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चाय की प्याली

मोहम्मद हसन असकरी

चाय की प्याली

मोहम्मद हसन असकरी

MORE BYमोहम्मद हसन असकरी

    हालाँकि वो ये देखना तो चाहती थी कि इस एक साल के दौरान में कौन-कौन सी नई दुकानें खुली हैं, कौन-कौन से पुराने चेहरे अभी तक नज़र आते हैं, वो गोरा गोरा सुनार का लड़का अब भी दुकान पर बैठा हुआ अपने बालों पर हाथ फेरता रहता है या नहीं, सिंगर के एजैंट के यहाँ वो नन्ही सी सीने की मशीन अभी तक सामने रखी है या बिक गई। मगर जब ताँगे वाले ने शहर से बाहर बाहर जाने वाली सड़क पर ताँगा मोड़ा तो उसने कोई एहतिजाज किया, बल्कि अपनी निगाहें घोड़े की तरफ़ फेर लीं। वो गुज़रते हुए मकानों पर दूसरी नज़र डाल कर उन्हें इतनी अहमियत ही क्यों दे! वो इस ज़बरदस्त तहरीस का इतनी कामयाबी से मुक़ाबला कर सकने पर ख़ुश थी, और ख़ुद को बड़ा हल्का और सुबक महसूस कर रही थी जैसे वो किसी बड़ी आज़माईश से अपने आपको सही-ओ-सालिम निकाल लाई हो। उसने इत्मीनान का गहरा साँस लिया, और सीट पर ख़ूब खुल कर बैठ गई।

    बे-शुमार दौड़ती हुई लकीरें ताँगे के नीचे से निकली चली जा रही थीं, हेच मिक़दार और ना-चीज़, बल्कि मज़हका-ख़ेज़ लकीरें, और वो बुलंदी पर बैठी उनकी सरासीमगी से लुत्फ़ उठा रही थी। अगर वो बाज़ार के रास्ते से जाती तो घोड़ा गिन-गिन कर क़दम रखता, और वो किसी किसी दुकान की तरफ़ देखने पर मजबूर हो जाती। इतनी बात तो ज़रूर थी कि दुकानदार उसे देखकर चौंक से पड़ते, उनकी निगाहें दूर तक उसका पीछा करतीं, और वो सोचते, “उफ़्फ़ोह, अब ये कितनी शानदार हो गई है, इसके बाल कैसे चमकीले हैं, और कपड़े कितने उ’म्दा हैं!”

    मगर उनके दिल में तजस्सुस और तहय्युर कभी पैदा होता, और उनकी आँखों की चमक ये पूछती, “कौन है भई ये? कहीं बाहर से आई मा’लूम होती है।”

    इसके बर-ख़िलाफ़ उनका अंदाज़ तो सर-परस्ताना होता, और उनके ख़यालात कुछ इस क़िस्म के होते, “भई हमारी इस लड़की ने तो ख़ूब रंग-रूप निकाला है शाबाश, शाबाश!”

    जैसे उसके रंग-रूप निकालने में उनकी कोशिशों को भी दख़्ल हो, और वो उससे ज़ियादा अपने आपको ऐसी पुर-तजम्मुल चीज़ के हुसूल पर मुबारकबाद दे रहे हों। उनकी हल्की ज़ेर-ए-लब मुस्कुराहट से मा’लूम होता कि वो ये पूछने वाले हैं, “कहो, अच्छी तो रहीं, बहुत दिन में दिखाई दी हो।”

    या फिर जैसे उन्हें ये तवक़्क़ो’ हो कि वो उनकी तरफ़ शनासा नज़रों से देख ही तो लेगी। सड़क के गड्ढे तक ये पर्वा करते कि अब वो यहाँ के “मिशन गर्ल्ज़ स्कूल” में नहीं पढ़ती। जिस पर धुँदले उर्दू हर्फ़ों में “लड़कियों का मदरसा” लिखा रहता है, बल्कि अ’लीनगर के “क्रिस्चियन गर्ल्ज़ इंस्टीटियूट” की तालिब-ए-इ’ल्म है। और वो उस पर ख़फ़ीफ़ होते कि वो झटके दे-देकर उसे हिलाए डाल रहे हैं। वो तो बस ज़मीन पर पड़े-पड़े गुस्ताख़ाना कहते रहते, “अरे, अब तुमसे क्या वो, तुम कोई ग़ैर थोड़ी हो। महीनों तुम इधर से स्कूल आते-जाते गुज़रती रही हो। जाने कितनी बार तुम्हारे ठोकरें लगी हैं। और एक दफ़्अ’ तो शायद तुम्हारे पैर में मोच भी गई थी।”

    बस बिल्कुल उस बिस्कुट बनाने वाले की तरह जो उसे देखकर अपने काले हाथों और चेहरे समेत खड़ा हो जाता और कहता, “ओह, ये तो वही है ई’स‌ाई की...”, और दुकानों की छज्जों और पर्दों के साये तो दोनों तरफ़ से उसे घेर लेते, खिसकते, रेंगते, घिसटते, उसके पीछे चले आते, उसके क़दमों से लिपटे जाते, उसके जिस्म से कहीं कहीं चिपक जाने की कोशिश करते, बे-कसी के लहजे में, भिंचे हुए गले से कहते, जैसे दम तोड़ रहे हों, “बस एक लम्हा ठहर जाओ... बस एक नज़र... अपने पुराने सायों की तरफ़।”

    और उनकी ये आ’जिज़ी और मिन्नत-समाजत बेकार जाती। उसके ढीला पड़ते ही वो उसके दिल में घुस आते और सीने में टाँगें फैलाकर सो जाते, यहाँ तक कि उसका सर ढलक जाता, साँस हल्का-भारी पत्थर हो जाता, और उस पर कस्ल-मंदी तारी हो जाती जिसमें बेचैनी भी शामिल होती। लेकिन ताँगे वाली की सिर्फ़ एक इज़्तिरारी हरकत ने उसे इन तमाम पसीजी हुई, चिपचिपाती उलझनों और झंझटों से बचा लिया था। वो अब कितनी आज़ाद और हल्की-फुल्की थी, उसकी शख़्सियत पिघल कर दूसरी चीज़ों में नहीं मिली जा रही थी। वो अपना आप थी, सिर्फ़ और महज़... मिस डौली रौबिनसन... बग़ैर किसी जम्अ’-तफ़रीक़ के।

    गुलाबी फ़्राक, सफ़ेद दुपट्टा, और ऊँची एड़ी का काला जूता पहने हुए, सफ़ेद चिकनी पिंडलियाँ ताँगे पर मज़बूती से जमी हुई, कुहनी तकिए पर, सुनहरे बंदे दोनों तरफ़ झूल-झूल कर चमकते हुए, एहतियात से बने हुए काले बाल, और पाउडर की ख़ुश्बू। अगर कोई उसे “डौली” कह कर पुकार लेता तो वो ताँगे पर पैर मार कर कहती, “क्या फ़रमाया जनाब ने? डौली? मगर, मुआ’फ़ कीजिएगा, मैं तो मिस रौबिनसन हूँ, क्रिस्चियन गर्ल्ज़ इंस्टीट्यूट अ’लीनगर की सातवीं क्लास की तालिब-ए-इ’ल्म। और मैं मौजूद तो हूँ आपके सामने। देख लीजिए, भला मैं डौली हो सकती हूँ?”

    अगर वो महज़ मिस रौबिनसन बनना चाहती थी तो यहाँ भी कोई साया, कोई सीढ़ी, कोई दहलीज़, कोई गड्ढा ऐसा था जो ख़्वाह-मख़ाह ज़िद किए चला जाता, “मगर थमो तो। हम तो तुम्हें मुद्दतों डौली के नाम से जानते रहे हैं।”

    शहर के बाहर बाहर जाने वाली सड़क की इन्फ़िरादियत-पसंद कोठियाँ अपने आप ही बड़ी ख़ुद्दार, पुर-तमकनत और बे-नियाज़ वाक़े’ हुई थीं, वो बाहर की तरफ़ देखती ही थीं। अगर वो उस पर बड़ी मेहरबान होतीं तो ज़रा सा मुस्कराकर कह देतीं, “अच्छा, तो आपका नाम मिस रौबिनसन है जी, बहुत ख़ूब।”

    इन कोठियों के मुतालिबे से तो वो यूँ आज़ाद हो गई। मगर दोपहर का सूरज तो अ’मली तौर से उसकी मदद कर रहा था। एक सख़्त-गीर आक़ा की तरह उसने अपनी निगाह-ए-गर्म से सारे सायों को घेर-घेर कर सामने से भगा दिया था, और वो सहम-सहम कर दीवारों से लिपटे जा रहे थे। तेज़ धूप ने इ’मारतों को ऐसी आँच दी थी कि उनका रंग-वंग सब उड़ गया था, और उनके दिल से ख़ुद-नुमाई के वलवले निकल चुके थे। अब तो वो जली भुनी खड़ी थीं, जैसे कह रही हों, “चाहे देखो, चाहे देखो। जहन्नुम में जाओ।”

    जहन्नुम में जाओ। उनकी चिड़चिड़ाहट और कोसने भी कितने मज़हका-ख़ेज़ थे। तुम रूठे, हम छोटे ताँगे के तख़्ते पर उसके पैर का दबाव उसे बराबर याद दिलाए जा रहा था कि उसे इन गिर्द-ओ-पेश की चीज़ों पर आ’दी होने का हक़ हासिल है क्योंकि सबसे बड़ी बात तो ये है कि वो मिस रौबिनसन है जिसके बाज़ू गोल और गुदाज़ हैं, और आस्तीनों से बाहर निकले हुए, और फिर ये भी कुछ कम नहीं कि वो अ’लीनगर से रही है जहाँ शीशे की तरह झलकती हुई कोठियाँ हैं, शानदार स्टेशन, और फ़रह-नाक कंपनी बाग़। अगर वो यहाँ की इ’मारतों की तरफ़ देख रही है तो उसके ये मअ’नी थोड़े हैं कि वो इसके लिए जाज़िब-नज़र हैं। अब क्या वो आँखें बंद कर ले? अगर वो रश्क-ओ-हसद से फुँकी जा रही हो तो ख़ैर कर भी ले।

    अब तक तो वो अपने आपको हर क़िस्म के जादू से बड़ी सफ़ाई के साथ बचाती आई थी, मगर जब वो अड्डे के क़रीब मंडी में पहुँची तो उसे अपनी महबूब शख़्सियत को बर-क़रार रखना मुश्किल हो गया। यहाँ के तरबूज़ों के ढेरों, अनाज की गाड़ियों, यक्कों, घास वालियों, भूरी मूँछों वाले किसानों, गुड़ की जलेबियों पर भिनकते हुए ततैयों और लोहे की दुकानों की दूसरे शोर-ओ-ग़ुल से ऊपर सुनाई देने वाली ठनाठन के दरमियान “मिस रौबिनसन” एक बे-मअ’नी सी बात हो कर रह गई थी।

    अ’जीब या मज़हका-ख़ेज़ नहीं... महज़ मुहमल और ना-क़ाबिल-ए-तवज्जोह। जैसे मिस्टर तरबूज़ या मैडम गाड़ी। यहाँ तो वो महज़ एक ताँगे में एक लड़की थी या, रिआ’यतन, एक ई’स‌ाई लड़की। बस जैसे एक यक्के में दो मर्द, चार औ’रतें, पाँच बच्चे, या गाड़ी में लगा हुआ पहिया। या ढेर में एक तरबूज़। हर चीज़ की हैअत मुई’न थी, वाज़ेह, रौशन, क़तई, पूरी तरह अपनी लकीरों के दरमियान... कहीं से रंग बहा हुआ, कहीं धुँदला। हर चीज़ की अपनी फ़र्दियत थी... अलाहिदा, ठोस, मुस्तक़िल, जरी, अपनी जगह पर मुतमइन, मरंजाँ-मरंज तो वो दूसरों की शख़्सियत का एक हिस्सा दबा लेना चाहती थी, और गिड़गिड़ाकर इल्तिजाएँ करती थीं कि उन्हें कोई अपने अंदर मुदग़म कर ले।

    बड़ा ग़ज़ब तो ये था कि वो अदा’वत पर भी आमादा थीं। ढेर में दबा हुआ तरबूज़ भी चैन से नीचे पड़ा था, और उसे ऊपर वाले तरबूज़ से कोई शिकायत थी। और फिर उन सबने एक दूसरे की फ़र्दियत का एहतिराम करने का कुछ ऐसा समझौता कर लिया था, और एक दूसरे से हम-आहंग रहने की ऐसी कोशिश कर रही थीं कि यहाँ आते ही हर चीज़ अपना इख़्तिसास और नुदरत खो देती थी... अ’लीनगर की मिस रौबिनसन भी।

    मिस रौबिनसन के लिए भी अपनी शख़्सियत को मनवाने की कोशिश करना फ़ुज़ूल और ग़ैर-अहम बन गया था। नमक की कान में आकर नमक बन जाने के ख़िलाफ़ मुदाफ़अ’त नहीं हो सकती थी। ज़ाहिर में तो वो यहाँ के बे-ढंगेपन पर हँस रही थी, मगर मुश्किल तो यही थी कि वो इस सबसे बेज़ार नहीं थी। उस पर तो एक मुतमइन तअ’त्तुल की कैफ़ियत तारी थी।

    यूँ तो मंडी और अड्डे का थोड़ा सा दरमियानी फ़ासिला भी कोई बहुत रूह-अफ़्ज़ा था, अपना यही एक-आध पान और सोडा वाटर की दुकान थी, या फिर दरख़्तों के नीचे नाई के लड़के अपने बक्सों से टेक लगाए, एक दूसरे से बैठे गप लड़ा रहे थे। मगर फिर भी उसे एक क़िस्म की रिहाई का एहसास हो रहा था। उसका हिस्सियाती जुमूद ख़त्म हो गया था, और अब वो कम से कम अपना रद्द-ए-अ’मल तो मुई’न कर सकती थी। उसका पैर एक मर्तबा फिर तख़्ते को उसी तरह दबा रहा था, तकिया फिर उसकी कुहनी के नीचे वापिस गया था और ख़ुद ताँगा भी पहले से ऊँचा था। वो ये बता सकती थी कि सामने वाली दुकान के गिलास में सोडा वाटर उसके लिए ना-क़ाबिल-ए-क़ुबूल है।

    वो इस इ’ल्म से भी लुत्फ़-अंदोज़ हो सकती थी कि नाई के लड़के जो उसे कनअँखियों से देख रहे थे और ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगे थे, उसकी आँखों और रुख़्सारों को फड़का सकते हैं, उसके होंटों को माइल-ब-तबस्सुम कर सकते हैं, मगर उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकते। इतना भी नहीं जितना सिनेमा के पर्दे पर नज़र आने वाली ऐक्ट्रेस का, क्योंकि वहाँ तो वो दो आने देकर कम से कम ऐक्ट्रेस के गालों के गड्ढे पर सिसकियाँ भरने का हक़ ख़रीद लेते हैं। मगर मिस रौबिनसन अपने जादू के उड़न-खटोले में उनकी ख़यालों तक की पहुँच से बाहर थी।

    लेकिन फ़रहत की ये लहरें देर-पा साबित हुईं। अड्डे पर पहुँचते ही वो घड़घड़ाते हुए यक्कों, लारियों की क़तारों, मोटर के हॉर्न की आवाज़ों, यक्के वालों की लड़ाईयों और लारियों के एजैंटों की सदाओं के नर्ग़े में फँस गई। ये बात नहीं कि अ’लीनगर की मुजल्ला-ओ-मुसफ़्फ़ा और पुर-सुकून फ़ज़ा में रहने के बा’द ये शोर-ओ-ग़ौग़ा, ये हंगामा-ए-रुस्ता-ख़ेज़, और ये गर्द के बादल उसे ना-गवार गुज़र रहे हों और उसने दो एक-बार “फ़ूह... फ़ूह!”, करने के बा’द मुँह पर रूमाल रख लिया हो।

    ये चीज़ें तो सब जानी-पहचानी थीं, और इतनी मा’मूली और बे-ज़रर मा’लूम हो रही थीं जैसे वो रोज़ यहाँ आती रही हो। वो पहली ही नज़र में पहचान गई कि वो नीले रंग की लारी जखेड़े जाती है, और लाल रंग की टीकमपूर, और वो टूटी हुई छतरी वाला यक्का बहुत सुस्त चलता है, और वो दाढ़ी वाला आदमी चुंगी का मुंशी है। कोई भी चीज़ पुर-इ’नाद थी। बल्कि अगर वो चाहती तो गिर्द-ओ-पेश की सारी चीज़ें बड़े फ़ख़्र-ओ-मुबाहात के साथ उसका ख़ैर-मक़दम करने के लिए तैयार थीं। मगर, जाने क्यों, वो मिस रौबिनसन की शख़्सियत को फैलाकर इस माहौल पर मुसल्लत कर देने के ख़याल से ही अपने दिल को बैठता हुआ महसूस कर रही थी।

    और उससे ये होता था कि डौली बन कर अपने आपको इन चीज़ों की गोद में दे दे। वो तो पहलू बदले जा रही थी, सिमटती थी, सिकुड़ती थी, तरह-तरह से अपने बाज़ू को सामने लाती थी जैसे कोई वार रोक रही हो। कभी तो ये चाहती थी कि ताँगा चलता ही रहे, चलता ही जाए, और कभी ये कि बहुत से यक्के सामने हो जाएँ और ताँगा रुका खड़ा रहे। यहाँ तक कि शाम हो जाए और वो बग़ैर किसी की नज़र पड़े अपनी लारी में बैठ जाए। उसकी हालत बस बिल्कुल उस नौ-ख़ेज़ लड़की की तरह थी जो अपनी माँ की निगाहों से अपना पेट छुपाती फिरे, और अगर कभी ऐसा हादिसा रू-नुमा हो जाएगी तो घंटों होंट काटती रहे। वो अपने क़स्बे की लारी को जा-ए-पनाह समझ कर उसकी तरफ़ बढ़ भी रही थी, और उसके ख़याल से झिजक भी रही थी, क्योंकि वही तो सबसे ज़ियादा मानूस चीज़ थी और उसी की तो उसे ज़रा-ज़रा सी तफ़सील याद थी।

    जब उसकी अपनी लारी के बजाए कहीं और की लारी सामने आती थी तो उसे ख़ुशी होती थी कि चलो थोड़ी देर को तो और बला टली। मगर जब उसकी लारी के एजैंट ने ताँगे के क़रीब आकर कहा, “कहाँ जाना है? टीकम पूर?”, तो उसे एक गूना तकलीफ़ हुई। इस ख़याल से कि वो ये ज़ाहिर करने की कोशिश कर रहा था जैसे उसे पहचानता हो। उसने बड़ी गुलू-गिरफ़्ता आवाज़ से जवाब दिया, “हाँ... नहीं। सादाबाद।”

    “वो खड़ी है लारी आख़िर में।”, एजैंट ने एक यक्के की तरफ़ जाते हुए कहा, “वो भूरे रंग की... बस तैयार है।”

    ताँगा रुकने से पहले ही उसने ताँगे वाले को पैसे पकड़ा दिए और जल्दी से नीचे कूद पड़ी। लारी में दो एक मुसाफ़िर अंदर की तरफ़ बैठे थे, और ड्राईवर खिड़की से टेक लगाए, स्टीयरिंग व्हील पर पैर रखे सोने की कोशिश में सर पर हाथ फेर रहा था। पहले तो डौली ने तकल्लुफ़ात को बाला-ए-ताक़ कर देना चाहा, मगर होंटों तक आते-आते उसके लफ़्ज़ बदल गए। उसने मशकूक लहजे में पूछा, जैसे उसे ड्राईवर पर ए’तिमाद हो, “कहाँ जाएगी ये लारी?”

    “सादाबाद।”, ड्राईवर ने सर फेर कर जवाब दिया।

    हालाँकि ड्राईवर का रवैया ऐसा तलत्तुफ़-आमेज़ था, मगर उसकी आवाज़ सुनते ही डौली को ऐसा मा’लूम हुआ जैसे सर्द, सनसनाती हुई हवाओं के दरमियान यकायक एक कमरे ने आकर उसे छिपा लिया हो। लारी के इंजन का लम्स तक उसके लिए इस्म-ए-आ’ज़म की वो तख़्ती बन गया था जो उसे हर क़िस्म के आसेबों से महफ़ूज़ रख सकती थी। उसने ड्राईवर को और मुलाइम करने की कोशिश करते हुए कहा, “कै बजे जाएगी लारी?”

    “लारी...? यही कोई ढाई तीन बजे।”

    “तो कै बजे...? ठीक।”

    “हाँ... बस तीन बजे चल पड़ेगी लारी।”

    वो अपनी कोशिश के नतीजे के बारे में मुतज़बज़ब थी। दो एक लम्हे देखने के बा’द उसने पूछा, “और अब क्या बजा होगा?”

    ड्राईवर ने सामने के शीशे, खिड़की, और तेल के डिब्बों को टटोलने के बा’द जवाब दिया, “कोई एक होगा।”

    गो ये जवाब कुछ बहुत ज़ियादा तसल्ली-बख़्श था, मगर डौली ने फ़ैसला करते हुए कहा, “अच्छा तो...”

    अब तक ड्राईवर की ग़ुनूदगी पर उसकी मर्दानगी ग़ालिब चुकी थी, और उसे ये भी ख़याल गया था कि आख़िर पादरी साहिब से सलाम-दुआ’ है ही। इसलिए वो उठ बैठा और क्लीनर को दो-तीन आवाज़ें देकर डौली का सामान ऊपर रख देने के लिए कहा।

    सामान की तरफ़ से तो वो जल्द ही मुतमइन हो गई, मगर जगह का मसअला अभी दरपेश था। वो बाहर ही से खड़ी-खड़ी अंदर का जाएज़ा ले रही थी। पीछे की तरफ़ एक बढ़िया तंग पाएँचों का पैजामा पहने, पैर ऊपर रखे बैठी थी, और अपने पोपले मुँह से पान चबा रही थी। उसके सामने की सीट पर एक आदमी जो उसका बेटा मा’लूम होता था, बैठा एक गठड़ी को ठीक कर रहा था। बीच के हिस्से में रजिस्टरों के एक ढेर के क़रीब निक्कर पहने हुए और छोटी छोटी मूँछों वाला एक जवान सा आदमी था जो घबरा-घबराकर इधर-उधर देखने के बा’द रूमाल में बँधे हुए फलों को जो उसके पास रखे थे और क़रीब खिसका लेता था। डौली की समझ में रहा था कि आख़िर कहाँ बैठे, और इधर धूप अब ना-क़ाबिल-ए-बर्दाश्त हुई जा रही थी। वो बीच का दरवाज़ा खोलने वाली ही थी कि ड्राईवर ने सर उठाकर कहा, “बैठो, अंदर बैठो। बस अब चले है लारी।”

    गो “बैठो” ज़रा चौंका देने वाली बात थी, मगर उसकी आवाज़ सुनकर डौली के दिल में ये उम्मीद पैदा हो गई कि आख़िरी फ़ैसला ड्राईवर पर छोड़ देने से ख़ुद उसका बोझ तो हल्का हो जाएगा। इसलिए उसने ड्राईवर की तरफ़ बढ़ते हुए कहा, “हाँ... अच्छा... कहाँ बैठूँ?”

    “यहाँ जाओ, बीच की सीट पे।”, ड्राईवर को फ़ैसला करने में देर लगी।

    “हाँ... लेकिन।”, डौली ने डरते-डरते अपील की, “अगर आगे...”

    “आगे...? आगे तो जी, आज दरोग़ा जी जा रहे हैं। आगे तो उनकी जगह है।”

    मगर जब डौली उसी तरह खड़ी रही और हिली तक नहीं तो ड्राईवर ने एक लंबी सी अँगड़ाई ली, और काँखता हुआ नीचे उतर आया।

    “आगे बैठो हो।”, उसने नसीहत-आमेज़ अंदाज़ में कहा, “बैठ जाओ। हमें क्या वो हमारे से चाहे कोई बैठे। लेकिन दरोग़ा जी जा रहे हैं आज।”

    डौली ने अंदर बैठते हुए इस तरह दरवाज़ा बंद किया जैसे वो अपने मोर्चे के लिए बिल्कुल आख़िर तक मुक़ावमत करने पर तुली हुई हो। गो गद्दा इतना मोटा था कि सीट की लकड़ी को उसे तकलीफ़ देने से रोक सके, मगर वो हालात से ज़ियादा से ज़ियादा फ़ाएदा उठाना चाहती थी। इसलिए तेल के डिब्बों के दरमियान जहाँ तक हो सका उसने अपनी टाँगें फैला लीं, और अपने बदन से गर्मी निकालने और साँस ठीक करने की कोशिश करने लगी।

    कई मिनट तक रूमाल से हवा करने के बा’द उसे इतना होश आया कि वो किसी और तरफ़ मुतवज्जेह हो सके। जब उसने यकायक ये देखा कि लारी में दोनों तरफ़ आईने लगे हुए हैं जिनमें उसका चेहरा नज़र रहा है, तो उसे बड़ी हैरत हुई। मगर दूसरी निगाह ने हैरत को कसमसाहट में तब्दील कर दिया। उसके बाल जगह-जगह से निकले हुए थे और गर्द से भूरे हो गए थे। गर्मी ने उसके चेहरे को तमतमा दिया था, और वो गर्द-आलूद हो रहा था। ख़ुश्क पपड़ियों ने उसके होंटों की सुर्ख़ी ज़ाइल कर दी थी, और उसकी आँखें मैली और मुतवह्हिश थीं।

    उसने शर्माकर घबराते हुए रूमाल से बालों को झाड़ा। ज़ोर-ज़ोर से चेहरे को रगड़ा, और बार-बार होंटों पर ज़बान फेरी यहाँ तक कि वो दाँतों से छिल भी गए। आख़िर उसने झुँझलाकर आईने की तरफ़ से निगाह फेर ली, और बाहर की तरफ़ देखने लगी। बराबर वाली लारी पर मिस कजिन की तस्वीर लगी हुई थी, सितारों वाली हरी साड़ी, लंबे-लंबे बुंदे, पतली सी नाक जिसमें कील चमक रही थी, सुर्ख़ चेहरा, बड़ी बड़ी सुरमगीं आँखें, मगर ये तस्वीर तो उसे आईने की याद दिलाए दे रही थी। इसलिए उसकी निगाहें आगे बढ़ गईं, और वो अपनी आँखों के कोनों को पलकों से बंद कर-कर के तस्वीर की तरफ़ जाने से रोकने लगी।

    लारियों की क़तार की क़तार खड़ी थी मगर उसे सिर्फ़ उनके इंजन और मडगार्ड नज़र रहे थे। सामने दो यक्के वालों ने एक किसान के हाथ पकड़ रखे थे, और अपने अपने यक्कों की तरफ़ खींच रहे थे। दो एक ख़्वाँचे वाले, पानी पिलाने वाला और चंद क्लीनर जम्अ’ हो गए थे और आधे एक यक्के वाले को शह दे रहे थे और आधे दूसरे को। अख़बार वाला नानबाई की दुकान के सामने तख़्त पर कुछ थका हुआ सा बैठा था। वहीं बराबर में एक आदमी बैठा साईकल की मरम्मत कर रहा था, और उसके गिर्द तीन चार लोग खड़े जल्दी करने का तक़ाज़ा कर रहे थे। इसके बा’द सड़क पर कंकरों का एक ऊँचा सा ढेर था जिस पर बाल्टी रखकर एक ताँगे वाला अपने घोड़े को दाना खुला रहा था।

    सड़क के पार एक वसीअ’-ओ-अ’रीज मैदान था, ख़ुश्क और बिल्कुल सफ़ेद, धूप की सख़्ती के बा-वजूद मुतमइन और साकिन, बे-नियाज़, जैसे कोई मुअ’म्मर और जहाँ-दीदा रिवायती फ़लसफ़ी। हवा के हर झोंके के साथ मैदान से हल्के-हल्के ग़ुबार का बादल उठता था, और आहिस्ता-आहिस्ता ऊपर चढ़ जाने के बा’द निढाल सा हो कर खेतों में कटे हुए गेहूँ के सुनहरे अंबारों की तरफ़ उड़ता चला जाता था। खेतों से कुछ दूर आगे पेड़ों की क़तार थी जिनमें से किसी गाँव की कच्ची दीवारें और छप्पर दिखाई दे रहे थे। कभी-कभी कोई औ’रत या बच्चा दरख़्तों से बाहर निकल आता था, और एक-आध मिनट तक नज़र आने के बा’द फिर ग़ाइब हो जाता था।

    वो बहुत देर तक मुकम्मल इन्हिमाक के साथ सामने देखती रही। उसने महसूस किया था कि उसका जिस्म एक नूरानी और लतीफ़ माद्दे की शक्ल में तब्दील हो कर तफ़क्कुराना अंदाज़ में उस मैदान की वुसअ’तोंं पर छा गया है जिसके दोनों किनारे हवा से उड़ती हुई चादर की तरह ऊपर उठे हुए हैं। उसे ये भी मा’लूम हुआ था जैसे उसकी रूह अपने जिस्म को वहीं छाया हुआ छोड़कर अ’लैहिदा हो गई हो, और एक नन्ही सी अबाबील की तरह कभी तो डरावने ख़्वाबों की ख़ौफ़-ओ-हिरास के साथ और कभी बहार की शामों के सुकून-ओ-बहजत के साथ सारे मैदान पर चटचटाती फिर रही हो।

    टाँगें मिलाकर और बाज़ुओं को दोनों तरफ़ फैलाकर, सर को कुछ तो इज़्मिहलाल और कुछ जज़्बा-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा क़ी सरशारी से नीचे ढलकाए हुए, वो बगूलों के साथ ऊपर चढ़ती चली गई थी जो उसे फ़ज़ा में मुअ’ल्लक़ छोड़कर नीचे उतर जाते थे, और वहाँ से आसमान की मुतख़य्युल नीलाहटें उसे अपने अंदर खींच कर बे-हिस बना देती थीं। वो एक आम के पेड़ से लग कर गाँव की एक कच्ची दीवार को टकटकी बाँधे देखती रही थी, उसने आम के पत्तों की तर-ओ-ताज़ा कर देने वाली ख़ुश्बू सूँघी थी, फ़ज़ा की तरावत और ख़्वाब-नाकी उसके जिस्म में उतर गई थी, और वो कच्ची दीवार उसे अपनी पुरानी हम-जोली मा’लूम होने लगी थी।

    इसीलिए जब पीछे दरवाज़ा खुलने की आवाज़ ने उसे अपनी तरफ़ मुतवज्जेह किया तो उसकी निगाहें बड़ी हिचकिचाहट के बा’द सामने से मुड़ीं। एक यक्के में से दो तीन औ’रतें, बच्चे और कुछ मर्द उतरे थे, और अब उनका सामान लारी पर रखा जा रहा था। डौली को पीछे फिर कर देखने से मा’लूम हुआ कि इस दौरान में पिछले हिस्से में चंद आदमी और बैठ चुके थे। उनके क़रीब ही नीचे चाट वाला अपना ख़्वांचा लिए बैठा था जिसे देखते ही बच्चों ने पैसा माँगना शुरू’ कर दिया था, और अपनी माओं को ऊपर चढ़ने की भी इजाज़त दे रहे थे। अब कुछ लारियाँ क़तार में से निकल कर तेल लेने के लिए पैट्रोल के पंप के पास जम्अ’ हो रही थीं, और उनके क्लीनर ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ें लगा रहे थे ताकि चलते-चलते भी जितने मुसाफ़िर और मिल सकें ले लें। लारियों के चलने की आवाज़ें सुनते-सुनते और उनकी नक़्ल-ओ-हरकत को ग़ैर-दिलचस्पी से देखते-देखते यकायक डौली की नज़र एक मकान पर पड़ी जो पैट्रोल की दुकान के क़रीब बन रहा था, और जिसकी तरफ़ उसने अभी तक ख़याल किया ही नहीं था।

    पहले यहाँ ख़ाली ज़मीन पड़ी थी जहाँ कुत्ते अपनी खिलाड़ियों से गर्द उड़ाते रहते थे, और कभी-कभार कोई ख़्वांचे वाला सुस्ताने के लिए बैठता था। लेकिन अब तो वहाँ पाड़ें लगी हुई थीं और एक नया मकान बना खड़ा था, बस छत पूरी होने की कसर थी। मकान के अंदर अँधेरा सा था, और उसकी ज़मीन अभी तक सीली हुई थी। उसमें कुछ ऐसी हल्की-हल्की, पुर-कैफ़ और ज़हन को कुंद कर देने वाली ख़ुनकी थी जो डौली की टाँगों और सीने में समाए जा रही थी, उसके शानों को ढीला और ख़ून को सुस्त किए दे रही थी। दाहिनी तरफ़ कुछ ख़्वांचे वाले बैठे थे जिन्हें देखकर उसे ख़याल आया कि जब वो घर पहुँचेगी तो उसका छोटा भाई फ़्रेडी उसका बिस्तर कुरेलेगा, उसका ट्रंक खोलने को बेताब फिरेगा। ये देखने के लिए कि बुआ उसके वास्ते क्या लाई हैं और जब वो कुछ पाएगा तो बहुत मायूस होगा और शायद मचलने भी लगे। लारी के आठ आने और सामान उठाने वाले के एक आने के बा’द भी उसके पास चार आने बचते थे। एक आना बुर्नुस को ख़त लिखने के लिए भी सही, तीन आने में कुछ कुछ लिया जा सकता था। इसलिए वो उतर कर फलों वाले के पास गई, और एक मिनट तक उसके टोकरे को बे-ख़याली से देखने के बा’द पूछा, “संतरे क्या हिसाब दिए हैं?”

    उम्मीदों से भरे हुए लहजे में फलों वाले ने कहा, “पाँच-पाँच पैसे दे रखे हैं मेमसाहब।”

    “पाँच पैसे का एक?”

    “हाँ, पाँच-पाँच पैसे, बड़े मीठे हैं, मेमसाहब। लो चख के देखो।”

    “नहीं, नहीं, रहने दो।”

    उसने तीन आने को पाँच पैसे से तक़सीम करते हुए कहा, “तीन-तीन पैसे नहीं?”

    “तीन-तीन पैसे की तो ख़रीद भी नहीं हैं, मेमसाहब।”, फल वाले ने अपनी बातिल उम्मीदों की अस्लियत से आगाह हो कर तंज़ से कहा, “लो, केले लो। पाँच पैसे के दो दिए हैं।”

    डौली अब भी अपनी तक़सीम के नतीजे से मुतमइन थी। उसने आधी मायूस हो कर पूछा, “कुछ कम नहीं करोगे?”

    “कम? अजी, तुम्हें नहीं लेना-वेना। लाओ केला, मैं चलूँ।”

    और फिर फल वाले ने एक गुज़रते हुए किसान को पुकार कर कहा, “लो चौधरी, चूस लो, रसीले हो रहे हैं रसीले।”

    यकायक उसके हल्क़ में डाट सी अड़ गई, और साँस लेने की कोशिश में कनपटियों की रगें उभर आईं, उसके शाने ख़ुद-ब-ख़ुद काम करने वाले मुदाफ़अ’ती आलात की तरह नीचे झुक गए और बाज़ू सख़्त हो कर सीने पर गए। उसे ये मा’लूम होने लगा कि जैसे वो जगह जहाँ वो खड़ी थी दफ़अ’तन बुलंद हो गई है, और सारी दुनिया की नज़रें उसकी तरफ़ उठ गई हैं उसका गला साफ़ होते ही पैर अपने आप बिस्कुट वाले की तरफ़ मुड़ गए, और उसने तीन आने फेंकते हुए कहा, “बिस्कुट।”

    “बिस्कुट?”

    ये महज़ एक लफ़्ज़ बिस्कुट वाले के लिए किसी क़दर मुबहम था। उसने पूछा, “एक आने दर्जन वाले, कि तीन पैसे दर्जन वाले?”

    “कोई से।”, डौली ने हाथ बढ़ाते हुए जवाब दिया। उसने बग़ैर कुछ कहे-सुने तीन बंडल हाथ में पकड़ लिए और तेज़-क़दम उठाती हुई अपनी जगह पर वापिस चली आई। मगर बैठने के बा’द तो उसका दिल इस तेज़ी से धड़धड़ करने लगा जैसे अब निकल के भागने वाला हो। हर खटके के साथ दिल थोड़ा सा नीचे खिसकता मा’लूम होता था। उसकी छातियाँ बड़ी, बोझल और गर्म हो गई थीं, और उनमें कोई चीज़ उबल रही थी, सनसना रही थी, गोल गोल चक्कर लगा रही थी।

    माथे पर और नाक के नीचे पसीना था कि आए चला जा रहा था जिसे ख़ुश्क करने की कोशिश में उसका साँस भारी और दुश्वार बन कर उसके दिल की हालत को और बेक़ाबू किए दे रहा था। वो जितनी नीची हो सकती थी हो गई, और दुपट्टा सर और ख़ून से भरे हुए गालों पर खींच लिया। दुपट्टे के लम्स में तस्कीन थी, दिलासा था, हम-दर्दी और ग़म-गुसारी थी, शफ़क़त और मुहब्बत, और आख़िरी वक़्त तक उसका साथ देने और मुहाफ़िज़त करने का वा’दा। उसकी खाल से दुपट्टा क्या छुआ था, आग पर पानी पड़ा था। उसका जिस्मानी इज़्तिराब आहिस्ता-आहिस्ता मद्धम पड़ता गया, और चंद ही मिनट में उसके ख़ून और साँस की रफ़्तार बिल्कुल मुतवाज़िन हो गई। मगर वो ऐसी गिरानी और थकावट महसूस कर रही थी जैसे एक दिन के बुख़ार के बा’द।

    थोड़ी ही देर बे-हरकत रहने से सीट का तख़्ता उसके चुभना शुरू’ हो गया। दो एक जमाहियाँ लेने से भी उसकी तस्कीन हुई, उसका जी चाह रहा था कि लंबी सी अँगड़ाई ले, या टाँगों को ख़ूब तान कर फैला दे... लारी के फ़र्श की मुख़ालिफ़त के बा-वजूद। मगर लारी के लोहे से ज़ोर आज़माना उसकी टाँगों के मान का था, और अँगड़ाई लेने में ये ख़दशा था कि उसका दुपट्टा फिसल जाता, और बाज़ू ऊँचे उठते जहाँ सबकी नज़रें उन पर पड़तीं। जब पहलू बदलने से काम चला तो उसने ड्राईवर को पुकार कर बुलाया, और वक़्त पूछा,

    “अब चले है।”, ड्राईवर ने कहा, “घबराओ क्यों हो।”

    “मगर वैसे बजा क्या है?”

    “सवा दो बज रहे हैं अब।”

    अभी पूरा पौन घंटा बाक़ी था और यहाँ बैठे-बैठे उसकी रानें पत्थर हुई जा रही थीं। पहले तो वो मारे कोफ़्त के अपनी सीट की पुश्त पर ढलक गई, मगर उसे जल्द ही अंदाज़ा हो गया कि लारी वालों के क़ाएदे करम के क़ानून से किसी तरह कम अटल नहीं हैं। उसने किसी अलमिया की हीरोइन की सी शान के साथ अपने आपको तन-ब-तक़दीर छोड़ दिया, और बिस्कुटों के बंडलों से खेल-खेल कर अपना दिल बहलाने लगी। उसने सोचा कि वो बिस्कुटों को बैठक में छिपा देगी, और फिर अंदर जाएगी। फ़्रेडी उसे देखते ही “डौली बुआ, डौली बुआ।”, चीख़ता दौड़ेगा, और आकर उसकी टाँगों से लिपट जाएगा।

    वो पूछेगा, “डौली बुआ क्या लाई हो? दिखाओ... अंग्रेज़ी मिठाई लाई हो...? तुम कह गई थीं!”

    जब उसे सारे सामान की तलाशी ले चुकने के बा’द भी कुछ मिलेगा तो वो ठनठनाने लगेगा। वो उसे छेड़-छेड़कर हँसती रहेगी, यहाँ तक कि जब वो बिल्कुल ही रो देगा तो वो चुपके से एक बंडल छिपाकर लाएगी और कहेगी, “अच्छा, आँखें बंद करो, देखो, हम तुम्हें एक चीज़ दें।”

    फ़्रेडी यक़ीन नहीं करेगा, और बड़ी देर की बहस के बा’द आँखें बंद करेगा। वो उसके हाथों में बिस्कुटों का बंडल दे देगी, जिसे देखकर फ़्रेडी का चेहरा मुस्कुरा पड़ेगा, और वो उसे गोद में उठाकर ख़ूब प्यार करेगी। जब फ़्रेडी बिस्कुट खाने लगेगा तो वो उसके हाथ से बिस्कुट छीन लेगी, और कहेगी, “हम जब देंगे बिस्कुट जब तुम हमें प्यार करोगे।”

    फ़्रेडी अपने छोटे छोटे होंट उसके गाल से लगा देगा जैसे कोई ओस से भीगा हुआ गुलाब रख दिया।

    उसके जिस्म में रस उतरता चला जाएगा और वो फ़्रेडी की टाँगों को अपने पेट पर भींच लेगी। उसके गाल पर फ़्रेडी का थूक लग जाएगा, मगर वो उसे साफ़ नहीं करेगी, बल्कि यूँही रहने देगी। इस तरह ये तीनों बंडल कम से कम एक हफ़्ते तो चलेंगे। गो उसने जल्दी में पूरे तीन आने फेंक दिए थे, मगर ख़ैर ठीक है। अब वो बुर्नुस को लिफ़ाफ़े के बजाए कार्ड भेज देगी। चलते हुए बुर्नुस ने बड़ा पक्का वा’दा लिया था ख़त लिखने का। चूँकि वो वा’दा कर आई है, इसलिए छुट्टियों भर उसे ख़त भेजती रहेगी, लिफ़ाफ़ा सही तो कार्ड तो ज़रूर... मगर कार्ड पर लिखा ही कितना जाएगा?

    बहर-हाल वो कोशिश करेगी कि लिफ़ाफ़ा भेजे। कभी-कभी वो फ़्रेडी का पैसा छिपा लिया करेगी। मिशन के इश्तिहारों की रद्दी बेच कर भी कुछ पैसे जम्अ’ हो सकते हैं। और जब पापा तनख़्वाह लाया करेंगे तो वो एक दो आने ले लिया करेगी। इसी तरह जब मामा चमारियों को बाईबल सुनाकर नाज लाया करेंगी तो किसी-किसी दिन वो उनसे नाज ले लिया करेगी, और पापा के पास पढ़ने वाले लड़कों में से किसी को बाज़ार भेज कर उसके पैसे मंगवा लिया करेगी। वो कम से कम पंद्रह दिन में एक दफ़्अ’ तो ज़रूर ख़त भेजेगी... कल रात वो और बुर्नुस दोनों डेढ़ बजे तक एक चारपाई पर लेटी बातें करती रही थीं यहाँ तक कि उनके पैर और आँखों के पपोटे ठंडक महसूस करने लगे थे।

    वो दोनों एक दूसरे की बाँहों में बाँहें डाले हुए थीं, और बातों के जोश में बाज़-औक़ात उनके सीने मिल जाते थे। उनके थूक निगलने की आवाज़ बार-बार हवा में गूँजती थी। दोनों के बाज़ू जल रहे थे, मगर उनका मस कितना राहत बख़्श था, उसका जी चाहता था कि ये बाज़ू बस यूँही मिले रहें, मगर बग़ैर किसी ख़ास सबब के उसे कुछ ऐसा महसूस होता था जैसे वो कोई ख़ुफ़िया काम कर रही है और डर है कि लोग कहीं देख लें, और फिर उस राहत के एहसास की शिद्दत भी उसके लिए ना-क़ाबिल-ए-बर्दाश्त थी। इसलिए उसे बार-बार बाँहें अलग करनी पड़ती थीं। इस रुख़स्त की रात बुर्नुस ने अपने सारे राज़, जिन्हें वो हमेशा छुपाती रही थी, एक-एक करके बता दिए थे। उसने सुनाया था कि एक दिन जब कि सारा स्कूल मिलकर सिनेमा गया था तो एक लड़का जो उसके पीछे बैठा था, बराबर उसकी तरफ़ देखता रहा था।

    बुर्नुस ने भी चंद मर्तबा मुड़कर उसकी तरफ़ देखा था, और अँधेरे में उसने एक फूल बुर्नुस की गोद में फेंक दिया था। लेकिन बुर्नुस की दास्तानों में सबसे ज़ियादा दिलचस्प उस लड़के का क़िस्सा था जो उसे छुट्टियों में मिला था जब वो अपने घर गई हुई थी। ये क़िस्सा सुनाने से पहले उसने रुकती हुई आवाज़ में कहा, “ज़रा और क़रीब खिसक आओ।”

    बुर्नुस ने अपना बाज़ू मज़बूती से उसके गिर्द डाल लिया था, और उसकी कमर थपथपाती जाती थी। उसका दिल बड़े ज़ोर से धड़क रहा था, और जिस्म से लपटें उठ रहीं थीं। लड़के का नाम उसने देवीदास बताया था जो उसके भाई के साथ पढ़ता था, और बड़ा गोरा और ख़ूबसूरत था, और रेशमी सूट पहन कर आया करता था, देवीदास की ख़ुश-मिज़ाजी ने उसकी मुदाफ़अ’त पर जल्द क़ाबू पा लिया था।

    जब उसका भाई इधर-उधर होता तो वो उसे गोद में बिठा लेता था, और ख़ूब भींच-भींच कर प्यार करता था।

    “और वो”

    बुर्नुस ने अपनी ठोढ़ी से सीने की तरफ़ इशारा करके लफ़्ज़ चबाते हुए कहा था, “यहाँ हाथ रखे रहता था।” क़िस्सा सुनाते-सुनाते बुर्नुस ने रुक कर तकिए से सर उठा लिया था, और चंद लम्हे उसकी तरफ़ देखते रहने और आँखें झपकाने के बा’द मुल्तजियाना लहजे में कहा था, “डौली, हम प्यार कर लें तुम्हें?”, और उसकी ख़ामोशी को रजामंदी पर महमूल करते हुए उसने अपने गर्म होंट एक तवील बोसे के लिए उसके गालों पर रख दिए थे, उसके बोसे के नीचे डौली को ऐसा इत्मीनान, बे-फ़िक्री, और महफ़ूज़ होने का एहसास हासिल हुआ था जैसे छोटे से कैंगरू को अपनी माँ की थैली में बैठ कर।

    क़िस्से के दौरान में उसने अपनी टाँगें अकड़ा-अकड़ा कर ये एहसास पैदा करने की कोशिश की थी कि वो बुर्नुस की टाँगों से दूर हैं, मगर उसका सीना हर साँस के साथ ख़ुद-ब-ख़ुद आगे खिसकता चला जाता था, उसके रोकने के बा-वजूद। अपनी अपनी चारपाइयों पर लेटने के बा’द भी वो कितनी देर तक जागती रही थीं, और बार-बार चादरों से मुँह और हाथ निकाल कर एक दूसरे की तरफ़ देख लेती थीं।

    चलने से पहले वो दोनों साथ-साथ फिरती रही थीं। अगर उनमें ज़रा सा भी फ़ासिला हो जाता था तो ऐसी खिंचन महसूस होती थी जैसे उनके बदन जड़े हुए हों। बुर्नुस की आवाज़ में कैसी नर्मी और हसरत और हल्क़ में घुटे हुए आँसुओं की नमी थी। बुर्नुस की जुदाई की वज्ह से वो आज बहुत देर तक उदास रही थी, ख़ुसूसन रेल में। वो खिड़की पर कुहनी रखे बाहर देखती रही थी। खेत, झाड़ियाँ, तार के खम्बे, दरख़्त क़रीब आने के बा’द नाचते हुए घूम कर उफ़ुक़ की तरफ़ निकले चले जाते थे, गोया वो उसे ज़रा सा दिलासा भी देने को तैयार नहीं हैं। उन्हें देखते-देखते उसके सीने और गले में एक हैजान सा पैदा हो गया था। बार-बार उसके सीने के बीचों-बीच कोई चीज़ ठहरी हुई महसूस होती थी जो अंदर उतरती चली जाती थी। उसका जी चाहा था कि सर खिड़की पर रख दे, और नज़ा’ में फड़फड़ाते हुए परिंदे की तरह अपना सीना दीवार के ठंडे-ठंडे तख़्ते से लगा दे, और सारी दुनिया से ग़ाफ़िल हो जाएगी।

    जब वो लाल-लाल पुल आया था तो उसे ज़रा ढारस बँधी थी कि इस नज़ारे से उसकी अफ़्सुर्दगी दूर हो जाएगी। मगर उन देवों की सी सुर्ख़ टाँगों से जो उसे दरिया के नीले-नीले, चमकते हुए पानी को अच्छी तरह देखने देती थीं और इस धड़-धड़ और घड़ड़-घड़ड़ से वो इतनी बेज़ार हुई थी कि अगर जल्दी ख़त्म हो जाता तो वो मारे वहशत के रो देती... उसे कुछ पता नहीं रहा था कि बाक़ी लड़कियाँ क्या कर रही हैं, हाँ, कभी-कभी जूलिया की बैठी हुई आवाज़, या ग्रीस की चीख़ें जिसे शायद लड़कियाँ हमेशा की तरह तंग कर रही थीं, या आइरीन का बुलंद क़हक़हा एक लम्हे के लिए उसके वजूद के पिघलाव को रोक लेता था। बुर्नुस तो अब तक अपने घर भी पहुँच ली होगी, वो अपने भाई-बहनों से बातों में मशग़ूल होगी जो उसके गिर्द जम्अ’ हो रहे होंगे... बुर्नुस धूप से सफ़ेद प्लेटफार्म पर उतरी होगी, और उसके हरे जूतों की एड़ियाँ पत्थरों पर खट-खट बोली होंगी... उसने क़ुलियों को पुकार कर अपना सामान उतारने के लिए कहा होगा। स्टेशन आने से पहले ही...

    बुर्नुस की गाड़ी स्टेशन के क़रीब ही रही थी कि ड्राईवर ने भड़ से दरवाज़ा खोल कर डौली की तवज्जोह अपनी तरफ़ मुनअ’तिफ़ कर ली। लेकिन कहीं सर और हाथ हिलाने-जुलाने के बा’द जाकर वो ये समझ सकी कि हालात का रुख़ क्या है। लारी पूरी भर चुकी थी, और अब ड्राईवर गाड़ी चलाने के लिए हैंडल निकाल रहा था। पीछे से कई आवाज़ें आईं, “लो भई, चली तो किसी तरह!”

    “कुछ मा’लूम भी है?”, ड्राईवर ने क्लीनर को हैंडल देते हुए कहा, “पूरे दस मिनट पहले छोड़ रहा हूँ।”

    लारी का इंजन भुरभुराने लगा। नन्हे-नन्हे चक्कर उसके पैरों में दाख़िल हुए, और गोल घूमते हल्की-हल्की छलाँगें मारते, ऊपर चढ़ते चले गए, और पिंडलियों, रानों, पेट, छातियों, बग़लों, बाज़ुओं, कानों, और उँगलियों के पोरों में फैल गए। उसने अपने पैर सामने की लोहे की चादर पर रख दिए ताकि उसके पैर और झनझनाने लगीं। मगर एक दफ़्अ’ चक्करों का एक ऐसा ज़बरदस्त रेला आया कि वो धकापेल में आगे बढ़ सका, बल्कि पेट के निचले हिस्से में अटक कर उधम मचाने लगा, यहाँ तक कि डौली ने बिजली की सुरअ’त से पैर खींच लिए और अपने दोनों घुटने ख़ूब कस कर मिला लिए। लारी उसे हल्के-हल्के झकोले देती आगे बढ़ी मगर वो अभी रेंग-रेंग कर ही चल रही थी कि पैट्रोल के पंप के पास फिर रुक गई।

    “क्यों भैया।”, किसी ने पिछले हिस्से से पुकारा, “क्या और बिठावे है? यहाँ से पहले ही घुटे जा रहे हैं, मरे यार।”

    मगर ड्राईवर ने इसे ना-क़ाबिल-ए-ए’तिना समझते हुए दरवाज़ा खोला और उतर कर पंप वाले से दो गैलन तेल भर देने के लिए कहा... पंप के उजले साफ़ शीशे में नुक़रई सय्याल इठला-इठला कर ठुमक-ठुमक कर ऊपर चढ़ने लगा। सबसे ज़ियादा जो चीज़ डौली को पसंद आई वो छोटे छोटे बुलबुले थे जो उबलते हुए शफ़्फ़ाफ़ तेल में शरीर पर जूँ की तरह दौड़ते फिर रहे थे। पैट्रोल की बू के बा-वजूद उसने सर नहीं फेरा था, और तेल को चढ़ते उतरते देखती रही थी जिससे उसकी तबीअ’त शगुफ़्ता हो गई थी, और उसकी हँसली की हड्डियों में सरसराहाट सी होने लगी थी जो उसे मुस्कुराने पर मजबूर कर रही थी।

    लारी गुज़रते हुए यक्कों को गर्द के बादलों में छुपाती फिर रवाना हुई। ड्राईवर गाड़ी को ठीक रफ़्तार पर ला रहा था। जैसे ही उसका हाथ क्लच पर पहुँचता था, डौली साँस को हल्क़ ही में रोक कर किसी गुमनाम और मुबहम तवक़्क़ो’ के साथ अपने सीने को, जो उस वक़्त इंतिज़ार, इर्तिआ’श, कैफ़ और दर्द की मिली-जुली कैफ़ियतों की शिद्दत से एक खिंचाव और ऐंठन महसूस कर रहा था, हवा पर जिसकी हस्ती उसे ठोस और मुरई मा’लूम हो रही थी आगे झुका देती थी, ऐसी ख़ुद-सुपुर्दगी और यक़ीन के साथ जैसे किसी देवी के सामने अपने आपको भेंट चढ़ा रही हो और जब क्लच की चीख़ ख़त्म होती थी तो गोया वो एक गोली की शक्ल इख़्तियार करके उसकी रान में घुस आती थी जिसे वो ज़ोर लगाकर वहीं के वहीं रोक लेती और आगे बढ़ने देती थी, और साथ ही अपनी पिंडलियों के पट्ठों को ऐसी सख़्ती से अकड़ाती थी जैसे उनके ढीले पड़ते ही उसकी ज़िंदगी भी गल कर बह जाएगी।

    सादाबाद की सड़क पर मुड़ने के बा’द लारी की रफ़्तार कैंडे पर गई, और अब डौली के आसाब को क्लच के ज़ेर-ओ-बम के साथ हम-आहंग रहने की ज़रूरत बाक़ी रही। इधर से उधर खिसक-खिसक कर उसने गद्दे का एक हिस्सा दरियाफ़्त कर लिया जो निस्बतन नर्म था और जहाँ से उसकी टाँगें पहले से ज़ियादा फैल सकती थीं। दरवाज़े की तरफ़ का हिस्सा मुदव्वर था, ऐसा गोल कि उसकी कमर उसमें बिल्कुल ठीक आती थी। उसने अपने जिस्म को इस हल्क़े की आग़ोश में गिरा दिया, और खिड़की को मज़बूती से थाम लिया जैसे उसे वहाँ से अ’लैहिदा कर दिए जाने का ख़ौफ़ हो।

    अगर लोग देख रहे होते तो शायद वो अपना गाल भी दीवार से लगा देती। हवा गर्म थी, और लारी का दरवाज़ा बाहर से जल रहा था, मगर इसके बा-वजूद उसका इज़्मिहलाल कोसों दूर चला गया था। अपने आ’ज़ा को आराम देने की ख़्वाहिश ही बजा-ए-ख़ुद एक मुनफ़रिद और मुस्तक़िल कैफ़ बन गई थी जिससे हर-हर बंद पूरे शऊ’र और इदराक के साथ लुत्फ़-अंदोज़ हो रहा था। हर-हर चीज़ में उसे रौशनी, ताज़गी, दिलचस्पी, नुदरत और गर्मियों की सुब्ह का सा तबस्सुम नज़र रहा था, जैसे किसी अ’जीब-ओ-ग़रीब सर-ज़मीन में एक सय्याह को। इस आराम के लम्हे में वो अपनी आँखों को दूर-दूर दौड़ाना नहीं चाहती थी, बल्कि अपनी तवज्जोह को सिर्फ़ सड़क के किनारों तक महदूद किए हुए थी और जब सड़क का पहला पत्थर तक एक फ़ौरी जादू के ज़ेर-ए-असर दिल-फ़रेब बन गया हो तो फिर किसी और अजूबे की तलाश में आँखों को सर-गर्दां करने से क्या फ़ाएदा। धूप से चमकती हुई सड़क सीधी फैली हुई थी, और एक हमेशा आगे बढ़ते हुए नुक़रई सितारे पर ख़त्म होती थी।

    सड़क के किनारे दरख़्त भी थे, मगर तेज़-धूप ने उनकी आधी शख़्सियत अपने अंदर जज़्ब कर ली थी। लारी अ’जब ख़ुद-ए’तिमादी और पिंदार के साथ बे-नियाज़ी से चली जा रही थी। उसकी आवाज़ दूर से सुनते ही बैल-गाड़ियाँ जल्दी-जल्दी बिल्कुल सड़क के किनारे पर हो जाती थीं, और शहर से लौटते हुए किसान ऐसे घबराते थे कि बजाए अलग हट जाने के सड़क के एक तरफ़ से दूसरी तरफ़ भागने लगते थे। लारी की रफ़्तार और ख़ुसूसन बैल गाड़ियों पर उसकी फ़ौक़ियत डौली के दिल में रिफ़अ’त का एहसास पैदा कर रही थी, और उसे कुछ ऐसा मा’लूम हो रहा था जैसे माद्दे की नजासत में उसकी आलूदगी औरों की निस्बत कम हो गई है। इंजन की भिनभिनाहट ने उसे दूसरे मुसाफ़िरों की गुफ़्तगू और बहस-ओ-मुबाहिसा की चीख़-चाख़ से महफ़ूज़ कर दिया था। इससे भी ज़ियादा ये कि इस थरथराहट ने उसके गिर्द एक असीरी हल्क़ा बना दिया था जहाँ, उसके ख़याल के मुताबिक़, उसे कोई देख सकता था, और इसलिए पूरी आज़ादी के साथ उसके नथुने फूल सकते थे, आँखें चमक सकती थीं, होंट खुल सकते थे और बंद हो सकते थे, और चेहरा जो रंग चाहे इख़्तियार कर सकता था।

    अपने इस क़िला’-बंद गोशे में से वो सड़क के गुज़रते हुए नज़ारों की सैर कर रही थी। वो कई टीलों, मज़ारों, कुँओं और बाग़ों से अच्छी तरह आश्ना थी, बल्कि बा’ज़े-बा’ज़े दरख़्त तक ऐसे थे जिन्हें वो पहचान सकती थी। रहट वाले कुँए को देखते ही उसने बता दिया था कि अब इसके बा’द खजूर के पेड़ वाला बाग़ आएगा। शहर से दो मील आगे कंजरों का एक नगला था जहाँ कुछ मर्द और औ’रतें बैठे सीकों के छाज और सिर्कियाँ बनाया करते थे।

    अव्वल तो डौली को उन लोगों के बढ़े हुए बालों और वहशत-नाक हुलियों ही से कुछ कम दिलचस्पी थी, मगर दो दफ़्अ’ उसने यहाँ एक छोटे क़द और दुहरे बदन की औ’रत देखी थी जिसकी बड़ी-बड़ी पुर-फ़न आँखें हर वक़्त चारों तरफ़ घूमती रहती थीं, और जिसकी ग़ैर-मुतआ’दिल छातियों की नज़रों को शर्मा देने वाली जुम्बिशों ने उस पर मोटे मोटे हर्फ़ों में “ना-मुनासिब” और “मुश्तबा” लिख दिया था मगर जो इन्ही औसाफ़ के सबब से क़ाबिल-ए-तवज्जोह बन गई थी। डौली ने लारी से सर निकाल कर उसे बार-बार देखा था, और आज भी वो उसे कम से कम एक नज़र देखना चाहती थी। मगर जब लारी वहाँ से गुज़री तो नगले के बाहर कोई भी था। सिर्फ़ तीन बच्चे आपस में लड़ रहे थे। लेकिन डौली को कोई ख़ास मायूसी हुई, और वो फिर सड़क की नित-नई सैरों की तरफ़ मुतवज्जेह हो गई...

    मगर सिर्फ़ एक चीज़ थी जिसे वहाँ पाने के लिए वो पहले से तैयार थी, और जिसे वहाँ पाकर उसे तअ’ज्जुब हुआ। ये एक नया ईंटों का भट्टा था। चारों तरफ़ पकी हुई ईंटों के ढेर लगे हुए थे, एक बहुत ऊँची चिमनी से

    हल्का-हल्का धुआँ निकल रहा था, और चंद मज़दूर टोकरियाँ लिए हुए इधर-उधर फिर रहे थे, मगर भट्टे का रक़बा इतना बड़ा था कि ये जगह फिर भी बे-तरह ख़ाली ख़ाली नज़र रही थी। ऐसे ही अड्डे पर एक नया मकान बन रहा था जिसकी ईंट-ईंट में ऐसी तमानियत-बख़्श नमी थी कि डौली का दिल चाह रहा था कि ईंटों पर हाथ रखे रहे, सीली हुई मिट्टी की भीनी-भीनी ख़ुश्बू सूँघे, और कोने में खड़े हो कर वहाँ के हल्के-हल्के अँधेरे को अपने कानों में सरगोशियाँ करते हुए सुने। उस मकान की तरी की याद उसके ख़याल को जाड़े की उन शामों की तरफ़ ले गई जब स्कूल के फ़ील्ड के हर तरफ़ से धीमा-धीमा धुआँ हल्के हल्के उठकर वहाँ बाक़ी बची हुई लड़कियों को हल्क़े में ले लेता था, और बैरूनी दुनिया से उनका तअ’ल्लुक़ मुनक़ते’ हो जाता था, और स्कूल इंसानी आबादी से कोसों के फ़ासले पर कोई यक्का-ओ-तन्हा और मसहूर ख़ित्ता बन जाता था, और वहाँ की रहने वालियाँ मुक़य्यद शहज़ादियाँ।

    खुली हुई बाँहों और टाँगों पर जाड़े की ठंडक ऐसे आकर लगती थी जैसे किसी ने बर्फ़ीला हाथ रख दिया हो, और कंधे और सीने थरथराने लगते थे। मगर मौसम में कुछ ऐसी गुम-गश्तगी और अपने आपको सपुर्द कर देने का तक़ाज़ा था कि दो-चार लड़कियाँ झूट-मूट खेल में मशग़ूल बाक़ी रह ही जाती थीं। ऐसे ही वक़्त वो नीले सूट वाला लड़का उधर से गुज़रता था, जब थोड़ी दूर से भी अच्छी तरह शक्ल पहचानने में आती थी। मगर वो चहार-दीवारी से जितना मुम्किन था क़रीब हो कर चलता था, और डौली की तरफ़ देखता जाता था। तीन दिन के अंदर ही डौली को उसकी नज़रों की सिम्त के बारे में किसी शुबह की गुंजाइश रही थी, और वो भी उसके इंतिज़ार में चहार-दीवारी के क़रीब से क़रीब ठहरे रहने और कम से कम एक-बार उसकी आँखों में आँखें डाल देने पर मजबूर हो गई थी। ना-मा’लूम वो इतना अकेला-अकेला क्यों मा’लूम होता था। सिर्फ़ ये कि उसके हमराह कभी कोई साथी देखा गया हो, बल्कि उसका चेहरा भी हमेशा किसी सोच में डूबा रहता था। जब डौली की निगाहें उससे मिल जाती थीं तो उन आँखों की पुर-तफ़्क्कुर उदासी एक मुख़्तसर-तरीन लम्हे के लिए उसके दिल में भी कसक पैदा कर देती थी।

    नीले कोट में से उसके गोरे-गोरे हाथ बाहर निकले हुए कैसे अच्छे मा’लूम होते थे, और उसके चमकदार बालों और पुर-मतानत चाल के तसव्वुर ने उसकी कितनी रातों को मशग़ूल रखा था। वो गर्मियों में भी आता रहा था और जाड़ों की धुंद हट जाने के बा’द अब उसके होंट भी साफ़ नज़र आने लगे थे जिनसे उसके मिज़ाज की नर्मी और मुहब्बत और उसके दिल की हसरत-नाकी टपकती थी। वो आज भी यक़ीनन आएगा, मगर मैदान को बिल्कुल ख़ाली पाकर बहुत मायूस होगा। वो किस तरह पीछे मुड़-मुड़ कर देखता रहेगा, और हर लम्हे उसकी मायूसी बढ़ती चली जाएगी। वो दो तीन दिन बराबर आएगा, मगर आख़िर उसकी उम्मीद बिल्कुल टूट जाएगी... उसके रंज का ख़याल ख़ुद डौली के दिल में बार-बार ठोकीं सी मार देता था।

    वो सोच रही थी कि काश वो आज ठहर गई होती। जब वो गुज़र रहा होता तो वो किसी से पुकार कर कोई ऐसी बात कहती जिससे ये ज़ाहिर हो जाता कि वो छुट्टियों में घर जा रही है, या कोई और तदबीर इख़्तियार करती। इस से कम से कम ये तो होता कि उसको इतनी शदीद मायूसी का मुक़ाबला करना पड़ता... शायद वो उसे अपनी कोई यादगार देता। मसलन वो अपना रूमाल चहार-दीवारी के अंदर फेंक देता। ये भी तो मुम्किन था कि कोई देख रहा होता, और वो उसे पुकार कर कहती, “ज़रा सुनिए... क्या आप जानते हैं कि मैं कल छुट्टियों में घर जा रही हूँ?”

    वो इस से ज़ियादा कुछ कहती क्योंकि उसका चेहरा ख़ुद इससे कहीं ज़ियादा कह देता। वो चहार-दीवारी के पार चला आता, और दोनों किसी चीज़ पर बैठ जाते। सड़क पर एक राहगीर भी चल रहा होता, और मैट्रनें वग़ैरह सब स्कूल के अंदर होतीं।

    वो उसके कंधों के गिर्द बाज़ू डाल लेता, और उसे प्यार करता... मगर सिनेमा में तो उसने देखा था कि गालों के बजाए होंटों का बोसा लिया जाता है... इसलिए फ़िल्म की हीरोइन की तरह उसका चेहरा आहिस्ता-आहिस्ता ऊपर उठता और सर पीछे को झुक जाता, वो इस दा’वत को रद्द कर सकता, और उसकी ठोढ़ी अपने अंगूठे और उँगली से पकड़ कर एक लम्हा देखते रहने के बा’द उसके होंटों पर हल्के से अपने होंट रख देता।

    फ़िल्मी हीरो की तरह उसके होंट पतले और नर्म होते... ख़ुद डौली अपने जिस्म को उससे जिस क़दर क़रीब मुम्किन था लगा देती और अपने गोश्त में उसके बदन की गर्मी दाख़िल होते हुए महसूस करती... गर्मियाँ यकायक जाड़ों में बदल जातीं, और हर तरफ़ से धुआँ उठकर उन्हें दूसरों की नज़रों से महफ़ूज़ कर लेता। गर्मियों की शाम की वाक़िइ’य्यत और आँखों को तकलीफ़ देने वाली आ’मियत और ख़ाकियत की जगह जाड़ों की पुर-असरार, इबहाम और मावराइयत ले लेती। ब-तदरीज तारीक होते हुए लम्हों की बे-दर्द गुरेज़-पाई वहीं की वहीं जम कर रह जाती।

    वो एक दूसरे से अपना जिस्म लगाए हुए प्यार की बातें करते रहते, करते रहते, यहाँ तक कि उनकी यकजाई का एक एक लम्हा अबदिय्यत से हम-कनार हो जाता... बुख़ारात की तरह धज्जी धज्जी हो कर उड़ते हुए अँधेरे से जद्द-ओ-जहद करने वाले अकेले सितारे की रौशनी में वो कितने मा’सूम, आमेज़िश-ओ-आलाईश से पाक, और मुसफ़्फ़ा-ओ-मुनज़्ज़ह मा’लूम होने लगते, जैसे आदम-ओ-हव्वा अ’र्श-ए-बरीं के साये में अपनी मुलाक़ात के पहले दिन... बहजत-ओ-मसर्रत की इस फ़रावाँ-मंज़री के साथ साथ डौली के तहतुश-शऊ’र में तरह-तरह के तहदीद-आमेज़ ख़दशे और दग़दग़े जड़ पकड़ रहे थे। जब वो अपने तख़य्युल की सेहर-कारी से अच्छी तरह लुत्फ़ उठा चुकी, और किसी बची-बचाई चीज़ के खोज में ज़रा सा रुकी, तो वो फ़ित्ने अपनी कमीं-गाह से बाहर निकल आई।

    ये ख़याल उसे बार-बार डराए दे रहा था कि अगर कहीं ऐसा हुआ कि छुट्टियों के बा’द वो उसे नज़र आया तो...? मुम्किन है वो इस दौरान में कहीं बाहर चला जाए, या इतनी दूर मकान ले-ले कि वहाँ से आना मुश्किल हो जाए, या फिर किसी और की तरफ़ मुतवज्जेह हो जाए और वो नीला सूट किसी और सड़क पर नज़र आया करे और ये भी बिल्कुल क़रीन-ए-क़ियास है कि इतने दिन तक देखने के बा’द उसे डौली पसंद रहे, और वो एक ग़ैर दिलचस्प चीज़ के फेर में आना महज़ हिमाक़त समझने लगे।

    और क्या ख़बर कि वो शुरू’ से ही डौली को कोई अहमियत देता हो और महज़ तफ़न्नुन-ए-तबा’ के लिए उससे नज़र-बाज़ी करता रहा हो और अब इस मज़ाक़ से उसका दिल भर जाए... अगर वो आया तो डौली की दुनिया कैसी वीरान हो जाएगी। खेल-वेल में उसका बिल्कुल जी लगेगा, वो बार-बार सड़क की तरफ़ देखेगी, मगर हर दफ़्अ’ उसकी निगाह किसी ख़्वांचे वाले या किसी बुड्ढे टहलने वाले से टकरा कर वापिस जाया करेगी। चंद दिन तो वो रात तक टहल-टहल कर इंतिज़ार करेगी, मगर फिर उसका दिल इतना रंजीदा और बेज़ार हो जाएगा कि वो सबसे पहले वापिस हो जाया करेगी। वो झुंजला-झुंजलाकर अपने होंट चबाया करेगी और बोलना बिल्कुल कम कर देगी... उसे चाहिए था कि पहले से हिफ़ाज़ती तदाबीर इख़्तियार करती ताकि वो कम से कम उसे याद तो कर लिया करता।

    मसलन वो दीवार के उस तरफ़ कोई चीज़ गिरा देती, और उससे दोस्ताना मगर इंकिसार के लहजे में कहती, “मेहरबानी से ज़रा उसे उठा दीजिए।”

    जब वो उठाकर देता तो वो उसका मुस्करा कर शुक्रिया अदा करती और वहाँ से हटने से पहले चंद लम्हे ठिटकी रहती, और कई दफ़्अ’ मुतशक्किराना उसकी तरफ़ देखती। तब तो यक़ीन था कि वो उसके दिल में जगह पा लेती और वो छुट्टियों के बा’द भी आना छोड़ता... या फिर किसी दिन हिम्मत करके और सारी दुनिया से मुख़ालिफ़त पर कमर बाँध के वो उसे रोक लेती और पूछती, “क्या आपको मैं अच्छी नहीं लगती? क्या आप को मेरा रंग पसंद नहीं है, या मेरी शक्ल में कोई ख़राबी है? आख़िर आप इतने अलग-थलग और बे-पर्वा से क्यों निकले चले जाते हैं? मैं तो आपके ख़याल में रातों को कितनी कितनी देर तक जागती रही हूँ, यहाँ तक कि मेरा सर मारे दर्द के फटने लगा है। क्लास में बैठे-बैठे भी मैं आपके बारे में सोचने लगी हूँ, और टीचर ने जो कुछ कहा उसका एक लफ़्ज़ भी नहीं सुन सकी हूँ।”

    वो ख़ामोशी से सुनता रहता, और आख़िर कहता कि... मगर कौन जाने कि वो क्या कहता या फिर किसी दिन ऐसा होता कि दोनों साथ बैठे होते और वो उससे शर्माते हुए कहती, “आईए, लव, लाइक, हैट (Love, Like, Hate) खेलें... मैं स्लेट के एक तरफ़ किसी का नाम लिख दूँगी और आपको दिखाऊँगी नहीं, आप दूसरी तरफ़ Love या Like या Hate लिख दीजिए।”

    वो पहले औरों के नाम लिखती, जिनके मुक़ाबले में वो कभी तो Hate लिख देता और कभीLike، और जब वो उसे नाम दिखाती तो दोनों ख़ूब क़हक़हे लगाते। आख़िर में वो अपना नाम लिखती, और बेचैनी से उसके लिखने का इंतिज़ार करने लगती, वो स्लेट पर Love लिख देता, और जब स्लेट उल्टी जाती तो वो ज़ाहिर में तो झेंप कर मुस्कुराते हुए नीचे देखने लगती, मगर उसके दिल में ख़ुशी का दरिया उमड़ आता, और आँखों में आँसू झलकने लगते।

    और फिर वो... मगर जाने फिर वो क्या करता। शर्मा कर भाग जाता? या उसके गले में हाथ डाल देता? मुम्किन है कि डौली के कपड़े उसे पसंद आए हों... कैसा अच्छा हो अगर छुट्टियों के बा’द जब वो लड़का उधर से गुज़रे तो वो ऐमी का सा रेशमी फ़्राक पहने हो। सफ़ेद ज़मीन पर छोटे छोटे सब्ज़ फूलों वाला, जिसके गिरेबान पर ख़ूबसूरत सी बो बनी हुई थी... ऐमी ने बड़े फ़ख़्र से अपना फ़्राक सबको दिखाया था और वो उस कपड़े की क़ीमत दो रुपये गज़ बता रही थी... दाम तो बहुत ज़ियादा हैं... मगर ऐसा भी क्या है... जब वो घर पहुँचेगी तो उसकी मामा कहेंगी, “डौली, देखो तुम्हारी आंटी ने आगरे से तुम्हें फ़्राक भेजा है।”

    और जब वो फ़्राक निकाल कर लाएँगी तो वो बिल्कुल वैसा ही होगा... या फिर वो यूँ कहेंगी, “तुम्हारे पापा दिल्ली गए थे। वहाँ उन्होंने टुकड़ों वाले की दुकान पर फ़्राक का एक कपड़ा देखा। उन्होंने सोचा कि डौली के लिए लेता चलूँ। बड़ा सस्ता मिल गया वो, बस एक फ़्राक का ही था।”

    वो मामा से जगह पूछ कर भागी-भागी जाएगी, और कपड़ा निकाल कर देखेगी तो वो वही सब्ज़ फूलों वाला होगा... वो अपने फ़्राक को बेहतरीन वज़ा’ का तरशवाएगी, और गिरेबान पर सीप के नीले बटन टकवाएगी। जब वो उसे पहनेगी तो कैसी अच्छी मा’लूम होगी। वो उस दिन दुपट्टा बिल्कुल ओढ़ेगी। अव्वल तो दुपट्टे से गिरेबान की सारी ख़ूबसूरती छिप जाती है, दूसरे दुपट्टा क्या होता है अ’ज़ाब-ए-जाँ होता है। हर वक़्त सँभालते रहो, हाथ इधर-उधर हिलाओ तो फँस जाए।

    मुसलमान से लगने लगते हैं दुपट्टा ओढ़ कर... ये अच्छे क़ाएदे हैं। स्कूल के बाहर जाओ तो दुपट्टा ओढ़ कर जाओ, साड़ी पहनो, मैट्रन के बग़ैर कहीं जाओ... वो मैट्रन एक चुड़ैल है, ज़रा सामने से खिसकने नहीं देती। गिरिजा से लौटते हुए कितनी मर्तबा उसका जी चाहा कि कंपनी बाग़ के अंदर से हो कर चले, मगर मैट्रन ने एक माना। और खेल के मैदान में भी ऐसी कन-सूइयाँ लेती फिरती है जैसे चोरी की साज़िश हो रही हो... और हाँ, साड़ी पहनने में भला क्या नुक़्सान है? आख़िर गर्वनमैंट गर्ल्ज़ हाई स्कूल की लड़कियाँ भी तो हैं। वो रंग बिरंग की साड़ियाँ पहन कर जाती हैं लारी में दस बजे... यहाँ सुब्ह पाँच बजे ही उठा कर बिठा दिया जाता है। उठने में देर करो तो एक चीख़ पुकार, आफ़त।

    चाहे नींद के मारे आँखें बंद हुई जा रही हों, मगर चल कर नाश्ते की रोटी पकाओ। ये भी तो नहीं कि इसके बदले एक टिकिया ही ज़ियादा मिल जाए। वहाँ तो उल्टी मैट्रन साहिबा चिल्लाती हुई आएँगी, “इस महीने में घी बहुत ख़र्च हो गया। मुझे दिखाकर लिया करो रोज़।”

    और फिर ऊपर से छोटी लड़कियों की ज़िदें, “वो लेंगे हम, वो बड़ी है।”

    काम के वक़्त तो पड़ी सोती रहें, और जब सब नाश्ता-वाश्ता तैयार हो गया तो चलें नख़रे करती हुई। ये जी चाहता है कि बस धमक दे उठा के, और कुछ करे। ये सब हंगामा ख़त्म हो चुके तो फिर चलो स्कूल। वहाँ अलग मुसीबत, सवाल क्यों नहीं किए? मज़मून क्यों नहीं लिखा?

    दम मारने की मोहलत मिले तो कुछ किया भी जाए। पलंग पे पढ़ के भी तो चैन नहीं मिलती, हुक्म है कि दस बजे के बा’द किसी की आवाज़ सुनाई दे... और हाँ, स्कूल में एक घंटे की छुट्टी मिले तो चलो, खाना पकाओ। इतवार का दिन हो तो बच्चियों की जुएँ देखो, मैले-मैले, उलझे हुए सर, जिन्हें छूने को भी जी चाहे। बैठे कुरेल रहे हैं उन्हें... किसी दिन सैर को भी जाना नसीब हो जाए तो मेमसाहब साथ, अंग्रेज़ी बोलने की मश्क़ कराती हुई।

    आगे-आगे पुकारती चलती हैं, “प्लीज़ खम टू मी।” (Please come to me)

    और फिर लड़कियों की क़तार इस फ़िक़रे को दुहराती है। अगर मेमसाहब ने सुन लिया कि किसी लड़की ने “खम” के बजाए “कम” कहा है तो बस अब उसके पीछे हैं, जब तक वो बिल्कुल सही अंग्रेज़ी लहजे में लफ़्ज़ अदा करे उसका पीछा छूटना मुश्किल।

    ये सैर क्या हुई मुसीबत हुई। किसी चीज़ को देख सको कुछ। बस क़वाइद सी करते जाओ और ऐसे ही वापिस जाओ... इसके मुक़ाबले में गर्वनमैंट स्कूल की लड़कियाँ हैं। अपना ठाठ से दस बजे निकलती हैं लारी में। जैसे कपड़े जी चाहता है पहनती हैं। कोई रोक टोक... अगर वो भी गर्वनमैंट स्कूल में होती तो कैसा मज़ा रहता। वो इत्मीनान से मू सुलाकर उठती, और अपनी गुलाबी साड़ी पहन कर स्कूल जाया करती, वो उस नीली लारी की खिड़की से लग कर बैठती, और उसकी कुहनी बाहर निकली रहती। उसके बालों की एक लट हवा से उड़ती जाती, और सारी दुनिया उसकी नज़रों के नीचे से खिसकती रहती... मगर वहाँ की फ़ीस कितनी ज़ियादा थी।

    वहाँ सातवीं के पाँच रुपये लिए जाते थे, हालाँकि यहाँ वो सिर्फ़ चंदे के चार आने देती थी... फ़ीस ज़ियादा सही, मगर उसका वहाँ दाख़िला हो जाना कुछ ऐसा ना-मुम्किन भी था... घर जाकर वो पापा से कहेगी कि वो गर्वनमैंट गर्ल्ज़ हाई स्कूल में पढ़ना चाहती है। पापा थोड़े से इसरार के बा’द राज़ी हो जाएँगे। छुट्टियाँ ख़त्म होने पर वो अपना सर्टीफ़िकेट लेने स्कूल जाएगी, वहाँ उसे ऐमी मिलेगी... ऐमी कितना बनती है। देखो तो ज़र्द, दुबली पतली, जैसे भूकों मारी बिल्ली। और अपने आपको ख़ूबसूरत समझती है। भला स्टेशन पर कैसा बन-बन कर चल रही थी। ट्रेन में से हर गुज़रते हुए लड़के की तरफ़ झाँक कर देखती थी जैसे वो उस पर दीवाना ही तो हो गया है।

    वो हर वक़्त ये दिखाने की कोशिश करती रहती है कि वो बहुत अमीर है। अपने कपड़े हर एक को दिखाएगी, उनकी क़ीमतें बताएगी, तरह-तरह से ये जताएगी कि वो स्कूल की पूरी फ़ीस देती है और सब दूसरों की मुआ’फ़ है। स्टेशन पर भी जब दूसरी लड़कियाँ मलाई का बर्फ़ ले रही थीं तो वो हाथ में रेशमी रूमाल हिलाती हुई स्टाल पर गई थी और ऐसी आवाज़ में केक और लेमनेड मांगा था कि सब सुन लें... ऐमी उससे पूछेगी, “सर्टीफ़िकेट क्यों ले रही हो तुम, डौली?”

    वो बड़े फ़ख़्र से जवाब देगी, “मैं तो अब गर्वनमैंट स्कूल में जा रही हूँ!”

    ऐमी उसकी तरफ़ रश्क से देखती रह जाएगी, और वो वहाँ से कंधे और सर उठाए चली आएगी, और पीछे मुड़ कर भी देखेगी। फिर वो रोज़ दस बजे नीली लारी में गर्वनमैंट गर्ल्ज़ हाई स्कूल जाया करेगी और लड़कियों के साथ हँसती बोलती, रोज़ तरह-तरह की साड़ियाँ पहन कर, कपड़ों का ख़याल आते ही उसे याद आया कि दर-अस्ल वो सब्ज़ फूलों वाले फ़्राक के बारे में सोच रही थी।

    उसने इरादा कर लिया कि जब वो पहले-पहल फ़्राक पहनेगी तो उस दिन नहाकर अच्छी तरह बाल बनाएगी, उनमें गुलाब का फूल लगाएगी, चेहरे पर सील खड़ी (जो उसके हाँ बतौर पाउडर के इस्ति’माल होती थी) मलेगी, और जूते को पालिश से ख़ूब चमका लेगी। उसी दिन वो अपने चार आने वाले बुंदे भी निकालेगी जिनमें ऊदी गोलियाँ लगी हुई हैं। पहले वो ख़ुद आईना देखकर इत्मीनान कर लेगी कि वो वाक़ई अच्छी भी मा’लूम होती है या नहीं।

    फिर वो जमीला के यहाँ जाएगी। उसके बाहर निकलते ही सारे देखने वाले हैरान रह जाएँगे। रास्ते में उसे ताहिर, अ’य्यूब और दीपचंद मिलेंगे। उनकी ये हिम्मत तो होगी कि उससे कुछ बोलें, मगर वो हमेशा से ज़ियादा तेज़ नज़रों से उसकी तरफ़ घूरने लगेंगे, आँखों से एक दूसरे की तरफ़ इशारे करेंगे, और उनमें से हर एक अपने कोट का कालर खींच-खींच कर और ख़्वाह-मख़ाह अंग्रेज़ी लफ़्ज़ बोल-बोल कर ये दिखाने की कोशिश करेगा कि वो दूसरों से ज़ियादा फ़ैशनेबुल और पढ़ा-लिखा है।

    मगर वो उनकी तरफ़ नज़र उठाकर भी देखेगी, उसकी रफ़्तार की हमवारी में किसी क़िस्म का फ़र्क़ पड़ेगा और वो बड़ी मतानत और वक़ार के साथ गुज़री चली जाएगी। ताहम उसका दिल बिल्लियों उछल रहा होगा, और उसकी आँखों के पपोटे फड़फड़ाने लगेंगे। वो बड़ी मुश्किल से अपनी मुस्कुराहट को रोक सकेगी। सक़्क़े की शबरातन भी उस वक़्त अपना टाट का पर्दा उठाए झाँक रही होगी। वो भी उसे देखकर बड़ी मुतअ’ज्जिब होगी। वो आहिस्ता से पुकारेगी, “डौली!”, और हाथ के इशारे से उसे बुलाएगी।

    मगर डौली उसकी तरफ़ देखकर ज़रा सा मुस्कुरा देगी, और आगे बढ़ती चली जाएगी। और जमीला तो बिल्कुल मबहूत रह जाएगी, वो डौली की तरफ़ फटी-फटी नज़रों से देखेगी, और जमीला तो बिल्कुल मबहूत रह जाएगी, वो डौली की तरफ़ फटी फटी नज़रों से देखेगी, और उसका निचला होंट लटका रह जाएगा। वो अपने दुपट्टे को ख़ूब फैलाकर अच्छी तरह नीचे खींच लेगी जैसे अपने तंग पाएँचों के पैजामे को छिपाने की कोशिश कर रही होगी। उसकी आँखों में चकाचौंद पैदा हो जाएगी, और वो मारे रश्क के थोड़ी देर तक कुछ बोल सकेगी।

    उसकी अम्माँ भी मुस्कुरा-मुस्कुरा कर उसकी तरफ़ देखेंगी, और फ़िक़रा चुस्त करने की फ़िक्र में कहेंगी, “उफ़्फ़ोह, आज तो बड़े ठाठ से हो, डौली!”

    फिर जमीला की भी ज़बान खुलेगी, “हाँ, डौली, आज तो बहुत ठाठ में हो!”

    वो उस दिन जमीला के साथ-साथ फिरेगी।

    अगर कहीं बावर्ची-ख़ाने वग़ैरह में उसके फ़्राक पर धब्बा लग गया तो? वो बस एक जगह जाकर पलंग पर बैठ जाएगी और थोड़ी ही देर में चली आएगी। ये कह कर, “अच्छा, अब तुम काम करोगी। मैं चलूँ।”

    वो जमीला को बताएगी, “इसे बो (Bow) कहते हैं।”

    वो बहुत से नए फ़ैशनों का ज़िक्र करेगी, और कई अंग्रेज़ी लफ़्ज़ बोलेगी जिन्हें सुन-सुनकर जमीला बहुत मरऊ’ब होगी, और शर्म के मारे उनका मतलब भी पूछेगी, बल्कि ये ज़ाहिर करने की कोशिश करेगी कि हाँ, वो सब समझ रही है... बिल्कुल जाहिल है जमीला भी। पाउडर को पौडर कहती है भला उर्दू तक तो आती नहीं उसे। और ये लोग बनते हैं बहुत वो कि हम बहुत बड़े ज़मींदार हैं। कपड़े तो ज़रा साफ़ नहीं रख सकती। बस सुब्ह पहने और शाम को मेले। उसके कपड़े कितने गंदे रहते हैं, और उनमें से पसीने की बू आती रहती है। बालों को तो बिल्कुल झाड़ रखती है।

    कभी ये भी तो नहीं करती कि ज़रा बैठ कर उनमें कंघी ही कर ले... शायद ई’द के दिन कुछ अच्छे कपड़े पहनती हो तो पहनती हो। अबकी ई’द को उसका जी चाहा था कि ज़रा जाकर देखे कि जमीला ने कैसे कपड़े पहने हैं, मगर वो इस ख़याल से रुक गई कि कहीं उसे नदीदा समझा जाए... उसके यहाँ जमीला के घर से सिवय्याँ आई थीं, और अगले दिन जब वो गई थी तो जमीला ने कहा था, “तुम कल आईं, हम तो तुम्हारा इंतिज़ार करते रहे। आतीं तो हम तुम्हारी दा’वत करते।”

    जमीला को ये भी नहीं मा’लूम कि ऐसे किसी के घर बे-बुलाए नहीं जाया करते... वो अब के क्रिसमस पर ज़रूर जमीला की दा’वत करेगी, और अंग्रेज़ी में रुक़आ’ लिखेगी जिसे तर्जुमे की किताब में से नक़्ल किया जा सकता है। रुक़आ’ देखकर जमीला कुछ समझ सकेगी और पूछेगी, “क्या है ये?”

    तब वो उसे मतलब समझाएगी। मगर जमीला कहीं बाहर तो निकलती नहीं... तो क्या है? वो ख़ुद जमीला के अब्बा से कहेगी कि वो उसे जाने दें। उसके कहने से वो इजाज़त दे देंगे। फिर जमीला आएगी रात को बुर्क़ा में लिपटी-लिपटाई, सिमटती हुई। वो उसे कुर्सी पर बिठाएगी।

    जमीला को मेज़ पर बैठ कर खाना अ’जब मा’लूम होगा और वो कुछ सटपटा सी जाएगी। जब जमीला पुलाव को हाथ से खाना शुरू’ करेगी तो वो जल्दी से उसकी तरफ़ चमचा बढ़ाएगी, “लो, लो, चमचे से खाओ।”

    जमीला बड़ी शर्मिंदा होगी, और इधर-उधर देखने लगेगी। वो जमीला को फिल्मों के क़िस्से, स्कूल के खेलों का हाल और मेमसाहब की बातें सुनाएगी जो उसे परियों के मुल्क की दास्तानें मा’लूम होंगी जहाँ की सैर का वो ख़याल तक नहीं कर सकती। ख़ुसूसन ये सुनकर उसे बड़ी हैरत होगी कि फ़िल्म दिखाने से पहले सिनेमा में अँधेरा कर दिया जाता है... मेज़ पर केक देखकर जमीला दिल में तअ’ज्जुब कर रही होगी कि ये क्या चीज़ है?

    आख़िर वो ख़ुद ही जमीला की तरफ़ केक बढ़ाते हुए कहेगी, “लो, केक लो... ये केक है। अंग्रेज़ी होता है ये। इसे अंडों से बनाते हैं।”

    वो ये भी पूछ लेगी, “तुमने चॉकलेट खाई है, जमीला? अंग्रेज़ी मिठाई होती है वो... इत्ती बड़ी-बड़ी तख़्तियाँ सी होती हैं। बड़ी मज़े-दार होती है। हमें तो मेमसाहब बाँटा करती हैं।”

    वो उसे ये भी सुनाएगी कि रेल में लड़कियाँ कितना हँसती हैं, गाती हैं, मज़ाक़ करती हैं, और कैसा-कैसा लुत्फ़ रहता है। जमीला ललचा-ललचा कर रह जाएगी, और कुछ खिसियानी सी हँसी हँसने लगेगी... वो जमीला को ये बात बताए या बताए कि स्टेशन पर एक लड़का...

    एक मुट्ठी रेत आकर उसके चेहरे पर इस बुरी तरह गिरा कि उसकी आँखें और मुँह किरकिराने लगे। हवा बहुत तेज़ हो गई थी, और दरख़्त दीवाना-वार हिल रहे थे। आसमान गर्द से बिल्कुल अट गया था, और ख़ाली खेतों में दूर-दूर तक बगूलों ने उठने और फिर गिरने का सिलसिला बाँध रखा था गोया उन्होंने एक दूसरे से शर्त बद रखी थी। बरमे की तरह चक्कर बनाते हुए ऊपर चढ़ने के बा-वजूद उनके नाच को किसी क़दर दिलचस्पी से देखा जा सकता था, मगर नीचे गिरने में उनकी सस्ती, थहराव, नीम-रज़ामंदी और हिचकिचाहट ना-क़ाबिल-ए-बर्दाश्त थी। बाज़ी दफ़्अ’ तो वो ऐसे मुअ’ल्लक़ हो जाते थे गोया उन्होंने बिल्कुल हिम्मत हार दी है और अब बिल्कुल आगे बढ़ेंगे।

    उनकी काहिली देख-देखकर डौली अपने आपसे तंग हुई जा रही थी, और उसका जी चाह रहा था कि शीशे पर मुक्का मारे या कोई ऐसी ही वहशियाना हरकत करे जिससे कम से कम ये तो मा’लूम हो कि उसके अंदर ज़िंदगी है। खेत बिल्कुल साफ़ पड़े थे, सिर्फ़ कहीं-कहीं खूँटियाँ दिखाई देती थीं। बा’ज़ जगह ख़ाली खेतों के पार थोड़ी सी गर्द-आलूद हरियाली भी ज़मीन के क़रीब-क़रीब बिछी हुई नज़र आती थी, ख़ुश्क और तर का ये मेल गंजी चाँद की तरह ऐसा घिनावना था कि डौली को कुछ ऐसा मा’लूम होता था जैसे ये खेत उसके पेट में से उठकर हल्क़ में अड़ गए हैं और उसे क़ै सी रही है।

    सड़क के दरख़्त उसकी बाईं आँख का निशाना बाँध कर तीर की तरह उड़ते हुए आते थे जैसे उसके दिमाग़ को तोड़ कर पार हो जाएँगे, मगर जब वो क़रीब पहुँचते थे तो जल्दी से बच कर निकल जाते थे। डौली इस पर बिल्कुल तैयार थी कि वो उसका सर फोड़ दें, मगर उसके लिए ये पुर-फ़रेब मज़ाक़ बहुत तकलीफ़-दह था। उसका सर दर्द से फटा जा रहा था। और आँखों में पानी भर-भर आता था। उसकी आँखों के डले जल रहे थे, और पलक झपकाने से बजाए तस्कीन के उल्टी चुभन होती थी।

    पीछे बैठने वाले चीख़-चीख़ कर बे-मअ’नी बहसें कर रहे थे, और इतने लोग एक साथ मिलकर बोल रहे थे कि लारी मीनार-ए-बाबुल बन गई थी। एक आदमी अपनी आवाज़ दूसरे से बुलंद करने की कोशिश कर रहा था, “अरे जिन्नाह, जिन्नाह... ने तो वो किया जो...”

    चंद आदमी “किसान... किसान...”, कह कर अपनी बात शुरू’ करने का मौक़ा’ ढूँढ रहे थे, मगर दूसरे आदमी उनकी बात काट कर ख़ुद भी “किसान... किसान” कहना शुरू’ कर देते थे।

    डौली हज़ार कोशिश कर रही थी कि उस तरफ़ से कान बंद कर ले, मगर फिर भी कोई कोई लफ़्ज़ ज़रूर आकर उसके मग़्ज़ में ढेले की तरह लगता था। इंजन ने अलग गौं-गौं, गौं-गौं मचा रखी थी जिसकी धुन पर

    चक्कर खाते-खाते उसका सर बिल्कुल मफ़लूज हो गया था और गिरा पड़ रहा था... उससे पलक तो झपकाई जाती थी, मगर उसके पपोटे अब डलों के काँटों के आ’दी हो चुके थे। उसने हर-चे बादाबाद कह कर अपनी आँखों को नीम-बाज़ छोड़ दिया, और बिल्कुल बे-हरकत हो गई।

    आँखों का खुला हुआ हिस्सा पानी से ढक गया जिसकी चिपक ने पलकों को नीचे खींच लिया और उसकी आँखें आख़िर बंद हो गईं... नींद में होने के बा-वजूद वो इंजन की भिनभिनाहट साफ़ सुन रही थी, मगर वो उसके सोने में मुख़िल होने के बजाए उसे लोरी दे रही थी और दूसरी मुदाख़िलतों से बचा रही थी। वो महसूस कर रही थी कि वो बहुत तेज़ी से आगे बढ़ती चली जा रही है मगर इससे ज़ियादा उसे ज़मान-ओ-मकान का कोई शऊ’र था। वो अपना जिस्म तक खो बैठी थी। वो किसी लतीफ़ शय में भी तब्दील हुई थी, बल्कि महज़ एक शनाख़्त, सिर्फ़ एक ख़याल, “में” बाक़ी रह गई थी।

    उसके चारों तरफ़ एक भूरी तारीकी थी जिसमें कभी-कभी फीकी सी सफ़ेदी के धब्बे दिखाई दे जाते थे। ज़ियादा से ज़ियादा वो ये कह सकती थी कि वो इंजन की भिनभिनाहट के अंदर सफ़र कर रही है। सिर्फ़ एक दफ़्अ’ उसे सर के बाल और पेशानी का थोड़ा सा हिस्सा नज़र आया था जिसे उसने पहचान लिया था कि आइरीन का है, मगर वो एक झलक के बा’द ही ग़ाइब हो गया था, और अँधेरे की रवानी फिर उसी तरह जारी हो गई थी।

    लारी के एक धचके से उसकी आँख खुली। लारी एक गाँव के पास से गुज़र रही थी, सड़क के एक तरफ़ झोंपड़ी के सामने एक औ’रत कुट्टी काट रही थी, और दूसरी तरफ़ काई से ढका हुआ एक तालाब था जिसमें तीन चार भैंसें तैर रही थीं और सर उठा-उठा कर लारी की तरफ़ देखने लगी थीं। बच्चे अपना खेल छोड़कर खड़े हो गए थे, और इंतिज़ार कर रहे थे कि लारी आगे बढ़े तो अपने गले से हॉर्न बजाते हुए उसके पीछे भागें। डौली का दर्द तो अब अच्छा हो गया था, मगर सर भारी था और आँखें नींद की वज्ह से अच्छी तरह खुल रही थीं। इसके इ’लावा उसे कुछ ज़ुकाम सा भी हो गया था जिसकी वज्ह से उसे ये मा’लूम हो रहा था कि जैसे उसका सर तो बिल्कुल बे-हिस हो गया है और इसके बजाए ठोढ़ी किसी गहरी सोच में ग़र्क़ है। उसने गर्दन अकड़ा कर अँगड़ाई ली, और सड़क के नज़ारों में दिलचस्पी लेने की कोशिश करने लगी ताकि उसकी गिरानी कुछ दूर हो जाए।

    गाँव से थोड़ी दूर आगे एक बच्चा रोता हुआ जा रहा था जो लारी को देखकर चुप हो गया, और उसने नंगी टाँगों पर से अपने कुर्ते का दामन समेट कर एक हाथ में ऊपर उठा लिया, और लारी की तरफ़ देखने लगा। एक बैलगाड़ी में एक औ’रत बैठी थी जिसने अपना ज़र्द दुपट्टा दाँतों में दबा रखा था, और जिसकी नाक में सोने की कील चमक रही थी। मगर डौली को उसके पीले-पीले दाँत बिल्कुल पसंद आए, और वो लारी के लैम्पों की तरफ़ देखने लगी। लैम्प तो कुछ ऐसी मा’लूम हो रहे थे जैसे लारी से जुड़े हुए ही नहीं हैं, वो तो गोया हवा में मुअ’ल्लक़ थी और एक तअ’ज्जुब-ख़ेज़ हम-आहंगी के साथ लारी के आगे-आगे भाग रहे थे... मगर इन चीज़ों के साथ वो अपनी मस्नूई’ दिलचस्पी को ज़ियादा देर तक क़ाएम रख सकी और उसे यक़ीन हो गया कि अपना दिल बहलाने के लिए उसे अपने अंदर ही कोई चीज़ तलाश करनी पड़ेगी।

    कई यादों और वाक़िओं’ को रद्द कर देने के बा’द उसे ख़याल आया कि सिर्फ़ “ग़ज़ल-अल-ग़ज़लात” ही से उसकी कार-बरारी हो सकती है जिससे उसका तआ’रुफ़ बुर्नुस ने कराया था। एक रात वो बाइबल लिए हुए उसके पास आई थी और लजाते हुए नीची आवाज़ में उससे कहा था, “तुमने ये देखा है, डौली?”

    उसने “ग़ज़ल-अल-ग़ज़लात” का एक सफ़्हा खोल कर उसके सामने रख दिया था और अपने आप सीधी बैठ कर मुज़्तरिब अंदाज़ में दाँतों से नाख़ून काटने लगी थी और जब डौली को भी उसमें बहुत मज़ा आया तो वो अपनी दरियाफ़्त की कामयाबी पर बहुत मसरूर हुई थी। उन दोनों ने पूरी “ग़ज़ल-अल-ग़ज़लात” को कई दफ़्अ’ साथ बैठ कर पढ़ा था और डौली ने अकेले में भी, यहाँ तक कि उसे कई मज़े-दार हिस्से याद हो गए थे। और उसके कितने ही वीरान और आज़ुर्दा लम्हों में रंगीनी का सामान बन चुके थे... उस दिन कि जब उसे पहली बारी एहसास हुआ था कि वो लड़का उसकी तरफ़ देखता हुआ चलता है, वो रात को पलंग पर लेटी हुई देर तक उन हिस्सों को याद करती रही थी।

    उसने अपनी रानें ख़ूब भींच ली थीं, बाहें तकिए के दोनों तरफ़ फैलाकर उल्टी लेट गई थी, और छातियों को पलंग से लगाकर सीने की पूरी क़ुव्वत से दबाया था जिसकी हल्की सी कसक में उसे इंतिहाई लुत्फ़ मिला था... उन टुकड़ों को याद करने से पहले उसने हर तरफ़ सर घुमाकर अच्छी तरह इत्मीनान कर लिया कि कहीं लारी में कोई उसे देख तो नहीं रहा, जैसे वो अपने बदन का कोई हिस्सा उ’र्यां करने वाली हो। इसके बा’द उसने आहिस्ता-आहिस्ता एक-एक दो-दो जुमले दोहराने शुरू’ कर दिए ताकि वो हर एक से पूरी तरह फ़ैज़-याब हो सके... हमारी एक छोटी बहन है। अभी उसकी छातियाँ नहीं उठीं... तेरी दोनों छातियाँ दो आहू बच्चे हैं। तेरी नाफ़ गोल पियाला है... वो अपने मुँह के चूमों से मुझे चूमे... मेरा महबूब जो रात-भर मेरी छातियों के दरमियान पड़ा रहता है... मेरे महबूब की आवाज़ है जो खटखटाता है और कहता है, मेरे लिए दरवाज़ा खोलो, मेरी महबूबा! मेरी प्यारी! मेरी कबूतरी! देख तू ख़ूब-रू है।

    देख तू ख़ूबसूरत है... उसका बायाँ हाथ मेरे सर के नीचे है और उसका दाहिना हाथ मुझे गले से लगाता है... इस पर डौली को याद आया कि क्रिसमस की छुट्टियों में जब एक दिन फ़्रेडी कहानियाँ सुनता-सुनता उसके पास सो गया था तो वो रात-भर उसकी गर्दन में हाथ डाले रहा था। वो ख़ूब गर्म रही थी, और उसे बड़ी गहरी नींद आई थी। इसलिए उसने इरादा कर लिया कि अब के छुट्टियों भर फ़्रेडी को अपने पास सुलाएगी... ऐसे ही जब एक दफ़्अ’ बुर्नुस उसके साथ सोई थी तब भी वो नींद में बिल्कुल बे-होश हो गई थी। अगले दिन सुब्ह को ई’साईयों का सालाना जुलूस निकलने वाला था जिसके लिए वो दिन-भर काम करती रही थीं। वो थक कर चूर हो गई थीं, और उन्हें फिर सुब्ह-सवेरे उठना था।

    बुर्नुस का तो इतना बुरा हाल था कि उससे हिला भी जाता था। इसलिए वो अपने कमरे को गई बल्कि डौली के साथ ही सो रही। थोड़ी ही देर में वो अपने हाल से बिल्कुल ग़ाफ़िल हो गईं। मगर फिर जाने ये कैसे हुआ कि उनकी बाहें एक दूसरे के गले में पड़ गईं और टाँगें उलझ गईं... सुब्ह को वो तक़रीबन एक साथ जागीं, और उन्हें अपनी कैफ़ियत देखकर तअ’ज्जुब भी हुआ। मगर उनके सीने मिल रहे थे, और उनके गुलगुलेपन और नर्माहट में ऐसी ख़ामोश हँसी थी कि वो पंद्रह मिनट तक वैसे ही लेटी एक दूसरे की तरफ़ देखती रहीं। उठ जाने के बा’द भी वो शर्मा और लजा नहीं रही थीं बल्कि ऐसी मुतमइन थीं जैसे कोई ग़ैर-मा’मूली बात हुई ही हो... वो दोनों जुलूस के साथ गई थीं।

    जुलूस कितना लंबा था। आगे-आगे बड़े पादरी साहिब थे, उनके बा’द मर्द, फिर औ’रतें, फिर लड़कियाँ, और आख़िर में फिर मर्द। वो और बुर्नुस दोनों एक लाईन में चल रही थीं, और गाने के बीच में चुपके-चुपके बातें करती जाती थीं। सब एक साथ मिलकर गा रहे थे, और गाने के टुकड़े लंबी-लंबी सलाख़ों की तरह मा’लूम होते थे जिनके दो-दो तीन-तीन के मजमूए’ एक दूसरे से बिल्कुल अ’लैहिदा हों और मशीन की तरह उठ और गिर रहे हों... हाथों में मेख़ें गाड़ कर सूली पे चढ़ा दिया। यीशू ने तेरे वास्ते अपना लहू बहा दिया... और वो भजन भी गाया गया था, यीशू यीशू मन में आजा, हमको बचा जा, पाक बना जा... ये गाना उसे अच्छा तो मा’लूम होता है लेकिन ख़ुद गाते हुए बड़ी शर्म आती है।

    अब ये कोई अच्छी बात है कि सड़कों पर सबके सामने गाते फिरो? उसी दिन एक बैठी हुई नाक वाला लड़का जो हाकी स्टिक लिए साईकल पर जा रहा था, जुलूस को देखकर उतर पड़ा था और उसकी तरफ़ शरीर और नदीदी आँखों से देखने लगा था। ख़ुसूसन जब वो अपने पान में सने हुए छोटे छोटे दाँत निकाल कर हँसा था तो उसे इतनी नफ़रत हुई थी कि उसने दुपट्टा सर और चेहरे पर खिसका लिया था और बहुत देर तक ख़ामोश नीची नज़रें किए हुए चलती रही थी... हाँ, ऐमी जुलूस के दिन बड़ी ख़ुश रहती है, उसे अपने कपड़े और ख़ूबसूरती दिखाने का मौक़ा’ मिल जाता है ना! गाते हुए हर तरफ़ नज़रें दौड़ाती रहती है कि लोग उसे देख रहे हैं या नहीं... उसके अमीर होने की वज्ह से लड़कियाँ भी उसकी चापलूसी करती हैं। यहाँ तक कि वो मिशन का विलियम सिंह भी।

    आज भी कि जब वो रेल में लड़कियों की निगरानी के लिए भेजा गया था, वो ऐमी की ख़ुशामद में लगा रहा था और दिन को तो वो गाड़ी से क़दम बाहर निकालने पर भी टोक देता था। मगर ऐमी सारे स्टेशन पर गश्त लगाती फिर रही थी और वो उसे एक लफ़्ज़ कह रहा था... और अब तो वो अपने आपको क़ाबिल भी समझने लगी है। आइरीन ने उसे बताया था कि ऐमी को अब के फ़र्स्ट आने की उम्मीद है। कहीं आई हो अब तक हमेशा डौली फ़र्स्ट आती रही है और इस दफ़्अ’ तो मिस जौनसन ने उसे अपने घर बुलाकर पढ़ाया था... बहुत ही अच्छी हैं मिस जोनसन। उनका जवान हँसमुख चेहरा, और उस पर सुनहरी ऐ’नक, कितना ख़ूबसूरत मा’लूम होता है और उस पर तो वो बहुत ही मेहरबान हैं। सबसे ज़ियादा नंबर उसी को देती हैं और उससे बड़े नर्म लहजे में बात करती हैं।

    इम्तिहान के क़रीब बेचारियों ने ख़ुद उसे बुलाकर पढ़ाया था और उससे कह दिया था कि अगली क्लास में वो शुरू’ साल से ही उनके पास पढ़ने आया करे। एक दिन जब वो उनके हाँ बैठी सवाल निकाल रही थी वो उसके पीछे खड़ी हुई थीं और उसके सर पर हाथ फेरती और बाल ठीक करती रही थीं... जब वो गुलाबी साड़ी पहनती हैं तो ऐसी ख़ूबसूरत मा’लूम होती हैं कि उसका जी चाहता है हल्के से उनका गाल चूम ले। कितनी मर्तबा उसके दिल में ये ख़्वाहिश पैदा हुई है कि उनसे कह दे कि वो उनसे कितनी मुहब्बत करती है और चाहती है कि उन्हें अपने सीने से लगा ले और अपने बाज़ुओं में लिए रहे, मगर वो हर बार शर्मा शर्माकर रह गई है और उनसे अपने दिल का राज़ नहीं कह सकी है, एक मर्तबा वो उसे अपने साथ सिनेमा भी ले गई थीं। वहाँ से वो कई गाने भी याद कर लाई थी... अब कैसे छुपोगे सलोने साजना अब कैसे छुपोगे... उनके साथ तो वो चली भी गई, वर्ना वैसे तो वो सिनेमा के लिए तरसती ही रहती है।

    मगर क्या करे, स्कूल वाले कमबख़्त ज़रा नहीं निकलने देते। ऐमी से “अछूत कन्या” और “पुकार” की तारी’फ़ सुनकर उसका कैसा-कैसा जी लोटा है कि किसी तरह उसे भी देखने को मिल जाएँ, मगर बस तड़प-तड़प कर ही रह गई... अब के जब वो छुट्टियों के बा’द लौटेगी तो ज़रूर कोशिश करेगी कि सिनेमा जाना मिल जाए... वो मिस जोनसन ही से कहेगी कि वो सिनेमा देखना चाहती है... या यूँ भी हो सकता है कि किसी दिन वो क्लास में बैठी पढ़ रही हो, और यकायक उसके ख़ाला-ज़ाद भाई जोज़ेफ़ सामने खड़े हों। वो नीला सूट पहने हुए होंगे, और उनके सुनहरी ऐ’नक लगी होगी। लड़कियाँ भौंचक्का हो-हो कर उनकी तरफ़ देखेंगी, और ये बूझने की कोशिश करेंगी कि वो किससे मिलने आए हैं।

    जब वो उसे बुलाएँगे तो सब लड़कियाँ उसे रश्क की निगाहों से देखेंगी और फिर पढ़ने से उनका दिल उचाट हो जाएगा। जब तक वो खड़े रहेंगे वो कन-अँखियों से बाहर देखती रहेंगी। वो उससे कहेंगे, “डौली, मैं अभी-अभी रहा हूँ। आजकल यहाँ “अछूत कन्या” हो रहा है। हमारे साथ चलो शाम को सिनेमा।”

    वो ख़ुशी-ख़ुशी तैयार हो जाएगी और शाम को अपनी गुलाबी साड़ी पहन कर उनके साथ सिनेमा जाएगी... जोज़ेफ़ भाई के सुनहरे बाल कैसे चमकते हैं और उनके गोरे रंग पर नीला सूट तो बहुत ही सजेगा... वो सिनेमा हाल में बैठी उनसे हँस-हँसकर बातें कर रही होगी और इतनी ख़ुश होगी कि उ’म्र-भर में कभी भी हुई होगी। वो देखेगी कि वो गाना... बन की चिड़िया बन के बन-बन बोलूँ रे... जैसे ऐमी ने गा-गा कर सारे स्कूल में फैला दिया है, किस मौक़े’ पर गाया जाता है। घंटी बजेगी, और हाल में अँधेरा छा जाएगा, और फिर पर्दे पर...

    सामने वो सफ़ेद धर्मशाला नज़र रही थी जिसके मअ’नी थे कि अब घर क़रीब गया है। इस इ’ल्म के तक़रीबन साथ ही साथ उसे वो नया मकान ज़मीन में से उभरता हुआ दिखाई दिया जो अड्डे पर बन रहा था और अगले झटके में वो पूरा ज़मीन के बाहर निकल आया। उस मकान की नमी और ठंडक अब भी बाक़ी थी, मगर अब उसमें कुछ तमकनत, ख़ुद-इख़्तियारी और तफ़क्कुर का सुकूत और संजीदगी गई थी। अब वो ख़्वाह-मख़ाह गुन-गुन कर रहा था, बल्कि उसने अपने राज़ों को छत के अँधेरे में खींच लिया था।

    ये अँधेरा अब पहले से ज़ियादा गहरा और फैला हुआ था और उसमें से छत बहुत ऊँची नज़र रही थी। कोने में खड़े हो कर ख़ुद सनसनाने लगने के बजाए अब डौली का दिल चाह रहा था कि वो अपना सर इतना ऊँचा कर दे कि अँधेरा उसे ढक ले... डौली ने अपना ऊपर का जिस्म उठाकर लारी के बाहर फेंक दिया जो शीशे में से सूरज की किरन की तरह आसानी से निकल गया और डौली की तरफ़ मुँह करके हवा में खड़ा हो गया। वो गोया निस्फ़ मुजस्समा था, हालाँकि उसके रंग में संगमरमर की सी दुरुश्ती थी, बल्कि उसके रंग ज़िंदगी के रंग थे।

    ये मुजस्समा बिल्कुल उ’र्यां था। ये चेहरा था तो डौली का ही, मगर वो किसी क़दर लंबा हो गया था, ख़ुसूसन उसकी कनपटियों के पास के हिस्से अब इतने उभरे हुए रहे थे। चेहरे के ख़ुतूत में अब वो हैजानी बे-तरतीबी थी, बल्कि वो एक नूरानी सोच के साथ मियाना-वार ऊपर से नीचे रहे थे। पेशानी भी कुशादा थी, और उसकी मतीन लंबी पलकें नीचे झुकी हुई थीं। उसकी आँखें भरे भरे, साफ़-शफ़्फ़ाफ़ सीने पर से फिसलती हुई, इंतिहाई सुकून के साथ दो सुडौल शानों के दरमियान छातियों को देख रही थीं जो बे-दाग़, नर्म गुलाबी रंग की, मौज़ूँ, मुतनासिब, बे-झिजक और मुतमइन थीं। वो आरज़ूओं और तमन्नाओं की गुदगुदी से पुर-जोश थीं, बल्कि इन सबसे ऊँची हो कर महज़ अपनी ख़ुश-कामी और सैराबी के एहसास ही से लुत्फ़-अंदोज़ हो रही थीं। इस मुजस्समे के अंदाज़ में आराम, क़रार, जमालियाती ग़ौर-ओ-फ़िक्र, इससे मुंतिज सरशारी और उ’बूदियत थी गोया वो इस हक़ीक़त के बारे में सोच रहा हो कि, “पुख़्तगी ही सब कुछ है।”

    अब और ज़ियादा निशानियाँ आनी शुरू’ हो गई थीं जो उसे बता रही थीं कि घर नज़दीक आता जा रहा है। इस थोड़े से वक़्त को गुज़ारने के लिए वो ये अंदाज़ा लगाने लगी कि उसके यहाँ क्या हो रहा होगा... शायद मामा गबरून का साया पहने झाड़ू दे रही हों... शायद पापा बज़ार से लकड़ियाँ लेकर आए हों और मामा उन पर बिगड़ रही हों। मुम्किन है कि वो भीगी हुई आवाज़ में आंटी की ख़ुश-नसीबी का तज़्किरा कर रही हों और उसके मुक़ाबले में अपनी... मगर डौली को ये गवारा हुआ कि इन चंद बाक़ी-मांदा लम्हों को जो बेहतर तरीक़े से भी गुज़ारे जा सकते थे, ख़यालात की इस रविश से मुकद्दर कर ले। चुनाँचे उसने नई रेल चढ़ाई... फ़्रेडी अपनी नीला निक्कर और हरी क़मीस पहने गेंद से खेलता फिर रहा होगा। वो उसे देखते ही चिल्लाकर भागेगा और उसकी टाँगों से लिपट जाएगा... पापा अभी दौरे से वापिस आए होंगे और साईकल रखकर जूता खोल रहे होंगे। वो पूछेंगे, “अरे कौन है?”

    फ़्रेडी दौड़ कर उन्हें बताएगा, “डौली बुआ गईं, पापा!”

    वो कहेंगे, “तो गई बेटी डौली?”

    और वो जवाब देगी, “जी हाँ पापा...”

    मामा बावर्ची-ख़ाने में उसके लिए कोई अच्छी सी चीज़ तैयार कर रही होंगी। आवाज़ सुनकर वो बाहर आएँगी और कहेंगी, “आ गईं लो डौली भी। मैं तो कह ही रही थी कि अब आती होगी। तुम्हारे पापा कह रहे थे कि नहीं, शाम तक आएगी। कई दिन से याद कर रहा था फ़्रेडी तुम्हें। रोज़ पूछ लेता था कि अब डौली बुआ के आने में कै दिन रह गए... और आज तो सुब्ह ही से तैयार फिर रहा था...”

    मामा सफ़ेद साड़ी पहने होंगी। वो उसे बताएँगी कि उसके पापा उसके लिए एक छोटी सी सफ़ेद बिल्ली लाए हैं जिसकी उसे बड़ी ख़्वाहिश थी।

    सोचने को तो वो सोचे चली जा रही थी, मगर वैसे उसका दिल धकड़-पकड़ कर रहा था और उसे अच्छी तरह मा’लूम था कि वो अपने आपको धोका दे रही है। फिर भी वो इस आख़िरी तिनके से चिपटी हुई थी और इसे छोड़ना चाहती थी। हर नई झोंपड़ी या कुँआ देखकर उसके दिल पर चरका सा लगता था और उसके गले की रगें चट-चट बोल रही थीं। वो ये ख़याल करना चाहती थी कि अभी तो घर बहुत दूर है, मगर उसे इसके ख़िलाफ़ ना-क़ाबिल-ए-तरदीद शहादतें मिले चली जा रही थीं। वो उम्मीद कर रही थी कि लारी मजनूनाना जोश में क़स्बे के पास से निकली चली जाएगी और पर कभी रुकेगी।

    या क़स्बा ख़ुद पीछे हटता चला जाएगा और लारी उसे कभी पकड़ सकेगी। मगर ये इ’ल्म उसकी जान निकाले ले रहा था कि लारी का चलना तक़दीर की तरह अटल और ना-गुज़ीर है। वो हर क़िस्म के नताइज से बे-नियाज़, रुकावटों को तोड़ती, कंकरों को कुचलती, भागी चली जाएगी जैसे कोई ख़ुद-सर देव, और उसे क़स्बे के अड्डे पर ला खड़ा करेगी जिसके सामने वही गड्ढों वाली कंकर की सड़क बिछी है जो उसके घर की तरफ़ जाती है। लारी अपनी भिनभिनाहट पर ख़ुद ही मस्त हो-हो कर तेज़ रफ़्तारी से चली जा रही थी और उसे डौली के जज़्बात की मुतलक़ पर्वा थी। डौली बेचारी तो दरख़्तों से भी मदद माँग सकती थी, वो तो पहले ही उसके दुश्मन बने हुए थे और उसे घर के क़रीब लाए जा रहे थे... आख़िर उसने एक गहरा सा साँस लिया और पानी के रेले के सामने अपना सर झुका दिया।

    अड्डे के क़रीब पहुँच कर जब लारी की रफ़्तार कुछ कम हुई तो उसकी उम्मीद फिर ज़रा जागी कि शायद लारी इसी तरह रेंगती ही रहे, वर्ना कम से कम थोड़ा सा वक़्त तो और लग जाए। मगर जल्द ही क्लच एक दुरुश्त कड़ड़ के साथ बोला, और इंजन रुक गया। डौली के कानों में ख़ामोशी भुरभुराने लगी और उसे ये मा’लूम हुआ कि जैसे दुनिया डूबी जा रही है। सब लोग लारी में से उतर रहे थे, मगर वो हिली तक नहीं। आख़िर जब एक लड़के ने आकर उससे पूछा कि “अजी सामान चलेगा?”

    तो उसने ठुँसे हुए गले में से बड़ी कोशिशों के बा’द “हाँ” निकाला, और फिर हाथ बढ़ाकर इस तरह दरवाज़ा खोला जैसे अब कोई चारा रहा हो और आख़िर-कार उसने अपने आपको गलूटीन के तख़्ते पर चढ़ने के लिए तैयार कर लिया हो।

    लड़का लारी की छत पर से सामान उतरवा रहा था जिसके इंतिज़ार में वो सड़क के इस पार सबसे अलग खड़ी हो गई। उसका जिस्म इतना भारी हो गया था कि टाँगें अच्छी तरह बोझ बर्दाश्त कर रही थीं। उसे इस ख़याल से बेचैनी हो रही थी कि लोग उसकी तरफ़ देख रहे हैं। दर-हक़ीक़त डौली को इस वक़्त इसकी ज़रा भी पर्वा नहीं थी कि वो क्या कर रहे हैं क्या नहीं कर रहे। वो तो बस ये चाहती थी कि उसे उनकी हरकतों का एहसास तक रहे। इसलिए वो उफ़ुक़ की तरफ़ देखने लगी। हवा अब बिल्कुल मद्धम हो गई थी और दरख़्तों की डालियाँ अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जबरन-ओ-क़हरन सरसराए जा रही थीं।

    ज़मीन का ग़ुबार उठ-उठकर आसमान पर फैल गया था और उसने आसमान को गदला बना दिया था। गर्द की इस अ’रीज चादर पर सूरज की हैसियत एक किसी क़दर रौशन दाग़ से ज़ियादा रही थी और इससे बाहर निकल आने की कोशिशों में वो उल्टा और धूल में अटा जा रहा था। चंद बंजर खेतों पर से धूप ढल चुकी थी और वो फटी हुई आँखों से ऐसे तक रहे थे जैसे किसी मो’तमिद शख़्स ने उनके साथ दग़ा की हो और अब उनमें गिले और शिकवे की भी ख़्वाहिश बाक़ी रही हो...

    स्रोत:

    जज़ीरे (Pg. 81)

    • लेखक: मोहम्मद हसन असकरी
      • प्रकाशक: महबूबुल मताबे, दिल्ली

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