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छिनाल

MORE BYइक़बाल ख़ुर्शीद

    मानसून की पहली बारिश वाले रोज़ उसका जिस्म दर्द से ऐंठ रहा था, और वो चारपाई पर पड़ी रहना चाहती थी।

    सुब्ह से आस्मान पर बादल थे। वो बे-ख़याली में उस चील को तक रही थी, जो हवा में तैरती मालूम होती। कुछ देर बाद चील ग़ोता लगा कर मन्ज़र से ग़ायब हो गई। वो यूँही लेटी आस्मान को तकती रही। माहवारी शुरू हुए दूसरा दिन था। बावर्ची-ख़ाने में बर्तन पड़े थे। दोपहर का खाना पकाते हुए आपा ने उसे पुकारा था।

    उसकी माँ चचा के घर गई हुई थी। वो कह गई थी कि शाम में बारिश होगी, बेहतर है, वो कपड़े धो कर सुखा ले, मगर मसर्रत यूँही लेटी रही। जिस्म में तैरती अलकस का एहसास इत्मीनान-बख़्श था, और मिर्चों के अचार का ज़ायक़ा अब तक ज़बान पर था। हल्की-हल्की हवा चलने लगी। गली में लगे नीम के पेड़ की शाख़ें धीरे-धीरे हिल रही थीं।

    उसे गली में क़दमों की आवाज़ सुनाई दी। बहुत से लड़के आपस में हँसी-मज़ाक़ करते रैली की सूरत जा रहे थे। वो तख़य्युल के पर्दे पर उन्हें हँसते-मुस्कुराते, एक दूसरे की कमर में हाथ डाले, झंडे थामे गली से गुज़रते देख सकती थी। वो मुत्मइन थे, और ख़्वाब देख रहे थे।

    कुछ देर बाद उनकी आवाज़ें भी मसर्रत को सुनाई देने लगीं। एक लड़के ने किसी बात पर बहन की गाली दी थी। सबने क़हक़हा लगाया।

    उसे नासिर याद गया। एक मुस्कुराहट होंठों पर ज़ाहिर हुई थी।

    कभी-कभार जब वो उसे नज़र-अन्दाज़ करने की कोशिश करती, तो वो उसे यही गाली दिया करता था। और जवाब में वो हँसने लगती थी। और जब कभी वो उसे नज़र-अन्दाज़ करने की कोशिश करता या चन्द रोज़ तक मिलने आता, और जब आता, तो चाय पीते हुए अजनबियों सा बर्ताव करता, तो वो भी उसे यही गाली दिया करती थी।

    तब वो उठकर उसे बालों से पकड़ लेता था। वो उसकी कमर को अपने बाज़ू में जकड़ लेता। वो ख़ुशी से खिल​िखलाती, और कहती जाती, “छोड़, अम्माँ जाएगी! छोड़!”

    वो उसका बोसा लेता। फिर दोनों आहिस्तगी से अलग होते। उनकी आँखों में समन्दर होता। उस कमरे में जाने की ख़्वाहिश पनपने लगती, जहाँ ज़मीन पर एक बिस्तर बिछा था, जिसकी पुरानी चादर उन्हें भली लगती थी, मगर वो मुनासिब वक़्त तक ठहर जाते।

    उन्हें ज़ियादा इन्तिज़ार नहीं करना पड़ता। मुनासिब वक़्त जल्द जाता। शाम ढले, जब आपा कोचिंग सेंटर चली जाती, और अम्माँ सिलाई के आर्डर पहुँचाने गई होती, और ख़्वाहिश शदीद होती, तो नासिर ख़ामोशी से ज़ीना चढ़ कर, किराए-दारों की नज़रों में आए बग़ैर मकान की पहली मंज़िल पर जाता। मसर्रत सारे काम छोड़ कर उसके साथ कमरे में चली जाती।

    कमरा, जो कुछ देर में तपने लगता।

    “चुप कर भड़वे!”, गली में किसी ने कहा था। एक कबूतर बालकोनी की दीवार पर आकर बैठ गया।

    मसर्रत के मुँह में अब भी अचार का ज़ाइक़ा था। लड़के शोर मचाते हुए आगे बढ़ गए थे। गली के कोने पर डिपो था। वो जानती थी कि नासिर वहीं होगा। डिपो पर मौजूद लड़के भी रैली में शामिल हो जाएँगे। आज जलसा था। बड़े मैदान में, जहाँ कुछ रोज़ क़ब्ल मस्जिद पर क़ब्ज़ा हुआ था, ख़ुसूसी ख़िताब का एहतिमाम किया गया था।

    वो ज़ेहन के पर्दे पर नासिर को जुलूस के साथ जाते हुए देख सकती थी। उसने माथे पर पड़े बालों को झटके से हटाया होगा, और अपने दोस्त आदिल के कान में सरगोशी की होगी, और फिर दोनों ने क़हक़हा लगाया होगा।

    उस रोज़ भी, जब आस्मान साफ़ था, और उनका पहली बार सामना हुआ था, लड़के ने ऐसा ही किया था।

    तब वो एक रजिस्टर सीने पर रखे कॉलेज से लौट रही थी, और नासिर हाथ पर रूमाल बाँधे गली के कोने पर खड़ा था। उसके पीछे वीडियो-कैसेट की दुकान थी। अमिताभ बच्चन और रेखा की किसी फ़िल्म का पोस्टर लगा था। लड़के ने ज़न्ग-आलूद खम्बे से टेक लगा रखा था। वो उसे देखकर सीधा हो गया। दोनों की नज़रें मिलीं। वो घबराने वाली लड़की नहीं थी, इसलिए जब नासिर ने अपने दोस्त के कान में कुछ कहा, और दोनों ने एक फ़ुहश क़हक़हा लगाया, तो वो ज़रा नहीं दबी, बल्कि मुड़ कर उसे देखने लगी।

    उसे यक़ीन है कि उस रोज़ वो मुस्कुराई थी। वो इसरार भी करती है, मगर नासिर बार-बार यही कहता कि उस सह-पहर उसका चेहरा सपाट था, और उसकी बड़ी-बड़ी आँखें चैलेंज करती थीं। और उन्ही आँखों ने उसे ख़ुद से बाँध लिया था। शाम जब वो खिड़की में गई, तो वही लड़का नीम के पेड़ से टेक लगाए उकड़ूँ बैठा था। वो उसे देखकर खड़ा हो गया।

    इस बार उसने किसी के कान में कुछ नहीं कहा।

    “उसकी घड़ी यहाँ रह गई है।”

    आपा ने खिड़की में कुछ रखा था। वो जानती थी कि उस कमरे में, जो वो अपनी छोटी बहन के साथ बाँटती है, और जहाँ हब्स भरा रहता है, मसर्रत इन तज्‍रबात से गुज़र चुकी है, जिनका तसव्वुर उसकी हम-जोलियों पर लर्ज़ा तारी कर सकता है। मगर वो चुप रहती थी, क्योंकि वो ख़ुद भी कुछ बरस उधर उसी कमरे में इसी तज्‍रबे से गुज़री थी। और तब उसकी छोटी बहन चुप रही थी।

    उसे उस लड़के का चेहरा याद था। उसके गाल पर ज़ख़्म का निशान था और पिस्तौल उसके नेफ़े में उड़सा रहता था। वो मक्कू दादा का भान्जा था। गुज़श्ता साल होने वाले लिसानी फ़सादात में वो क़त्ल कर दिया गया। उसके माथे पर गोली लगी थी। वो उसे याद करके कभी-कभार रोया करती थी। उसने कई बार मसर्रत से कहा कि वो नासिर को सियासत से बाज़ रखने की कोशिश करे, और मसर्रत ने ये कोशिश की भी, एक से ज़ाइद बार, इन्तिहाई नाज़ुक लम्हात में, अपनी क़सम देते हुए। और हर बार नासिर ने वादा किया, मगर वो इसे निभा नहीं सका।

    ये अब मुम्किन नहीं था।

    गली में अब ख़ामोशी थी। बादल गहरे हो गए। शायद बारिश होने वाली थी। किसी ने कचरा जलाया था। मसर्रत की कमर का दर्द बढ़ गया। उसने उठ कर चूल्हे पर केतली चढ़ाई, और एक अंडा उबालने को रख दिया। आपा ने बर्तन धो दिए थे। अब वो कमरे में लेटी डाइजेस्ट पढ़ रही थी।

    “शुक्‍रिया सिस्टर!”, उसने आवाज़ लगाई। आवाज़ में शोख़ी थी। आपा ने कोई जवाब नहीं दिया। बस कुछ देर बाद बोली, “घड़ी उठा लेना!”

    किराया-दार अपनी बीवी से लड़ रहा था। उसके बच्चे की रोने की आवाज़ रही थी। मसर्रत ने हवा-दान से नीचे झाँका। किसी ने मछली तली थी। ज़ीने का दरवाज़ा खुलने की आवाज़ सुनाई दी। उसकी माँ ख़दीजा बी-बी कपड़ों के थैले उठाए रही थी। वो बूढ़ी हो गई थी। उसने थैले चारपाई पर फेंके और धप से बैठ गई।

    “ख़ुदा ख़ैर करे, बाज़ार में गोली चली है!”, औरत ने कहा।

    “अच्छा।”, मसर्रत ने उसे बिना देखे जवाब दिया। अंडा उबल चुका था।

    “फिर झगड़े शुरू हो जाएँगे, तेरे अब्बा के टाइम भी ऐसा ही हुआ था।”, औरत बादलों को देखते हुए थैले खोलने लगी।

    “कौन सा अब्बा?”, उसने तल्ख़ी से कहा।

    “कमबख़्त, बकती रहती है हर वक़्त!”, औरत झुँझला गई, और बेटी को कोसने लगी।

    औरत अपने शौहर को नहीं भूली थी। दूसरी शादी के बाद वो फ़क़त तीन-चार बार उनसे मिलने आया। ख़र्चा भी सिर्फ़ एक-डेढ़ साल भिजवाया। अब कभी-कभार उसका ख़त जाता था या फिर ईद पर वो मनी-आर्डर कर देता। और औरत के लिए ये बहुत था। घर की एक दीवार पर उसके शौहर की ब्लैक एण्ड व्हाईट तस्वीर आवेज़ाँ थी। नए मिलने वालों को वो यही कहती कि मिस्बाह और मसर्रत के अब्बा का इन्तिक़ाल हो चुका है, गुजराँवाला में उनकी क़ब्‍र है।

    “तूने कपड़े नहीं धोए न?”, औरत ने ग़ुस्से से कहा।

    “मैं मर रही हूँ, और तुम्हें कपड़ों की पड़ी है।”, उसने तेज़ी से कहा, गो लहजे में ग़ुस्सा नहीं था।

    “अंडा खाओगी अम्माँ?”

    “नहीं, तू ही खा।”, औरत ने जवाब दिया। फिर चौंकी।

    “मगर अंडे तो कल ख़त्म हो गए थे।”

    लड़की हँसने लगी।

    कुछ देर बाद आस्मान सियाह हो गया, और बारिश शुरू हो गई। गली में बच्चे छींटें उड़ा रहे थे। बारिश के पानी में गटर का पानी भी शामिल हो गया था। आपा कमरे के दरवाज़े में खड़ी थी। मसर्रत ने चादर ख़ुद पर डाल ली। अम्माँ ने बावर्ची-ख़ाने से आवाज़ लगाई।

    “तू नहीं नहाएगी आज।”

    “पागल हो गई हो अम्माँ, इस हालत में।”

    औरत ने जवाब नहीं दिया। बारिश तेज़ हो गई।

    *

    जब बारिश आई, नासिर जेब में हाथ डाले, काँधा झुकाए कचरा कुंडी के पास खड़ा था।

    नासिर मेराज मिस्त्री का बेटा था, जो पाँच बरस क़ब्ल बीमारी के बाइस इस पेशे से किनारा-कश हो गया था। आख़िरी बार उसने उस कमरे का पलस्तर किया था, जहाँ नासिर की माँ अपनी बहू को लाना चाहती थी। मगर इससे पहले वो चाहती थी कि लड़का किसी काम धंदे पर लग जाए। मे'राज ने अब स्कूल के बाहर टॉफ़ी और बिस्कुटों का ठिया लगा लिया था। वो ग़ौस-पाक का मानने वाला था, जिनकी बरकत से कारो-बार चल निकला। वो अक्सर सोचा करता था कि राज-मिस्त्री के काम में उसने यूँही इतने बरस बर्बाद किए। उसने नासिर से बहुतेरा कहा कि धंदे में उसका हाथ बटाए, मगर लड़के को तो हीरो बन कर इलाक़े की तंग, बद-हाल गलियों में घूमने से फ़ुर्सत नहीं थी।

    जलसे के इन्तिज़ामात आख़िरी मर्हले में थे। शामियाना तो सुब्ह ही लगा दिया गया था। अब दरियाँ भी बिछ गईं। दरियों पर मुहल्ले के बूढ़े और फ़ारिग़ लोग बैठे गप्पें लड़ा रहे थे। कुछ औरतें भी गई थीं। मक़ामी लीडर वास्कट पहने ग़ैर-ज़रूरी तौर पर मस्‍रूफ़ नज़र रहे थे। बच्चों ने सफ़ों में उधम मचा रखा था।

    और ऐसे में... बादल गरजे।

    मेंह बरसने लगा।

    नासिर का दोस्त आदिल फ़र्नीचर वाले के छपरे के नीचे चला गया, और वहाँ से उसे आवाज़ें देने लगा, मगर नासिर हाथ खोले भीगता रहा था। सड़क पर जल्द पानी खड़ा हो गया। बसें और मोटरसाईकिलें गुज़रने से कीचड़ उछलता। मैदान की दीवारों के साथ पड़ा कचरा बहता हुआ रहा था।

    आदिल की चीख़ पुकार से तंग आकर नासिर ने कहा, “ढक्कन, क्या लड़कियों की तरह चिल्ला रहा है। पहली बारिश है, आ... तू भी नहा ले।”

    आदिल ने जवाबन उसे गाली दी। फ़र्नीचर वाला हँसने लगा... उसने आदिल को देखकर रान खुजाई। दुकान में बुरादा फैला था।

    मैदान में हल-चल थी। शामियाना टपकने लगा। एक शख़्स स्टेज पर चढ़ा गया, और माईक आन कर दिया। स्पीकर से अजीब-ओ-ग़रीब आवाज़ें बुलन्द होने लगीं। दो लड़के स्टेज के बिल्कुल साथ एम्पलीफ़ायर लिए बैठे थे। वो आवाज़ को टोन करने की कोशिश में बे-तरह हँसे जाते, और नक़्लें उतारते। एक अधेड़ उम्‍र शख़्स ने आगे बढ़कर एक लड़के के मुँह पर चाँटा रसीद कर दिया। लड़के की टोपी गिर गई। उसने मुँह से गुटका थूका।

    उसी लम्हा पी.एम.टी. में ज़ोरदार धमाका हुआ, और चिंगारियाँ निकलीं। नासिर भागता हुआ छपरे के नीचे चला गया।

    “क्यूँ बे, फट गई?”, आदिल हँसा।

    “जलसे के तो 'लाम' से लग गए।”, नासिर ने बालों को झटका दिया, और एक जिन्सी इशारा किया। उसने आदिल से चिपकने की कोशिश की, तो उसने धक्के से परे कर दिया।

    “अपनी छिनाल से जा कर चिपक।”

    वो हँसने लगा।

    “नहीं। अभी तो उसे कपड़ा रहा है!”

    दोनों ने क़हक़हा लगाया। फ़र्नीचर वाले की ख़ारिश बढ़ गई। लोग उठकर जलसा-गाह से जाने लगे थे। एक मक़ामी 'ओह्दे-दार ने उन्हें रोकने की कोशिश की, मगर बारिश ने सब तलपट कर दिया।

    नासिर घर जाते-जाते मसर्रत की गली की तरफ़ मुड़ गया। दूर से एक लड़के ने सीटी बजा कर उसे मुतवज्जह करना चाहा, मगर उसने ध्यान नहीं दिया। उसके ज़ेहन में मसर्रत के हाथ थे। उसकी उँगलियाँ लंबी मगर मज़बूत थीं।

    मसर्रत उसकी ज़िन्दगी में आने वाली पहली लड़की नहीं थी, और इस बात का मसर्रत को भी इल्म था। मगर वो ख़्वाहिश-मंद थी कि वही उसकी ज़िन्दगी की आख़िरी लड़की साबित हो। यही ख़्वाहिश नासिर की भी थी, मगर ये कुछ दुश्वार था। वो अपनी बिरादरी से बाहर शादी नहीं कर सकता था। कुछ बरस क़ब्ल उसके मामूँ-ज़ाद ने ये हरकत की थी। हर शख़्स ने, यहाँ तक कि उसके माँ बाप ने भी उसे बे-दख़्ल करके उससे क़त-ए-तअल्लुक़ कर लिया। अगर नासिर ऐसा करता, तो उसका नतीजा भी यही निकलता। मगर वो अभी इस बारे में नहीं सोच रहा था।

    वो खुले हुए गटर और निकर पहने बच्चों से बचता-बचाता मसर्रत के मकान के सामने पहुँचा। अब कुछ अँधेरा हो गया था। बारिश धीमी पड़ गई। गली में खुलने वाली बावर्ची-ख़ानों की खिड़कियों से चाय और पकौड़ों की ख़ुश्बू रही थी। क़रीबी सड़क से एम्बूलेंस गुज़री।

    उसने एक मिनट के वक़्फ़े से मसर्रत की छत पर कंकरियाँ फेंकीं।

    कोई जवाब नहीं आया। वो यूँही खड़ा रहा। कुछ पलों बाद आपा खिड़की में दिखाई दी। उसने सर हिला कर सलाम किया।

    “वो तो सोई हुई है।,” लड़की ने कहा, और घबरा गई। लड़का उससे छोटा था।

    नासिर सर हिलाता हुआ आगे बढ़ गया।

    *

    वो पूरी शाम पड़ी सोती रही।

    उठी, तो आस-पास अँधेरा था। तीन घंटे से बिजली नहीं थी। आपा ने एक मोम-बत्ती जला दी। अब भी हल्की-हल्की बारिश हो रही थी। मसर्रत को शदीद भूक महसूस हुई। उठी, तो बिस्तर गीला था। उसे ख़ुद से उलझन हो रही थी। वो कमरे से बाहर निकल कर खुले हिस्से में गई। ठण्डी हवा जिस्म से टकराई। साथ वाले कमरे में हल्की रौशनी थी। ख़दीजा बी-बी जा-ए-नमाज़ बिछाए बैठी थी।

    “कुछ खा ले। कब से भूकी पड़ी है।”, औरत ने आवाज़ लगाई।

    वो रसोई में चली गई। खाने के बाद उसने चाय चढ़ा दी।

    “तुम लोगी क्या?”, उसने आपा से पूछा।

    कोई जवाब नहीं आया। शायद आपा की आँख लग गई थी। वो चाय का कप लिए बालकोनी में जा खड़ी हुई। गली में सन्नाटा था। किराये-दार की बीवी किसी से बातें कर रही थी। दूर कहीं किसी ने जेनरेटर चलाने की कोशिश की। चन्द कोशिशों के बाद नाकामी की चुप सुनाई देने लगी।

    मोटरसाइकल के इंजन की आवाज़ क़रीब आती जा रही थी। मसर्रत इस आवाज़ से शनासा थी। उसे ख़बर थी कि मोटर साइकल उसके घर के नीचे आकर रुक जाएगी।

    कुछ लम्हों बाद फ़ैज़ान ज़ीना फलाँगते हुए ऊपर गया। वो उसका चचा-ज़ाद था। लड़के को अँधेरे से मानूस होने में कुछ दिक़्क़त हुई

    “अस्सालामु-अलैकुम”, वो हँसी।

    लड़का इधर-उधर देख रहा था।

    “ओ भाई इधर।”, उसने आवाज़ लगाई। लड़के ने उसे देख लिया।

    लड़के ने मुँह बनाया।

    “और यहाँ खड़ी क्या कर रही हो, उस कुत्ते का इन्तिज़ार !”

    उसने क़हक़हा लगाया, “ओह, मेरा फ़ैज़ी बड़े ग़ुस्से में है।”

    लड़का उस से चार बरस छोटा था। वो साथ पले-बढ़े थे। जब मसर्रत के बाप ने शादी की, और गुजराँवाला जा बसा, तब वो नौ-मौलूद थी। बाक़ी ख़ानदान ने आदमी से क़त-ए-तअल्लुक़ कर लिया, और अपनी तमाम-तर मुहब्बत उसकी पहली बीवी और दोनों बेटियों के लिए वक़्फ़ कर दी। पहले-पहल ये मुहब्बत बड़ी तवाना और रौशन थी, मगर इस में वक़्त के साथ कमी आना भी फ़ित्‍री था। जब ख़दीजा बी-बी के देवर की शादी हो गई, और एक और औरत घर गई, तब पहली दराड़ नुमूदार हुई।

    और फिर देवर के हाँ बच्चों की पैदाइश के बाद दूसरी।

    और सास के इन्तिक़ाल के बाद तीसरी।

    गो ख़दीजा बी-बी ने एक मुलाज़िमा का रूप धार लिया था, और उसकी बेटियाँ ही घर सँभाला करती थीं, मगर अब इस ख़लीज को पाटना मुम्किन था। ससुर ख़ानदानी आदमी था। वो मेरठ को याद किया करता था। उसने उसे क़रीब ही एक मकान ख़रीद दिया। पहली मन्ज़िल मा-बेटियों का मस्कन बन गई, नीचे किराये-दार गए। ख़दीजा बी-बी समझदार थी, मगर उससे ज़ियादा ज़हीन उसकी बड़ी बेटी मिस्बाह थी। सुसर ने अपनी पैंशन का एक हिस्सा बड़ी बहू के लिए मुख़्तस कर दिया था, और उसके देवर ने भी इस मुआमले में कभी ग़फ़लत नहीं बरती, मगर मिस्बाह ने मैट्रिक के फ़ौरन बाद सिर्फ़ ट्यूशन पढ़ानी शुरू कर दी, बल्कि सिलाई के आर्डर भी लेने लगी। इस सरगर्मी से, जो माँ-बेटी तवातुर से अन्जाम देने लगी थीं, जो थोड़ा बहुत मआशी इत्मीनान हासिल हुआ, उससे ज़ियादा फ़ायदा मसर्रत ने उठाया।

    “कौन, मेरा बच्चा आया है क्या?”, ख़दीजा बी-बी लालटैन लिए बाहर निकली, और लड़के के सर पर हाथ रखा।

    लड़के ने जेब से लिफ़ाफ़ा निकाला।

    “अब्बू ने दिया है।”

    औरत उसकी बलाएँ लेने लगी। वो जाने लगा, तो रोक लिया।

    “खीर बनाई है, खाता जा।”

    वो रसोई में चली गई। फ़ैज़ान मुँह दूसरी तरफ़ किए खड़ा था। मसर्रत ने उसे देख के वही इत्मीनान महसूस किया, जो एक औरत उस बच्चे को देखकर महसूस करती है, जो नाराज़ हो, और मनाए जाने का मुन्तज़िर हो। वो उसे जानती थी, और उससे मुहब्बत करती थी। उन्होंने एक ही माहौल में एक से खेल खेले थे। बच्चों वाले खेल। वो खेल भी, जो एक दूसरे को बे-लिबास देखने की ख़्वाहिश के गिर्द घूमते थे। वो खेल फ़ैज़ान के लिए सनसनी-ख़ेज़ तो थे, मगर उसे अंगेख़्त करते थे कि वो उस वक़्त ख़ासा कम-उम्‍र था, मगर मसर्रत का मुआमला दीगर था। वो दुनिया की हर लड़की के मानिन्द वक़्त से पहले बड़ी हो गई थी।

    “चलो ग़ुस्सा थूक दो।”, उसने कहा।

    लड़के ने होंट सिकोड़ लिए। फिर मुस्कुराया।

    “वो तुम्हें छोड़ देगा। आज नहीं तो कल।”

    मसर्रत डर गई। ये उसका बद-तरीन अन्देशा था। उसने जल्द अपना खोया हुआ एतिमाद बहाल कर लिया। बादल फट गए थे। हल्की-हल्की चाँदनी थी।

    “तुम जलते हो उससे।”

    इस जुमले से लड़के पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। फ़ैज़ान अब वो बच्चा नहीं था, जो चारपाई के नीचे छुप कर उसकी क़मीस उठाता, और उसके सपाट सीने पर होंट रख दिया करता था।

    वो अपने भारी काँधे हिलाता हुआ एतिमाद से उसकी सिम्त बढ़ा। आफ़्टर शेव लोशन की लपटें मसर्रत के नथों से टकराईं। पहले तो वो अपनी जगह खड़ी रही, मगर जब वो बहुत क़रीब गया, तो घबरा गई, और एक क़दम पीछे हट गई। वो नहाई नहीं थी, और बदन से बू उठ रही थी।

    “तुम जानती हो, वो तुम्हें छोड़ देगा।”, फ़ैज़ान ने आहिस्तगी से कहा था।

    इस बार ये आफ़्टर-शेव लोशन की महक नहीं थी, जिसने उसे परेशान किया, बल्कि ये उसका मुस्तहकम लहजा था। वो सच कह रहा था। वो भी अन्दर से डरी हुई थी।

    ख़दीजा बी-बी प्याला लिए मन्ज़र में दाख़िल हुई। फ़ैज़ान चारपाई पर बैठा ख़ीर खाता रहा। वो पाँव ज़ोर-ज़ोर से हिला रहा था। उसका सीना फूला हुआ था, और सर-बुलन्द था। और सर पर मच्छर उड़ रहे थे।

    मसर्रत को वो अजनबी लगा।

    लाईट गई थी। सेहन में ज़र्द सी रौशनी फैल गई। लड़के ने उसकी सिम्त नहीं देखा, और चाबी घुमाता हुआ ज़ीना उतर गया। मसर्रत बिस्तर पर जा गिरी। गली में मोटर-साइकल की आवाज़ सुनाई दी। उसके कानों में फ़ैज़ान के जुमले गूँज रहे थे।

    वो जानती थी कि नासिर उसे छोड़ सकता है। इसका इदराक उसे तब भी था, जब वो पहली बार हम-बिस्तर हुए थे, और तब भी, जब वो आख़िरी बार मुदग़म हुए। ये अन्देशा ख़्वाबों में उसका तआक़ुब करता था।

    तुम जानती हो, वो तुम्हें छोड़ देगा।

    ये जुमला उसके ज़ेहन पर दस्तक देता रहा। फिर उस दस्तक की जगह बारिश की आवाज़ ने ले ली। वो दुबारा सो गई थी।

    *

    ख़दीजा बी-बी ने गुज़श्ता रोज़ जिस गोली की आवाज़ सुनी थी, उसका सबब वो लिसानी इख़्तिलाफ़ात नहीं थे, जिन्होंने उस ज़माने में 'इलाक़े को फ़सादात का गढ़ बना दिया था, जब उसके बिस्तर की एक तरफ़ उसका शौहर सोया करता था। और जब वो ख़ुद से मुत्मईन थी, और जब उसे अपनी दोनों बेटियाँ बोझ नहीं लगती थीं।

    उन चन्द गोलियों के पीछे तो कल के जलसे से जुड़ा जोश और सनसनी थी। बारिश की वज्ह से शहर के कई इलाक़ों में क़ाइद का ख़िताब मुल्तवी हो गया था। उस पर शदीद मायूसी पाई जाती थी। लोग चाय के ढाबों, होटलों और नाई की दुकानों पर बैठे उस वाक़िए' पर तब्सिरे कर रहे थे। वो कुछ नाम लेते हुए अपनी आवाज़ नीची कर लेते, और कभी-कभार फ़क़त इशारों में बात करते। फिर अचानक हँसने लगते, और एक दूसरे को फ़ुहश लतीफ़े सुनाते।

    मसर्रत सब्ज़ी लेने निकली थी। आज भी बारिश की पेश-गोई थी। सड़क पर कीचड़ और रात की बारिश का पानी खड़ा था। उसे ख़बर थी कि कहाँ-कहाँ पानी ने गड्ढों और खुले हुए गटरों को ढाँप रखा है। कुछ दूर एक रिक्शे का पहिया ऐसे ही गटर में फँस गया था। बहुत से बच्चे रिक्शे के गिर्द जमा हो कर नारे लगाने लगे। मकानों के दरवाज़े खुले हुए थे। औरतों ने दीवारों पर कपड़े सुखाने के लिए डाल दिए थे।

    समोसों की इश्तिहा-अंगेज़ महक से उसके नथुने भर गए। मसर्रत को लगा कि समोसे वाला उसे कन-अँखियों से देख रहा है। फिर सोचा, शायद उसे वहम हुआ था। उसने दो समोसे लिए और वहीं खाने शुरू कर दिए। समोसा बहुत गर्म था। लुक़्मा लेते ही उसका मुँह जल गया। वो मुँह खोल कर हाय-हाय करती और साथ हँसती जाती।

    समोसे वाला भी हँसने लगा। उसकी आँखों में लगाव था। यही लगाव मसर्रत ने औरों की आँखों में भी देखा था। मगर अब उसे अपने लिए चमकती आँखें बुरी नहीं लगती थीं। वो ला-उबाली और पुर-एतिमाद थी, और जानती थी कि कहाँ, कब और कैसे फ़ासला क़ायम करना है।

    वो समोसा खाते हुए आगे बढ़ गई। उसे दूर, गली के कोने पर नासिर की शबीह दिखाई दी। लड़के की कमर उसकी तरफ़ थी। फिर वो एक सिम्त मुड़ा, और ग़ायब हो गया।

    उसे ख़बर थी कि नासिर लकी हेयर ड्रेसर के हाँ बैठा होगा कि वो अक्सर वहीं बैठता था।

    “वापसी में देखती हूँ।”, उसने ख़ुद से कहा, और इत्मीनान से सब्ज़ी वाले की सिम्त चल दी।

    *

    सैलून उस वक़्त ख़ाली था।

    बारिश, शेविंग ​क्रीम, सस्ते परफ़्यूम और गीले तौलियों की मिली-जुली महक ने सैलून में एक बीमार सी कैफ़ियत पैदा कर दी थी। मक्खियों की तादाद कुछ बढ़ गई थी। नासिर शेव बनवाने बैठ गया। नाई ब्‍रश उसके चेहरे पर मारने लगा। वाश-बेसिन में किसी ने थूका हुआ था। लड़के को कराहत महसूस हुई। उसने नाई को गाली दी।

    नाई खी-खी करने लगा। उसने उस्तरे का ब्लेड बदला। जब नासिर ने उसे उस्तरा डीटौल में धोने को कहा, तो उसने मुँह बनाया।

    “बॉस, कालर कितनी गंदी हो गई है। लगता है, कपड़े धोने की मशीन ख़राब है।”

    नाई ने आँख मारी। नासिर ने क़हक़हा लगाया। नाई उसकी बिरादरी का था। वो बचपन से एक दूसरे को जानते थे। एक मक्खी उसके गाल पर बैठ गई। नाई ने हाथ हिला कर मक्खी हटाई। वो उड़ी, तो पैरों में लुथड़ी क्‍रीम के बाइस फ़ौरन नीचे चली गई।

    “तेरी भाभी बीमार है न।”, नासिर ने कहा। वो सोच रहा था कि जल्द उससे मिले। उसने हिसाब लगाया कि चार रोज़ में वो नहा लेगी। अब बाहर बादल गए थे। एक मोटर साइकल पानी उड़ाती गुज़री। बच्चे बारिश की उम्मीद पर बाहर निकल आए थे।

    “बीमार हैं, अल्लाह ख़ैर, क्या बीमार हो गई?”, नाई ने अदाकारी की।

    “साले उसे ख़ून रहा है।”, नासिर ने कहा, “ठीक हो जाएगी, तो इंजेक्शन लगाऊँगा!”, उसने अपनी रान पर हाथ फेरा।

    नाई ने उस्तरा चलाना शुरू कर दिया था। लड़के को जलन महसूस हुई। दो आदमी सैलून की बैरूनी दीवार पर पोस्टर लगा रहे थे।

    “तूने पैसे नहीं दिए अब तक?”, एक आदमी ने, जिसने कुछ बरस पहले मक्कू दादा के भाँजे पर गोली चलाई थी, नाई को देखकर दुरुश्ती से कहा। उसे देख कर नासिर भी चुप हो गया।

    “दे दूँ भाई, क्यों नहीं दूँगा। परसों देता हूँ न।”, नाई डरा हुआ था। आदमियों के जाने के बाद वो गालियाँ देने लगा।

    “साले हराम-ज़ादे। ऊपर कुछ नहीं भेजते, सारा ख़ुद खा जाते हैं।”

    कुछ देर वो दोनों लम्हों के एहतिराम में ख़ामोश रहे। शेव मुकम्मल हो चुकी थी। नासिर ने ख़ुद को आईने में देखा, तो उसे मेराज मिस्त्री दिखाई दिया। नाई ने आफ़्टर-शेव लगा कर क्‍रीम उसके चेहरे पर मल दी।

    “लो, दूल्हा बना दिया। शादी का वक़्त गया है बॉस।”

    नाई बग़ल खुजा रहा था। नासिर ने ठोढ़ी पर हाथ फेरा

    “कहो तो भाभी की अम्मा से बात करूँ।”

    नासिर ने नाई के चूतड़ों पर हाथ मारा।

    “साले, उस छिनाल से थोड़ी शादी करूँगा!”

    बादल ज़ोर से गरजे थे। एक लम्हे के लिए दोनों डर गए। दुकान के पास से एक साया गुज़रा था। बारिश इतनी तेज़ थी कि सैलून की बैरूनी दीवार पर लगाया हुआ पोस्टर लम्हों में गीला हो कर फट गया।

    साया दूर जाते-जाते ग़ायब हो गया।

    मसर्रत को अन्दाज़ा नहीं होता था कि उसका चेहरा आँसुओं से भीगा है या बारिश के पानी से।

    कानों में एक ही लफ़्ज़ गूँज रहा था, छिनाल!

    *

    वो हफ़्ते का दिन था। तेज़धूप निकल आई थी। कीचड़ से भाप उड़ती महसूस होती।

    वो चारपाई पर औंधी लेटी थी।

    तकिया आँसुओं से गीला हो चुका था। ख़दीजा बी-बी उसे कोसते-कोसते थक गई। दो दिन से वो हर शय से ला-तअल्लुक़ हो गई थी। तो कपड़े बदले थे, ही मुँह धोया था, ही कुछ खाया था। आपा ने पूछने की कोशिश की, मगर वो कुछ नहीं बोली। आपा समझ गई, और चुप हो गई।

    कल दोपहर छत पर दो कंकरियाँ आन कर गिरीं, मगर वो बे-सुध लेटी रही। यही वाक़िआ' शाम में हुआ। आख़िर नासिर ने दरवाज़ा खटखटा दिया। गो अम्माँ घर पर नहीं थीं, मगर आम दिनों के बर-अक्स वो ज़ीना चढ़ कर ऊपर नहीं आया। वो मसर्रत ​को पूछ रहा था।

    “मेरा पूछे, तो कह देना कि बीमार है।”, मसर्रत ने आपा से पहले ही कह दिया था, और यही जुमला उसने दोहरा दिया। ख़ामोशी में तनाव था। नासिर चुप-चाप चला गया।

    अगले रोज़ वो फिर आया। उस रोज़ फुवार पड़ रही थी। और ख़दीजा बी-बी भी घर पर थी। इस बार आपा ने बालकोनी से जवाब दिया।

    “क्या हो गया है उसे?”, लड़के के लहजे में तल्ख़ी थी। उसे अपनी बे-इज़्ज़ती का एहसास हो रहा था। ख़दीजा बी-बी को भी आवाज़ें सुनाई दीं। वो बहुत कुछ जानती थी, मगर ख़ामोश थी। उसने लड़कियों के कमरे में झाँका। मसर्रत माथे पर हाथ रखे लेटी रही। कुछ देर बाद लाईट चली गई।

    शाम पड़ी, तो ख़दीजा बी-बी बाहर चली गई। उसे मसर्रत के लिए तावीज़ लेना था।

    उसे छत पर कंकर गिरने की आवाज़ आई थी। कुछ देर बाद एक और कंकर गिरा। वो सीधी हो गई। आँसू पोंछ लिए। कुछ देर बाद दरवाज़ा बजा।

    “कह देना, मैं बीमार हूँ।”, ये कहते हुए वो उठकर बैठ गई। अचानक ज़ीने पर भारी क़दमों की आवाज़ सुनाई दी। आपा को देखकर ऊपर आता नासिर ज़ीने के दर्मियान ही में रुक गया। कमरे में बैठी मसर्रत को उसका सर दिखाई दे रहा था। गली में किसी ने फिर कचरा जलाया था। धुआँ सेहन तक रहा था

    “कहाँ है वो?”

    बे-शक वो ग़ुस्से में था। उसने हाथ बालों में फेरा। मसर्रत ने उसकी कलाई में वो चेन देख ली, जो गुज़िश्ता माह उसने नासिर को तोहफ़े में दी थी। लड़के की आवाज़ उस तक पहुँच रही थी।

    “वो...”

    आपा तज़ब्ज़ुब का शिकार थी।

    “बीमार है मसर्रत।”

    “साली कौन से बीमार हो गई?”, वो गुस्ताख़ी से हँसा, “मैं इलाज कर देता हूँ।”

    उसके तेवर देखकर आपा के चेहरे का रंग बदल गया, और मसर्रत ने ये देख लिया।

    लड़का कुछ क़दम्चे फलाँग कर ऊपर गया था। वो अपना उज़्व खुजाने लगा।

    “उससे कहो, इंजेक्शन लेकर आया हूँ, लगवा ले।”

    वो ज़ोर से हँसा। आपा घबरा कर पीछे हट गई।

    मसर्रत चारपाई से उतरी और तेज़ी से ज़ीने तक गई।

    “अपनी माँ को लगा ये इंजेक्शन भड़वे। उस छिनाल को भी यही बीमारी है।”

    नासिर पर जैसे बिजली गिरी थी।

    कुछ रू-नुमा हुआ था। वो पलकें झपकने लगा। उसे मसर्रत की जगह एक बिल्ली दिखाई दी, जो हमला करने वाली थी। और वो बिल्लियों से डरता था।

    लड़का पीछे हट गया, और ख़ामोशी से ज़ीना उतर गया।

    *

    वो नहा कर निकली थी कि फ़ैज़ान गया।

    सूरज डूब गया था, और हवा चलने लगी थी। नीम के पेड़ पर परिन्दे उतर आए थे।

    “अम्माँ और आपा बाहर गए हैं। आते होंगे।”

    लड़के ने कुछ नहीं कहा। उसकी पेशानी ऊपर को उठी हुई थी। शर्ट नई थी, और बाल चमक रहे थे। वो उसे नज़र-अन्दाज़ कर रहा था।

    वो बावर्ची-ख़ाने में चाय बनाने चली गई। उसके बाल खुले हुए थे, और क़मीस गीली थी। वो पलटी, तो लड़का कन-अँखियों से उसे देख रहा था। वो जवान और मज़्बूत था, और उसका रंग साफ़ था।

    अचानक... एक आवाज़ हुई...

    कहीं खटका हुआ था...

    क्या छत पर कंकर आकर गिरा था।

    मसर्रत अन्दर से दहल गई। कंकर से जुड़ी यादें ज़ेहन में दर आईं। उसकी धड़कन तेज़ हो गई। कोई शय उसे खींच रही थी।

    फिर एक और कंकर आकर गिरा... शायद हक़ीक़त की दुनिया में... या शायद उस ज़मीन पर जहाँ ख़्वाहिश का जनम होता है।

    एकदम उसके अन्दर बहुत से कंकर बरसने लगे...

    उबाल गया था। उसने चूल्हा बंद किया। बावर्ची-ख़ाने से बाहर आकर कर फ़ैज़ान का हाथ पकड़ा, और उसे कमरे में ले गई।

    बोसा लेने के बाद जब उसने फ़ैज़ान का चेहरा देखा, तो वहाँ वही कमसिन बच्चा था, जो कभी उसकी क़मीस उठा कर उसके सपाट सीने पर होंट रख दिया करता था।

    वो ज़ोर से हँसी, और ऐसा आज चार दिन बाद हुआ था।

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