने के लिए तैयार है और अगर मुतवस्सित तबक़े का कोई फ़र्द इस ख़लीज को पाटना चाहे या यह कोशिश ही करे तो उसके साथी ही उसकी टाँग खींचते हैं और अर्शी तबक़े वाले लोग कब ये गवारा करते हैं कि कोई ज़मीनी आदमी उनके महलों में क़दम रख सके और इस करब अंगेज़ कशमकश में वो इंसान नहीं रहता, एक बे रूह, बे जान लोथ बन जाता है और मुझे तो उस रौशनी के मीनार को पाने के लिए काफ़ी जद्द-ओ-जहद करनी थी।

    मेरे पास किसी बड़े आदमी की सिफ़ारिश थी, रिश्वत और तोहफ़ों के लिए इतना रूपया था और इंग्लैंड से कोई डिग्री भी लेकर आया था, कोई रिश्तेदार किसी आला ओहदे पर फ़ाइज़ था, तो इन हालात में मैं कैसे एक अच्छी जगह हासिल कर सकता था, सिर्फ़ क्लर्की अपना मुँह खोल रही थी और वो भी साठ रूपों की क्लर्की जो आज कल जंग के ज़माने में टके पर बिकने लगी थी और फिर हर पढ़ा लिखा नौजवान क्लर्क बन कर अपने आपको अफ़लातून समझता है और बच्चे पैदा करने से ज़रा नहीं झिजकता और कभी-कभी तुम्हारी सुनहरी आरज़ुओं का जाल मेरे क़रीब जाता तो मेरे सब्र के बंद टूट जाते और मैं सोचता कि मुझे क्या ग़रज़ है कि मैं अपने आपको यूँ बरबाद कर दूँ, अज़ल से लेकर अबद तक ये अंधेरा छाया हुआ है।

    और आज तक कोई शख़्स उस अंधेरे को दूर कर सका बल्कि ये अंधेरा दिन दिन ज़्यादा गहरा होता गया और मैं उस रौशनी के मीनार को पाने की बे सूद कोशिश कर रहा हूँ। क्यों मैं अपने आपको उस अंधेरे के वसीअ और बे-पायाँ समुंदर में फेंक दूँ और हमेशा के लिए उसमें ग़र्क़ हो जाऊँ और फिर उस अंधेरे में तुम्हारे होंट चमकने लगते, तुम्हारे गाल तमतमाने लगते, तुम्हारे लांबे-लांबे बाल सर से लेकर पाँव तक छा जाते, तुम्हारी आँखों में सुनहरी आरज़ुएं नाचने लगतीं और मैं तुम्हें पकड़ने की कोशिश करता, ताकि तुम्हारे सियाह बालों में अपने आपको छुपा लूँ और तुम्हारी आतिशीं ख़्वाहिशें मुझे चारों तरफ़ से घेर लें और हम दोनों इस अंधेरे समुंदर में बाक़ी इंसानों की तरह लुढ़कते रहें, कम अज़ कम तुम्हारे होंटों का लम्स मुझे हमेशा के लिए उन इक़्तिसादी झंझटों से आज़ाद कर देगा, लेकिन मैंने सिगरेटों की एजेंसी लेकर शादी करना गवारा किया... जाहिल!

    शायद मुझे आम इंसानों की तरह ज़िंदगी गुज़ारने की कभी आरज़ू हुई, बल्कि मुझे उन लोगों से नफ़रत सी हो गई है और उसी तर्ज़-ए-बूद-ओ-बाश से, उस मुआशिरत से, उस तहज़ीब-ओ-तमद्दुन से मैं रौशनी के मीनार को पाना चाहता हूँ और उसकी नूरानी किरनों को दुनिया में बिखेरना चाहता हूँ ताकि इस फैले हुए बे पायाँ अंधेरे में कुछ कमी हो जाए, लेकिन आज तक रौशनी के मीनार को कौन पा सका है, ये सरमायादार क़ुव्वतें हमें उसी रौशनी के मीनार के नज़दीक भटकने नहीं देतीं, मैं यूँ ही इस बहस में पड़ गया।

    जैसे लोग सरमाया-दाराना निज़ाम को नहीं समझते, इन बातों से कुछ बनना नहीं है। नाहक़ मैं अपने दिमाग़ को परेशान कर रहा हूँ, अब तुम शौहर वाली हो, एक बच्चे की माँ हो और तुम्हारा घर है और मालूम नहीं तुम क्या हो और क्या हो जाओगी, मुझे मालूम हुआ है कि तुम्हारा शौहर लोहे का ब्योपार करता है, आज कल लोहे की अशद ज़रूरत है और लोहे की क़ीमत तो सोने के बराबर है, आज कल तुम्हारी चाँदी है, कहाँ सरमाया दाराना निज़ाम की बातें और कहाँ लोहा और सोना। दर अस्ल हमारी ज़ेहनीयत भी सरमाया दाराना हो गई है, हम ख़तों में भी उन चीज़ों का ज़िक्र किए बग़ैर नहीं रह सकते, ख़ैर छोड़ो उन बातों को, उसके बाद क्या हुआ, तुम जानती भी हो, तुमने मेरा इंतिज़ार किया, एक साल, दो साल, तीन साल, शायद कहीं नौकरी मिल जाए। लेकिन मैं नौकरी करना ही नहीं चाहता था, इसलिए नौकरी कहाँ मिलती, आख़िर तुम्हारे वालिदैन ने तंग आकर तुम्हारे लिए फिर वर ढूँढना शुरू कर दिया और मैं इस दौरान में तुम्हारे ताने सुनता रहा और आख़िर तुम कब तक मेरा इंतिज़ार करतीं, हर मर्द एक आसूदा ज़िंदगी गुज़ारना चाहता है तो फिर तुम्हें हक़ था कि तुम अपने रवैये को बदल देतीं और अपनी ज़िंदगी एक नए क़ालिब में ढालतीं और फिर एक दिन तुम्हारी बारात गई।

    मैं उस दिन उसी शहर में था, तुम्हारे वालिद ने मुझे मदऊ नहीं किया, शायद ये नाराज़गी का इज़हार था, कि मैंने क्यों शहर के एक बड़े आदमी की बात रखी और नाता तोड़ दिया। तुम जिस तरह मुझे भूल गईं मैं उसकी तारीफ़ करता हूँ और जिस ख़ुशी से तुमने अपने ख़ावंद के गले में हार डाला, उसकी भी दाद देता हूँ, तुम्हारी सहेलियों ने मुझे बताया कि तुम बहुत ख़ुश थीं, ये बातें सुन कर मुझपर सदमा हुआ लेकिन तुम्हारी इस नई रविश ने मुझे ज़ेहनी तक़वियत भी दी, ज़िंदगी के एक नए ज़ाविए से आगाह कर दिया।

    तुमने मेरी याद को दिल-ओ-दिमाग़ से इस तरह ख़ारिज कर दिया जिस तरह एक नई दुल्हन शादी के चंद महीनों बाद अपना लाल जोड़ा उतार फेंकती है। मुझे मालूम है तुम हँसती-खेलती अपने ख़ावंद के साथ चली गईं। तुम मुझे पीर पूर के अड्डे पर मिलीं, जब तुम गौने के बाद वापस रही थीं, तुम्हारा ख़ावंद तुम्हारे साथ था, वो कुछ वजीह था। ये महसूस करके मुझे ख़ुशी हुई, कम-अज़कम वो मुझसे ज़्यादा ख़ुश शक्ल था बल्कि मैं तो निहायत फ़राख़-दिली से उसे भद्दा कह सकता हूँ, लेकिन तुम ख़ुश थीं, तुमने एक निहायत क़ीमती साढ़ी पहन रखी थी, जिसका रुपहली किनारा तुम्हारे सियाह बालों को चूम रहा था। तुम्हारे चेहरे का सिर्फ़ एक हिस्सा दिखाई दे रहा था, इसलिए मैं तुम्हारी ख़ुशी और इंबिसात का पूरा अंदाज़ कर सका, तुमने मुझे देख कर आँखें फेर लीं और ज्वार के लहलहाते खेतों की तरफ़ देखने लगीं और फिर लारी चल पड़ी।

    तुमने शादी करके उस घरेलू ज़िंदगी को अच्छी तरह देख लिया होगा, ये ज़िंदगी कोई इतनी अच्छी नहीं, इसमें कोई ख़ास जाज़िबीयत नहीं, सास और ननद के झगड़े, सास और बहू के झगड़े, ख़ावंद और बीवी के झगड़े और फिर इक़्तिसादी झगड़े, मिज़ाज की ना मुवाफ़िक़त और तरह-तरह की छोटी-छोटी बातों से ज़िंदगी अजीरन हो जाती है, लेकिन तुम एक हिंदुस्तानी औरत हो और हिंदुस्तानी औरत के लिए शादी ही ज़िंदगी का सबसे बड़ा अतीया है और इसीलिए तुमने इस ज़िंदगी को अपना लिया होगा, नहीं तो इसके सिवा क्या चारा है।

    मैं अभी तक अकेला हूँ, बिल्कुल अकेला और तन्हा, दिन-रात रौशनी का मीनार मेरी आँखों के सामने नाचता रहता है, मैं उसे छू नहीं सकता, इस तन्हाई में कभी-कभी तुम याद जाती हो। सिर्फ़ तुम ही नहीं बल्कि कुछ और औरतें भी, जिनसे मैं मोहब्बत कर चुका हूँ, अब उन सबकी याद मादूम होती जा रही है और अब ये हालत है कि तो मैं मोहब्बत कर सकता हूँ और शादी। अब सिर्फ़ एक जिस्म से प्यार कर सकता हूँ। जहाँ मैं आज कल रहता हूँ वो जगह शहर से अलग थलग है इसके बावजूद उस जगह में इतनी कशिश है कि बयान नहीं की जा सकती। शायद उस जगह में इतनी कशिश और जाज़िबीयत होती अगर सामने वाली कोठी में एक लड़की रहती होती जिसका मैं ज़िक्र करने वाला हूँ। हमारे ये पड़ोसी निहायत अमीर-ओ-कबीर हैं, एक आलीशान कोठी में रहते हैं, बाहर हमेशा कारें खड़ी रहती हैं लेकिन मुझे उन कारों और आलीशान कोठियों से दिलचस्पी नहीं बल्कि एक लड़की से है जो उस कोठी में रहती है। मैंने आज तक ऐसी हसीन-ओ-जमील लड़की कहीं नहीं देखी। ये लड़की नहीं बल्कि एक मुकम्मल औरत है और और लड़की में फ़र्क़ होता है, बस वही फ़र्क़ जब तक तुम्हारी शादी नहीं हुई थी, तुम लड़की थीं, जब तुमने शादी करली तुम औरत बन गईं। लेकिन हमारी पड़ोसन शादी के बग़ैर एक मुकम्मल औरत है, ये एक बीसवीं सदी का मुअम्मा है।

    एक दिन वो मुझे बस में मिल गई, जिस हिक़ारत से उसने मेरी तरफ़ देखा, वो आज तक मेरे सीने में बिच्छू के डंक की तरह रेंग रही है, उसने यूँ ही सरसरी नज़रों से मेरे कपड़ों का जाइज़ा लिया, जैसे मेरी रूह कपड़ों में मुक़य्यद है और मेरा जिस्म एक बेजान शय है। वो मेरी सुर्ख़ निकटाई देख कर मुस्कुराई, जिसकी गिरह ज़्यादा इस्तेमाल की वजह से मैली हो गई थी, फिर उसकी नज़र मेरे हईयत की तरफ़ गई जिसका ऊपर वाला हिस्सा काफ़ी दबा हुआ था, मैंने पतलून की क्रीज़ को दुरुस्त किया लेकिन मेरे बूट जिनपर दो माह से पॉलिश हुई थी, मेरी सरासीमगी पर ख़ुशमगीं हो गए, उस दिन मैंने जुराबें भी पहनी थीं, दर अस्ल मैं जुराबें पहनता भी नहीं, उस दिन मुझे अपने जमालियाती मज़ाक़ पर बहुत ग़ुस्सा आया।

    पतलून के निचले हिस्से और बूटों के दरमियान मेरी टाँगों का हिस्सा बरहना था जिसपर सख़्त-सख़्त बाल उगे हुए थे, बूटों के तस्मे मेरी आवारगी पर एक क़हक़हा लगा रहे थे, शर्म से में ग़र्क़-ग़र्क़ हो गया और टूटी हुई खिड़की से बाहर झाँकने लगा। मैंने अपने भोंडेपन को छुपाने की बहुत कोशिश की, लेकिन मुझमें और उस लड़की में काफ़ी तफ़ावुत था। एक वसीअ ख़लीज हाइल थी, उसको पाटना मेरे लिए ना मुमकिन था, उस ख़लीज में कारें, कोठियाँ, डिनर सेट, नौकर, नौकरानियाँ, चाँदी के सिक्के, बैंक के नोट, ख़ूबसूरत औरतें, हरीरी पर्दे, व्हाइट हॉर्स, छुरी काँटे सब कुछ तैर रहे थे और मैं दूसरे किनारे पर खड़ा था। उसकी इस तमस्खु़र आमेज़ मुस्कुराहट का मतलब समझ गया, लेकिन उसकी आँखें जिनपर वो हमेशा एक आसमानी रंग का चश्मा चढ़ाए रहती है, असलियत को छुपा सकीं, वो आँखें मग़्मूम थीं।

    उन आँखों ने दुनिया की ख़ला को देख लिया था, इतनी दौलत होते हुए और हुस्न की फ़रावानी के बावजूद ये आँखें बेचैन थीं, ये आँखें उदास थीं। उनमें ज़िंदगी की लाहासिली नुमायाँ थी जैसे वो किसी का इंतिज़ार करते-करते थक गईं लेकिन अंधी हो सकीं, चाँदी के सिक्के बहुत कुछ कर सकते हैं, उन सिक्कों से ख़ुशी के लम्हे ख़रीदे जा सकते हैं, शायद उसने भी किसी को चाहा और उसकी मोहब्बत परवान चढ़ सकी, लड़की ने मुँह फेर लिया और साथ वाली क्रिश्चियन लड़की से गुफ़्तगू करने लगी, लड़की की आँखें अफ़्सुर्दा होती गईं, उसके दिल की गहराइयों का अक्स उसकी आँखों में तैर रहा था और आँखें साफ़ कह रही थीं क्यों जवानी की उमंगों को कुचला जाए, ये जवानी कब तक रहेगी, ये दुनिया हर चीज़ को भूल जाती है, इंसान अपने आपको भूल जाता है, क्यों अपने आपको इन रंगीन पर्दों में छुपाया जाए।

    ये सुनहरी नारीया थिरकते हुए बाज़ू, ये नाच घर, आँखों में पीर का हल्का-हल्का नशा, टाँगों का थिरकना और किसी के बाज़ू कमर में हमाइल और नाचना, फिर नाच कर चूर हो जाना, क्यों इस ज़िंदगी को अपनाया जाए, लेकिन ये नशा हर वक़्त क़ाइम नहीं रहता और टूट जाता है और उसकी जगह बद-मज़दगी ले लेती है, कभी-कभी सोचता हूँ, मुझे क्या, ये औरत मेरे दायरे से बाहर है, मेरे हल्क़े से बाहर है, मैं कभी उसके जिस्म को छू नहीं सकता, मैं किसी को पाने की नाकाम कोशिश करता हूँ।

    जिसको हासिल कर सकता था, जिसके होंटों को चूम सकता था, उसको दूसरे के हवाले कर दिया और आज एक ऐसी औरत को पाने की तमन्ना रखता हूँ जिसके होंट दूसरे इंसानों के लिए वक़्फ़ हो चुके हैं लेकिन इंसान हमेशा उस चीज़ को पाने की कोशिश करता है जो उसे मिलती नहीं। मैं अपनी बेवक़ूफ़ी पर हँसता हूँ और सोचता हूँ कि क्यों अकेला हूँ, मैं क्यों सायों के पीछे भागता हूँ, मैं क्यों किसी के जिस्म को हमेशा के लिए ख़रीद लूँ ताकि इस ना ख़त्म होने वाली अफ़सुर्दगी और तन्हाई से रिहाई पा सकूँ, क्या मैं ऐसा कर सकूंगा और अगर कर भी लिया तो तुम्हें क्या...?

    स्रोत:

    Mahender Nath Ke Behtareen Afsane (Pg. 64)

    • लेखक: महेनद्र नाथ
      • प्रकाशक: उपेन्द्र नाथ
      • प्रकाशन वर्ष: 2004

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